'डॉली' और 'दावते इश्क' की असफलता / जयप्रकाश चौकसे

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'डॉली' और 'दावते इश्क' की असफलता
प्रकाशन तिथि :02 फरवरी 2015


अरबाज खान और लेखक उमाशंकर सिंह की 'डाॅली की डोली' असफल हो गई और कुछ माह पूर्व लगभग वैसी ही कथा पर हबीब फैज़ल की 'दावते-इश्क' भी असफल हुई थी तथा इसी कथा विचार से प्रेरित टीवी सीरियल भी लोकप्रिय नहीं हुआ था। अत: इस विचार की असफलता के सामाजिक कारण की जांच पड़ताल हमें भारतीय जनमानस को समझने में कुछ सहायता कर सकती है। इस खोज पड़ताल के पहले चरण में यह जानना जरूरी है कि कुछ ऐसे ही कथा विचार पर सन् 33 और 40 के बीच बनी शांतारामजी की फिल्म सफल रही थी। उसका कथासार कुछ इस तरह था कि अदालत में एक पति पीड़िता अदालत में जज को बताती है कि किस बेदर्दी से उसका पति उसे प्रतिदिन पीटता है और जज का कहना है कि वह तुम्हारा पति परेश्वर है तो उसे तुम्हें जान से मार देने का भी अधिकार है। वह हताश पत्नी अपनी तरह पिटने वाली तिरस्कृत बहिष्कृत स्त्रियों का एक दल गठित करती है तथा घुड़सवारी शास्त्र विद्या सीखकर वे हिंसक पतियों के घर डाके डालती हैं। गौरतलब है कि गांधीजी के नारी उद्धार कार्यक्रम से प्रेरित गांधी के शिखर दिनों में बनी इस फिल्म को उस दौर के गांधी प्रभावित दर्शकों ने सफलता दिलाई और आज 21वीं सदी के इस असहिष्णु दौर में 'डॉली' 'दावते इश्क' असफल होती हैं जिनमें दहेज इत्यादि से पीड़ित नारियां कमोबेश 'लुटेरी दुल्हनें' बन जाती हैं। शांताराम की नायिका की तरह ये दुल्हनें हिंसा नहीं करतीं परन्तु अपनी चतुराई से लूटती हैं। ये दाेनों दौर के तथ्य स्थापित सत्य को ही रेखांकित करते हैं कि गुजरे दौर की सहिष्णुता आज के दौर में नहीं है। अब यह तो समाजशास्त्रीय लोग बताएं कि सहिष्णुता कैसे खत्म हुई। यह भी चिंतनीय तथ्य है कि गांधी-शांताराम काल खंड में शिक्षा का प्रतिशत आज से बहुत कम था तो क्या हमारी शिक्षा प्रणाली में दोष है जो असहिष्णुता और हिंसा के लिए प्रेरित कर रही है?

इस मुद्दे से जुड़ी तीसरी फिल्म आर्थिक उदारवाद की तथाकथित सुनहरी सुबह में प्रदर्शित सूरज बड़जात्या की 'हम आपके हैं कौन' है जो स्वतंत्र भारत की सबसे अधिक धन कमाने वाली फिल्म है और इस सफलता के कारण ही सारे बड़े औद्योगिक घराने फिल्म पूंजी निवेश क्षेत्र में आए। उसी दौर में शादियां फिल्म की तर्ज पर पांच दिनी मंहगे उत्सव में बदली और इसके लिए केवल सूरज की फिल्म नहीं वरन आर्थिक उदारवाद के कारण कुछ लोग रातों-रात धनाड्य हो गए थे और वे अपने वैभव के अश्लील प्रदर्शन के लिए रास्ता खोज रहेे थे। सूरज की फिल्म में उन्हें अपने काले धन के खर्च का रास्ता बताया। उदारवाद से जन्मे उच्च-मध्यम वर्ग ने भी अपने बजट में पांच दिनी शादियां रचाई और निम्न आय वर्ग कैसे पीछे रहता, अत: सारा भारत शादी प्रधान देश बन गया। सूरज की फिल्म में शादी के अनगिनत रीति रिवाजों को नया जीवन दिया। सूरज की फिल्म में समधी-समधन, देवर-भाभी इत्यादि रिश्तों के मीठे निरापद छेड़छाड़ के गीत थे और भारतीय मानस के तंदूर की राख में छुपी प्रासन्न सैक्स की आग को हवा मिली क्योंकि तब तक होली अवसर घिसा पिटा हो चुका था। उत्सव प्रेमी देश विवाह पर लुट गया। मदन मोहन मालवीय जैसे समाज सुधारकों के सादगी के संदेश पर पानी फिर गया।

भारत में विवाह संस्कार है तो व्यापार भी है। कुछ समाजों में शादी के दलाल होते हैं जो अपने मिलाए जोड़ों के विवाह खर्च का कुछ प्रतिशत लेते हैं। शादी के नए खर्जीले विराट स्वरूप में नए व्यवसाय को जन्म दिया- मैरेज मैनेजमेंट जिस पर आदित्य चोपड़ा ने 'बैंड बाजा बारात' बनाई जिसे हबीब फैजल ने लिखा था और उन्हीं की 'लुटेरी दुुल्हन' 'दावते इश्क' में पिट गई। हजारों वर्ष से ग्रामीण अंचल और छोटे शहरों में शादी के लिए लिए कर्ज के कहर पर 'मदर इंडिया' कालजयी फिल्म है। हाल ही में 'जिंदगी' चैनल पर 'दुल्हन का आइना' में मध्यम वर्ग की एक जिद्दी कन्या के विवाह की फिजूल खर्ची तीन परिवार नष्ट करती है। भारत और पाकिस्तान के बीच स्वार्थ की ताकतों द्वारा नफरत पैदा की गई है जिसके बावजूद दोनों देशों की सामाजिक व्याधियां समान हैं।

अब हम 'डॉली' की असफलता के सिनेमाई कारणों पर आते हैं। फिल्म का एपिसोडिक होने से दर्शक के आनंद में बाधा पड़ती है। भारत में कोई भी एपिसोडक फिल्म नहीं चली और ऋषिकेश मुखर्जी की दिलीप अभिनीत 'मुसाफिर' तथा 'जोकर' उस सूची की दो फिल्में है। हमारा कथा वाचक 'महाभारत' सुनाते समय 'रामायण' के प्रसंग नहीं डालता। जबकि 'द्रोपदी' छाया सीता का नया जन्म है। रावण ने असली सीता का अपहरण नहीं किया था और छाया सीता के अग्नि परीक्षा में जलते समय राम ने वचन दिया था कि द्वापर युग में वह द्रोपदी बनकर जन्मेगी तथा राम कृष्ण के रूप में उसकी रक्षा करेंगे। हमारा कथा वाचक जानता है कि कथाओं के मिश्रण से रस भंग होता है। डॉली के एपिसोडिक आकल्पन में ही उसकी असफलता का राज छुपा है और 'लुटेरी दुल्हन' कथा के सामाजिक सोद्देश्यता को छुपाने की भूल भी हुई है तथा 'मर्दानगी के मिथ' को तोड़ने वाले प्रसंग शायद पटकथा में थे परन्तु फिल्म में नहीं हैं।

आज का भारत 'लुटेरी दुल्हन' स्वीकार नहीं करता और उससे जुड़े उत्तम हास्य को नजरअंदाज करता है। उसे पति को परमेश्वर मानने वाली पारम्परिक दुल्हन और पांच दिनी उत्सवी शादी पसंद है। आर्थिक उदारवाद के गर्भस्थ कालखंड में संतोषी की 'दामिनी' असफल रही क्योंकि उस फिल्म की बहू अपने बलात्कारी देवर को दंडित कराती है। 'डॉली' का अंत भी साहित्यिक है परन्तु सिनेमाई मूल्य अंत में एक विवाह ही देखना चाहता था।