'द टिन ड्रम' एक बालक की अनूठी विद्रोह गाथा / राकेश मित्तल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सरहद पार सिनेमा: 'द टिन ड्रम' एक बालक की अनूठी विद्रोह गाथा
प्रकाशन तिथि : 21 दिसम्बर 2013


जर्मनी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार गुंटर ग्रास ने वर्ष 1959 में अपना पहला उपन्यास लिखा था, जिसका नाम था 'द टिन ड्रम"। इस उपन्यास ने उन्हें रातों-रात विश्व पटल पर स्थापित कर दिया था। यह एक ऐसे बालक की काल्पनिक कहानी है, जो बड़ों की दुनिया में बेहद निराश है और अपने आसपास के घृणित वातावरण को देखकर यह निश्चय करता है कि वह कभी बड़ा नहीं होगा। इस उपन्यास के माध्यम से गुंटर ग्रास ने प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध की विद्रूपताओं का बखूबी चित्रण किया है। इस उपन्यास की लोकप्रियता को देखते हुए इस पर फिल्म बनाने के अनेक प्रयास हुए किंतु यह आसान नहीं था। बीस वर्ष बाद 1979 में जर्मन फिल्मकार वोकर श्लोन्ड्रोफ ने इसे इसी नाम से एक बेहतरीन फिल्म की शक्ल में रूपांतरित किया। 'द टिन ड्रम" को विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त हुआ। यह सम्मान पाने वाली यह पहली जर्मन फिल्म थी। कान के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह मंर भी इसे सर्वोच्च पुरस्कार प्रदान किया गया।

यह एक फंतासी फिल्म है। फिल्म का समय बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का है, जो समूचे विश्व और खास तौर पर योरप मंे बेहद उथल-पुथल, अशांति एवं युद्ध का काल माना जाता है। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1920 में जर्मनी और पोलैंड के बीच एक समझौते के तहत डेन्झिग राज्य की स्थापना की गई, जहां दोनों देशों के नागरिक युद्ध विराम की अवस्था में संयुक्त रूप से रहते थे। यह व्यवस्था 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ के साथ खत्म हो गई। इसी समझौता काल में बालक ऑस्कर (डेविड बेनेट) का जन्म होता है। अपनी नस्ल एवं राष्ट्रीयता के प्रति वह हमेशा भ्रमित रहता है क्योंकि उसकी मां के दो पुरुषों के साथ संबंध्ा थे, जिनमें एक जर्मन तथा दूसरा पोलिश था।

अपने तीसरे जन्मदिन पर ऑस्कर को टिन से बने एक ड्रम का तोहफा मिलता है। उसे इस ड्रम से बहुत प्यार है और हर समय वह इसे साथ लिए घूमता है। एक छोटे-से बालक के रूप में वह अपने आसपास घटित हो रहे दैनंदिनी कार्यकलापों को देखकर अत्यंत व्यथित हो जाता है और जीवन भर बच्चा बने रहने का निश्चय करता है। अपने इस निश्चय को विश्वसनीयता का जामा पहनाने के लिए वह तहखाने में सीढ़ियों से कूदकर अपने आप को घायल कर लेता है ताकि यह प्रतीत हो सके कि उसे कोई अंदरूनी चोट इस तरह लगी है कि उसका शारीरिक विकास अवरुद्ध हो गया है। यह एक प्रकार से दुनिया के प्रति उसके विद्रोह का परिचायक है। अपनी नाराजगी वह ड्रम बजाकर व्यक्त करता है। यदि कोई उससे ड्रम छीनने की कोशिश करता है, तो वह इतनी जोर से चीखता है कि आसपास के सारे कांच फूट जाते हैं! आगामी वर्षों में वह मानसिक रूप से युवा होता जाता है किंतु उसका शरीर छोटे बच्चे जितना ही बना रहता है। इस प्रकार निर्देशक एक बच्चे की आंखों से हमें दुनिया दिखाने का प्रयास करता है।

फिल्म में प्रतीकों एवं रूपकों का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। यह फिल्म इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण है कि प्रतीकों के माध्यम से बड़ी से बड़ी बात कितनी आसानी से कही जा सकती है। देखने व समझने के लिहाज से यह एक बेहद जटिल फिल्म है। इसे ठीक से समझने के लिए उस समय के योरप की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों तथा दोनों विश्व युद्धों के तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभावों की जानकारी होना आवश्यक है। ऑस्कर का दुरूह एवं खंडित व्यक्तित्व उस समय के सामाजिक परिवेश का प्रतिबिंब है। ऑस्कर के विद्रोह और नाराजगी की तीव्रता को अभिव्यक्त करने के लिए निर्देशक ने विभिन्ना रूपकों का सहारा लिया है।

इस फिल्म को एक सिनेमाई करिश्मा माना जाता है। कुछ लोग इसे प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का श्रेष्ठतम उदाहरण मानते हैं, तो कुछ इसकी आक्रामक शैली के आलोचक हैं। कतिपय बोल्ड दृश्यों एवं संवादों के चलते कुछ देशों में इसके प्रदर्शन पर आंशिक या पूर्ण प्रतिबंध्ा भी लगाया गया था। ऑस्कर की भूमिका में डेविड बेनेट ने कमाल किया है। उसके चेहरे और आंखों की अभिव्यक्ति देखने लायक है। फिल्म निर्माण के दौरान हालांकि डेविड की उम्र 12 वर्ष की थी किंतु स्वयं उसका शारीरिक विकास भी अवरुद्ध था, जिसके कारण वह मात्र 6-7 वर्ष का दिखाई देता था। इसलिए इस भूमिका के लिए उसका चयन एकदम सटीक था।

आज के विख्यात कवि एवं शायर राजेश रेड्डी का यह शेर इस फिल्म के सार-तत्व को बयान करता है:

'मेरे अंदर किसी कोने में एक मासूम-सा बच्चा

बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है।"