अंक-2 / आगरा बाजार / हबीब तनवीर

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परदा उठने से पहले फकीर उसी तरह हाल में से गुजर कर परदे के सामने खड़े होकर 'बंजारानामा' सुनाते हैं। आखिरी बंद पर परदा उठता है।

फकीर : टुक हिर्सो-हवा (लालच लोभ) को छोड़ मियाँ, मत देस-बिदेस फिरे मारा कज्‍जका अजल (काल, मृत्‍यु) का लूट है दिन-रात बजाकर नक्‍कारा क्‍या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर, क्‍या गोई, पल्‍ला, सरभारा क्‍या गेहूँ, चावल, मोठ, मटर, क्‍या आग, धूआँ, क्‍या अंगारा सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा गर तू है लक्‍खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है ऐ गाफिल, तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्‍यौपारी है क्‍या शक्‍कर, मिसरी, कंद, गरी, क्‍या साँभर, मीठा, खारी है क्‍या दाख, मुनक्‍का, सोंठ, मिरच, क्‍या केसर, लौंग, सुपारी है सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा जब चलते-चलते रस्‍ते में यह गोन (बोझ) तेरी ढल जावेगी इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने आवेगी यह खेप जो तूने लादी है, सब हिस्‍सों में बँट जावेगी धी, पूत, जँवाई, बेटा क्‍या, बंजारन पास न आवेगी सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा क्‍यों जी पर बोझ उठाता है इन गोनों भारी-भारी के जब मौत का डेरा आन पड़ा, फिर दूने हैं ब्‍योपारी के क्‍या साज जड़ाऊ, जर-जेवर, क्‍या गोटे थान किनारी के क्‍या घोड़े जीन सुनहरी के, क्‍या हाथी लाल अमारी (हाथी का हौदा) के सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा हर आन नफे और टोटे में क्‍यों मरता फिरता है बन-बन टुक गाफिल दिल में सोच जरा, है साथ लगा तेरे दुश्‍मन क्‍या लौंडी, बाँदी, दाई, ददा, क्‍या बंदा, चेला नेकचलन क्‍या मंदिर, मस्जिद, ताल, कुएँ, क्‍या घाट, सरा (मकान, सराय) क्‍या बाग, चमन सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा जब मर्ग (मौत) फिराकर चाबुक को, यह बैल बदन का हाँकेगा कोई नाज समेटेगा तेरा, कोई गोन सिये और टाँकेगा हो ढेर अकेला जंगल में, तू खाक लहद की फाँकेगा उस जंगल में फिर, आह 'नजीर', इक भुनगा आन न झाँकेगा सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा फकीर चले जाते हैं। सुबह हो रही है। कुछ दुकानदार आ चुके हैं। कुछ दुकानें खोल रहे हैं। फेरीवाले आवाजें लगा रहे हैं।

ककड़ीवाला : आज सुबह-ही-सुबह सिपाही बाजार में क्‍यों चक्‍कर लगा रहे हैं?

तरबूजवाला : कहाँ? हमने तो कोई सिपाही नहीं देखा।

लड्डूवाला : अबे कालिये, तुझे पकड़ने के लिए आये होंगे।

शायर और हमजोली किताबवाले की दुकान पर आते हैं।

ककड़ीवाला : अबे, आने दे, तुझे क्‍या पड़ी है! मैं तो कहता हूँ, अच्‍छा है साले पकड़ ले जायें। पेट पर पत्‍थर बाँधे दिन-भर टाँगें तोड़ता रहता हूँ। इससे अच्‍छा है हवालात में बैठो, आराम से खाओ, मौज करो। जलनेवाले जला करें।

किताबवाला : चौधरी गंगापरसाद साहब ने कुछ और नहीं कहा आपसे?

शायर : मैंने अर्ज किया ना, मैंने उनसे दीवान की इशाअत (प्रकाशन) के सिलसिले में आपका जिक्र छेड़ा ही था कि उन्‍होंने फौरन मेरी बात काटकर कहा कि वह खुद आपसे मिलकर पहले कुछ पुराने मामलात पर गुफ्तगू कर लें, फिर किसी नयी किताब के मुताल्लिक गौर करेंगे।

किताबवाला : आपने मेरा जिक्र ही क्‍यों किया?

शायर : और क्‍या करता?

किताबवाला : अरे साहब, मैं उनका मुद्दत से कर्जदार हूँ। इसीलिए तो मैंने आपसे कहा था कि अपनी किताब का आप खुद जिक्र छेड़िये।

पतंगवाला तोते का पिंजरा हाथ में लिये गुनगुनाता हुआ आता है और दुकान खोलता है।

पतंगवाला : कुछ वार पैरते है, कुछ पार पैरते हैं इस आगरे में क्‍या-क्‍या ऐ यार पैरते हैं मुबारक हो, रामू। सुना है, तेरे 'हाँ लड़का हुआ और खूब ढोलक बजी।

बरतनवाला : अरे भई, तुम कहाँ चले गये थे?

पतंगवाला : अमाँ यार, यह बैठे- बिठाये अच्‍छी चपत पड़ी। मैं गया था मियाँ 'नजीर' के साथ तैराकी का मेला देखने। वापस आता हूँ तो क्‍या देखता हूँ कि दुकान पर जुर्माना हो गया है।

बरतनवाला : तुम कह देना, मेरी दुकान तो बंद थी। गवाह मौजूद हैं। मैं गवाही दे दूँगा।

पतंगवाला : कौन सुनता है, मियाँ, तुम्‍हारी दाद-फरियाद?

तजकिरानवीस किताबवाले की दुकान पर आता है।

यह आये, देखिये, दाढ़ी लगाये सन की-सी।

दोनों हँसते हैं।

बरतनवाला : (पतंगवाले के पास बर्फी लेकर आता है) लो, बर्फी खाओ। लो, खाओ थोड़ी-सी। बहुत मीठी है। लब चिपकते हैं। तोता साथ लेकर तैरने गये थे क्‍या?

पतंगवाला : पिंजरा हाथ में उठाये दरिया पार करता हूँ, क्‍या समझते हो! उफ, जमुना के अंदर छतरी से लेकर ब्रज खोती और दारा के चौतरे तक बल्कि और उससे भी आगे आदमी छकाछक भरे हुए थे। हर तरफ लोगों के सर ही सर! मालूम होता था, तरबूज तैर रहे हैं। थाली छोड़ो तो सरों पर जाये। पर, यार, गजब करते हैं अपने आगरेवाले भी! यार लोग बुलबुल सर पर बिठाकर दरिया पार करते हैं। भई, हद हो गयी!

किताबवाला : सुन लिया, हुजूर, आपने। मियाँ 'नजीर' दरिया-किनारे नीम-उरियाँ (अधनंगी) परियों का तमाशा देखने गये थे। पीरी (बुढ़ापा) में भी वही आलम है।

तजकिरानवीस : बुढ़ापा इंसान का मिजाज तो नहीं बदल देता। पुरानी आदतें हैं, कैसे छूटेंगी? जोर था तो खुद तैरते थे। अब अगले जमाने की याद और उन यादों की हसरत लिए जमुना-किनारे खिंचे चले जाते है कि जो खुद नहीं कर सकते दूसरों को करता देखकर हविस पूरी कर लें।

हमजोली : साहब, लेकिन यह तैराकी का मेला होता बड़ा काफिर है। और यह बहार आगरे ही में है। कितना हसीन, कितना शायराना मंजर होता है। सच पूछिये तो जी मेरा भी बहुत करता है कि शिरकत भी करूँ और ऐसे हसीन मौजू पर शेर भी कहूँ। बस यह समझ में नहीं आता कि क्‍योंकर?

शायर : बस इस तरह कहना शुरू कर दीजिए- कुछ वार पैरते हैं, कुछ पार पैरते हैं इस आगरे में क्‍या-क्‍या ऐ यार पैरते हैं

सब हँसते हैं।

हमजोली : इस मौजू पर सही माने में भी तो शेर कहा जा सकता है?

शायर : तैराकी पर?

हमजोली : क्‍यों नहीं?

शायर : वह क्‍योंकर?

हमजोली : यही अगर समझ में आ जाता तो कह न देता शेर।

शायर : जिस मौजू पर आप शेर नहीं कह सकते उसे शायराना मौजू ठहराना क्‍या मानी?

हमजोली : मैंने तो सिर्फ इतना कहा कि जी चाहता है, यह तो नहीं कहा कि इस पर शेर कहना आसान या मुमकिन है।

शायर : जिस मौजू पर शेर कहना मुमकिन न हो उस पर शेर कहने की ख्‍वाहिश कहाँ की अक्‍लमंदी है!

लड्डूवाला : फिर तू घूसा। अपने जिगरी कने जाके बैठ।

ककड़ीवाला : अबे, तेरा दिमाग तो नहीं चल गया? हवा से लड़ता रहता है!

दो सिपाही पान की दुकान पर आते हैं और पान खाते हैं।

तरबूजवाला : फिर से झगड़ा न शुरू कर देना, भैया। नहीं तो टोकरों में फल का एक दाना बचेगा न सर पर एक बाल।

उसी तरफ से एक लड़का हमीद आता है और पतंग की दुकान पर जाता है।

लड़का : कल कहाँ गायब हो गये थे?

पतंगवाला : साहब, जरा तैराकी का मेला देखने चले गये थे।

लड़का : हम यह समझे, बस पतंग-वतंग बेचना छोड़ दिया आपने।

पतंगवाला : पतंगबाजी और पतंग-फरोशी हमसे छूट जाये, अजी तौबा कीजिए! कहये, कौन-सी पतंग चाहिए? हर रंग, हर नौअ, हर मजाक, हर बहार की पतंगे मौजूद है, हुजूर, कौन-सी पतंग लीजियेगा? दोधारिया, गिलहरिया, पहाड़िया, दोबाज, ललपरा, घायल, लँगोटिया, चाँद-तारा, बगुला दोपन्‍ना, धीर, खरबूजिया, पेंदीपान, दोकोनिया, तवक्‍कुल, झँजाव, माँगदार...।

लड़का : बस भई, नाम तक नहीं सुने इन पतंगों के अपनी जिंदगी में।

पतंगवाला : फिर क्‍या पतंग उड़ाते हैं आप?

लड़का : उड़ा लेते हैं थोड़ी-बहुत। आप तो हमें सीधा-सादा दोधारिया दे दीजिए।

पतंगवाला : दोधारिया लीजिये।

लड़का : दाम?

पतंगवाला : पच्‍चीस कौड़ी।

लड़का : यह लीजिये। लड़का पतंग लेकर बाहर चला जाता है।

किताबवाला : (हमीद से) ये मियाँ, जरा इधर आना, लड़के! (लड़का चला जाता है। मौलवी साहब लपकते हैं।) जरा बात सुनना, मियाँ। (मौलवी साहब दुकान पर वापस आ जाते हैं। कुछ देर बाद लड़का भी आता है।) बैठो! (मौलवी साहब हाथ से अपने पास बैठने को इशारा करते हैं। लड़का उनसे दूर हटकर बैठता है।) हमीद नाम है न तुम्‍हारा?

लड़का : जी!

किताबवाला : मौलाना, जरा इस लड़के के मुँह से उस्‍तादों का कलाम सुनिये। जैसी शक्‍ल पायी है, बखुदा वैसी ही आवाज है।

तजकिरानवीस : माशा-अल्‍लाह!

लड़का : क्‍या सुनाऊँ, मौलाना?

किताबवाला : तुम्‍हें तो उस्‍तादों के पूरे-पूरे दीवान हिफ्ज (रटे हुए, कंठस्‍थ) है। हमसे क्‍या पूछते हो, अपनी मर्जी से सुनाओ।

तजकिरानवीस : हाँ मियाँ! लड़का : एक गजल सुनाता हूँ। बड़े सुरीले ढंग से गाता है। दुकानदार अपनी दुकानें छोड़कर पास आ जाते हैं। राहगीर रूक जाते हैं। कासिद, तू मेरा नाम तो लीजो न व लेकिन कहना कोई मरता है तेरा चाहने वाला जैसा कि वह ही मुझसे खफा रूठ चला था अल्‍लाह ने क्‍यों जब ही मुझे मार न डाला शायद वही बन-ठनके चला है कहीं घर से है यह तो उसी चाँद-सी सूरत का उजाला सहरा में मेरे हाल पे कोई भी न रोया गर फूट के रोया तो मेरे पाँव का छाला औरों को जो गिरते हुए देखा तो लिया थाम हम गिर भी पड़े तो भी न जालिम ने सँभाला हम तुझसे इसी रोज को रोते थे 'नजीर', आह, क्‍यों तूने पढ़ा इश्‍को-मुहब्‍बत का रिसाला

शायर : (बड़े ताज्‍जुब से) यह मियाँ 'नजीर' की गजल है?

हमजोली : भई, क्‍या कहने है! हमें मियाँ 'नजीर' के इस कलाम की खबर न थी।

किताबवाला : मियाँ अगर आदमी जिंदगी-भर मश्‍क करता रहे तो एकाध शेर हर किसी के 'हाँ' निकल आयेगा, इसमें ताज्‍जुब की क्‍या बात है? हाँ मियाँ, कुछ और सुनाओ।

हमजोली : पर, साहब, उस्‍तादों की जमीन की गजल है।

किताबवाला : उस्‍तादों की जमीन पर हल चलाने वाले घटिया शायर बहुत मिलते हैं।

हमजोली : लेकिन, साहब, इसमें शक नहीं कि गजल का रंग बहुत शुस्‍ता (निखरा हुआ) और मँझा हुआ है।

तजकिरानवीस : सुनिये, 'मीर' इसी जमीन में कहते है: देखे है मुझे दीदए-पुरख्‍श्‍म (क्रोध भरी आँखें) से वह 'मीर' मेरे ही नसीबों में था यह जह्न का प्‍याला और यह शेर भी मुलाहजा फरमाइये। 'छाला' का काफिया बाँधा है अहा-हा-हा! गुजरे है लहू वाँ सरे-हर-खार (हर काँटे की नोक) से अब तक जिस दश्‍त में फूटा है मेरे पाँव का छाला उस्‍ताद यों कहते हैं!

शायर : इस काफिये में 'इशां' का शेर खूब है। फरमाते हैं- इतना तो फिरा वादिए-वहशत में कि मेरे है पाए-नजर में भी पड़ा अश्‍क का छाला

हमजोली : लेकिन 'नजीर' का शेर भी अपनी जगह लुत्‍फ से खाली नहीं कि - सहरा में मेरे हाल पे कोई भी न रोया गर फूट के रोया तो मेरे पाँव का छाला

शायर : 'सौदा' ने भी कही है इस जमीन में गजल।

हमजोली : सैयद इंशा अल्‍लाह खाँ की कोई चीज तुम्‍हें याद है, मियाँ?

किताबवाला : भई 'इंशा' और 'मुसहफी' की मार्का-आराइयों (मूठभेड़ों) का जवाब नहीं है। खूससन वह गजल '...शबे-दैजूर (घोर अँधेरी रात) की गर्दन' - उसमें जो नोंक-झोंक हुई है दोनों की। अजब लुत्‍फ रहता होगा, बखुदा, नवाब सआदत अली खाँ के दरबार में भी।

तजकिरानवीस : आप भी कब की बात कर रहे हैं, हजरत। शबे-दैजूर की गर्दनवाला जमाना गया। अब तो सैयद इंशा अल्‍लाह जैसे हँसोड़ के लब पर यही गिरिया-व-जारी (रोना-धोना) है - कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं बहुत आगे गये, बाकी जो हैं तैयार बैठे है

हमजोली : और अब तो सुना है कि 'आतिश' व 'नासिख' की वो आवाजें गूँजी हैं लखनऊ में कि 'इंशा' व 'मुसहफी' भी फीके पड़ गये। किस कदर जानदार शायर है 'आतिश' भी! जोरे-बयान देखिये, फरमाते हैं- यह बज्‍म वह है कि लाखैर (लाचार) का मुकाम नहीं हमारे गंजफे (गंजीफा) में में बाजिए-गुलाम (गुलाम का पत्‍ता) नहीं

शायर : और 'नासिख' का जवाब भी खूब है - जो खास बंदे हैं वह बंदए-अवाम नहीं हजार बार जो यूसुफ बिके, गुलाम नहीं

हमजोली : नहीं भई, यह ख्‍वाह-म-ख्‍वाह की लड़ाई है। शेर खूबसूरत है मगर तसन्‍नो-आमेज (बनावट-भरा)। वह सच्‍चाई, वह आग इसमें नहीं जो 'आतिश' के हाँ है।

शायर : आप हुस्‍ने-जवाब देखिये, सच्‍चाई और आग क्‍या तलाश कर रहे हैं!

किताबवाला : आप लोग भी वही करने लगे, बखुदा, जो दिल्‍ली और लखनऊ के दरबारों में हमारे असातजा (उस्‍ताद) कर रहे हैं। अब यह बहस खत्‍म कीजिए और शेर सुनिये! हाँ मियाँ!

लड़का : क्‍या सुनियोगा?

तजकिरानवीस : (झुँझलाकर) जो जी चाहे सुनाओ।

पतंगवाला : 'नजीर' की वह नज्‍म सुनाओ 'तैराकी का मेला'। याद है?

लड़का : जी हाँ, सुनिये। अदना, गरीब, मुफलिस, जरदार पैरते हैं इस आगरे में क्‍या-क्‍या, ऐ यार, पैरते हैं जाते हैं उनमें कितने पानी में साफ सोते कितनों के हाथ पिंजरे, कितनों के सर पे तोते तजकिरानवीस झुँझलाकर उठ खड़ा होता है और बगैर कुछ कहे चला जाता है। सबको बड़ी हैरत होती है। महफिल पर एक सन्‍नाटा छा जाता है। बहुते-से रास्‍ता चलने वाले बड़े शौक से नज्‍म सुनने के लिए रूक गये हैं। इस जमघट को देखकर मौलवी साहब बरस पड़ते हैं।

लड़का : कितने पतंग उड़ाते, कितने मोती पिरोते हुक्‍के का दम लगाते, हँस-हँस के शाद होते सौ-सौ तरह का कर कर बिस्‍तार पैरते हैं इस आगरे में क्‍या-क्‍या, ये यार, पैरते हैं

किताबवाला : बस करो, मियाँ! (आवाज उठाकर) आप लोग यहाँ क्‍यों जमा हो गये हैं, साहब? कोई मदारी का खेल हो रहा है या परशाद बँट रहा है।

भीड़ पीछे हट जाती है और एक सन्‍नाटा छा जाता है। ककड़ीवाला बायीं तरफ से अंदर आता है।

ककड़ीवाला : (मुर्दा आवाज में) पैसे की छह-छह! पैसे की छह-छह!

किताबवाला उसे गुस्‍से-भरी निगाहों से घूर रहा है। ककड़ीवाला, जो अब तक अनजान था, मौलवी साहब की निगाहों को देखकर अचानक चुप हो जाता है और भागकर दायें कोने में दुबक जाता है। पतंग-वाला, जो भीड़ में सबसे आगे था, किताब वाले की दुकान की तरफ बढ़ता है।

पतंगवाला : इधर आना, मियाँ! (लड़के का हाथ पकड़कर अपनी दुकान की तरफ ले जाता है।)

किताबवाला : लीजिये, हमने सोचा था खुश-गुलू लड़का है, मौलाना कलाम सुनकर खुश होंगे। मैं क्‍या जानता था कि वह यह बाजारी कलाम सुनाने लगेगा! आखिर मौलाना नाराज होकर चल दिये।

हमजोली : लेकिन नज्‍म तो खूब थी साहब!

शायर : जी हाँ! 'सौ-सौ तरह का करकर बिस्‍तार पैरते हैं' 'करकर'- इसे आप शायरी कहते हैं! यूँ मालूम होता है कि आदमी शेर नहीं पढ़ रहा है, ककड़ियाँ खा रहा है।

हमजोली : लेकिन साहब, 'करकर' मुस्‍तेमल (प्रचलित, जो इस्‍तेमाल होता हो) है, असातजा ने बाँधा है।

शायर : चलिये, अब उठिये।

किताबवाला : माफ कीजियेगा।

शायर : इसमें आपका क्‍या कसूर है, मौलाना! अच्‍छा, अस्‍सलाम-अलेकुम!

किताबवाला : वालेकुम-अस्‍सलाम!

शायर और हमजोली चले जाते हैं। लोग अब पतंग वाले की दुकान पर जमा हो जाते हैं।

अब कमबख्‍त वहाँ जम गये।

मौलवी साहब हिसाब-किताब में लग जाते हैं। पतंग वाला गवैये को अपनी दुकान में बिठाता है।

पतंगवाला : सुनो, मियाँ 'नजीर' कहते हैं- किस्‍मत में गर हमारी यह मय है तो, साकिया बे-इख्तियार (बरबरा) हाथ से शीशा करेगा जस्‍त (छलाँग) पहले ही क्‍यों न बताया, यार, कि तुम्‍हें मियाँ 'नजीर' का कलाम याद है?

लड़का : मैं पतंग खरीदने आया था, साहब, शेर सुनाने की गरज से तो आया नहीं था।

पतंगवाला : अरे यार, मगर यह तो जानते हो कितनी पुरानी याद-अल्‍लाह है हमारी मियाँ 'नजीर' से। उनका कलाम सुनाना था तो हमारी दुकान पर बैठकर सुनाते। वहाँ शेर पढ़कर उनको भी बे-इज्‍जत किया और हमें भी। वाह! इसी पर तो कहा है हजरत 'नजीर- ने कि - दिल-सा दुरे-यतीम (अनाथ मोती) बिका कौड़ियों के मोल क्‍या कीजिये, खैर, यह भी खरीदार के नसीब अच्‍छा, सुनाओ कुछ अपनी आवाज से।

लड़का : आप फरमाइये, क्‍या सुनाऊँ?

पतंगवाला : वही नज्‍म सुनाओ तैराकीवाली, और क्‍या!

लड़का : अदना, गरीब, मुफलिस, जरदार पैरते हैं इस आगरे में क्‍या-क्‍या, ये यार, पैरते हैं जाते हैं उनमें कितने पानी में साफ सोते कितनों के हाथ पिंजरे, कितनों के सर पे तोते कितने पतंग उड़ाते, कितने सुई पिरोते हुक्‍के का दम लगाते, हँस-हँस के शाद होते सौ-सौ तरह का कर-कर बिस्‍तार पैरते है इस आगरे में क्‍या-क्‍या, ऐ यार पैरने हैं कितने खड़े ही पैरे अपना दिखा के सीना सीना चमक रहा है हीरे का ज्‍यूँ नगीना आधे बदन पे पानी, आधे पे है पसीना सरों का बह चला है गोया कि इक करीना (प्रणाली, क्रम) दामन कमर पे बाँधे दस्‍तार पैरते हैं इस आगरे में क्‍या-क्‍या, ये यार, पैरते हैं हर आन बोलते हैं सैयद कबीर की जय फिर उसके बाद अपने उस्‍ताद पीर की जय मोरो-मुकुट, कन्‍हैया, जमुना के तीर की जय फिर गोल के बस अपने खुर्दो-कबीर की जय हर दम यह कर खुशी की गुफ्तार पैरते हैं इस आगरे में क्‍या-क्‍या, ऐ यार, पैरते हैं नज्‍म के दौरान बहुत-से लोग जमा हो जाते हैं, जिनमें खोमचेवाले भी शामिल हैं।

पतंगवाला : वाह-वाह! मियाँ यही कलाम तो दिल को लगता है। पर जमाने ने कद्र न की, यार, इस शायर की। कहता है- न गुल अपना, न खार अपना, न जालिम बागबाँ अपना बनाया, आह, किस गुलशन में हमने आशियाँ अपना

सब : वाह-वाह, क्‍या कहने हैं!

पतंगवाला : अच्‍छा, कोई चीज अपनी पसंद की सुनाओ।

लड़का : (गाते हुए) पहले नाँव गनेश का लीजे सीस नवाय जासे कारज सिद्ध हों, सदा महूरत लाय बोल बचन आनंद के, प्रेम, प्रीत और चाह सुन लो, यारो, ध्‍यान धर, महादेव का ब्‍याह जोगी-जंगी से सुना, वह भी किया बयान और कथा में जो सुना उसका भी परमान सुनने वाले भी रहें हँसी-खुशी दिन-रैन और पढ़ें जो याद कर, उनको भी सुख-चैन और जिसे उस ब्‍याह की महिमा कही बनाय उसके भी हर हाल में शिवाजी रहें सहाय खुशी रहे दिन-रात वह, कभी न हो दिलगीर महिमा उसकी भी रहे, जिसका नाम 'नजीर' भीड़ में एक आदमी हरी कफनी पहने खड़ा है और रो रहा है। पतंगवाला उसे पहचानकर उसकी तरफ लपकता है।

पतंगवाला : अरे, मंजूर हुसेन! (मंजूर हुसेन मुँह फेर लेता है।) यह क्‍या हुलिया बना रखा है, मियाँ? क्‍या हाल है? (फकीर चुप खड़ा रहता है।)

एक आदमी : इनको हमने तो कभी बात करते सुना नहीं।

बेनीप्रसाद : (आगे बढ़कर) तुम्‍हें नहीं मालूम? कोई एक बरस से इनका यही हाल है।

पतंगवाला : अमाँ बेनी परशाद, क्‍या कहा! क्‍या यह एक बरस से आगरे में हैं? यह तो घोड़ों की तिजारत करते थे, भाई। कोई चार बरस पहले घोड़े लेकर हैदराबाद की तरफ गये थे। उसके बाद से इन्‍हें आज देखा। अमाँ, मंजूर हुसने!

मंजूर हुसेन चला जाता है।

बेनीप्रसाद : ताज्‍जुब है, तुमने इन्‍हें नहीं देखा। या शायद देखा होगा तो पहचान न सके होंगे। यहीं कुछ दिनों से चक्‍कर काट रहे हैं। एक तवायफ पर आशिक हैं।

पतंगवाला : यह चुप जो इन्‍हें लग गई है, और यह कफनी, दाढ़ी, फकीरी-क्‍या यह सब उसी इश्‍क का नतीजा है? मुझसे तो देखा नहीं गया, भाई। मंजूर हुसेन जैसा हँसमुख यारबाश आदमी और यूँ बदल जाये। तुम्‍हें मालूम है ना, यह मियाँ 'नजीर' के साथ उठने-बैठने वालों में से हैं। मेरा-इनका याराना कोई बीस-पच्‍चीस बरस का होगा।

बेनीप्रसाद : हाँ हाँ, खुब जानता हूँ।

पतंगवाला : अमाँ, कुछ बताओ, बेनी, यह आखिर हुआ क्‍या? मेरी तो अकल गुम है।

बेनीप्रसाद : भई, इन पर क्‍या बीती, यह तो किसी को मालूम नहीं। बस, इतना सुना है कि दकन से वापसी के वक्‍त झाँसी के करीब ठगों ने इनके सारे घोड़े और माल-असबाब लूट लिया। साल-भर पहले जब आगरे वापस आये तो उस वक्‍त इनकी हालत दिगरगूँ (अस्‍त-व्‍यस्‍त) थी। खैर, उस वक्‍त यह फकीरी नहीं थी। कभी-कभी किसी से कुछ बातें भी कर लेते थे, मगर कम-कम। बस, ज्‍यादातर जमुना के किनारे एक मकबरे पर बैठे पानी की लहरें गिना करते थे। फिर यकायक गायब हो गये। कभी मथुरा, कभी मेरठ में देखे गये। अभी-अभी वापस आये हैं और यह हालत लेकर आये हैं।

पतंगवाला : फालिज का असर है या जुनून का दौरा? आखिर कुछ तो सबब होगा इस तगय्युर (परिवर्तन) का?

बेनीप्रसाद : तरह-तरह की बातें सुनने में आती है। कोई कहता है, अल्‍लाह वाले हो गये हैं। कोई कहता है, लूट जाने की वजह से यह हाल हुआ है। लोग यह भी कहते हैं कि इश्‍के-सादिक (सच्‍चा प्रेम) का असर है। इश्‍के-मजाजी (लौकिक प्रेम) की राह खुदा तक पहुँचना कोई अनसुनी बात भी नहीं है।

पतंगवाला : फुसंते-उम्र कतरए-शबनम! वस्‍ले-महबूब गौहरे-नायाब! (आयु की अवधि ओस की बूँद की तरह है और प्रेयसी का प्रणय अनमोल मोती की तरह) यह आदमी हमेशा से जकी-उल-हिस (संवेदनशील) वाकै हुआ है। मुझे एक पुराना किस्‍सा याद आ रहा है। जानते हो, मियाँ 'नजीर' से इनकी पहली मुलाकात क्‍योंकर हुई? मियाँ 'नजीर' ताजगंज से माइथान टट्टू पर जा रहे थे, लाला बिलासराय खत्री के लड़कों को पढ़ाने के लिए। इधर से मंजूर हुसेन पा-पियादा चले आ रहे थे। रास्‍ते में टट्टू अड़ गया। मियाँ 'नजीर' ने एक चाबुक जो उसके रसीद किया तो वह मंजूर हुसेन के लगता हुआ टट्टू के लगा। मियाँ 'नजीर' टट्टू से उतर पड़े और जबर्दस्‍ती उनके हाथ में चाबुक देकर कहा : 'मियाँ, मेरे भी एक जड़ दो!' उन्‍होंने बहुत मिन्‍नत की, वह न माने। आखिर मजबूरन मंजूर हुसेन ने चाबुक लेकर जरा-सा उनके छुआ दिया और दौड़े हुए मेरे पास आये। मुझसे सारा हाल बताया और घर जाकर पड़ रहे। दो दिन तक खाना-पीना सब मौकूफ। जब मियाँ 'नजीर' ने मेरी जबानी यह हाल सुना तो बेचैन होकर उनके पास गये। उन्‍हें अपने घर ले गये, खातिर-तवाजों की। उनके साथ होली खेली, मिठाई खिलायी, अपनी नज्‍में सुनायीं। बस, उस दिन से यह मियाँ 'नजीर' के और भी गिरवीदा (मुग्‍ध) हो गये। फिर ऐसे कि रोज का आना-जाना रहता था।

बेनीप्रसाद : क्‍या जमाने के इनकलाब हैं!

पतंगवाला : छोड़ सब कामों को, गाफिल, भंग भी और डंड पेल कुछ और सुनाओ, मियाँ, तबियत मुजमहिल (शिथिल, सुस्‍त, ढीली) हो गयी।

लड़का : क्‍या सुनाऊँ?

पतंगवाला : 'नजीर' का कलाम सुनाओ, और क्‍या सुनाओगे! उसका हर शेर बेनजीर है।

लड़का : मियाँ 'नजीर' ने खुद अपने कलम से अपनी तसवीर खींच दी है। अगर इजाजत हो तो...।

पतंगवाला : इजाजत! मियाँ, तुम शेरो-शायरी का कारोबार करने वाले की दुकान पर नहीं बैठे हो, शेरो-शायरी पर जान देने वाले के पास बैठे हो। सुनाओ और खुले-बंदों सुनाओ।

लड़का : कहते हैं जिसको 'नजीर' सुनिये टुक उसका बयाँ था वह मुअल्लिस (शिक्षक) गरीब, बुजदिल व तसिंदा-जाँ (डरा हुआ, भीरू) सुस्‍त-रविश, पस्‍ता-कद, साँवला, हिंदी-नजाद (हिंदुस्‍तान में पैदा हुआ) तन भी कुछ ऐसा ही था कद के मुआफिक अयाँ माथे पे इक खाल था, छोटा-सा मस्‍से के तौर था वह पड़ा आन कर, अबरुओं के द‍रमियाँ वज्‍अ (स्‍वभाव) सुबुक उसकी थी, तिस पे न रखता था रीश (बाल) मुँछें थीं और कानों पर पट्टे भी थे पंबा-साँ (रूई जैसे) पीरी में जैसी कि थी उसको दिल-अफसुर्दगी (दिल की उदासी) वैसी ही रही थी उन दिनों जिन दिनों में था जवाँ फज्‍ल ने अल्‍लाह के उसको दिया उम्र-भर इज्‍जतो-हुमंत के साथ पार्चाओ-आबो-नाँ (कपड़ा, पानी और रोटी)

सब : वाह-वा! वाह-वाह, क्‍या इन किसारी (विनम्रता) है! मियाँ 'नजीर' की नवासी उछलती-कूदती गुनगुनाती हुई आती है।

नवासी : क्‍या-क्‍या कहूँ मैं किशन कन्‍हैया का बालपन

पतंगवाला : अरे बिटिया!

नवासी : अभी आयी। (यह कहकर दूसरी तरफ निकल जाती है।)

सिपाही, जो वहीं भीड़ में खड़े नज्‍में सुन रहे थे और बार-बार मुड़कर ऊपर कोठे की तरफ निगाहें फेंक रहे थे, पान की दुकान पर आते हैं।

पहला सिपाही : जरा दो पान लगा देना, भाई। (दूसरे सिपाही से) दिन चढ़ आया है, पर यह माई का लाल ऐसा चिपका है कि निकलने का नाम ही नहीं लेता।

दूसरा सिपाही : वहाँ है भी या गायब हो गया?

पहला सिपाही : जाने का रास्‍ता एक ही है और मैंने नजरों को कील की तरह चौखट पर ठोंक दिया है।

दूसरा सिपाही : अगर गया ही न हो तो क्‍या हम दिन-भर यही टँगे रहेंगे?

पहला सिपाही : यह कैसे हो सकता है, दारोगा साहब ने खुद अपनी आँखों से देखा है।

दूसरा सिपाही : कल रात देखा होगा और अगर वह रात ही को निकल गया हो?

मदारी रीछ लिये हुए आता है। उसके पीछे बच्‍चे हैं।

रीछ का नाच होता है।

मदारी : जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्‍चा कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्‍चा ले आये वही हम भी उठा रीछ का बच्‍चा सौ नेमतें खा-खाके पला रीछ का बच्‍चा जिस वक्‍त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्‍चा जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्‍चा कहता था कोई हमसे, यहाँ आओ मछंदर वह क्‍या हुए अगले जो तुम्‍हारे थे बंदर हम उनसे यह कहते थे, यह पेशा है कलंदर हाँ, छोड़ दिया बाबा उन्‍हें जँगले के अंदर जिस दिन से खुदा ने यह दिया रीछा का बच्‍चा था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोंटा लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा (सर से पाँव तक, ऊपर से नीचे तक) काँधें पे चढ़ा झूलना और हाथ में पियाला बाजार में ले आये दिखाने को तमाशा आगे तो हम और पीछे चला रीछ का बच्‍चा था रीछ के बच्‍चे पे वह गहना जो सरासर हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमककर कानों में दुर और घुँघरू पड़े पाँव के अंदर वह डोर भी रेशम की बनायी थी जो पुरजर जिस डोर से, यारो, था बँधा रीछा का बच्‍चा जब कुश्‍ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ागह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा इक डेढ़ पहर हो गया कुश्‍ती का अखाड़ा गो हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्‍चा यह दाँवों में, पेंचों में जो कुश्‍ती में हुई देर यों पड़ते रुपये-पैसे कि आँधी में गोया बेर सब नक्‍द हुए आके सवा लाख रुपये ढेर जो कहता था हर एक से इस तरह मुँह फेर यारो, तो लड़ा देखो जरा रीछ का बच्‍चा

मदारी चला जाता है। 'नजीर' की नदासी एक खिलौना लिये नजर आती है। पतंगवाला उसकी तरफ बढ़ता है और उसे खींचकर अपनी दुकान पर लाता है।

पतंगवाला : (गाते हुए) मोहन मेरे आये, ललन मेरे आये

नवासी : (खिलौना दिखाते हुए) मैं यह लेने गयी थी।

पतंगवाला : नाना से पैसे जट लिये होंगे! क्‍यों?

नवासी : नहीं तो।

पतंगवाला : फिर क्‍या मुफ्त हाथ आ गया खिलौना?

नवासी : घर में पड़े थे।

पतंगवाला : घर में क्‍या पड़े थे?

नवासी : मैं बताऊँ! हमारे नाना पैसे को हाथ नहीं लगाते। जैसे हमको अम्‍मा कहती है ना, कि गंदी चीज को हाथ नहीं लगाना चाहिए वैसे ही नाना ने पैसे को रूमाल में बाँधकर कोने में फेंक दिया।

पतंगवाला : और तुमने उठा लिया?

नवासी : सब थोड़े ही! (उछलकर भाग जाती है। पतंगवाला हँसता है।)

पतंगवाला : (बेनीप्रसाद से) गर मर्द है तू आशिक, कौड़ी न रख कफन को! हाल ही का वाकिया है, रुपयों की थैली लिये नवाब सआदत अली खाँ के पास से आदमी आया। रात-भर रुपया घर में पड़ा रहा और रुपये की वजह से मियाँ 'नजीर' को नींद न आयी। सुबह को जवाब में कहला भेजा कि जरा-से ताल्‍लुक से तो यह हाल है, अगर जिंदगी-भर का साथ हो गया तो न जाने क्‍या होगा। बुलावे बहुत आये, पर मेरा यार आगरे से न टला। हर बार यह कहकर टाल गया कि मैं माशे-भर का कलम चलाने वाला, मेरी क्‍या मजाल! बस, यही बैठे-बैठे सारी दुनिया देख ली। कहते हैं -

(आवाज उठाकर)

सब किताबों के खुल गये मानी जबसे देखी 'नजीर' दिल की किताब

इशारा किताबवाले की तरफ था। किताबवाला झुँझलाकर रह जाता है।

ककड़ीवाला : मियाँ, कहाँ रहते हैं यह हजरत 'नजीर'?

पतंगवाला : क्‍यों, क्‍या बात है?

ककड़ीवाला : वह बात यह है कि... ऐसे ही।

पतंगवाला : आखिर?

ककड़ीवाला : मैं अपनी ककड़ी पर दो-चार शेर लिखवाता उनसे।

पतंगवाला : (कहकहा लगाकर) यह आपको खूब सूझी। इस काम के लिए मियाँ 'नजीर' से बेहतर और कौन आदमी मिलेगा! अभी कुछ दिनों का वाकिया है, एक साहब पहुँच गये उनके 'हाँ अपने टूटे हुए दिल का दुखड़ा लेकर। किसी महजबीन ने बेवफाई की थी उनके साथ। अपनी दास्‍तान सुनायी और कहा कि दिल को क्‍योंकर समझाऊँ, किसी पहलू चैन नहीं लेता। हरदम आँखों के सामने उस महलका (चाँद जैसी सुंदरी) की तसवीर जमी रहती है। मियाँ 'नजीर' ने उनके हस्‍बे-हाल एक नज्‍म लिख दी। बस उन साहब को चैन मिल गया। अब वह नज्‍म गुनगुनाते फिरते हैं और खुश-व-खुर्रम (प्रसन्‍न) हैं।

ककड़ीवाला : रहते कहाँ है मियाँ?

पतंगवाला : बेगम बाँदा का महल देखा है?

ककड़ीवाला : जी नहीं।

पतंगवाला : कहाँ के रहने वाले हो?

ककड़ीवाला : दिल्‍ली के पास रहने वाला हूँ?

पतंगवाला : अच्‍छा, मुहल्‍ला ताजगंज देखा है?

ककड़ीवाला : जी हाँ, देखा है।

पतंगवाला : वहाँ पहुँचकर किसी से मलिकोंवाली गली पूछ लो और बेगम बाँदा के महल पहुँच जाओ। महल के बराबर ही एक छोटा-सा मकान है। वह मियाँ 'नजीर' का है।

ककड़ीवाला खुशी-खुशी बायें रास्‍ते की तरफ भागता है। रास्‍ते के पास एक अजनबी से टक्‍कर हो जाती है।

अजनबी : क्‍या अंधे हो गये हो?

ककड़ीवाला : माफ करना, मियाँ, जरा जल्‍दी में हूँ। (चला जाता है।) अजनबी बाजार में टहलता हैं।

पतंगवाला : (हमीद और उन लोगों को सुनाते हुए जो अब तक वहाँ जमा हैं) मियाँ 'नजीर' की निगाह में आदमी आदमी में कोई फर्क नहीं, चाहे वह पतंग बनानेवाला हो, चाहे किताब बेचनेवाला उनके लिए तो बस आदमी है। (आवाज उठाकर कहता है। किताबवाला गुस्‍से से लाल हो रहा है।)

अजनबी : (किताबवाले से) साहब, कलामे-'नासिख' होगा आपके 'हाँ'?

किताबवाला : (पतंगवाले का गुस्‍सा अजनबी पर उतरता है) मियाँ 'नासिख' कल के छोकरे हैं। अभी-अभी शेर कहना शुरू किया है और अभी से आप उनके कलाम की तलाश में निकल पड़े? ऐसा ही शौक है तो लखनऊ तशरीफ ले जाइये और खुद सुन लीलिये।

अजनबी : अभी-अभी यहाँ कुछ लोग बैठे गुफ्तगू कर रहे थे। 'नासिख' साहब का एक शेर मेरे कान में पड़ा, मैंने सोचा...।

किताबवाला : कि मैंने अपनी किताबों के इश्‍तहार के लिए लोगों को जमा कर रखा है। यह शौक और यह जिहालत! सुभानअल्‍लाह! (अजनबी डरकर पीछे हट जाता है, लेकिन घूमकर फिर हमला करता है।)

अजनबी : यह इतने लोग यहाँ क्‍यों इकट्ठा हो गये हैं, साहब?

किताबवाला : (गुस्‍से से बेकाबू होकर) आप ही की तरह के जाहिल हैं। एक जाहिल का कलाम सुनने के लिए जमा हो गये हैं। (अजनबी सिटपिटाकर चला जाता है। लोग कहकहा लगाते हैं।) एक-से-एक चला आता है। सुबह से दुकान खोलकर बैठे हैं। जो भी है तरह-तरह के सवालात लेकर पहुँच जाता है। खरीद-फरोख्‍त की बात ही नहीं। लाहौलविला कुव्‍वत!

मुंशी गंगाप्रसाद किताबवाले के पास आते हैं।

किताबवाला : आदाब अर्ज करता हूँ मुंशी जी। मिजाज बखैर?

गंगाप्रसाद : इनायत! साहब, यह आपने किस मखरे को मेरे पास भेज दिया था? और किस गरज से?

किताबवाला : अजी, मैं उन्‍हें क्‍या भेजता! बातों-बातों में आपका जिक्र आ गया। उन्‍हें अपनी किताब छपवाने के लिए सरमाये की तलाश थी, भला मेरे पास कहाँ से आये पैसे? बस उनके जी में आयी होगी, आपसे रुपया माँग लें।

गंगाप्रसाद : देखिये, मैं तो अब उर्दू-फारसी की किताबों से भर पाया। मैंने फैसला किया है कि देहली से अंग्रेजी जबान में एक अखबार शाया करूँ! मैं आपसे यही कहने आया हूँ कि आप भी यह धंधा छोड़िये और अखबार और रसाइल के काम में लग जाइये। यह नया जमाना है, नये जमाने के मुताबिक रविश इख्तियार कीजिये।

किताबवाला : भई, आपने मेरे दिल की बात कह दी। मैं खुद इस फिक्र में था कि वतन छोड़ूँ, देहली जाऊँ और अखबार और रसाइल का सिलसिला शुरू करूँ।

गंगाप्रसाद : अगर आप देहली आ आते हैं तो आगरे से खबरें कौन भेजेगा? नहीं साहब, आप यहीं रहेंगे।

किताबवाला : जी, मगर अंग्रेजी जबान के अखबार में....।

गंगाप्रसाद : आप मुरासले (संदेश, खबर) उर्दू में भेजिये, तर्जुमे की जिम्‍मेदारी मेरी।

किताबवाला : क्‍यों न एक अखबार उर्दू में भी निकालें?

गंगाप्रसाद : अमाँ, उर्दू अखबार पढ़नेवाले कितने हैं? ना साहब, अखबार अंग्रेजी में ही निकलेगा, उस जबान में जो कल सारा हिंदुस्‍तान बोलेगा, हाँ, इस कारोबार के सिलसिले में कुछ और लोगों से भी बातचीत हुई थी।

किताबवाला : मैं इस फिक्र में था कि अखबार का काम शुरू करने से पहले मेरे सर पर जो एक बार है उसे हलका कर लेता।

गंगाप्रसाद : वह कौन-सा?

किताबवाला : सोच रहा था, कुछ छोटी-छोटी चीजें है पहले उन्‍हें छपवा लूँ।

गंगाप्रसाद : मसलन?

किताबवाला : यही मदरसों की चंद किताबें - 'करीमा', 'मा-मुकीमा', 'आमदनामा' वगैरह। मेरे पास दस रुपये की भी पूँजी नहीं कि इस काम में लगा सकूँ।

गंगाप्रसाद : क्‍यों, 'दीवाने-हाफिज' की ढाई सौ कापियों से कुछ तो वसूल हुआ होगा?

किताबवाला : साहब, यहाँ आपको गलतफहमी हुई है। मैंने अपने हिस्‍से की तमाम कापियाँ अहबाब (दोस्‍त) में तकसीम कर दीं, दाम किसी से नहीं लिये।

गंगाप्रसाद : और मुझे मेरे हिस्‍से का पैसा देने के बजाय आपने बकिया ढाई सौ कापियाँ बख्‍श दीं। अब मेरा कोई भी दोस्‍त ऐसा नहीं कि मैं 'दीवाने-हाफिज' उसे नज्र करूँ।

किताबवाला : मेरी दानिस्‍त (जानकारी) में यही तै हुआ था। नुकसान इस काम में मुझे भी हुआ। मेरी मेहनत जाया गयी। अगर आपको इस सिलसिले में कोई गलतफहमी हुई है तो ऐसा कीजिये कि आप अपनी कापियाँ मेरे सिपुर्द कर दीजिये, जैसे-जैसे वह निकलती जायेंगी मैं आपको पैसे देता जाऊँगा।

गंगाप्रसाद : साहब, वह अब क्‍या निकलेंगी और कौन उन्‍हें खरीदेगा? खैर, छोड़िये इस बहस को। आप अखबार का काम शुरू तो कीजिये। बस, इसी काम के जरिये आपके पास 'करीमा', 'मा-मुकीमा' और इसी तरह की अपनी तमाम खुराफात छपवाने के लिए पैसा आ जायेगा। हालाँकि मेरी यही राय है कि यह एक फिजूल काम है, इसमें आपको फिर नुकसान होगा। अब भला नये स्‍कूल में 'आमदनामा' पढ़नेवाले आपको कितने मिलेंगे? अच्‍छा, अब मैं इजाजत चाहता हूँ। दो-एक दिन में फिर हाजिर हूँगा - आदाब अर्ज।

गंगाप्रसाद जाता है। बेनजीर के कोठे से शोहदा नीचे उतरता है। सिपाही एक कोने में दुबक जाते हैं। जैसे ही शोहदा सामने आता है, लपककर उसे दबोच लेते हैं।

शोहदा : अबे, क्‍या समझ के पकड़ रहा है, हराम के! अबे, रंडी के कोठे पर जाना कब से इस औंधे शहर में जुर्म करार पाया है, बे?

पतंगवाला : अमाँ यारो, क्‍या हुआ? किस गुनाह की पादाश में इन्‍हें धर लिया गया, भाई?

पहला सिपाही : कल यहाँ फसाद करवाया था।

शोहदा : अबे, किसने फसाद करवाया था? कब फसाद करवाया था? कोई गवाह?

दूसरा सिपाही : हवालात चलो, गवाह वहीं देख लेना।

बरतनवाला : अरे भैया, झगड़ा और लोगों बीच में हुआ था, पकड़ लिया तुमने किसी और को। इनको तो हमने झगड़े के समय देखा भी नहीं था।

दूसरा सिपाही : हम यह सब नहीं जानते। हमें यही हुक्‍म मिला है।

पहला सिपाही : अरे, चल यार, तू अपना काम कर, बकने दे।

शोहदा : अबे, बड़ा नामर्द निकला तेरा दारोगा का बच्‍चा। हम समझे थे, मुकाबला रावण से है। सीताहरण होगा, दो-दो हाथ होंगे। हमें क्‍या मालूम था कि तुम्‍हारा शहर जन्‍नत की चिड़ियों से भरा पड़ा है!

पहला सिपाही : यह अदालत नहीं है, जो कुछ कहना है वहाँ कहना। ले बस, अब कदम बढ़ाइये!

शोहदे को लेकर जाते हैं।

पतंगवाला : अमाँ यार, यह क्‍या हुआ?

बरतनवाला : मैं तो यहीं था। मैंने तो इस आदमी को झगड़े के समय नहीं देखा।

लड्डूवाला : लूट-मार के वक्‍त होश किसे था! शायद रहा भी हो।

बेनीप्रसाद : जितने लोग लूट-खसोट में शरीक थे उन सबको देखा किसने होगा? क्‍यों रामू, तुम सबको पहचान सकते हो?

बरतनवाला : अब यह तो मैं नहीं कह सकता, भाई। सामने आयेंगे तो कुछ लोगों को तो पहचान लूँगा शायद। पर यह आदमी उसमें होता तो मेरी नजर चूक नहीं सकती थी। मैं इसको जरूर ताड़ लेता।

लड्डूवाला : यह तुम किस बिरते पर कह सकते हो? क्‍या इस आदमी में सुर्खाब के पर लगे हैं?

बरतनवाला : इसके कपड़े, सूरत, इसके हाथ का गजरा। ऐसा कोई आदमी कल शाम तक बाजार में नहीं आया। यह आदमी दूसरे शहर का मालूम पड़ता है। मैंने इसको साँझ के समय एक रंडी के पीछे जाते देखा था।

लड्डूवाला : यह भी तो हो सकता है कि इसी ने लूटमार शुरू करायी हो। उसके लिए सामने आने की क्‍या जरूरत है?

बरतनवाला : यह मैं नहीं जानता, भाई। अगर यह दूसरे शहर का आदमी है तो यहाँ आके बलवा कैसे करा सकता है? यह भी तो सोचो।

तरबूजवाला : क्‍यों नहीं करा सकता?

बरतनवाला : तुम लोग अपनी खैर मनाओ। इतना बढ़-बढ़ के मत हाँको।

ककड़ीवाला बहुत तेजी से दाखिल होता है। चेहरा खिला हुआ, होठों पर गाना, उसके पीछे बच्‍चे शोर मचाते हुए एक कतार में अंदर आते हैं। ककड़ीवाला पानवाले की बेंच पर बैठ जाता है और बड़े सुरीले ढंग से गा-गाकर ककड़ी बेचता है। नज्‍म का हर बंद दो-चार लोगों को ककड़ी का गाहक बना लेता है।

ककड़ीवाला : क्‍या खूब नर्मो-नाजुक इस आगरे की ककड़ी और जिसमें खास काफिर इसकंदरे की ककड़ी क्‍या प्‍यारी-प्‍यारी मीठी और पतली-पतलियाँ हैं गन्‍ने की पोरियाँ हैं, रेशम की तकलियाँ हैं फरहाद की निगाहें, शीरीं की हँसलियाँ हैं मजनूँ की सर्द आहें, लैला की उँगलियाँ हैं क्‍या खूब नर्मो-नाजुक इस आगरे की ककड़ी कोई है जर्दी-माइल (पीली-सी), कोई हरी-भरी है पुखराज मुनफइल (लज्जित) है, पन्‍ने को थरथरी है टेढ़ी है सो तो चूड़ी वह हीर की हरी है सीधी है सो वह, यारो, राँझा की बाँसरी है क्‍या खूब नर्मो-नाजुक इस आगरे की ककड़ी छूने में बर्गे-गुल (फूलों की पंखड़ी) है, खाने में करकरी है गर्मी को मारने को इक तीर की सरी है आँखों में सुख, कलेजे ठंडक, हरी-भरी है ककड़ी न कहिये इसको, ककड़ी नहीं परी है क्‍या खूब नर्मो-नाजुक इस आगरे की ककड़ी ककड़ीवाला गाता-नाचता निकल जाता है।

पतंगवाला : (बेनीप्रसाद से) सुन लिया, बेनी परशाद। अब बताओ ककड़ी के मौजू पर इससे बेहतर नज्‍म हो सकती है? ये सनाए व बदाए (अलंकार तथा नये प्रयोग), ये तश्‍बीहें-इस्‍तआरे (उपमाएं), तलमीह (संकेत)-यानी शेरो-शायरी और इल्‍मो-अदब में जिसे हुस्‍ने-बयान कहते हैं - यह सब क्‍या है। सुनो, एक दानाए-राज की बात सुनो और हमेशा के लिए पल्‍लू से बाँध लो। किसी पाये के मुअल्लिस ने अपने एक शादिर्ग को इल्‍मे-बयान बड़ी मेहनत से पढ़ाया। जब लड़का पढ़-लिखकर फारिग हुआ तो उस्‍ताद ने कहा : अब जाओ, बाजारों और गालियों में घूम-फिरकर लोगों की बातें सुनो और पता लगाओ कि इन बातों का इल्‍मे-बयान से क्‍या रिश्‍ता है। लड़का गली-कुचों की खाक छानता फिरा, मगर उसको लोगों की बातों का ताल्‍लुक इल्‍मे-बयान से मालूम न हुआ। उसने उस्‍ताद से हाल कह सुनाया। उस्‍ताद ने उसे फिर बाये-बिस्मिल्‍लाह (बिस्मिल्‍लाह शब्‍द की 'ब' ध्‍वनि, बिलकुल शुरू) से ताये-तमत (तमत शब्‍द ध्‍वनि, बिलकुल अंत) तक इल्‍म सिखाया और कहा कि एक बार फिर बाजारों के चक्‍कर काटो और यही बात दरयाफ्त करो। इस दफा कुछ थोड़ा-सा ताल्‍लुक शादिर्ग की समझ में आया। उसने वापस आकर कहा : हाँ, थोड़ा-सा ताल्‍लुक मालूम होता है। इस पर उस्‍ताद ने कहा : अभी तुम इल्‍मे-बयान को समझे नहीं, फिर पढ़ो। शुरू से आखिर तक एक बार फिर सब-कुछ पढ़ चुकने के बाद शादिर्ग क्‍या देखता है कि किसी शख्‍स की कोई बात ऐसी नहीं जिसका ताल्‍लुक इल्‍मे-बयान से न हो। कुछ समझे?

बेनीप्रसाद : भई, शेरो शायरी का यह मेआर (स्‍तर, मानदंड) बहुत बुलंद है। दारोगा आता है और सीधा बेनजीर के कोठे पर पहुँचता है।

दारोगा : बाईजी सोफ्ते (अकेला, एकांत) में तो हैं!

तबलची : हुजूर तशरीफ रखें, मैं अभी इत्तिला करता हूँ। (जाता है।)

सारंगिया : सरकार, आज बहुत सवेरे से तशरीफ लाये?

दारोगा : क्‍यों, मगरिब का वक्‍त सर पर है।

सारंगिया : बजा फरमाया।

बेनजीर आती है।

बेनजीर : आदाब बजा लाती हूँ। आज मालूम होता है, घर में दफ्तर में कहीं आपका दिल लगा नहीं।

दारोगा : घर-दफ्तर में कब दिल लगता है। फिर कल आपके 'हाँ यह नया दस्‍तूर देखा कि जो पहले पहुँच जाये सो पाये। चुनाचे यूँ कहिये कि कल का चला हूँ और बहुत देर-सवेर से आस्‍तानए-यार (प्रेमिका की चौखट) तक पहुँचा हूँ। आज आपका किसी और से तो वादा नहीं?

बेनजीर : वादा तो आपसे भी है।

दारोगा : भई, तुम्‍हारे 'हाँ तो वादों का लेन-देन है। कमाल यह है कि तुम्‍हें याद भी है। बहरहाल आज मैं मुसल्‍लह (हथियारबंद) हूँ।

बेनजीर : तो कल क्‍या निहत्‍थे ही आ गये थे?

दारोगा : हाँ साहब, कल हथियार भूल आये थे। आज तीर-कमान दुरुस्‍त है।

बेनजीर : यह कैसे तीरंदाज कि फित्राक (वह रस्‍सी, जिसमें शिकार मारने के बाद बाँधकर लाया जाता है) तो साथ रखें और तीरो-तर्कश ही भूल जायें! फरमाइये, किस चीज से शुरू करूँ?

माँ : (पानदान खोलते हुए) अय हय, कैसे लोग हैं! पानदान खाली पड़ा है, किसी को तौफीक नहीं हुई कि बाजार से चार पान खरीद लाता।

तबलची पैसे लेने के लिए बढ़ता है। लेकिन मंजूर हुसेन, जो इसी बीच आ चुके हैं, लपककर खुद पैसे ले लेते हैं और पान लेने के लिए पान की दुकान पर आते हैं।

दारोगा : क्‍या यह आपके उश्‍शाक (आशिक) में से है?

बेनजीर : बहुत पुराने।

दारोगा : पहले कभी नहीं देखा।

बेनजीर : क्‍या आप फेहरिस्‍त रखते हैं? आठ-दस साल के मेरे आशना है। फकीरी, गोशागीरी और खामोशी तो अब इख्तियार की है। पहले मालदार थे। इश्‍क का इजहार अलफाजो-आमाल (शब्‍द और आचरण) से करते थे, यानी मुहब्‍बत के मैदाने-अमल में हाथ-पाँव, जुबान, जिस्‍म का हर पुर्जा काम आता था। अब यह सूरत है कि अपने दिल और रूह के लिहाफ में मुझे ढाँप दिया है।

दारोगा : क्‍या कहने हैं! बड़े मजे हैं आपके! रकाबत तो महसूस नहीं करते।

बेनजीर : इस मंजिल से गुजर चुके हैं।

दारोगा : क्‍या पागल आदमी है? बातें तो समझ लेता है?

बेनजीर : मंजूर हुसेन इनका नाम है, लेकिन अब नाम से पुकारिये तो मुँह फेर लेते हैं।

दारोगा : क्‍यों?

बेनजीर : कौन जाने! शायद अपने नाम से नफरत हो गई हो। दिमाग दुरुस्‍त मालूम होता है। लोग कहते हैं कि एक दिन फिर बोलना शुरू कर देंगे, जब माहौल बेहतर हो जायेगा। (मंजूर हुसेन पान लाकर रख देते हैं।)

दारोगा : मंजूर हुसेन! (कहकहा)

दारोगा बेनजीर को लेकर अंदर चला जाता है।

तरबूजवाला गाता हुआ आता है।

तरबूजवाला : अब तो बाजार में बिकते हैं सरासर तरबूज क्‍यों न हो सब्‍ज जमर्रुद (पन्‍ना, हरे रंग का रत्‍न) के बराबर तरबूज करता है खुश्‍क कलेजे के तई तर तरबूज दिल की गर्मी को निकाले है यह अकसर तरबूज जिस तरफ देखिये बेहतर से है बेहतर तरबूज चला जाता है।

लड्डूवाला : (गाता हुआ अंदर आता है।) हमने भी गुड़ मँगाकर बँधवाये तिल के लड्डू कूचे-गली में हर जा बिकवाये तिल में लड्डू हमको भी हैंगे दिल से खुश आये तिल के लड्डू जीते रहे तो, यारो, फिर खाये तिल के लड्डू हमने भी गुड मँगाकर बँधवाये तिल के लड्डू पीछे के दरवाजे से बाहर निकल जाता है।

कुम्‍हार : (अपनी दुकान पर ही मटका बजाकर गाता है।) वाह! क्‍या बात कोरे बरतन की! कोरे बरतन हैं क्‍यारी गुलशन की जिससे खिलती है हर कली तन की बूँद पानी की इनमें जब खनकी क्‍या ही प्‍यारी सदा है सन-सन की ताजगी की और तरी तन की वाह! क्‍या बात कोरे बरतन की!

होलीवाले गाते हुए आते हैं :

कोरस : हो नाच रँगीली परियों का, बैठे हों गुलरू (फूलों जैसे चेहरे वाले) रंग-भरे कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाजो-अदा के ढंग भरे दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग (संगीत की मधुरता) भरे कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुँहचंग भरे कुछ घुघँरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की गुलजार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो उस रंग-भरी पिचकारी को अँगिया पर तककर मारी हो सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की फकीर 'आदमीनामा' गाते हुए अंदर आते हैं। इस नज्‍म में स्‍टेज पर के सब लोग शामिल हो जाते हैं। हर बंद एक नया आदमी उठाता है और टीप की तर्ह (कविता की वह आधारभूत पंक्ति जिसके अंतिम शब्‍द से बाकी पंक्तियों को तुकांत बनाया जाता है) पर सब एक साथ तीन बार दोहराते हैं: 'जरदार बे-नवा (पैसे वाला और कंगाल) है सो है वह भी आदमी!'

कोरस : दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी और मुफलिसो-गदा (दरिद्र और भिखारी) है सो है वह भी आदमी जरदार, बे-नवा है सो है वह भी आदमी नेमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी टुकड़े जो माँगता है, सो है वह भी आदमी मस्जिद भी आदमी ने बनायी है याँ मियाँ बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्‍वाँ (धर्मोपदेशक) पढ़ते हैं आदमी ही कुराँ और नमाज याँ और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियाँ जो उनको ताड़ता है, सो है वह भी आदमी याँ आदमी पे जान को वारे है आदमी और आदमी ही लोग से मारे है आदमी पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी चिल्‍ला के आदमी को पुकारे है आदमी और सुनके दौड़ता है, सो है वह भी आदमी बैठे है आदमी ही दुकानें लगा-लगा कहता है कोई : लो!, कहला है कोई : ला रे ला और आदमी ही फिरते हैं रख सिर पे ख्‍वानचा किस-किस तरह से बेचे हैं चीजें बना-बना और मोल ले रहा है, सो है वह भी आदमी याँ आदमी ही लाल, जवाहर है बे-बहा (अनमोल) और आदमी ही खाक से बदतर है हो गया काला भी आदमी है और उल्‍टा है ज्‍यूँ तवागोरा भी आदमी है कि टुकड़ा-सा चाँद का बदशक्‍लो-बदनुमा है, सो है वह भी आदमी मरने में आदमी ही कफन करते हैं तैयार नहला-धुला उठाते हैं काँधे पे कर सवार कलमा भी पढ़ते जाते हैं, रोते हैं जार-जार सब आदमी ही करते हैं मुर्दे का कारोबार और वह जो मर गया है, सो है वह भी आदमी अशराफ और कमीने से ले शाह ता वजीर हैं आदमी ही साहबे-इज्‍जत भी और हुकीर याँ आदमी मुरीद हैं, और आदमी ही पीर अच्‍छा भी आदमी ही कहाता है ये 'नजीर' और सब में जो बुरा है, सो है वह भी आदमी

गाने वालों की आवाज और साजों की ध्‍वनि अचानक

बहुत ऊँची उठती है और बहुत तेजी से परदा गिर जाता है।