'पी.के.' का आकलन आैर नोलन का 'इनसेप्शन' / जयप्रकाश चौकसे

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'पी.के.' का आकलन आैर नोलन का 'इनसेप्शन'
प्रकाशन तिथि : 26 नवम्बर 2014


ख़बर है कि जब राजकुमार हीरानी आैर उनके साथी लेखक अभिजात जोशी ने "पी.के.' की पटकथा लिखी तब क्रिस्टोफर नोलन की 'इनसेप्शन' भारत में प्रदर्शित हो चुकी थी। अपनी पटकथा से समानता देखकर वे चकित रह गए। मामला नकल का नहीं है क्योंकि नोलन ने तो इनका नाम भी नहीं सुना। यह वैचारिक संसार का रहस्य है। हीरानी-जोशी नेे पटकथा दोबारा लिखी आैर समानताएं हटा दी परंतु मूल कथा विचार वही रखा। 'इनसेप्शन' एक विज्ञान फंतासी है जिसमें वैज्ञानिक दूसरे के सपने चुराने की कीमिया खोज लेता है। अब वह अन्य व्यक्ति के अ‌वचेतन में पैंठ अपना मनचाहा काम करा सकता है। एक उद्योगपति शत्रु के अवचेतन में पैंठकर उससे गलत आैद्योगिक फैसला कराकर दिवालिया बना देता है। वर्षों से विज्ञानी स्मृति पटल के रहस्य पर शोध कर रहे हैं आैर सफल होने पर शल्य चिकित्सा द्वारा स्मृति पटल बदला भी जा सकता है।

शॉपिंग मॉल में लगे सीसीटीवी कैमरे में ग्राहक की मुखमुद्राआें का अध्ययन कर किताबें लिखी गई है। ग्राहक मनोविज्ञान पर किताबों की कमी नहीं है। इस विषय के विशेषज्ञों की सलाह से मॉल रचे जाते हैं कि ग्राहक वह भी खरीद ले जो खरीदने नहीं आता है। हमारी निजी पसंद हमारी अपनी नहीं है, ठूंसी गई है। हम अपना जीवन अन्य के द्वारा प्रायोजित समझें। आज सारे बाजार जीवन के लिए अनावश्यक वस्तुआें से भरे पड़े हैं क्योंकि इनसे उन्हें ज्यादा आय होती है। आज से अधिक शक्तिशाली बाजार किसी काल खंड में नहीं था। बाजार के हितों की रक्षा वाली सरकारें चुनकर भेजी जाती है। जो बाजार तेल, साबुन बेचता है वही नेता भी बेचता है। नोलन की इनसेप्शन अवधारणा को शेख चिल्ली का ख्वाब नहीं कह सकते। 'इनसेप्शन' देखने के वर्षों बाद अब समझ आया कि अवचेतन में पैंठने वाला नायक कपोल कल्पना नहीं, सपने फैसले भी चुराए जा सकते हैं।

शायद 'बेचने' के दायरे के बाहर कभी सपने थे ही नहीं। याद आता है 1954 में प्रदर्शित राजकपूर की 'श्री 420' का एक दृश्य जिसमें सेठ सोनाचंद धर्मानंद 100 रुपए में मकान का विज्ञापन करते हैं आैर इसकी अव्यवहारिकता के जवाब में कहते हैं कि वे सिर्फ मकान का सपना बेच रहे हैं। महानगर में लाखों लोग फुटपाथ पर जीवन बसर करते हैं आैर सख्त पत्थरों पर सिर रखते हुए मकान का सपना हर रात देखते हैं। इसी दृश्य की श्रंखला में एक भिखारी 97 रुपए ही जमा कर पाता है आैर कहता है एक खिड़की कम लगाना, एक ब्याहता कम रुपयों के बदले मंगलसूत्र देती है।

अपनी पहली फिल्म में भी हीरानी ने एक मवाली का डॉक्टर बनने का सपना विश्वसनीयता से रचा था। दूसरी फिल्म में साक्षात गांधी का परदे पर आने का पहला दृश्य ही वाचनालय का है जहां गांधी का प्रगट होना नायक को भरम देता है कि लगातार उनकी जीवनी पढ़ने के कारण यह संभव हुआ है। हीरानी ने एक असंभव विचार को कितनी कुशलता से विश्वसनीयता के दायरे में ला खड़ा किया है। यह उनके लेखन निर्देशन का कमाल है। सिनेमा है ही यकीन दिलाने की कला। इसी तरह आमिर खान ने 'तारे जमीं पर' जैसी कहानी को रोचकता से प्रस्तुत किया। हीरानी-आमिर सहयोग के कारण 'पी.के.' बहुत आशा जगाती है।

फिल्म के नाम का अर्थ अभी भी रहस्य है। किसके नाम के पहले दो अक्षर हैं? शराब पीने से यह नहीं जुड़ा है अन्यथा दोनों अक्षरों के बाद नुक्ते नहीं होते। मनोरंजन उद्योग में रहस्य दर्शक का आकर्षण बढ़ाते हैं। 'मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस' पहले दिन मैंने नहीं देखी क्योंकि यह डेविड धवन नुमा फिल्म लग रही थी। इसी तरह 'लगे रहो मुन्नाभाई' हल्की-फुल्की फिल्म का नाम लग रहा था आैर गांधी जी की मौजूदगी का अनुमान लगाना कठिन था। यही हीरानी का शैली है। नोलन की 'इनसेप्शन' में सपनों पर अधिकार की जो बात है, उसका स्थूल स्वरूप हीरानी ने पात्र के रूप में किया हो- पात्र जो सपनों से जन्मा भी है आैर सपनों पर हक भी रखता हो क्योंकि नोलन के सूक्ष्म संकेत हीरानी में स्थूल रूप लेंगे, यही उनकी शैली है। उन्होंने 'लगे रहो मुन्नाभाई' में गांधी की छाया या एक दिव्य रोशनी की जगह उन्हें सशरीर प्रस्तुत किया जिसे दर्शक भी चाहें तो छू सकें। काल खंड आैर स्पेस के बंधन से मुक्त अवचेतन के गलियारों से गुजरने के विचार का ठोस पात्र रूप ही नायक आमिर संभवत: अभिनीत कर रहे हैं। यही शैली भारत के आवाम को पसंद है। उन्हें हर दिव्य विचार के लिए एक ठोस अ‌वतारया प्रतीक को पूजते हुए विचार को तज देते हैं। भारत में किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए भारत को समझना जरूरी है, सामूहिक अवचेतन में झांकना जरूरी है। बिना फिल्म देखे, केवल हीरानी की विगत फिल्मों के आधार पर यह आकलन प्रस्तुत है।