'राजी', रजामंदी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'राजी', रजामंदी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता
प्रकाशन तिथि : 30 मई 2018


मेघना राखी गुलजार की आलिया भट्‌ट अभिनीत फिल्म 'राजी' टिकिट खिड़की पर धूम मचाने के साथ ही अत्यंत प्रशंसा प्राप्त कर रही है। हर वर्ग का दर्शक फिल्म को पसंद कर रहा है। एक युवती को जासूस बनाकर एक पाकिस्तानी से ब्याह दिया जाता है। वह ब्याहता पाकिस्तान से सूचनाएं भेजती है। वह गर्भवती अवस्था में अपना मिशन पूरा करके भारत वापस आती है परंतु दबाव के बाद भी गर्भपात कराने से इनकार करती है। उसकी कोख में पल रहा बच्चा उसका अपना है और कोख पर केवल उसका अधिकार है। भारतीय गुप्तचर विभाग ने उसे जासूसी के लिए भेजा और अंत में वह एक पाकिस्तानी का बीज अपनी कोख में लिए भारत आ गई। अब अगर इस फिल्म का भाग दो बनाया जाए, तो वह बच्चा युवा होकर अपने पिता से मिलना चाहेगा। पिता के वतन जाना चाहेगा। अपनी दादी व चाचा ताऊ से मिलना चाहेगा। कोई सरहद कोख को बांट नहीं सकती।

याद आती है राजकुमार संतोषी की फिल्म 'दामिनी'। एक गरीब घर की कन्या से एक अमीरजादे को प्यार हो जाता है। विरोध के बावजूद वह विवाह कर लेता है। सारा परिवार बहू के आचार-विचार से खुश है। होली के दिन उसका देवर घर की नौकरानी के साथ दुष्कर्म करता है। दामिनी चश्मदीद गवाह है और वह दुष्कर्मी को दंडित कराती है। सिनेमाघर से बाहर निकलते हुए एक दर्शक ने कहा कि बहू का काम है ससुराल की रक्षा करना परंतु इस बहू ने तो अपने देवर को ही मृत्युदंड दिलवा दिया। अवाम के अवचेतन में समानता, स्वतंत्रता और न्याय के मूल्यों के लिए स्थान नहीं है। कुरीतियां, अंधविश्वास एवं पूर्वग्रह अवचेतन में गहरे पैठे हुए हैं और आज भी हम मायथोलॉजी से शासित हैं। हमारी सारी आधुनिकता केवल लिबास के द्वारा ही अभिव्यक्त होती है। क्या सड़क पर चलते हुए लोग मात्र हेंगर हैं, जिन पर कपड़े लटके हैं और घरों में बैठे लोग मात्र लुंगियों या पायजामों का चलता-फिरता तमाशा है या पूर्वग्रह की खूंटी पर टंगे हुए कपड़े हैं।

अरुणा राजे की फिल्म 'रिहाई' में सौराष्ट्र के एक गांव के उन कारीगरों की कहानी है, जो ग्यारह माह मुंबई में काम करते हैं और एक माह की छुट्‌टी में घर आते हैं। इस तरह उस बस्ती में ग्यारह माह तक केवल औरतें, बच्चे और उम्रदराज लोग रहते हैं। उसी बस्ती का एक बातूनी व्यक्ति दुबई में मजदूरी करता है और एक माह के लए अपने कस्बे में आता है। विवाहिता हेमा मालिनी अभिनीत स्त्री उसकी लफ्फाज़ी से मोहित होकर उसके साथ संबंध बना लेती है। जब उसका पति ग्यारह माह बाद लौटकर आता है तब अपनी पत्नी को गर्भवती पाता है। पत्नी उसे सब कुछ बता देती है। वह अपनी पत्नी को इतना प्यार करता है कि उसे क्षमा करना चाहता है परंतु उसकी शर्त है कि वह गर्भपात करा ले। सारा गांव यही चाहता है परंतु वह गर्भपात से इनकार करती है। वह कहती है कि जैसे उसने अपने पति का बीज धारण करके दो बच्चों को जन्म दिया था, वैसे ही वह इस तीसरे को भी जन्म देगी,क्योंकि उसकी कोख के जाये सारे बच्चे उसके अपने हैं। स्त्री की विचारशैली और उसकी कोख उसके अपने वजूद का ही दो भागों में बंटा हुआ एक ही विचार है।

'रिहाई' के क्लाइमैक्स में ग्राम पंचायत हेमा को गांव छोड़ने का आदेश देती है। एक उम्रदराज महिला खड़े होकर कहती है कि हमेशा स्त्रियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे सीता-सा आचरण करें परंतु क्या पुरुष कभी राम-सा आचरण करते हैं? वह उम्रदराज सभी स्त्रियों से कहती हैं कि हेमा की तरह वे सब भी गांव छोड़ दें और ऐसा होते देखकर पुरुष उनको मनाते हैं और हेमा का निष्कासन वापस लेते हैं। दरअसल, हिन्दुस्तानी सिनेमा में स्त्री पात्रों के विविध रूप प्रस्तुत किए जाते हैं। 1937 में शांताराम की फिल्म 'दुनिया ना माने' की चौदह वर्षीय कन्या अपने दुजवर साठ वर्षीय पति को अपने शरीर को हाथ भी नहीं लगाने देती। मेहबूब खान की 'नजमा' की डॉक्टर बहू परदा नहीं करती। सारा परिवार उससे खफा है परंतु परदा नहीं करने के कारण ही वह अपने श्वसूर को हो रहे हृदयघात को देख पाती है और सही समय पर उपचार करके उसके प्राणों की रक्षा करती है। इसी कथा को ऋषिकेश मुखर्जी ने मूल फिल्म के दशकों बाद बनाया था और इस्लाम के मानने वाले परिवार की जगह सारे पात्र एक हिन्दू परिवार में रोपित किए थे। इसी तरह 'मदर इंडिया' की राधा और गाइड की रोजी महिला के दो स्वरूप हैं, तो शूजीत सरकार की 'कहानी' की नायिका तीसरा स्वरूप है।

हम व्यक्तियों को जातियों और अन्य श्रेणियों में बांटकर देखने की भूल करते हैं, जबकि हर व्यक्ति अपने में एक राष्ट्र ही नहीं वरन एक संसार भी है, जो विचार की धुरी पर घूमता है। अत: एक राजनीतिक दल द्वारा वैचारिक रेजीमेंटेशन का प्रयास भयावह परिणाम दे सकता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का महत्व हमारे अपने वेदों और उपनिषदों में वर्णित है। सूत्र संदेश 'अहम ब्रह्मास्मी' अर्थात मैं स्वयं ही अपना कर्म और विचार तय करते हुए अपने आप में एक संसार हूं। लोकप्रिय नारेबाजी इन गहराइयों में गूंजती हुई आवाज की तरह है जैसे सूखे कुंए से भाय भाय की आवाज आती है।