'इक रिदाएतीरगी है और ख्वाबे कायनात' / जयप्रकाश चौकसे

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'इक रिदाएतीरगी है और ख्वाबे कायनात'
प्रकाशन तिथि :25 जनवरी 2017


मौसम की जानकारी मशीनों से प्राप्त होती है, हवाई जहाज का पायलट मशीन के द्वारा हवा के रुख और गति का आकलन करता है। ठीक इसी तरह समाज का तापमान कविता बताती है। कई वर्ष पूर्व फिल्मकार जेपी दत्ता की फिल्म 'रेफ्यूजी' के लिए जावेद अख्तर ने गीत लिखा था, 'नदिया, पंछी, पवन के झोंके/ कोई सरहद इनको न रोके/सोचो क्या पाया हमने, तुमने इंसा होके।' हाल ही में जयपुर साहित्य सम्मेलन में जावेद अख्तर ने अपनी नई नज़्म सुनाई, 'हवाओं को बहने से पहले अपनी रफ्तार बताना होगी/ धाराओं को बहने से पहले बताना होगा वे कहां, कब कैसे बढ़ेंगी/ पहाड़ों को अपनी ऊंचाई, नपवाना होगी पहले/ और समंदर को अपनी जलराशि का हिसाब देना होगा/ ये वक्त थोड़ा अलग-सा है/ यहां अब अक्सर नया हुक्मनामा सुनाया जाता है।'

एक ही शायर की दो अलग-अलग कालखंड में लिखी रचनाएं बदलते हुए समाज का तापमान बताती हैं। कहां तो पहले पक्षियों की तुलना में कमतर इंसान का दर्द बयां हुआ और वर्तमान में नए हुक्मरान ने हवाओं और धाराओं पर भी अंकुश लगाने की हिमाकत की है। आज मनुष्य को बांटकर हुकूमत करने का चलन है। सारा खेल इस चतुराई से रचा गया है कि खंजर पर कातिल की उंगलियों के निशान नहीं मिलते। किसी अदृश्य हो जाने वाली स्याही से हुक्मनामे लिखे जाते हैं। ऊपरी तौर पर संविधान में कोई परिवर्तन नहीं किया गया और न ही संसद में कोई फरमान पढ़ा गया है परंतु मनुष्य स्वयं को अदृश्य जंजीरों से बंधा पाता है। हर व्यक्ति अपनी पीठ पर एक नंगी तलवार को महसूस करता है परंतु कहीं कोई तलवार नहीं है। खौफ की यह बुनावट बड़ी मेहनत से रची गई है। कोई आपातकाल घोषित नहीं किया गया है परंतु इस अघोषित आपातकाल को आम आदमी महसूस करता है। सभी मनुष्य एक सा सोचें, एक से कपड़े पहने और वैचारिक विविधता से अपने को बचाए रखें गोयाकि 'अनेकता में एकता के आदर्श' को भूल जाएं। यह नया निज़ाम है। अरसे पहले निदा फाज़ली ने इस दर्द को इस तरह बयां किया था, 'बेज़ान लकीरों का नक्शा इंसा की मुसीबत क्या जाने/ दिल मंदिर भी है, दिल मस्जिद भी है/ ये बात सियासत क्या जाने।'

महात्मा गांधी ने भारत में अपना पहला भाषण काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्‌घाटन अवसर पर दिया था, जिसका सार यह था कि राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम हमें अवाम को भय से मुक्त कराना होगा। सभा में मौजूद अंग्रेज वॉयसराय से उन्होंने सीधा प्रश्न किया कि हुक्मरान होते हुए भी उन्हें कैसा भय है कि शहर में चप्पे-चप्पे पर उन्होंने फौज तैनात की है। गांधीजी ने सही नस पकड़ ली थी कि भय का हव्वा खड़ा करके हुकूमत की जा रही है। ज्ञातव्य है कि भारत में तीस हजार से अधिक अंग्रेज अफसर कभी नहीं रहे परंतु उन्होंने तैंतीस करोड़ लोगों पर राज किया उसी भय की अदृश्य चादर के दम पर। यह भी गौरतलब है कि गांधीजी के इस कदम पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक खुलाया दिया। उनका वाक्य था, 'फैंटम ऑफ फीयर बिल्ड्स इटसेल्फ इन टू मोर फीयरसम देन फीयर इन रियलिटी इटसेल्फ।' दरअसल, डर का हव्वा रचा जाता है। काल्पनिक भय वास्तविक भय से कहीं अधिक विकराल होते हैं। राजकुमार संतोषी की फिल्म 'घातक' का खलनायक कहता है कि उसने बड़ी चतुराई से डर का वातावरण रचा था, जिसे नायक ने ध्वस्त कर दिया। भयमुक्त होते ही मनुष्य की विराट शक्तियां उजागर होने लगती हैं। भय के साम्राज्य को क्रूरता से रचा जाता है। कुमार अंबुज की कविता क्रूरता का अंश है, 'तब आएगी क्रूरता/ पहले हृदय में आएगी, फिर चेहरे पर दिखेगी/ फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की ‌व्याख्या में/ फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में, फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी/ निरर्थक हो जाएगा विलाप, दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आंसू/ पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा।'