"बरान" प्रेम में भीगता अंतर्मन / राकेश मित्तल

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"बरान" प्रेम में भीगता अंतर्मन
प्रकाशन तिथि : 13 जुलाई 2013


‘बरान’ का अर्थ होता है बारिश। आसमान से गिरती पानी की बूंदें सूखी, बंजर धरती में जीवन का संचार कर देती हैं। रोजमर्रा की समस्याओं, तनावों और उलझनों से भरी इस जिंदगी में कुछ ऐसा भी है जो हमें जिलाए रखता है। ऐसी ही कोमल भावनाओं को अंकुरित करती है ईरान के मशहूर फिल्मकार माजिद मजीदी की फिल्म ‘बरान’। वर्ष 2001 में प्रदर्शित इस फिल्म को ढेरों पुरस्कार मिले हैं। माजिद मजीदी के बारे में जितना कहा जाए कम हंद अपनी हर फिल्म में वे जीवन की सूक्ष्मतम कोमलताओं को इतनी खूबसूरती से उभारते हैं कि दर्शक अंदर तक भीग जाता है।

‘बरान’ के पात्र अफगानिस्तान से ईरान में आकर काम कर रहे शरणार्थियों के बीच से उठाए गए हैं। ये शरणार्थी काम की तलाश में ईरान आते हैं। इन्हें तभी काम मिल सकता है जब इनके पास वैध आव्रजन वीसा कार्ड हो। जिनके पास कार्ड नहीं होता, वे चोरी छिपे काम करते हैं और अधिकारियों के आने पर इधर-उधर छिपते फिरते हैं। ऐसे ही वैध-अवैध कामगारों के साथ मेमार (मोहम्मद आमिर नाजी) एक बिल्डिंग में सुपरवाइजर हैं वह स्वभाव से झक्की है। वहीं पर उसके कामगारों में सत्रह वर्षीय लतीफ (हुसैन अवेदिनी) मजदूरों को चाय पिलाने और उनके लिए खाना बनाने का काम करता है।

एक दिन एक मजदूर घायल हो जाता है। काम करने लायक स्थिति न होने के कारण अगले दिन वह अपनी जगह अपने बेटे रहमत (जाहरा बहरामी) को काम करने भेज देता है। रहमत सिर्फ चौदह साल का है और बेहद नाजुक तथा कमजोर है। भारी-भरकम काम करना उसके लिए कठिन है। मेमार जब यह देखता है, तो रहमत को लतीफ की जगह चाय पिलाने का काम दे देता है और लतीफ को मजदूरी पर लगा देता है।

लतीफ, जो अब तक मजे की जिंदगी काट रहा था, इस परिवर्तन के कारण रहमत से बुरी तरह नाराज हो जाता है। वह रहमत को धमकियां देता है और किसी भी तरह से उसे नीचा दिखाने, उससे लड़ने या उसे भगाने की कोशिश करता रहता है। तभी एक दिन उसे पता चलता है कि रहमत लड़का नहीं, बल्कि लड़की है। इसके बाद लतीफ अचानक पूरी तरह बदल जाता है। उसके मन में रहमत के प्रति सहानुभूति और सुरक्षा का भाव उभरने लगता है। यहां तक कि जब एक बार पुलिस बिना कार्ड वाले मजदूरों को पकड़ने आती है, तो वह अपनी जान पर खेलकर रहमत को बचाता है और खुद गिरफ्तार हो जाता है। मेमार को उसकी जमानत देनी पड़ती है। इस घटना से नुकसान यह होता है कि अफगानिस्तान से आए मजदूरों की नौकरी चली जाती है, जिनमें रहमत भी शामिल है। रहमत वहां से चली जाती है।

लतीफ रहमत की अनुपस्व्थिति से बेचैन हो जाता है। वह अपनी बकाया मजदूरी लेकर नौकरी छोड़कर उसे ढूंढने निकल पड़ता है। कई जगह भटकने के बाद किसी तरह वह रहमत को खोज निकालता है। उसे पता चलता है कि रहमत का असली नाम बरान है और वह बड़ी दयनीय अवस्था में दूसरी औरतों के साथ भारी मजदूरी का काम कर रही है। यह सब जानकर लतीफ बहुत दुःखी और चिंतित हो जाता है। वह किसी भी तरह बरान की मदद करना चाहता है, जिसके लिए वह अपना कार्ड बेचने का निश्चय करता है, यह जानते हुए भी कि इस कार्ड के बिना उसकी कोई पहचान नहीं है और वह कभी भी गिरफ्तार हो सकता है।

फिल्म का आखिरी दृश्य कमाल का है। माजिद कैमरे से कविता रच देते हैं। बरान का परिवार ट्रक में सामान भरकर वापस अफगानिस्तान जा रहा है। वह एक सब्जी की टोकरी लिए ट्रक में बैठने का प्रयास करती है, तो उसके हाथों से टोकरी गिर जाती है। लतीफ उसकी सब्जियां उठाने मंें मदद करता है और दोनों की आंखें एक-दूसरे को बेहद प्यार भरी नजरों से देखती हैं। बरान के होठों पर मुस्कुराहट आने ही वाली होती है कि वह अपना चेहरा बुर्के से ढंक लेती है। ट्रक में बैठने से पहले उसके पैर कीचड़ में धंस जाते हैं और एक पैर की जूती निकलकर कीचड़ में फंस जाती है। लतीफ दौड़कर जाता है और उसकी जूती निकालकर उसे पहनाता है। वह ट्रक में बैठ जाती है। बुर्के के अंदर से उसकी आंखें अब भी लतीफ को दख रही हैं। ट्रक कीचड़ भरे रास्ते पर आगे बढ़ जाता है। लतीफ अब भी वहीं खड़ा है और बरान की जूती से कीचड़ में बने निशान को देखकर मुस्कुरा रहा है। बारिश तेज हो जाती है। वह निशान पानी से भर रहा है और लतीफ गौर से उसे देख रहा है। निशान मिट्टी पर नहीं, उसके दिल पर बना है और वह बरान के प्यार से भर रहा है।

फिल्म पर्दे पर खत्म हो जाती है लेकिन जेहन में कई दिनों तक चलती रहती है। यह फिल्म इस बात को सिद्ध करती है कि जब कोई कलाकृति सीधे दिल से निकती है, तो वह वस्तु या उत्पाद की श्रेणी से बहुत ऊपर उठ जाती है और इस बात को भी कि क्यों ईरान की फिल्मों को विश्व में इतना सम्मान दिया जाता है।