"लाइफ इज ब्यूटीफुल" खूबसूरत जिंदगी की मार्मिक तस्वीर / राकेश मित्तल

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"लाइफ इज ब्यूटीफुल" खूबसूरत जिंदगी की मार्मिक तस्वीर
प्रकाशन तिथि : 15 जून 2013


इतालवी अभिनेता-निर्माता रॉबर्तो बेनिनी की फिल्म ‘लाइफ इज ब्यूटीफुल’ बेहद मार्मिक और संवेदनशील कथानक पर बनी बेहतरीन फिल्म है। यह इस बात को दर्शाती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोच और इच्छाशक्ति के बल पर जीवन की मासूमियत और सुंदरता बचाए रखी जा सकती है। द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर यह एक बिल्कुल अलग अंदाज में बनी फिल्म है, जिसमें हास्य, करूणा और मानव संवेदना के मिश्रण के साथ बिना किसी खून-खराबे या वीभत्सता के युद्ध की भयावहता को चित्रित किया गया है। वर्ष 1998 में प्रदर्शित इस फिल्म को सात श्रेणियों में ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया था, जिसमें इसे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म सहित तीन ऑस्कर प्राप्त हुए। इसके अलावा कान फिल्म समारोह में भी इसे ग्रां प्री पुरस्कार हासिल हुआ। फिल्म के नायक गिडो और नायिका डोरा की भूमिका स्वयं रॉबर्तो बेनिनी और उनकी पत्नी निकोलेटा ब्राशी ने निभाई है।

इस फिल्म को दो भागों में बांटा जा सकता हैं पहला हिस्सा हमें एक हल्की-फुल्की मनोरंजक, रोमांटिक कॉमेडी का अहसास दिलाता है, जिसमें एक उत्साही, ऊर्जावान यहूदी युवक गिडो 1930 के दशक में इटली के एक शहर में काम की तलाश में आता है। वहां उसकी मुलाकात एक खूबसूरत स्कूल टीचर डोरा से होती है। डोरा को देखते ही गिडो उस पर फिदा हो जाता है और उससे मिलने व उसे प्रभावित करने के मौके ढूंढता रहता है। डोरा की पहले ही किसी और से सगाई तय हो चुकी है किंतु गिडो की चुलबुली हरकतों और जादुई शख्सियत के जादुई आकर्षण से वह बंध जाती है। एक बेहतरीन हास्य दृश्य में गिडो उसे सगाई के मंडप से घोड़े पर बैठाकर भगा ले जाता है। फिल्म का यह भाग हमें चालीस और पचास के दशक की मासूम रोमांटिक म्यूजिकल फिल्मों की याद दिलाता है। इसे बेहद खूबसूरती से फिल्माया गया है।

इसके बाद फिल्म एकदम से कुछ साल आगे बढ़ जाती है। हम गिडो और डोरा को पति-पत्नी के रूप में देखते हैं उनके साथ उनका पांच वर्षीय पुत्र जोशुआ (जॅार्जियो कैंटेरिनी) भी है। द्वितीय विश्व युद्ध अपने अंतिम चरण में है। यहूदी होने के कारण गिडो और उसके परिवार को कैद कर लिया जाता है और उन्हें एक नाजी यातना शिविर में ले जाया जा रहा है। परिवार बिछुड़ चुका है। गिडो और जोशुआ को पुरुष बैरक में तथा डोरा को स्त्री बैरक में अन्य कैदियों के साथ रखा गया है।

गिडो यातना शिविर की भयावहता से भली-भांति परिचित है किंतु वह अपने पांच वर्षीय मासूम पुत्र को इस कटु यथार्थ से दूर रखना चाहता है। पुत्र को भरमाने के लिए वह एक कहानी बनाता है कि यहां सभी लोग एक गेम खेलने आए है।ं इस गेम में जो भी पहले 1000 पॉइंट अर्जित कर लेगा, उसे एक बड़ा सैनिक टैंक इनाम में मिलेगा। वह जोशुआ से कहता है कि ये पॉइंट उसे मिलेंगे जो रोएगा नहीं, भूख लगने पर भी खाना नहीं मांगेगा, किसी तरह की शिकायत नहीं करेगा, अपनी मां को बुलाने की जिद नहीं करेगा और सबसे महत्वपूर्ण- जो सुरक्षा कर्मियों की नजर से बचकर छुप जाएगा। इस कथित खेल के माध्यम से गिडो बड़ी कुशलता से जोशुआ को नाजी शिविर के नियम-कायदों और तौर-तरीकों के बारे में बता देता है। सीधे-सीधे ये बातें बताने पर शायद बच्चा बुरी तरह डर सकता था। शिविर का कष्टप्रद जीवन, चारों ओर फैली बीमारी, गैस चेंबर में गायब होते लोग और सुरक्षा कर्मियों की निर्दयता देखने के बावजूद जोशुआ अपने भोलेपन और पिता के यकीन दिलाते तर्कों के कारण उनकी बातों पर आंख मूंदकर विश्वास करता है।

जिस तरह गिडो अपने बच्चे का जीवन और उसका मासूम भोलापन बचाए रखने की कोशिश करता है, वह देखना अतयंत मार्मिक औरे हृदयस्पर्शी है। गिडो के रूप में रॉबर्तो बेनिनी ने शानदार अभिनय किया है, जिसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के ऑस्कर पुरस्कार से नवाजा गया। मगर पांच वर्षीय जोशुआ के रूप में जॉर्जियो कैंटेरिनी ने तो दिल लूटने वाला कमाल का अभिनय किया है। उसकी मासूमियत दर्शकों को अंदर तक हिला देती है। फिल्म का संगीत और उम्दा छायांकन उसके समय प्रभाव में वृद्धि करता हैं

फिल्म के अंतिम दृश्यों में निर्देशक ने कमाल कर दिया है। जिस तरह से फिल्म का अंत किया गया है, उसे देखकर बरबस ही हाथ ताली बजाने की मुद्रा में आ जातै हैं। फिल्म इस उम्मीद पर खत्म होती है कि आने वाला कल आज से बेहतर होगा।