'गब्बर' 1975 और 'गब्बर' 2015 / जयप्रकाश चौकसे

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'गब्बर' 1975 और 'गब्बर' 2015
प्रकाशन तिथि :30 अप्रैल 2015


सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी की 'शोले' आपातकाल (1975) में प्रदर्शित हुई थी और तीन सप्ताह तक लंगड़ाने के बाद पांच वर्ष तक दौड़ी। पॉलीडोर कंपनी ने उसके गीत संगीत के असफल होने के बाद संवादों का रिकॉर्ड जारी किया जो शहर, गांव, गली सब जगह गूंजते रहे। पटकथा सुनकर ही अमिताभ बच्चन ने खलनायक पात्र गब्बर की लोकप्रियता का आकलन कर लिया था और उनकी इच्छा गब्बर की भूमिका करने की थी, परंतु रमेश सिप्पी तैयार नहीं हुए। गब्बर की भूमिका पहले डैनी डेंगजोप्पा को दी गई थी, परंतु वे फिराेज खान की 'धर्मात्मा' के कारण रमेश सिप्पी को समय नहीं दे पाए। सलीम और जावेद ने एक नाटक में अमजद खान का अभिनय पसंद किया और उनकी सिफारिश पर रमेश सिप्पी ने अमजद खान को अनुबंधित किया।

गब्बर के संवाद इतने लोकप्रिय हुए कि कुछ नेताओं ने उनकी शैली अपने भाषणों में इस्तेमाल की। गब्बर निर्मम होते हुए भी बच्चों को कॉमिक्स का खलनायक लगा, इसलिए बच्चों में उसकी लोकप्रियता सारी सीमाएं पार कर गई। दरअसल, 'शोले' की कथा के दो मुख्य पात्र ठाकुर (संजीव कुमार) और गब्बर हैं। सबसे पहले पांचवे दशक में जापानी फिल्मकार अकिरा कुरोसोव ने 'सेवन समुराई' बनाई जिससे प्रेरित होकर 'सेवन मैगनीफीशियन्ट मैन' बनी और दुनिया के सभी फिल्म बनाने वाले देशों ने अकिरा की 'सेवन समुराई' अपने-अपने ढ़ंग से बनाई है। इन सब संस्करणों को सलीम-जावेद ने अपनी सृजन मिक्सी में डालकर एक संपूर्ण मनोरंजक फिल्म रची जिसमें टंकी पर शराब पीए धर्मेन्द्र का दृश्य अमेरिकन फिल्म से लिया गया था।

बहरहाल, इतने संस्करणों में किसी भी संस्करण में अकिरा कुरोसोव की मुख्य थीम नहीं दिखाई पड़ती। अकिरा गांव को सभ्यता के प्रतीक तथा आक्रमणकारी डाकुओं को असभ्यता के प्रतीक के रूप में गढ़ते हैं। जब 'सभ्यता' अपने को डाकुओं (असभ्यता) से लड़ने में असमर्थ पाती है तो कानून व समाज के हाशिये पर बैठे सात बहादुरों की सेवा लेकर डाकुओं (असभ्यता) को पराजित करती है, परंतु सुरक्षा कायम होने के बाद वे हाशिये पर खड़े रणबांकुरों से कोई संबंध नहीं रखना चाहते, क्योंकि उनकी 'सभ्यता' अवसरपरस्त और छुईमुई है कि अपने 'रक्षकों' को अस्वीकार करती है। 'सभ्यता' सुरक्षा के दायरे में आने के बाद अपने स्वाभाविक टुच्चेपन पर लौटती है। 'सेवन समुराई' का आखिरी दृश्य है कि डाकू मारे गए, वर्षा हो रही है, समुराई उदास खड़े हैं, क्योंकि उनका एक साथी मारा गया। उधर से गांव की वह कन्या जो एक समुराई से प्रेम कर रही है, अपने प्रेमी का हाथ छोड़कर उसे अलविदा कहकर अपने खेत में फसल बोने चली जाती है। यह दृश्य ही फिल्म की जान है। 'शोले' देखने वाले इसे ऐसे देखें कि हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र को अलविदा कहकर अपने तांगे के काम पर चली जाती है। जय के पात्र को केवल इसलिए मार दिया कि विधवा जया से विवाह कराने को 'सभ्यता' तैयार नहीं होती। हमारी अनेक फिल्में साहसी होने की मुद्रा ग्रहण करती हैं, परंतु अंत में सारा विद्रोह धरा रह जाता है और पारंपरिकता का निर्वाह होता है। हमारी कम्युनिस्ट विचारों से प्रेरित फिल्में भी पूंजीवादी झुकाव से बच नहीं पातीं।

बहरहाल, अक्षय कुमार की 'गब्बर' का 'शोले' से कोई सीधा संबंध नहीं है। यह दक्षिण में बनी एक फिल्म का हिंदी संस्करण है और इसमें गब्बर नामक नायक रिश्वतखोरों को मारता है। गोयाकि वह अन्याय और भ्रष्टाचार का विरोधी है। 'शोले' के प्रदर्शन के 40 बरस बाद उस दौर के खलनायक का नाम अब नायक को दिया गया। गोयाकि 40 साल पहले की बुराई अब अच्छाई का प्रतीक बन गई है। बहरहाल, यह गब्बर एक मसाला मनोरंजन है और इसका दक्षिण भारतीय निर्देशक बहुत योग्य है।

2015 में प्रचलित कॉमिक्स खलनायक की तुलना में 1975 तक के कॉमिक्स खलनायक मासूम नजर आते हैं। क्या यह संकेत है कि मासूमियत भयावहता के पंजे में जा रही है।