'यह विदा है, अलविदा नहीं’ / जयप्रकाश चौकसे

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‘प्रिय पाठको ...यह विदा है, अलविदा नहीं, कभी विचार की बिजली कौंधी तो फिर रूबरू हो सकता हूं, लेकिन संभावनाएं शून्य हैं’
प्रकाशन तिथि : 25 फरवरी 2022


जयप्रकाश चौकसे पिछले 26 वर्षों से भास्कर में परदे के पीछे कॉलम रोजाना लिख रहे हैं। पिछले काफी वक्त से वे कैंसर से पीड़ित हैं परंतु अस्पताल और घर पर बिस्तर इन दोनों जगह भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। आज सुबह उन्होंने मुझे फोन किया कि अभी तक बेसुध स्थिति में भी भास्कर के करोड़ों पाठकों की शक्ति उन्हें ऊर्जा दे रही थी और वे तमाम मुश्किलों के बाद भी रोजाना लिख लेते थे लेकिन अब ये नहीं हो पा रहा है, सेहत का मुश्किल दौर है इसलिए वे आज आखिरी कॉलम लिखना चाहते हैं। चौकसे जी के जज्बे और 26 सालों के परिश्रम को सलाम। ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके साथ बहुत अच्छा हो। उनकी जगह और जज्बे को भरना असंभव है। भास्कर और उसके पाठक इन 26 वर्षों की यात्रा के लिए हमेशा कृतज्ञ रहेंगे। इसलिए आज का कॉलम पहले पेज पर। - - सुधीर अग्रवाल

प्रतिदिन प्रकाशित होने वाला यह कॉलम अपनी यात्रा के 26 वर्ष पूरे कर चुका है। इस यात्रा में आनंद आया और सबसे बड़ी बात यह है कि यह मुझे बेहतर इंसान बनाता गया। फिल्म उद्योग में बहुत से मित्र बने और कुछ रिश्ते लंबा सफर तय कर पाए। सलीम खान ने जीवन में कठिनाई आने पर मुझे वित्तीय सहायता भी पहुंचाई। कुछ रिश्तों की तीसरी पीढ़ी चल रही है। आज भी रणधीर कपूर, जावेद अख्तर और बोनी कपूर से संवाद होता रहता है। कभी-कभी लिखने में मुझसे चूक हो गई तो पाठकों ने मेरा ध्यान उस ओर आकर्षित कराया।

अब विचार प्रक्रिया लुंज हो चुकी है। प्राय: यह भी भूल जाता हूं कि मैं नाश्ता कर चुका हूं। आज मुझे बहुत दुख हो रहा है कि यह मेरे कॉलम की आखिरी किस्त है। जब सुधीर अग्रवाल ने मुझे कॉलम लिखने को कहा था, तब तक भारत के अखबारों में मनोरंजन पर केवल साप्ताहिक सामग्री आती थी। स्वयं मैंने इस कॉलम के पूर्व भास्कर के लिए 10 वर्षों तक साप्ताहिक कॉलम लिखा है। भास्कर ने मुझे अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता दी है। कॉलम प्रारंभ करते समय भास्कर के तत्कालीन संपादक श्र‌वण गर्ग ने कहा था कि कॉलम में जानकारियों, मनोरंजन के साथ कभी-कभी बहुत ही गहराई वाली दार्शनिक बात भी कहनी चाहिए। पढ़ना और पढ़ाना हमारा परिवार दशकों से कर रहा है। मेरे पिता पूरे परिवार के साथ हर नई फिल्म देखने जाते थे। उस दौर में फिल्म देखना बहुत बुरा माना जाता था। मैं कई बार बीमार पड़ा हूं परंतु अस्पताल से भी लिखता रहा हूं। इस पूरी लेखन यात्रा में मेरी पत्नी उषा ने मेरी त्रुटियां दूर की हैं।

विगत कुछ समय से मेरा पुत्र राजू मुझे जानकारी देता रहा है। छोटा पुत्र आदित्य तो फिल्म उद्योग से जुड़ा ही है। कभी-कभी कुछ पाठकों को मेरे विचार पसंद नहीं आए लेकिन उन्होंने मुझे पढ़ना नहीं छोड़ा। यह कॉलम एक मंच बन गया। हेमचंद्र पहारे और विष्णु खरे मेरे पुराने मित्र रहे हैं परंतु इसी कॉलम के कारण कुमार अंबुज जैसे विचारक से भी मेरा परिचय हुआ और आज भी हमारे बीच संवाद कायम है।एक बार महाराष्ट्र सरकार ने मुझे पुरस्कार दिया। मंत्री जी ने बताया कि उनका पोता अमेरिका में रहता है। उसके बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए रविवार को शिक्षक आता है। उसने मेरे कॉलम अपने छात्रों को सुनाए कि सरल भाषा में भी गहरे विचार प्रकट किए जा सकते हैं। भोपाल की रितु पांडेय शर्मा ने मुझ पर एक किताब लिखी, ‘जय प्रकाश परदे के सामने’ जो सराही गई है।इस कॉलम को लिखने के कारण पहल मंच जबलपुर, महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वर्धा इत्यादि कई जगह, मैं भाषण के लिए आमंत्रित किया गया। इसी कॉलम ने मुझे एक पहचान दी।

मेरे लिए यह कॉलम लिखना बंद करना बहुत दुखद है लेकिन विचार प्रक्रिया लुंज पड़ने के कारण यह करना पड़ रहा है। मैं अपने पाठकों से क्षमा मांगता हूं। खुद से भी शर्मसार हूं परंतु यह मेरी मजबूरी हो चुकी है।मेरे लिए गर्व की बात है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री गहलोत साहब ने मुझे नेहरू पर लिखे मेरे लेख के लिए बधाई दी थी। इसी कॉलम के कारण मुझे छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आमंत्रित किया गया। लेखक संजीव बख्शी से मेरा परिचय हुआ और आज भी संवाद जारी है।

आज दुख हो रहा है, साथ ही एक मुक्ति भाव यह है कि अब उत्तरदायित्व कम हो गया है। यह भी मैं जानता हूं कि मुक्ति कितनी भ्रामक हो सकती है। ‘जंजीरों की लंबाई तक ही है सारा सैर-सपाटा। यह जीवन शून्य बटा सन्नाटा है।’ ये निदा फाजली की पंक्तियां हैं परंतु वही सन्नाटा मैं भी महसूस कर रहा हूं। मुझे आज भी यह दुख सालता है कि निदा फाजली अधिक समय तक नहीं रहे। पत्रकार राजेंद्र माथुर तो हमेशा याद आते हैं। प्रिय पाठको, यह विदा है लेकिन अलविदा नहीं है। कभी विचार की बिजली कौंधी तो फिर रूबरू हो सकता हूं लेकिन संभावनाएं शून्य हैं।