'शाहिद' मानवीय करुणा का दस्तावेज / जयप्रकाश चौकसे

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'शाहिद' मानवीय करुणा का दस्तावेज
प्रकाशन तिथि : 19 अक्तूबर 2013


हंसल मेहता की सत्य से प्रेरित फिल्म 'शाहिद' से हमारे सिनेमाई अफसानों के बादलों के बीच बिजली सी कौंध जाती है और हमें लोमहर्षक अनुभव देती है। हमारे सौ साल के सिनेमा में अफसानों का संतुलन सामाजिक सोद्देश्यता वाली फिल्मों से करने के प्रयास हमेशा होते रहे हैं और इनका द्वंद्व सिनेमा की ऊर्जा भी रहा है। अगर हम बर्बर आतंकवादियों द्वारा कत्ल निर्दोष लोगों को एक पलड़े पर रखें और दूसरे पलड़े पर उन निर्दोष लोगों की यातना को रखें जिन्हें केवल पूर्वाग्रह के आधार पर जेलों में ठंूसा गया है तो हमें वर्तमान की सबसे भयावह त्रासदी का सही अंदाज होता है। दंगों में मरने वाले निर्दोष और छोटी सी शंका के कारण पकड़े गए लोग मानवीय यातना के दो चेहरे हैं और दर्द सारी तुलनाओं से परे होता है। न जख्म की जान होती है, न आंसू का कोई धर्म होता है।

शाहिद आजमी के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को निहायत ही संवेदनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। फिल्मकार किसी का भी पक्ष नहीं लेता, वह केवल मानवीय करुणा को प्रस्तुत करता है। जीवन से विश्वास इस कदर चला गया है कि दंगे के समय मां दरवाजा नहीं खोलती, उधर दस्तक देने वाला उसका पुत्र ही है परंतु अविश्वास ने एक दीवार खड़ी कर दी है। इस तरह के अनेक दृश्य हैं इस सामाजिक दस्तावेजनुमा बनाई गई फिल्म में। मसलन, गरीब परिवार का एकमात्र कमाऊ बेटा लंबे समय से भार उठा रहा है और अपने सफल छोटे भाई के विवाह के बाद कहता है कि अब वह थक गया है। आखिर कब तक वह पल-पल इम्तहान देता रहे। इस पात्र को जीवंत कर दिया है जीशन अय्युब ने।

हंसल मेहता ने दोनों पक्षों के बीच परफेक्ट संतुलन बनाया है। मुंबई दंगों के बाद शाहिद अपना संतुलन खोकर जिहाद की शिक्षा लेने जाता है और हिंसा तथा बर्बरता देखकर अपने घर लौट आता है। उसका ध्येय तो सत्य का संधान था परंतु निर्जीव कानून से बंधी मुंबई पुलिस उसे प्रोडिगल बेटे की तरह नहीं वरन् एक अपराधी की तरह जेल में ठंूसकर दिनरात यातना देती है और जेल परिसर में ही उसे एक व्यक्ति मिलता है जो उसकी शिक्षा का भार उठाता है और भारतीय न्याय प्रक्रिया में विश्वास करने को कहता है। शाहिद एक सफल वकील के यहां काम करते समय पेशे की अपनी कमजोयिों से विचलित होकर स्वयं अपने दम पर केवल सत्य पक्ष की ओर से लडऩे का कठिन निर्णय लेता है। आतंकवादी समझे जाने वाले अनेक निर्दोष लोगों के मुकदमे लड़कर उन्हें यातना मुक्त कराता है। इसी दरमियान उसकी मुलाकात और मोहब्बत मरियम से होती है। यह शादी एक निरंतर हनीमून नहीं है क्योंकि शाहिद कभी सत्य संधान का पथ नहीं छोड़ता। इस सिलसिले में एक अद्भुत दृश्य है जब मरियम उससे एक केस छोडऩे को कहती है जिसके कारण उसे जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं। वह मरियम को याद दिलाता है कि कुछ समय पहले उसने इसी तरह के एक केस को नहीं छोडऩे की सलाह दी थी। मरियम कहती है कि उस समय वह उसकी पत्नी नहीं थी, अब उसे उसकी जान की फिक्र है। यह एक स्वाभाविक व पारंपरिक दृष्टिकोण है परंतु यह रेखांकित करता है कि प्रेम हमें विवश करता है कि हम सत्य संधान छोड़ दें। इस तरह प्रेम कमजोरी का स्वरूप लेकर अधिकतम लोगों को सत्य की राह से हटा देता है।

हंसल मेहता मानवीय कमजोरी और करुणा का पक्ष कहीं नहीं छोड़ते। उन्होंने शाहिद की अनपढ़ परंतु जुझारू मां के चरित्र में एक स्वाभाविक समझदारी को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। दरअसल इस फिल्म के तमाम पारिवारिक दृश्यों में रिश्तों की मिठास, उनका सहज उपहास इत्यादि बातें दिखाकर दर्शक को ही परिवार का सदस्य बना दिया है। 'शाहिद' जैसी फिल्म का प्रदर्शन संभव करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को बधाई कि उन्होंने यह जानकर कि अधिक दर्शक शायद न िलें तो भी फिल्म प्रदर्शित की है। असफल होने पर भी ऐसे प्रयास का अपना ऐतिहासिक महत्व है। शाहिद की भूमिका में राजकुमार यादव ने अत्यंत स्वाभाविक अभिनय किया है। 'काई पो छे' में जो प्रतिभा की चिंगारी उन्होंने दिखाई थी, वह इस फिल्म में शोला बन गई है। वह इतना संयत व नपातुला है कि बरबस युवा दिलीपकुमार की याद दिलाता है। उसके पारदर्शी चेहरे पर पात्र की यातना व आनंद दोनों ही आपके दिल को छू लेते हैं।