'बंद कर लो द्वार'-संक्षिप्त काव्यशास्त्रीय अनुशीलनद / शिवजी श्रीवास्तव

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अनेक विधाओं के सिद्धहस्त रचनाकार श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का नवीन हाइकु संग्रह 'बन्द कर लो द्वार' , अभिनव कल्पनाओं और बिम्बों से संयुक्त 661 हाइकुओं का संग्रह हैं। हाइकु मूलतःजापानी कविता है, अपनी मूल प्रकृति में यह प्रकृति की कविता है; किंतु जब यह भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर विश्व कविता बनी तो उसका क्षेत्र भी विस्तृत हुआ, भारत में आकर उसने भारतीय साहित्य के गुण-धर्म को आत्मसात् किया इस संदर्भ में काम्बोज जी ने संग्रह की भूमिका में लिखा है, 'जापानी विधा होने पर भी हिंदी-हाइकु का आकाश भारतीय है और भारतीय साहित्य की परंपरा है।'

निःसन्देह कलेवर के अतिरिक्त हाइकु का सब कुछ भारतीय ही है, भारतीय भूमि में यहीं के भावों के अनुरूप हाइकु में विषयों की अभिव्यक्ति हो रही है, किंतु भाव-भूमि भारतीय होने पर भी हाइकु-साहित्य की समीक्षा भारतीय काव्य शास्त्र के आधार पर नहीं की जा रही है, मूलतः समीक्षा में बिम्ब-विधान एवं प्रकृति का ही उल्लेख किया जाता है, काम्बोज जी लिखते है-'हिंदी-हाइकु का आकाश भारतीय है' तो मेरे विचार से उनकी समीक्षा में भी भारतीय मानकों को ग्रहण करना समीचीन होगा।

भारतीय काव्य शास्त्र में रस, छंद, अलंकार के साथ ही विविध मनोभावों के चित्रण की विवेचना होती है, जहाँ तक छंद-विधान का प्रश्न है हाइकु में उसकी विवेचना की आवश्यकता ही नहीं; क्योंकि भारतीय हाइकु में 5-7-5 वर्णो का नियम निश्चित है ही, इस नियम से च्युत होने पर हाइकु, हाइकु ही नहीं रहेगा। यहाँ इस तथ्य की ओर भी ध्यान देना होगा कि हाइकु अपने में पूर्ण कविता ही है। बहुत से लोग इसे छंद के रूप में ग्रहण करके लम्बी कविताएँ रच रहे हैं उसे उचित नहीं कहा जा सकता।

भाव-विधान की दृष्टि से 'बंद कर लो द्वार' को देखें तो संग्रह की भूमिका में ही काम्बोज जी ने लिखा है "ये मेरे साधारण हाइकु हैं; क्योंकि इनसे मेरा सुख-दु: ख जुड़ा है, मुझे आशा है कि इस संग्रह में कुछ हाइकु ऐसे ज़रूर मिल जाएँगे, जिनमे सभी को अपनी प्रतिच्छाया दिख जाएगी, अपनी जीवन यात्रा का कोई पड़ाव नज़र आएगा..."

वस्तुतः कवि की चेतना लोक जीवन की ही चेतना होती है, कवि का जो कुछ निजी होता है, वह लोक का ही सुख-दुःख होता है, इस दृष्टि से यह संग्रह लोक-जीवन के सुख-दुःखों की अभिव्यक्ति के हाइकु का संग्रह है।

संग्रह को सात विभागों में विभक्त किया गया है-आ जाओ द्वारे, घटा में धूप, जीवन संझा, उड़ गया पखेरू, मन बावरे, अनुरागी आखर एवं स्वप्न। -जल। इन शीर्षकों से ही स्पष्ट है कि कवि ने मन की विविध सुख-दुःखात्मक, राग-विराग परक भावनाओं को हाइकुओं में आबद्ध किया है। इस संग्रह के समस्त वैशिष्टय को कुछ शीर्षकों के आधार पर देखने का प्रयास किया जा सकता है।

प्रकृति चित्रण-

हाइकु मूलतः प्रकृति की ही कविता है, अतः अधिकांशतः हाइकुकार प्रकृति-चित्रण पर दृष्टि केंद्रित रखते हैं, यह स्वाभाविक भी है, पर जहाँ तक प्रकृति चित्रण का प्रश्न है उस सन्दर्भ में भी काम्बोज जी का स्पष्ट अभिमत है, "प्रकृति के दो प्रकार हैं-अंतः प्रकृति और वाह्य प्रकृति। हाइकु में कुछ लोग वाह्य प्रकृति के दायरे से बाहर नहीं निकलते। वह अंतः प्रकृति जो हमारे जीवन के समस्त मनोव्यवहार का हिस्सा है, उसे उपेक्षित करना न्यायसंगत नहीं है। मानव मन के सुख-दुःख से जुड़ी भावनाएँ और क्रियाएँ इतनी उपेक्षित क्यों? क्या उस मानव मन को हाइकु से बाहर कर दें? अगर ऐसा है तो फिर साहित्य किसके लिए और क्यों?"

भूमिका के वक्तव्य के अनुरूप ही प्रस्तुत संग्रह के हाइकु भारतीय साहित्य की भावभूमि की प्रकृति के अनुरूप वाह्य एवं आंतरिक प्रकृति के हाइकु हैं।

वाह्य प्रकृति के विविध एवं मनोहर चित्रों का चित्रण काम्बोज जी ने अत्यंत सहज रूप में किया है, प्रकृति के आलम्बन रूप, उद्दीपन रूप, आलंकारिक रूप, मानवीकरण के रूप, इत्यादि सुंदर प्रतीकों से युक्त आलंकारिक चित्र मिलते हैं, कुछ चित्र उदाहरण के रूप में द्रष्टव्य है-

आलम्बन रूप-

बरसी आग / सूखे कूप-बावड़ी / प्यासे तरसे

ठिठुरे पात / कोहरे के कहर / दिन में रात।

झुलसा नभ / उड़ती चिंगारियाँ / व्याकुल धरा।

उद्दीपन-

धरा नर्तित / सिंधु-घन गरजे / बाँहों में ले लो।

नभ उदास / हो गई दोपहर / कोई न पास।

सांध्य बेला में / बहुत याद आए / अपने साए।

साँझ उतरी / खिंच गया सन्नाटा / यादें छलकीं।

आलंकारिक रूप-

शांत रात में / टिटहरी जो चीखी / जंगल जागा।

धान रोपती / छप-छप बदरी / अम्बर क्यारी।

चाँद-दराँती / काटे रात भर / मेघों का खेत।

अन्तः प्रकृति का चित्रण-

अन्तः प्रकृति के चित्रों में कवि के भावुक मन की विविध स्थितियों के सहज रूप के दर्शन किये जा सकते हैं, वहाँ प्रेम का उदात्त रूप है, विरह की आकुलता है, लोक-पीड़ा से उद्भूत वेदना है, वैयक्तिक एवं सामाजिक सम्बंधों में बढ़ती स्वार्थपरता का दर्द है साथ ही चतुर्दिक् सामाजिक / नैतिक मूल्यों के ह्रास होते जाने का क्षोभ है का, इन विविध मनःस्थितियों के चित्र कहीं मन को मोहते हैं कहीं त्रास देते हैं और कहीं मन में विविध भावों को जन्म देते हैं।

कवि का मन विरह व्यथित है, ये विरह व्यापक है, जो प्रकृति के विविध उपादानों में दृष्टिगोचर होता है, विरह व्याकुल मन प्रिय का आह्वान करता है—"आ जाओ द्वारे / भोर से शाम तक / प्राण ये पुकारे।"

घिरा आग में / व्याकुल हिरना-सा / खोजूँ तुमको।

चाँद उदास / लगा तुम रोए हो / आज की रात।

चूमना चाहे / चाँद को प्यासा सिंधु / चूम न पाए।

चौमुखा दिया / बनके जला मैं / कभी तो आओ।

जीवन सारा / बन गया गोमुख / दुःख ही बहा

जोगिया भेस / उदास हुई साँझ / बनी योगिनी।

तुम्हारी याद / रोम रोम में गूँजे / बनके नाद।

मन बावरे / दर्द के साथ पड़ी / तेरी भाँवरें।

कवि का प्रेम उदात्त है, वहाँ दैहिकता / वासना नहीं है, बस भावाकुलता है। \ ; क्योंकि कवि का मानना है-"वासना कीट / करता बदरंग / जीवन-रंग।" उनके प्रेम में पवित्रता है, जीवन के पथ को आलोकित करने की क्षमता है, प्रिय का नाम-रूप उन्हें अंधकार में प्रकाश प्रदान करने वाला है-"घने अँधेरे / प्रकम्पित लौ तुम / किये उजेरे।"

"घना अँधेरा / सिर्फ एक रोशनी नाम तुम्हारा।" प्रिय के आगमन से कवि का जीवन महकने लगता है-"खुशबू फैली / नहाया हर कोना / तुम आ गये।"

"खुशबू भरी / हर बात तुम्हारी / फूलों की क्यारी।"

अन्तः प्रकृति का क्षेत्र व्यापक है इसमें कवि के समस्त मनोभावों को समाहित किया जा सकता है, इन मनोभावों के अंतर्गत साहित्य की रस-दशा भी समाहित है, शृंगार के संयोग-वियोग पक्ष के साथ ही करुण एवं शांत रसों को भी देखा जा सकता है।

लोक जीवन के प्रतीक-

कविता का मूल उत्स लोक ही है, लोक जीवन, लोक-मन और लोक संस्कृति के अभाव में कविता का जीवन दीर्घ नहीं हो सकता, 'बंद कर लो द्वार' के हाइकु इस बात के प्रमाण हैं कि उनकी लोक जीवन और संस्कृति पर गहरी पकड़ है, लोक जीवन के अनेक प्रतीकों एवं बिम्बों का प्रयोग उन्होंने प्रभावी ढंग से किया है-उनका एक हाइकु है-

भिड़ते मेघ / मरखने साँड़ों से / नभ कुचलें

यहाँ बड़ा सहज किंतु संश्लिष्ट बिम्ब है जब गगन में मेघ के टुकड़े तीव्र गति से भागते हैं, टकरा कर गर्जन करते हैं, तो कवि को ऐसा प्रतीत होता है, मानो दो मरखने साँड़ द्वंद्वरत होकर नभ को कुचल रहे हों मेघों की उपमा मरखने साँड़ों से बिल्कुल नई है, जिन्होंने गाँवों, मोहल्लों या बाज़ारों में मरखने साँड़ों को उत्पात करते देखा है, वे इस दृश्य के मर्म का अनुभव कर हाइकु का आनन्द ले सकेंगे, इसी प्रकार के कुछऔर बिम्ब है जिनमे लोक जीवन से जुड़े दृश्यों को देख जा सकता है यथा-

व्योम अखाड़े / ढोल तिड़क धुम्म / मेघों की कुश्ती।

तथा-

धान रोपती / छप-छप बदरी / अम्बर क्यारी।

चाँद-दराँती / काटे रात भर / मेघों का खेत।

इन बिम्बों का अर्थ भी वही ग्रहण कर सकता है जिसने लोक जीवन को निकट से देखा / समझा हो।

लोक जीवन से बिम्बों के चुनने के साथ ही लोक विश्वासों एवं लोक संस्कृति को भी हाइकु में चित्रित किया गया है यथा-

पेंग बढ़ाए / मन ही मन गाए / भोली बिटिया।

खेलते खो-खो / मेघ-शिशु अम्बर / शोर मचाएँ।

अलंकार-योजना

केवल तीन पंक्तियों एवं सत्रह वर्णो की कविता में अलंकारों का चित्रण भी कवि की मेधा, अध्ययन एवं कौशल से ही सम्भव है, अधिकांशतः हाइकु में मानवीकरण या उपमा-रूपक अलंकार स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं, किन्तु काम्बोज जी के हाइकु में अनेक अलंकारों को देखा जा सकता है, उदाहरण के लिए कुछ अलंकारों के उदाहरण द्रष्टव्य हैं

अनुप्रास

पर्ण-पर्ण में / अम्लान छवि तेरी / आद्या अपर्णा।

आपका आना / हम सबके साथ / घर विहंसा।

जीवन जाए / किसी बहन पर / आँच न आए।

उपमा-

खिली धूप-सा / निखरा मधु रूप / खिले नयन।

रूपक-

वासना-कीट / करता बदरंग / जीवन रंग।

अम्बर-क्यारी / खरगोश-बादल / दुबकें, दौड़ें।

चाँद-दराँती / काटे रात भर / मेघों का खेत।

उत्प्रेक्षा-

चाँद उदास / लगा तुम रोए हो / आज की रात।

यमक-

ठिठका चाँद / झाँका जो खिड़की से / दूजा चाँद।

दृष्टांत-

बीहड़ वन / हिंस्र जीवों से घिरा / यही जीवन।

उदाहरण-

भाल तुम्हारा / मन में झिलमिल / ईद का चाँद।

घोर अमा है / जीवन अघोरी—सा / अपना मन।

सन्देह-

बूँद टपकी / नभ या नयन से / किसने जाना।

भ्रांतिमान-

गुलाबी होंठ / मुस्कान थिरकी या / भोर-किरन।

खिले कमल / या हँसा सरोवर / देख भोर को।

खिला कमल / या तुम मुस्काई हो / बनके भोर।

विरोधाभास-

अंधी रोशनी / टटोल रही रास्ता / कोहरा घना।

पूर्ण हो तुम / मुझको घटा दोगो / फिर भी पूरे।

मानवीकरण-

बेला का नशा / पी करके हवाएँ / हुईं बावरी।

जोगिया भेस / उदास हुई साँझ / बनी योगिनी।

असंगति-

घाव तुम्हारे / रिसे है निरन्तर / मेरे भीतर।

इसी प्रकार अन्य अलंकारों को भी संग्रह में देखा जा सकता है।

भाषा एवं बिम्ब-विधान

विश्व में प्रचलित वर्तमान साहित्यिक विधाओं में हाइकु सर्वाधिक छोटी कविता है, इसकी लघुता इसकी शक्ति भी है और कमजोरी भी, भाषा, प्रतीकों एवं बिम्बों का सटीक और सफल प्रयोग ही हाइकु को महत्त्वपूर्ण बनाता है, यह प्रयोग सतत साधना से ही सम्भव है। काम्बोज जी श्रेष्ठ साहित्य साधक हैं उनके हाइकु भाषा की दृष्टि से भी उत्कृष्ट हाइकु हैं, अभिनव एवं अद्भुत बिम्बों के चित्रण में वे सिद्धहस्त हैं, यथा-

कसीदे काढ़े / चुप्पी के अनगिन / पिरोई साँसें।

इस हाइकु में कवि ने कसीदे काढ़ने का जो अद्भुत प्रयोग किया है, वह चमत्कृत करता है।

विरह की चरम दशा है जब प्रेमी / प्रेमिका अवसाद की स्थिति में है, उसने चुप्पी ओढ़ रखी है, केवल साँसों के आने जाने का क्रम है, वही उसके जीवित रहने का प्रमाण है, इस चरम दशा को छोटे से हाइकु में विलक्षण बिम्बों में प्रस्तुत किया गया है, इसके जितने भी विस्तार में जाएँ उस भावदशा को व्याख्यायित करने के लिए कम होगा। यह हाइकु पाठक को रस दशा में ले जाता है। वस्तुतः हाइकु का सौंदर्य ही इस बात में निहित होता है कि उसमे कहे से अधिक अनकहा होता है, हर पाठक अपनी मनःस्थिति और भावनाओं के अनुरूप हाइकु की व्यंजना को ग्रहण करता है, एक और उदाहरण द्रष्टव्य है-"चौमुखा दिया / बनकर जला मैं / कभी तो आओ।"

चौमुखा दिया बनकर जलने का बिम्ब अभिनव तो है ही साथ ही व्यापक अर्थ का द्योतक है, सम्भवतः महानगरीय संस्कृति में पलने-बढ़ने वाले नई पीढ़ी के बहुत से लोग तो चौमुखा दिया से अनभिज्ञ ही हो, विरह में नायक भी ऐसे दीपक की तरह जल रहा है, जिसमे चारों ओर बाती जलती है, ये जलना बड़ा ही प्रतीकात्मक है, दिए में जलने के लिए नेह (स्निग्धता) अनिवार्य है। यहाँ विरही भी नेह की अग्नि से जल रहा है, जैसे चौमुखा दिया चारों दिशाओं को अपनी ज्वाला से आलोकित करता है वैसे ही नेह-प्रसूत विरहाग्नि चतुर्दिक अपनी ज्वाला बिखेर रही

काम्बोज जी की भाषा में लोक में प्रचलित सामान्य उक्तियों एवं मुहावरों का सुंदर एवं सार्थक प्रयोग भी मिलते हैं, यथा-

आँखों के तारे / दीपोत्सव मनाएँ / प्राण जुड़ाएँ।

यहाँ एक ही मुहावरे में आँखों के तारे मुहावरे और प्राण जुड़ाना लोकोक्ति का बहुत सार्थक प्रयोग है, इसी प्रकार कुछ और प्रयोग देखे जा सकते हैं-

आँखें तरसें / अपलक तकती / सूनी है बाट।

आँखों की नमी / बिना बोले कहती / क्या-क्या है कमी।

आँखें दिखाए / घर-द्वार-आँगन / चलते चलो।

बेटी मुस्काए / तन-मन के दुःख / हवा हो जाएँ।

बिछड़े तुम / कटी पतंग हम / किधर उड़ें?

भाषा में अभिधात्मक प्रयोग कम हैं, कवि ने प्रायः लक्षणा एवं व्यञ्जना को ही ग्रहण किया है, कहीं भाषा, आलंकारिक है, कहीं-कहीं संश्लिष्ट तो कहीं एकदम सीधी सहज देशज भाषा। संग्रह में सामाजिक सरोकारों के हाइकु भी हैं वहाँ भाषा की सहजता देखी जा सकती है-

गाँव था स्वर्ग / आकर के चुनाव / विष बो गया।

आज का गाँव / युवा हुए लापता / झींकते बूढ़े।

बात अधूरी / फोन क्या कट गया / हुई न पूरी।

बेटी मुस्काए / तन-मन के दुःख / हवा हो जाएँ।

निःसन्देह भाषा के जितने सार्थक एवं सुंदर प्रयोग सम्भव हैं, काम्बोज जी के हाइकु में देखने को मिल जाते हैं।

दार्शनिक एवं आध्यात्मिक सत्य—

काम्बोज जी के अनेक हाइकु दार्शनिक एवं आध्यात्मिक अर्थो की व्यंजना भी करते हैं, उदाहरणार्थ एक हाइकु है—

अंधी रोशनी / टटोल रही रास्ता / कोहरा घना।

अभिधा में यह हाइकु साधारण अर्थ का प्रतीत होता है, घने कोहरे में चलते हुए वाहनों की रोशनी भी इतनी क्षीण होती है कि रोशनी भी नज़र नहीं आती लगता है। वह रोशनी भी रास्ता टटोल कर चल रही है, पर इसका व्यंग्यार्थ अध्यात्म में घटित होता है, साधक और ईश्वर के मध्य भ्रम का घना कुहासा है, भौतिकता की चकाचौंध वह अंधी रोशनी है जिसमे रास्ता खो जाता है और साधक अनुमान से (टटोलते हुए) लक्ष्य की ओर अग्रसर है।

अध्यात्म एवं दर्शन के गूढ़ तथ्यों को काम्बोज जी के कई हाइकु में देखा जा सकता है, कहीं व्यंजना में और कहीं अभिधा या लक्षणा में यथा-"अंश तुम्हारा / तुमको घटाया तो / कुछ न बचा।" जिसे उपनिषद् कहता है-"सर्वम खल्विदं ब्रह्म" , या तुलसी कहते हैं 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी।' तो उसका सीधा अर्थ है कि हम सब आत्म रूप में ईश्वर के अंश है, इस चेतना को स्वयं से हटा दिया जाए (गणितीय भाषा में घटा दिया जाए) , तो जो होगा, वह शून्य (कुछ नहीं) बचेगा। इस आध्यात्मिक सत्य को छोटे हाइकु में व्यक्त करना भी साधना से कम नहीं। उपनिषद् के पूर्णं, पूर्णमिदं... वाले भाव को भी उन्होंने अत्यंत कौशल से छोटे से हाइकु में व्यक्त किया है-

पूर्ण हो तुम / मुझको घटा दोगे / फिर भी पूरे।

हाइकु का वैशिष्ट्य इस बात में भी है कि ब्रह्म ज्ञानी तो इसे ब्रह्म के संदर्भ में ग्रहण करेगा, जबकि सामान्य प्रेमी इसे लौकिक जीवन के प्रिय पर घटित करके अर्थ ग्रहण कर लेगा।

सूफी दर्शन के लौकिक से अलौकिक प्रेम की व्यंजना के भाव को भी अनेक हाइकु ध्वनित करते हैं, कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं-

घने अँधेरे / प्रकंपित लौ तुम / किये उजेरे।

घना अँधेरा / सिर्फ एक रोशनी / नाम तुम्हारा।

अमृत-सिंधु / जिसको भेंट मिला / मिली है तृप्ति।

एक ही रूप / प्रभुवर हों मेरे / या मेरा चाँद।

'बंद कर लो द्वार' के काव्यशास्त्रीय विवेचन का यह आलेख एक संक्षिप्त प्रयास भर है, 661 हाइकुओं के वैशिष्ट्य को संक्षिप्त आलेख में पूर्णतः व्यक्त करना सहज नहीं है। समग्रतः यही निष्कर्ष निकलता है कि 'बंद कर लो द्वार' में भारतीय काव्य-शास्त्र के समस्त गुण विद्यमान हैं।