अँधियारे को खदेड़ता बूढ़ा सूरज / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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अँधियारे को खदेड़ता बूढ़ा सूरज(हरेराम समीप)

हाइकु का दिन-प्रतिदिन जितना विस्तार होता जा रहा है, उतना ही गुणात्मक सर्जन भी हो रहा; साथ में उतने ही स्वयंभू एवं कूप मण्डूक व्याख्याकार भी उग रहे हैं। कुछ ने तो जापान के तेरह सौ साल से भी अधिक पुराने छ्न्द सेदोका के आधारभूत छन्द katauta 5-7-7 (इसे Encyclopædia Britannica. Encyclopædia Britannica ने सेदोका की आधी कविता माना है) का नामकरण अपने ही नाम पर करके का नया छन्द घोषित कर दिया। कुछ ने हाइकु के लिए विषय की सीमा बताई है जो बहुत पुरानी पड़ चुकी है, जिसे जापान सहित विश्वभर के हाइकुकार पहले ही नकार चुके हैं। इसे हिन्दी काव्य-जगत पर कैसे थोपी जा सकता है, जबकि जापान में यह स्वीकार कर लिया गया कि हाइकु-सर्जन किसी भी विषय पर हो सकता है। हाइकु के क्षेत्र में ' हिन्दी का प्रथम हाइकु कवि बाल कृष्ण बालदुआ माने जाते है, जिन्होंने 1947 में अनेक हाइकु लिखे। उदाहरण स्वरूप एक हाइकु देखा जा सकता है-बादल देख / खिल उठे सपने / खुश किसान। " [परिषद्-पत्रिका अंक अप्रैल 2010-मार्च 2011, पृष्ठ-182]

हरेराम समीप जी की चाहे छन्दोबद्ध रचना हो चाहे मुक्त छन्द, सब जगह एक आन्तरिका अनुशासन ज़रूर है। कोई रचनाकार किसी भी विधा से जुड़ा हो, उसकी सबसे बड़ी प्राथमिकता है-सामाजिक सरोकार। बाह्य प्रकृति मनुष्य की स्वार्थ-लिप्सा की भेंट चढ़ रही है। संसाधनों के दोहन करने पर आने वाला कल समस्याओं और चुनौतियों-भरा होगा। गंजे पहाड़ आने वाले विभीषिकाग्रस्त समय की दस्तक दे रहे हैं—गंजे पहाड़ / सूखती नदी देख / रोया आकाश।

अन्त: प्रकृति छल-छद्म की शरणस्थली बनकर रह गई है। लोकतन्त्र के स्वर्णिम मूल्य क्षेत्रवाद, जातिवाद और कुरूप पूँजीवाद की भेंट चढ़ गए हैं। लोकसेवकों की भूमिका जनहित विरोधी होती जा रही है। प्रशासन नई विकृतियों और जटिलताओं को जन्म दे रहा है। भूख विश्वव्यापी समस्या बनती जा रही है। पूँजी का असमान वितरण जनसामान्य के जीवन को और अधिक जटिल बनाता जा रहा है। छद्म धर्म का कवच सब पापों पर पर्दा डालने की छूट ले रहा है। इस पर कवि ने जगह-जगह प्रहार किया है। यही कारन है कि इनके हाइकु में कहीं दीनता है तो केवल इसलिए कि जीवन के सारे ज़रूरी साधन बौने हो गए हैं। मेहमान आने की स्थिति में उसकी यह दीनता किस तरह मुखर हो उठती है—हे प्रभु! आज / मेरे घर फाके हैं / कोई न आए!

इस दीनता से बचने और छूटने की व्याकुलता प्रखर होती जा रही है। जीवन के सारे तीखे प्रश्न उत्तर पाने तड़प लिये हुए हैं। अकाल की स्थिति में किसान की बेचैनी क्षणिक नहीं; वह इतनी अधिक है कि पूरा साल सहम उठा है कि आने वाला समय कैसे कटेगा—पड़ा अकाल / किसान की आँखों में / सहमा साल।

अकाल में जो चिड़िया की गति होती है, वही जन सामान्य की होती है; क्योंकि यह अकाल होता भी इसी वर्ग के लिए. अघाए लोग अपच के शिकार हो सकते हैं; अकाल के नहीं—मेरी कहानी / अकाल में चिडि़या / दाना न पानी।

ये हाइकु जीवन की तल्ख़ियों की कसमसाती इबारत हैं, जिसे सुविधा भोगी वर्ग कवि की कुण्ठा कह सकता है। यह वर्ग इस बात की पड़ताल करने से ख़ौफ़ खाता है कि आखिर जिसे केवल पेट ही भरना है, कल के लिए जमा नहीं करना है, उसके मुँह का कौर क्यों छीना जा रहा है! वह कौर कौन छीन ले रहा है? -रात गुजारें / रोटी की चर्चा कर / भूख को मारें।

दु: ख के घरों की छते आपस में ज़रूर मिलती हैं; अर्थात् ये गरीब लोग एक दूसरे के दु: ख को बिना बताए ही समझ जाते हैं—दुखिया साथी / न दे ज़्यादा सफाई / मैं तुझे जानूँ

वह अगर सवाल करता है तो उसके सवालों का जवाब न देकर उसको लोकतन्त्र विरोधी सिद्ध करने की साजिश क्यों रची जाती है? अगर कोई किसी चोर को चोर कह देता है तो यह चोर का अपमान कैसे और क्यों हुआ? जनता की आकांक्षाओं पर डाका डालने वाला खुद को लोकतन्त्र का पर्याय क्यों समझ बैठता है! क्या भूखों में अन्न वितरित करने के स्थान पर अन्न को सड़ाने का षडयन्त्र उस वर्ग का घोर अपमान नहीं है? इनका जीवन तो दिन भर की दिहाड़ी पर टिका है। अगर उस दिन काम न मिले तो रोटी कैसे मिलेगी? कौन है इसका हिमायती? कोई भी इनका साथ छोड़ दे; लेकिन गरीबी नहीं। वही तो इनकी सच्ची सहचरी है—काम न मिले / बिस्तर पकड़ ले / दृढ़ हौसला। -गरीबी बोले- / "जब तक जियूँगी / साथ रहूँगी।"

सही चश्मे से न देखना शोषक वर्ग की अपनी दुर्बलता है। दूसरों पर अपनी दुर्बलताएँ थोपना स्वयं में एक क्रूर वृत्ति है। इस विपन्न के लिए दु: ख का एक ही रूप निर्धारित नहीं। वह तो बहुरूपिये की तरह आता है, तरह-तरह के रूप धारण करके—नया स्वाँग ले / दुख बहुरुपिया / रोज आ जाए.

कवि समीप को आज के युवा की चिन्ता भी व्यथित करती है, क्योंकि यह पीढ़ी विषम परिस्थितियों का मुकाबला करते-करते थक चुकी है। इनकी हताशा देश के भविष्य के प्रति चिन्ता पैदा करती है। वैसे तो दैनन्दिन समस्याओं के कारण जीवन-संघर्ष, इतना अधिक हो गया कि सामान्य जन जीवन के युद्ध में शस्त्रविहीन योद्धा की तरह हो गया है। समस्याएँ पर्वत तो साधन राई भर—हताश युवा / हौसले की बारूद / सीलन भरी। -हुई मुश्किलें / अब पर्वत भर / मैं राई भर

भ्रष्ट से भ्रष्टतम होते समाज में आज अनिश्चय का घटाटोप छाया हुआ है। फिर भी कवि अन्ना हज़ारे के रूप में एक उजाले की किरण की उम्मीद करता है। अन्ना हज़ारे को बूढ़े सूरज के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना कवि की नवीन कल्पना है, जो इनके इस संग्रह की मूल संवेदना की पर्तें खोलती है- -बूढ़ा सूरज / खदेड़े अँधियारे / अन्ना हज़ारे।

कवि का हर बयान पीड़ित, पदमर्दित की आवाज़ बनकर उभरा है। —मेरा बयान / भरी अदालत में / गूँजती चीख।

समीप जी केवल आक्रोश या विद्रोह के ही कवि नहीं हैं। समाज के लिए अत्यावश्यक प्रेम एवं संवेदना की रसधार भी उसी तरह स्रवित होती नज़र आती है, जिस प्रकार चट्टानों के बीच से आकार लेता हुआ कोई कलकल छलछल करता झरना। रिश्तों की ऊष्मा उस आँच को बचाए हुए है, जिसे हम इंसानियत कहते हैं—दिलों के बीच / बढ़ा है जो फासला / प्रेम से पाट। -माँ बुनती है / सम्बन्धों का स्वेटर / नेह-धागे से।

शिल्प के मामले में कवि बहुत सजग है। इनकी पूर्व काव्य कृतियाँ इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जिनमें 'मैं अयोध्या हूँ' को रखा जा सकता है। सपनों का सौन्दर्यबोध बच्चों की धमा-चौकड़ी के रूप में नूतन बिम्ब प्रस्तुत करता है। यह हाइकु इनकी काव्य-सामर्थ्य का उत्कृष्ट उदाहरण है—ख़्वाब के बच्चे / आँगन में मचाते / धमा-चौकड़ी /

यह संग्रह उन लोगों के लिए अपरिहार्य चुनौती है, जो समझते हैं कि एलीट वर्ग ही इस देश का भाग्य विधाता है और वही, केवल वही सार्थक सर्जन कर सकता है। कवि तो गढ़ने और नया रचने के लिए संकल्पित है। उसके पास जो भाव और वैचारिक सम्पदा की गीली मिट्टी है, जिससे उसे कुछ नई सर्जना ही करनी है—चाक पर रक्खे / गीली मिट्टी सोचूँ मैं / गढूँ आज क्या?

कवि का यह संग्रह हिन्दी में अभी तक आए हाइकु-संग्रहों के तेवर से हटकर है; जो कवि को हाइकुकारों की अराजक भीड़ से अलग करता है। इसमें सामाजिक सरोकार सर्वोपरि है। ये वे सरोकार हैं जो घर की दहलीज से शुरू होकर पूरे विश्व में पंख पसारने को आतुर हैं। मैं आशा करता हूँ कि अपने नए तेवर और भाव-भंगिमा के कारण हाइकु-जगत गर्मजोशी से इसका स्वागत करेगा।

> (16 जुलाई, 2012)