'गुज्जूभाई - द ग्रेट' मनोरंजक है / जयप्रकाश चौकसे

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'गुज्जूभाई - द ग्रेट' मनोरंजक है
प्रकाशन तिथि :07 अक्तूबर 2015


ईशान रनडेरिया की पहली फिल्म गुजराती भाषा की फिल्म 'गुज्जूभाई द ग्रेट' है और उसने दो सप्ताह में सफलता के नए रिकॉर्ड न केवल गुजरात में बनाए हैं, वरन् मुंबई इत्यादि शहरों में भी इतनी सफलता से चल रही है कि पहले सप्ताह के पांचवें दिन मुझे दीप झंवर ने टिकट उपलब्ध कराया और शो फुल था तथा पूरे समय हंसी के ठहाके गूंज रहे थे। युवा फिल्मकार ईशान रनडेरिया रंगमंच व गुजराती सिनेमा से जुड़े परिवार की तीसरी पीढ़ी है और उसके पिता गुजराती रंगमंच के सुपर सितारे हैं। दरअसल, उसके पिता के नाटकों की शृंखला गुज्जूभाई गुजरात में लंबे समय से अत्यंत सफल रही है। दशकों पूर्व लीलाबेन पटेल ने मुझे गुजराती का एक नाटक दिखाया था, जो बर्नाड शॉ के उस हास्य नाटक से प्रेरित है, जिस पर 'माय फेयर लेडी' नामक सफलतम फिल्म बनी थी, इसी की प्रेरणा से टीना मुनीम और देव आनंद अभिनीत फिल्म 'मनपसंद' भी सन 1980 में प्रदर्शित हुई थी।

गुजरात रंगमंच पर हास्य नाटकों की स्वस्थ और लंबी परम्परा रही है, परन्तु गुजरती सदी के अंतिम दशक तक मुंबई में खेले गए गुजराती नाटकों में अश्लील संवाद का प्रवेश हो गया था। ईशान रनडेरिया की फिल्म में कहीं कोई अश्लीलता नहीं है। यह विशुद्ध मनोरंजन है। उनके पिता ने केंद्रीय भूमिका अभिनीत की है और उतने स्वाभाविक हैं कि उनकी तुलना किसी समकालीन कलाकार से नहीं करते हुए मैं हरीभाई जरीवाला अर्थात संजीव कुमार से करना चाहूंगा। संजीव एकमात्र कलाकार रहे हैं, जिन पर किसी अभिनेता का प्रभाव नहीं रहा, यहां तक कि महान दिलीप की भी उन्होंने नकल नहीं की। एच. एस. खैल की 'संघर्ष' के एक दृश्य में संजीव कुमार दिलीप कुमार की बाहों में दम तोड़ते हैं, तो शॉट ओके होने के बाद दिलीप ने कहा था कि यह युवा संजीव कुमार अभिनय में कीर्तिमान रचेगा। बहरहाल, सीनियर रनडेरिया साहब विलक्षण अभिनेता हैं और उनकी 'टाइमिंग' कमाल की है।

उन्हीं के पात्र की धुरी पर गुज्जूभाई की दुनिया घूमती है। यह मध्यम वर्ग के परिवार की कहानी है। उनकी 'आधुनिका' पढ़ाई पूरी करके घर लौटती है अपने 'स्मार्ट बॉय फ्रेन्ड के साथ, जिससे वह शादी करना चाहती है। यह स्मार्ट युवा वाक्‌पटु है और आजकल इसी तरह के स्मार्ट लड़के में अच्छे दामाद की संभावना कई परिवार टटोलते हैं, क्योंकि वाचालता को हमने बुद्धि का पर्याय मान लिया है। अपनी बेटी के विवाह के लिए अति आतुर कन्या की मां अपनी बेटी की 'स्मार्ट पसंद पर गर्व करती है, परन्तु अनुभवी पिता पहली निगाह में ही इस 'स्मार्ट' के भीतरी खोखलेपन को भांप लेते हैं और वे अपने युवा सहायक, जो बचपन से ही उनकी लाड़ली जिद्दी के नाज नखरे उठाता है, के हृदय में अपनी पुत्री के लिए प्यार को समझ लेते हैं, परन्तु यह सीधा सरल चरित्रवान युवा इतना सौम्य है कि कभी कोई दावा नहीं करता। एक जमाने में बुद्धिमान बुजुर्ग अपने इसी तरह के सच्चे पुत्र को अपनी वसीयत का 'कर्ता' बनाते थे, क्योंकि ऐसे ही पुत्र अपना हक छोड़कर परिवार को एकजुट रखने की भावना रखते हैं। बहरहाल, पिता अपने चहेते सरल युवा के लिए अपनी बेटी के हृदय में भावना जगाने के जुगाड़ में यह योजना बनाते हैं कि एक होटल में सफल सितारा ठहरी है और अगर उसके साथ युवा की एक फोटो मिल जाए तो उनकी अंतरंगता की अफवाह उड़ाई जा सकती है। वे अपने सरल भोले को जन्म से अंधा बनाकर फोटो प्राप्त कर लेते हैं। मजे की बात यह है कि उस स्मार्ट लड़के ने भी नायिका के सामने पहली रील में ही दम भरा था कि वह उसे नायिका लेकर फिल्म बनाएंगे और उद्योग में सभी उसे जानते हैं तथा यही सफल तारिका उसकी व्यक्तिगत मित्र भी है।

नाटकीय परिस्थितियां इतनी तेजी से घूमती हैं कि वह सफल सितारा स्पष्ट कर देती है कि वह उस स्मार्ट लड़के को जानती ही नहीं और यह सरल सीधा युवा उनका मित्र है। इस तरह फिल्म की नायिका अपनी स्मार्ट पसंद की हकीकत को जान लेती है और उसे 'बचपन की मोहब्बत' भी याद आ जाती है। स्पष्ट है कि जीवन की दौड़ में यह सरल कछुआ अब जीत चुका है और आलसी स्मार्ट खरगोश हार गया है, तब उस सफल तारिका को अपनी सम्पत्ति समझने वाला संगठित अपराध का सरगना कथा में प्रवेश करता है और ए चक्कर शुरू होते हैं। फिल्म में एक बंगलिंग कॉप भी है, यह पुलिसवाला दिवा स्वप्न देखता है, परन्तु इस बार अंधे के हाथ बटेर लग जाती है, वह अपराध सरगना को पकड़वाने में सफल हो जाता है। इस फिल्म का 'निर्मल आनंद' प्राप्त करने के लिए गुजराती भाषा जानना जरूरी नहीं है। फिल्म इतनी सुलझे हुए ढंग से रची है कि इसका आनंद अंधा भी उठा सकता है और बहरे भी सिनेमाघर में गूंजते ठहाकों को सुन सकते हैं। बहरहाल युवा ईशान रनडेरिया और उनके महान अभिनेता पिता को सलाम। गुज्जूभाई के साथ 'द ग्रेट' लगाने को क्या नरेंद्र मोदी का प्रभाव माने कि अब गुजराती स्मिता की कीर्ति राजनीति में सिक्का हो गई है या इस संकीर्ण क्षेत्रवाद से मुक्त होकर सबको समान नागरिक मानें। बहरहाल सिनेमा सदैव धर्म निरपेक्ष रहेगा, भले ही धर्म निरपेक्षता को अब बाजार में खोटा सिक्का घोषित किया जा चुका है।