'दुलारे दोहावली' पर सहमति / रामचन्द्र शुक्ल

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केवल सात सौ दोहे रच कर बिहारी ने बड़े बड़े कवियों के बीच एक विशेष स्थान प्राप्त किया। इसका कारण है उनकी वह प्रतिभा जिसके बल से उन्होंने एक एक दोहे के भीतर क्षण भर में रस से स्निग्ध अथवा वैचित्रय से चमत्कृत कर देनेवाली सामग्री प्रचुर परिमाण में भर दी है। मुक्तक के क्षेत्र में इसी प्रकार की प्रतिभा अपेक्षित होती है। राज दरबारों में मुक्तक काव्य को बहुत प्रोत्साहन मिलता रहा है, क्योंकि किसी समादृत मंडली के मनोरंजन के लिए यह बहुत ही उपयुक्त होता है। बिहारी के पीछे कवियों ने उनका अनुकरण किया पर बिहारी अपनी जगह पर अकेले ही बने रहे। हिन्दी काव्य के इस वर्तमान युग में जिसमें नई नई भूमियों पर नई नई पध्दतियों की परीक्षा चल रही है किसी से यह आशा न थी कि कोई पथिक सामान लाद कर बिहारी के उस पुराने रास्ते पर चलेगा।

बिहारी के कुछ दोहों में उक्ति वैचित्रय प्रधान है और कुछ में रस विधान। ऐसी ही दो श्रेणियों के दोहे इस 'दोहावली' में भी हैं। रसात्मक दोहों में बिहारी की सी मधुर भाव व्यंजना और वैचित्र्य प्रधान दोहों में उन्हीं का सा चमत्कारपूर्ण शब्द कौशल पाया जाता है। जिस ढंग की प्रतिभा का फल बिहारी की सतसई है उसी ढंग की प्रतिभा का फल दुलारेलालजी की यह दोहावली है, इसमें सन्देह नहीं। कुछ दोहों में देशभक्ति, अछूतोध्दार आदि की भावना का अनूठेपन के साथ समावेश करके कवि ने पुराने साँचे में नई सामग्री ढालने की अच्छी कला दिखाई है। आधुनिक काव्य क्षेत्र में दुलारेलालजी ने व्रजभाषा की चमत्कार पध्दति का मानो पुनरुध्दार किया है। इसके लिए वे समस्त व्रजभाषा काव्य प्रेमियों के धन्यवाद के पात्र हैं।

(दुलारे दोहावली पर वीरसिंह देव पुरस्कार मिला था।

आ. शुक्ल ने उसी वर्ष यह सम्मति लिखीथी। सुध, दिसंबर, 1934ई.)

[ चिन्तामणि, भाग-4]