"पोस्टमैन इन द माउंटेन्स" रिश्तों के पहाड़ चढ़ता डाकिया / राकेश मित्तल

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"पोस्टमैन इन द माउंटेन्स" रिश्तों के पहाड़ चढ़ता डाकिया
प्रकाशन तिथि : 01 जून 2013


गत कुछ वर्षों में चीन के सिनेमा ने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। अनेक उभरते हुए निर्देशकों ने मानवीय संबंधों एवं आम जीवन से जुड़े विषयों पर सार्थक फिल्में बनाई हैं। वर्ष 1999 में प्रदर्शित हुओ जियांकी की फिल्म ‘पोस्टमैन इन द माउंटेन्स’ इसी श्रृंखला की एक बेहतरीन फिल्म है।

इस फिल्म की कहानी अत्यंत साधारण है, जिसे मात्र कुछ शब्दों में लिखा जा सकता है किंतु इसका प्रस्तुतिकरण इतना प्रभावी है कि इसे आसानी से विश्व की श्रेष्ठतम फिल्मों में शुमार किया जा सकता है। एक छोटी-सी कहानी में न्यूनतम संवादों के सहारे निर्देशक ने सिर्फ विजुअल्स के माध्यम से अपनी बात कहने का प्रयास किया है। कैमरामैन झाओ ली ने अपने कैमरे के साथ कमाल किया है।

हूनान प्रदेश के पहाड़ी इलाके में एक बूढ़ा डाकिया (तेंग रूझून) अपनी उम्र की ढलान पर है। वह पिछले कई वर्षों से उन पहाड़ी गांवों में पैदल डाक बांट रहा है। अपने गिरते स्वास्थ्य की वजह से वह अब इस काम को अपने युवा बेटे (ल्यू ये) के सुपुर्द करना चाहता है। बेटा कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाने के कारण पिता के एवज में पोस्टमैन का काम करने के लिए तैयार हो जाता है। वह एक बार पूरे इलाके का अकेले चक्कर लगाना चाहता है किंतु पिता इस यात्रा को साथ-साथ करने का आग्रह करते हैं। इसके बाद दोनों पिता-पुत्र 122 किलोमीटर की तीन दिवसीय यात्रा पर अपने पालतू कुत्ते के साथ निकल पड़ते हैं। वे खूबसूरत पहाड़ों, नदियों और जंगलों से गुजरती इस पैदल यात्रा में वे बीच में पड़ने वाले छोटे-छोटे गांवों में बेसब्री से इंतजार कर रहे लोगों को डाक बांटते हुए चलते हैं। एक डाकिये के रूप में यह पिता की अंतिम और पुत्र की पहली यात्रा है।

यह फिल्म पिता-पुत्र के रिश्तों की खूबसूरत कविता है। यात्रा के दौरान उन्हें एक-दूसरे को करीब से जानने का मौका मिलता है। पिता को अहसास होता है कि वह अपने जीवन में कार्य की व्यस्तताओं के कारण कितना कम समय अपने पुत्र को दे पाया। वहीं पिता के कार्य, व्यवहार और ग्रामीण जनों द्वारा उन्हें दिए गए आदर को देख पुत्र का मन पिता के प्रति अगाध श्रद्धा से भर उठता है। उसे पहली बार अहसास होता है कि उसके पिता कितना महान कार्य कर रहे हैं औेर लोगों में उनकी कितनी इज्जत है।

फिल्म कई बार फ्लैशबैक में जाती है, जहां हम दोनों के अतीत की घटनाओं से रूबरू होते हैं पुत्र का बचपन नितांत एकाकी व्यतीत हुआ है। उन दोनों के रिश्तों में सतह पर एक अजीब-सा परायापन हमेशा बना रहा है। जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ती है, पुत्र को अहसास होता है कि उसके पिता का कार्य कितना कठिन है। वे मात्र पोस्टमैन नहीं, बल्कि उस दुर्गम, एकाकी पहाड़ी समुदाय के एकमात्र सांस्कृतिक दूत हैं, जो बाहर की दुनिया से उन्हें जोड़े रखता है। धीरे-धीरे वह अपने पिता के इतने करीब हो जाता है कि उन्हें अपनी पीठ पर उठा लेता है, ताकि चलने व नदी पार करने में उन्हें कष्ट न हो। अंततः जब पहली बार वह उन्हें ‘पिता’ बहकर संबोधित करता है, तो पिता की आंखें छलछला उठती हैं और वे अपनी खुशी अपने पालतू कुत्ते के साथ बांटने लगते हैं। यह दृश्य अद्भुत बन पड़ा है।

तेंग रूझून और ल्यू ये ने पिता-पुत्र की भूमिका में कमाल कर दिया है। अपने स्वाभाविक और जीवंत अभिनय से उन्होंने फिल्म को अविस्मरणीय बना दिया है। यह फिल्म इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण है कि कम से कम शब्दों में केवल दृश्यों और रचनात्मकता के माध्यम से अपनी बात कैसे प्रभावी ढंग से कही जा सकती है।

इस फिल्म को देश-विदेश में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के गोल्डन रूस्टर पुरस्कार शामिल है। अच्छे सिनेमा के शौकीन दर्शकों को यह फिल्म अवश्य देखना चाहिए।