अंगोरा के पथ पर / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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‘हजारों मील के घर से एकत्र हुए लाखों प्राणियों के सूखे हुए कंठ से एक ही भैरव, तृषित पुकार उठ रही है - “शान्ति! शान्ति!” और युद्ध अपनी प्रकांड गति से चला जा रहा है, शान्ति नहीं मिलती।

‘और यहाँ स्मर्ना नगर के लाखों प्राणी तड़प-तड़प कर चिल्ला रहे हैं, “आग! आग!” पर नगर जलता जा रहा है और कोई बुझाने वाला नहीं मिलता...’

स्मर्ना की बन्दरगाह के पास एक छोटे-से मकान में बैठा युवक मेज़ पर झुका हुआ लिखता जा रहा है। जलते हुए नगर का धुआँ वहाँ तक पहुँचने लगा है, भयंकर गर्मी है, पर वह युवक अत्यन्त एकाग्रभाव से लिखे जा रहा है...

‘हम ग्रीक हैं, विजेता हैं, यूरोपियन सभ्यता के प्रवर्तक हैं... पर हम मानवता के दीक्षा-गुरु होकर भी पशु हैं पशु... हम, जो संसार में सुख और शान्ति की स्थापना के लिए उत्तरदायी हैं, हम अब भी अपने आदर्श के लिए सिकन्दर की घृणित प्रतिमा स्थापित किये हुए हैं, अब भी साम्राज्य के स्वप्न पर असंख्य मानव-जीवनियों की आहुति दे रहे हैं...

‘आज जब तुर्की ने हमारा मर्मस्थान पहचान कर हम पर प्रहार किया है, हमारी सेना के थ्रेस प्रान्त में चले जाने का पता पाकर स्मर्ना पर आक्रमण कर दिया है, उसमें आग लगा दी है, तब हम कहते हैं, यह नीचता है, कायरता है! हम पर धोखे से वार किया गया है; यह अन्याय है! हमारी असहाय प्रजा के घरों में क्या किया था? इसी युद्ध में तो, हमारे राजा कांस्टैंटाइन चले थे अंगोरा के पथ पर, सम्राट का पद ग्रहण करने! अप्रैल से अगस्त तक, चार मास में, न जाने हमारी सेना ने क्या-क्या अत्याचार किये... थ्रेस से लेकर सकरिया नदी तक, बराबर तुर्कों के घर जलते गये, और हम यूनिानियों को सेना में भरती करते गये...

‘मैं भी तो इन्हीं सम्राज्य के भूखे, विजयोन्मत्त सैनिकों में भरती हुआ था, मैंने भी तो अंगारों के पथ पर पर बढ़ती हुई सेना को देखकर अपना घरबार छोड़ा था और आरोरा को साथ लेकर चल पड़ा था-मेरे भी तो पैर दर्प के मारे पृथ्वी पर नहीं पड़ते थे!

‘पर सकरिया नदी की हार! तुर्कों ने साम्राज्य का स्वप्न तोड़ दिया - कांस्टैंटाइन भाग गया - हमारी सेना छिन्न-भिन्न हो गयी, और मेरी आँखें-खुलीं! मैंने भी देखा, हम क्या कर रहे हैं।’

युवक क्षण-भर के लिए रुका, और सिर उठा कर उसी एकाग्रदृष्टि से छत की ओर देखता कुछ देर तक न जाने क्या सोचता रहा। फिर उसके मुख पर का एकाग्र भाव और भी कठोर होकर दृढ़ निश्चय के भाव में परिणत हो गया। कुछ देर वह इसी प्रकार बैठा रहा, फिर उसने ज़ोर से सिर झटका और फिर लिखने लगा...

‘कार्ल ने मुझे दिखा दिया, हम क्या कर रहे हैं... फिर मेरा सारा गर्व और स्पर्द्धा न जाने कहाँ उड़ गये। और ग्लानि, ग्लानि, ग्लानि से अन्तर भर गया...

‘आज, वह ग्लानि मिट गयी है। आज तुर्कों ने हमसे बदला ले लिया है। कांस्टैंटाइन पराजित होकर लौटा, तब पेरिस में सन्धि की बातचीत हो रही थी, पर हमारा देश इतने पर भी नहीं माना था। पुरानी सरकार ने पद-त्याग किया, नयी सरकार ने फिर जनरल हेजोनस्टीज़ को आक्रमण करने की आज्ञा दी और वह थ्रेस में सैन्य-संग्रह करने लगा... स्मर्ना भी खाली कर दिया गया - और उसी का यह फल है...

‘मैं अभी अपनी डायरी लिख रहा हूँ, शायद शाम तक यह, यह घर, और मैं भी, इसी भयंकर ज्वाला में भस्म हो जाएँगे... पर फिर भी, मैं जिस तथ्य पर पहुँचा हूँ, उसे यहाँ लिख रहा हूँ... अगर मैं इस आग से बच कर निकल गया तो यही प्रतिज्ञा मेरे जीवन की पथ-दर्शक रहेगी... और अगर नहीं - तो मेरी वेदना की यह लपट भी इसी आग में मिल कर मेरे निश्चय की साक्षी हो!

‘मैं, एंटनी स्टेरास, आयु सत्ररह वर्ष, आज 14 सितम्बर, 1922 को, अपने देश और विश्वास को साक्षी लेकर प्रतिज्ञा करता हूँ, कि भविष्य में कभी भी किसी साम्राज्यवादी लक्ष्य के लिए हथियार नहीं उठाऊँगा - कि मेरे जीवन का ध्येय साम्राज्यवाद से अनवरत युद्ध करके, उसे छिन्न-भिन्न कर, साम्य पर आश्रित लोकतन्त्र की स्थापना करना ही होगा, चाहे-’

एकाएक कमरे में दो और व्यक्तियों ने प्रवेश किया - एक पुरुष और एक लड़की। उन्हें देखकर युवक ने सकपका कर अपनी डायरी बन्द कर दी और बोला, “आरोरा तुम आ गयीं!”

जो लड़की थी, वह दौड़कर उस युवक से चिपट गयी। बोली, “टोनी, टोनी, मुझे आशा नहीं थी कि फिर से मिलेंगे!”

युवक ने उसे ज़ोर से दबा लिया और पुरुष की ओर देखता हुआ बोला, “कार्ल, अब हमें क्या करना है?”

तीनों बैठ गये। कार्ल ने पूछा, “एंटनी, क्या लिख रहे थे?”

“उहूँ, कुछ नहीं। डायरी लिख रहा था।”

आरोरा हँसने लगी। “डायरी! चारों तरफ आग लगी हुई है, और तुम्हें डायरी लिखना सूझता है?”

“और क्या करूँ?”

कार्ल गम्भीर होकर बोला, “सुनो, टोनी, आज बहुत खबरें हैं।”

एंटनी, औत्सुक्य से, “क्या?”

“पुरानी सरकार पद-त्याग करने से पहले आज्ञा दे गयी थी कि स्मर्ना से ग्रीक सेना हट जाए। और हमारे सब साथी कियोस टापू में चले गये थे। उनमें से कुछ और आगे बढ़कर मिटिलीनी टापू पर जा पहुँचे हैं। वहाँ पर मेरे दोनों साथी भी अपने संघ का प्रचार करने लगे हैं। अपनी सेना के कर्नल प्लास्टेरास ने भी सेना का अलग संगठन धीरे-धीरे आरम्भ कर दिया है। पर वहाँ से आगे एथेन्स कैसे जाना होगा, यह किसी को नहीं सूझता...”

“फिर?”

“वहाँ टापू की बन्दरगाह पर मेरे कुछ मित्र हैं। अगर उनसे बातचीत हो सके, तो वे किसी-न-किसी तरह एथेन्स से ही या इधर-उधर से जहाज बुलवा देंगे - चाहे बाद में पता लगने पर उन्हें कोर्टमार्शल ही कर दिया जाए। पर उन तक कोई पहुँचे तब न... और कोई तो जानता नहीं...”

“चिट्ठी भेजकर भी काम नहीं चल सकता?”

“शायद ही चले - इतने बड़े काम के लिए पत्र का विश्वास कोई नहीं करेगा... पर चिट्ठी भी तो नहीं भेजी जा सकती...”

तीनों चुपचाप बैठे सोचने लगी... थोड़ी देर बाद कार्ल बोला, “सुना है, एक अमरीकन जहाज यहाँ से जाने वाला है-”

फिर थोड़ी देर चुप...

कार्ल बोला, “कुछ तो सोचना ही होगा-मैं फिर बाहर जाता हूँ।”

आरोरा ने कहा, “अभी? और यह आग-”

कार्ल जल्दी से बोला, “यह अभी दूर है, मैं लौट आऊँगा।” और उठकर चल दिया। एंटनी कहता ही रह गया, “सुनो तो!”

आरोरा बोली, “टोनी डायरी दिखाओ, मैं पढ़ूँगी, क्या लिखा है।”

“नहीं, वह कुछ नहीं है”

“मैं जानती हूँ, तुम कवि हो गये हो”

“अच्छा आज की मत पढ़ो, पुरानी पढ़ लो”

“नहीं, मैं सब पढ़ूँगी-”

“नहीं, तुम्हें मेरी कसम-”

“अच्छा, देखूँ तो-” कहकर आरोरा ने डायरी उठा ली, और खोलकर पढ़ने लगी। एंटनी भी पास बैठ गया और देखने लगा :

“18 जुलाई। हमारा राष्ट्र दिग्विजयी है। हम मैसिडोनिया और थ्रेस के स्वामी हैं, हमने अनातोलिया को भी जीत लिया है, अब अंगोरा को भी जीत लेंगे... हमारा पुराना ग्रीक साम्राज्य फिर से स्थापित होगा - हम सिकन्दर के वंशज फिर पूछेंगे, बताओ और कहाँ तक पृथ्वी है जिसे हम जीत लावें...”

एंटनी ने रोक कर कहा, “आरोरा, यह बकवास है, इसे मत पढ़ो”

आरोरा ने दो-चार पन्ने उलट दिये :

“29 जुलाई। हम अंगोरा से कुल साठ मील दूर हैं, - कुल साठ मील! पर कार्ल न जाने क्यों अधिकाधिक उदास होता जा रहा है - वह कहता है कि हम अपनी ही हानि कर रहे हैं। कहता है कि सिकन्दर पागल था - अपने राष्ट्र को दूर-दूर तक फैलाता गया पर उसकी रक्षा नहीं कर सका - व्यर्थ ही इतने प्राण नष्ट किये - एक अपनी व्यक्तिगत तृप्ति के लिए... वह कहता है कि सबको स्वतन्त्र होने का अधिकार है, कि एक देश पर दूसरे देश का अधिकार स्थापित करना नीचता है और अन्याय की सीमा है...

“अभी दो मास हुए, तब मैं कार्ल को जानता भी नहीं था। कार्ल ग्रीस से सेना के साथ-साथ आया है, मैं अनोतोलिया में भरती हुआ हूँ। वह चार साल से सेना में है, मैं आज से दो ही मास पहले अपने पिता के खेत पर काम करता था और बच्चों की तरह आरोरा के साथ खेला करता था। पर फिर भी कार्ल सेना से और युद्ध से घृणा करता है, और मैं उसका विरोध नहीं कर सकता - उसकी बात मानता जाता हूँ। उसमें इतनी सच्चाई मालूम होती है...”

“आरोरा ने फिर कुछ पन्ने उलट दिये...

“30 अगस्त। पराजय! पराजय! हमारा खोया हुआ साम्राज्य-स्वप्न! आज आठ दिन से मुँह भी नहीं धो सका हूँ - निरन्तर मार्च, मार्च, मार्च... दिन में दो पड़ाव, रात में एक पड़ाव, कभी आराम नहीं मिलता... और बिचारी आरोरा रोती नहीं, पर मेरी ओर ऐसे देखती है...”

आरोरा ने रुककर एंटनी की ओर देखा, वह एकाग्र होकर बैठा था। आरोरा फिर पढ़ने लगी :

‘पता नहीं, कितने दिन ऐसे ही और चलना है - भूखे, प्यासे, ख़ून और कीच में सने, कुछ आहत, कुछ अन्धे, और स्त्रियाँ... और पराजित, पिटे हुए, हारे हुए, भगोड़े...

‘कार्ल कहा करता था, हमारी हार हो तो मुझे दुख नहीं होगा। तब हम लोग उसे गालियाँ देते थे - कि देश का शत्रु है... पर जब से हार हुई है, तब से वह कुछ बोलता नहीं, चुपचाप इधर से उधर भागा फिरता है - लोगों को पानी देता, कभी किसी को सहारा देता, कभी किसी को ढाढस बँधाता... हम एक पड़ाव चलते हैं तो उतनी देर में उसे आते-जाते चार-पाँच पड़ाव की मार्च करनी पड़ जाती है... उसने वर्दी तो उतार कर फेंक दी है, पर फिर भी पानी की बोतलों के मारे बोझ कुछ कम नहीं है...

“आज डायरी लिखने की फुरसत मिली है - पर क्या लिखूँ? जब जीवन में कुछ नहीं था -तब लिखने को कितने बातें थी! और आज-जीने वाले को लिखने से क्या?”

आरोरा का मुख भी किसी पूर्व-स्मृति के कारण गम्भीर हो गया था।

उसने फिर अन्यमव्यस्क भाव से एक पन्ना उलटा और पढ़ने लगी :

‘2 सितम्बर : अभी तक हमारी सेना ही भाग रही थी, अब बढ़ते हुए तुर्कों के आगे अनातोलिया की सारी ग्रीक प्रजा... आज हमारी संख्या पन्द्रह हजार से भी अधिक है -अनातोलिया का प्रान्त ही समुद्र की तरह उमड़ कर स्मर्ना की ओर बहा जा रहा है - पुरुष, स्त्री, लड़के, लड़कियाँ, दुधमुँहे बच्चे... और साथ में घोड़े, खच्चर, गधे-सब सामान से लदे हुए - कहीं पुरुष ही छकड़े में रोगियों, गर्भवती स्त्रियों, बच्चों और रोटी-पानी को लादे खींच चले जा रहे हैं...

‘यह है हमारे साम्राज्य-स्वप्न का प्रतिघात!’

‘हम खेती को, बागों को, अपनी प्यारी अंगूर की बेलों की कुंजों को, - सभी को रौंदते हुए चले जा रहे हैं - पर दिग्विजय के पथ पर नहीं - हम भाग रहे हैं। साम्राज्य नहीं, उसका उच्छिष्ट भी नहीं, हम उसी के भयंकर प्रतिघात से बचकर भाग रहे हैं...

‘शैतान के चार सहायक हैं : कलह, अकाल, हिंसा और मृत्यु। और ये चारों अपना उग्रतम रूप धारण किये, हमारे इस अभागे समूह में नृत्य कर रहे हैं... कोई भूख से या श्रम से क्लान्त होकर गिर पड़ता है, तो उसे भी उठाने वाला नहीं मिलता, - लोग उसे रौंदते हुए चले जाते हैं...लोगों के आदर्शों के लिए यह स्थान नहीं है-यह मानव की प्राचीनतम असभ्य और असंस्कृत वासनाओं का संघर्ष है... जो बातें युद्ध और क्रान्ति में भी नहीं होती वे यहाँ हैं - यह जीवन का, आत्म-रक्षा की घोर चेष्टा का नंगा नाच है... युद्ध बीभत्सता और क्लेश से पूर्ण होता है, क्रान्ति विराट् और भैरव होती है, पर हमारा मानव-जीवन इससे भी अधिक विराट् और भैरव है, इससे भी अधिक बीभत्स और क्लेशपूर्ण और उग्र...’

आरोरा ने आँसू-भरी आँखों से एंटनी की ओर देखा। वह अब भी उसी प्रकार एकाग्र होकर बैठा था। आरोरा ने धीरे से कहा, “सुन रहे थे या और कुछ सोच रहे हो?”

एंटनी ने एक बार “हूँ?” किया, और बिना उत्तर दिये उसी प्रकार चिन्तित बैठा रहा... आरोरा क्षण-भर देखती रही, फिर बोली, “एंटनी कहो भी, क्या सोच रहे हो?”

एंटनी एकाएक उठकर खड़ा हो गया। बोला, “आरोरा, चलो ऊपर चलें!”

आरोरा ने विस्मित होकर कहा, “छत पर? वहाँ तो धुआँ बहुत होगा!”

“चलो!” कहकर और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए, एंटनी ऊपर जाने लगा। आरोरा भी उसके पीछे-पीछे चल दी।

2

बाहर, बन्दरगाह पर...

गर्मी से उन्मत्त हुए फौज़ी घोड़े इधर-उधर भाग रहे थे, अनातोलिया से और जलते हुए नगर से भागकर एकत्र हुए असंख्य प्राणियों को रौंदते चले जा रहे थे...माताएँ रो रही थीं, “मेरा बच्चा...” तो भीड़ की भयभीत और भयानक चीत्कार “आग! आग!” में वह करुण पुकार खो जाती थी। और भीड़ चिल्लाती थी - “आग! आग!” तो उस भयंकर ज्वाला की धू! धू! में वह स्वर लीन हो जाता था...

नगर के अन्दर जलते हुए शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल भर रहा था...

एक ओर बहुत-से व्यक्तियों ने न जाने कहाँ से एक तुर्क लड़के को पकड़ लिया था - कोई कह रहा था - “इसने ग्रीक लड़कियों से छेड़छाड़ की” - लोग उसे पीट रहे थे - देखते-देखते वह गिर गया, कुचला गया - उसकी हड्डी-पसली तोड़ डाली गयी, दो-चार लोगों ने उसके टूटे हुए और ख़ून की कीच में सने अवयव उठाकर, हिला-हिलाकर भीड़ को दिखाने आरम्भ किये...

और भीड़ के छोर पर, एक भव्य इमारत, में बहुत-से लोग जुआ खेल रहे थे,

-छज्जे पर खड़ी तीन-चार वेश्याओं ने कपड़े उतारकर फेंक दिये थे और रूमालों से पसीना पोंछती जा रही थीं, उस भीड़ की ओर देखकर...

भीड़ कभी उधर देखकर लालसापूर्ण पुकार करती थी, कभी दाँत पीसती थी...

और जुआ, चोरी, षड्यन्त्र, लालसा, भूख, डर, हिंसा, आग और धुएँ के इस निर्लज्ज ताण्डव के साथ नाचती हुई स्मर्ना बढ़ी जा रही थी - किधर?

कभी-कभी नगर की ओर से भीड़ का एक अंश उस असह्य ताप के कारण बन्दरगाह की ओर हटने लगता था, तब उसके दबाव के कारण घाट के सिरे पर एकत्र हुए लोग पानी में गिरते जाते थे और डूब जाते थे - कोई बचानेवाला नहीं था। जहाज़ कुछ तो विदेशी राष्ट्रों के थे, कुछ अपनी रक्षा के लिए घाट पर से हट गये थे...

और क्रूर आग और हृदयहीन समुद्र के बीच में फँसी तीन लाख प्रजा के बीच से होकर कार्ल पिसता हुआ चला जा रहा था - पागल की तरह, उन्मत्त निश्चय से उग्र...

घाट के सिरे पर खड़ा होकर वह अपनी टोपी उतारकर हिलाने लगा। जब एक हाथ थक गया तब दूसरे हाथ से, और फिर लौटकर पहले हाथ से... थोड़ी देर बाद कुछ दूर पर खड़े एक व्यापारी जहाज से एक डोंगी उतरी, और धीरे-धीरे पास आने लगी...

इसी समय भीड़ में से उठी, एक विचित्र हुंकार - न जाने विजय की, या क्रोध की, या क्या...

कार्ल घूमकर फिर भीड़ में घुसने लगा...

थोड़ी ही देर में उसने इस शोर का कारण जान लिया...

तुर्की सेनाधिपति ने फ़रमान निकाला था कि सत्रह वर्ष से पैंतालीस वर्ष तक आयु के पुरुषों को छोड़कर सभी व्यक्ति स्मर्ना से बारह जा सकेंगे - और जो पुरुष रह जाएँगे, वे युद्ध के बन्दी समझे जाएँगे और उनसे काम लिया जाएगा...

कार्ल क्षण-भर खड़ा कुछ सोचता रहा, फिर धीरे-धीरे लौटने लगा...

3

एंटनी और आरोरा छत पर खड़े थे। यहाँ गर्मी और धुआँ और भी अधिक थे, और दुर्गन्ध भी अत्यन्त उग्र थी। पर एंटनी बिना इनकी परवाह किये छज्जे पर झुका हुआ अग्नि का तांडव देख रहा था। उसके मुख पर का भाव अभी तक उसी प्रकार चिन्तित और एकाग्र था। आरोरा कभी उस के मुख की ओर देखती, कभी आग की ओर...

दोनों बहुत देर तक ऐसे ही खड़े रहे - आग की लाल लपटों में रक्त निराशा के न जाने कितने स्वप्न देखते खड़े रहे... फिर एकाएक एंटनी बोला, आरोरा कार्ल से विवाह करोगी?”

आरोरा चौंककर, क्रुद्ध, दुखित, व्यथित, स्वर में बोली, “क्या?”

एंटनी ने फिर कहा, “मानो बिलकुल साधारण-सा प्रश्न पूछ रहा हो, “कार्ल से शादी करोगी?”

आरोरा कुछ देर बोली नहीं। फिर एंटनी के पास आकर अत्यन्त दीन स्वर में बोली, “टोनी, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है...”

एंटनी ने एक विचित्र दृष्टि से उसकी ओर देखा। फिर कोमल स्वर में बोला, “नहीं, आरोरा, कुछ और मत समझो,... अगर ग्रीस के लिए यह कहना पड़े, तो करोगी?”

“तुमको क्या हो गया है, टोनी?”

एंटनी फिर चुप हो गया। थोड़ी देर बाद, आग की ओर देखता हुआ बोला, “आरोरा, मुझे इस आग के तट पर भविष्य का एक स्वप्न दीखा था - सुनोगी?”

आरोरा कुछ नहीं बोली। एंटनी अपने-आप कहने लगा, “मैंने देखा है, हमारा तुम्हारा विवाह नहीं होगा। हम सब मर जाएँगे। और एक साथ नहीं मरना होगा - तुम कहीं और, कार्ल कहीं और, मैं कहीं और...”

“फिर?”

“फिर मेरे भीतर कुछ कहता है, आरोरा तुम्हारी नहीं है, क्रान्ति की है। उसे जाने दो...”

एंटनी फिर चुप हो गया...

आरोरा बोली, “तुम तो पागल हो - गर्मी से सिर फिर गया है...” फिर उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोली, “अब नीचे नहीं चलोगे?”

“अभी-अभी ठहरो; मुझे कुछ और देखना है, उससे आगे...”

आरोरा बिलकुल चुप और निश्चल हो गयी। दोनों फिर लाल आग में भविष्य के चित्र देखने लगे - एंटनी लाल क्रान्ति के चित्र, और आरोरा...

नीचे थके हुए स्वर में कार्ल की आवाज़ आयी, “टोनी कहाँ गये?”

एंटनी चौंका, और दोनों नीचे आ गये।

कार्ल ने दोंनो को देखकर पूछा, “छत पर क्या हो रहा था?”

एंटनी ने जल्दी से कहा, “कुछ नहीं, हम आग देख रहे थे। कैसी भयंकर है! क्यों, आरोरा?”

आरोरा एक काँपती हुई, अस्वाभाविक हँसी हँसकर बोली, “हाँ...”

कार्ल ने वह हँसी सुनकर एक बार तीव्र दृष्टि से आरोरा की ओर देखा और बोला, “तुम थक गयी हो, लेट जाओ।”

आरोरा ने मानो सुना ही नहीं। एंटनी ने पूछा, “कोई समाचार है?”

“हाँ, तुम्हारे काम का है।”

“क्या?”

“तुर्की सरकार का फ़रमान है कि सत्रह वर्ष से कम आयु के पुरुष स्मर्ना से बाहर जा सकते हैं।”

“फिर?”

“तुम्हारी आयु 17 साल की है - और आरोरा भी जा सकती है...”

“पर-”

आरोरा ने कहा, “और तुम, कार्ल?”

“मैं क्या? दुनिया बहुत बड़ी है... टोनी, चुप क्यों हो गये?”

टोनी फिर चुप रहा। आरोरा फिर वही अस्वाभाविक हँसी हँसकर बोली, “उसका दिमाग़ खराब हो गया है - उसे बुलाओ मत!”

कार्ल ने सहानुभूति-भरे स्वर में कहा, “और तुम, आरोरा, तुम भी तो बहुत चंचल हो रही हो!”

एकाएक टोनी लपका ओर बोला, “समझ गया! मेरा स्वप्न ठीक है, ठीक!”

कार्ल ने कुछ विस्मय से, मुस्कराकर पूछा, “क्या है, टोनी?”

आरोरा ने भी चौंककर भीत स्वर में कहा, “क्या?”

टोनी पर एक विचित्र, अलौकिक उन्माद छाया हुआ था... वह उसी अनागत-दर्शी भाव से बोला, “सुनो, कार्ल! मैं जो कहता हूँ, ध्यान से सुनो! मेरे पास सेना का पासपोर्ट है, अपने नाम और आरोरा के नाम का। उसमें मेरी आयु 17 साल लिखी है।”

“हाँ, तो फिर?”

“तुम समझे नहीं? तुम वह लेकर मिटिलीनी चले जाओ, और-”

“पागल! तुम्हारा और आरोरा का हक छीनकर मैं भागूँगा?”

आरोरा बैठी हुई थी, खड़ी हो गयी, पर कुछ बोल न सकी।

एंटनी ने फिर कहा, “कार्ल, ऐसे भावुक मत होओ! मैं तुम्हें अपनी जान ले कर भागने को थोड़े ही कहता हूँ? क्रान्ति का भी तो उत्तरदायित्व है...”

“नहीं, मैं नहीं मानूँगा। तुम और आरोरा चले जाओ-”

“कार्ल, सुनो! मैं बहुत छोटा हूँ, पर मैंने भी तुम्हारे साथ युद्ध देखा है, हार देखी है, हज़ार लोग मरते देखे हैं - केवल तलवार से नहीं, भूख-प्यास से और प्लेग से और इस भयंकर आग से भी... मैं समझता हूँ कि मरना क्या है और जीना क्या... पर यह बताओ, अगर एक कांस्टैंटाइन के स्वप्न के लिए लाखों प्राणियों की आहुति उनकी इच्छा के विरुद्ध दी जा सकती है, तो क्या लाखों प्राणियों के सुख के लिए एक आदमी इच्छापूर्वक नहीं मर सकता? तुम्हारे ऊपर क्रान्ति निर्भर करे, और तुम एक जीवन का मोह करो? छिः!”

कार्ल विस्मित होकर एंटनी का यह नया रूप देख रहा था, बोला, “आरोरा भी तो है...”

आरोरा ने तनकर कहा, “आरोरा भी तो मरना जानती है, डरती नहीं।”

एंटनी बोला, “नहीं, आरोरा की बात नहीं है। वह तुम्हारे साथ जा सकती है।”

आरोरा ने मुँह फेर लिया था। यह बात सुनकर वह तीखे स्वर में बोली, “ठीक है, आरोरा जा सकती है।”

इस बात के पीछे कितना तीक्ष्ण व्यंग्य, कितनी मार्मिक वेदना थी, एंटनी नहीं समझा। प्रसन्न होकर बोला, “आरोरा, तुम्हें मंजूर है न? कार्ल, तुम्हें भी मानना पड़ेगा...”

“नहीं मानूँगा। तुम दोनों चले जाओ, मैं तुम्हें एक पत्र दे देता हूँ, वह ले जाना। मिटिलीनी में-”

“तुम्हीं ने नहीं कहा था कि पत्र से काम नहीं हो सकेगा?”

कार्ल चुप रह गया। एंटनी फिर बोला, ‘कार्ल, यह हँसी नहीं है। तुम्हें यह बात शोभा नहीं देती। मेरा क्या है? अभी कल मैं साम्राज्यवाद के लिए लड़ रहा था। पर तुम तुम्हारा ग्रीस के लिए बहुत मूल्य है। बोलो, जाते हो कि नहीं? मैं कहे देता हूँ, तुम नहीं जाओगे तो मैं यहीं आग में जलकर मर जाऊँगा - यहाँ से टलूँगा नहीं!”

कार्ल कुछ कह नहीं सका, मुँह फेरकर खिड़की से बाहर देखने लगा... आरोरा ने उसी तीक्ष्ण स्वर में कहा, “ठीक है!”

एंटनी ने कहा, “कार्ल, तुम सब ठीक-ठाक करके तैयार हो जाओ - कल ही अमरीकन जहाज़ से चले जाओ।”

कार्ल का विरोध प्रायः परास्त हो चुका था। बोला,”अगर पासपोर्ट का धोखा पकड़ा गया तो? उस फ़ोटो से भी तो-”

“कैसे पकड़ा जाएगा? मुझे यहाँ कौन जानता है? और ग्रीक ग्रीक को धोखा नहीं देगा, ऐसा भी मेरा विश्वास है...फ़ोटो को धुएँ से थोड़ा काला कर लेना - बस!”

थोड़ी देर बाद एंटनी ने फिर कहा, “कार्ल, तुम तैयार हो जाओ! मैं ऊपर जाता हूँ।”

कार्ल ने एक बार आरोरा की ओर देखा और बोला, “मैं ज़रा नीचे जा रहा हूँ, अभी आ जाऊँगा।” और जल्दी से उतर गया।

कार्ल घर से बाहर निकलकर कहीं गया नहीं, घर के सामने ही एक चौंतरे पर लेट गया और आकाश की ओर देखने लगा।

सन्ध्या हो गयी थी। पर जैसे दिन-भर धुएँ के कारण सूर्य नहीं दीख पाया था, उसी प्रकार रात का पता नहीं लगा-केवल जो ज्वाला दिन में कुछ पीली-सी दीख पड़ती थी, वह अब रक्त के उबाल की तरह लाल-लाल दीखने लगी, और धुएँ का मैलापन कुछ और काला हो गया...

क्रान्ति और युद्ध के, जीवन और मरण के, तेज और मालिन्य के, लाल और काले के इस सम्मिश्रण को देखकर कार्ल भी न जाने क्या सोचने लगा...

4

एंटनी कुछ देर तक अनिश्चित-सा कमरे के मध्य खड़ा रहा, फिर आरोरा के पास गया। आरोरा भूमि पर बैठ गयी थी। एंटनी ने कहा, “आरोरा, अब तो तुम चली जाओगी!”

“हाँ, चली जाऊँगी!”

स्वर में कुछ ऐसी कठोरता थी, कि एंटनी एकाएक घुटनों पर बैठ गया और आरोरा का हाथ अपने हाथों से लेकर बोला, “आरोरा, क्या है?”

“कुछ नहीं!”

कोमल स्वर में, “मुझसे नाराज हो गयी?”

“नाराज क्यों होऊँगी? मुझे तो प्रसन्न होना चाहिए न - कि तुम अपना स्वार्थ भूल कर मेरी रक्षा कर रहे हो?”

एंटनी जो बात इतनी देर तक नहीं समझा था, वह एकाएक समझ गया। कुछ देर वह भौचक्का होकर आरोरा की ओर देखता रहा, फिर बोला, “आरोरा, तुम अन्याय मत करना - अभी हमारे पास झगड़ने का समय नहीं है। अभी थोड़ी देर तक तुम मुझे अपना टोनी मत समझो -समझ लो कि मैं केवल एक ग्रीक सैनिक हूँ। और तुम मेरी आरोरा नहीं - ग्रीस की एक वालंटियर हो... फिर बताओ, तुम क्या ग्रीस को छोड़ दोगी?”

आरोरा कुछ नहीं बोली।

एंटनी ने फिर कहा, “आरोरा, हम फिर मिलेंगे। तुम कार्ल के साथ चली जाओ, क्रान्ति हो जाने दो। मैं फिर छूट कर आ जाऊँगा - या आयु कम होने के कारण, या फिर सन्धि हो जाने के बाद...”

आरोरा ने अविश्वास के स्वर में कहा, “हूँ!”

“सन्धि अवश्य होगी। ये तीन लाख भूखे-प्यासे आदमी बहुत दिन युद्ध नहीं चलने देंगे। फिर तुम और मैं सुख से रहेंगे। तुम कहोगी तो फिर अनातोलिया लौट आवेंगे... तुम कुछ ही दिन के लिए तो जाओगी - ताकि कार्ल मिटिलीनी पहुँच सके...”

एंटनी चुप होकर आरोरा के मुख की ओर देखने लगा, पर आरोरा ने कोई उत्तर नहीं दिया। एंटनी ने पूछा, “मानती हो न?”

अब की बार कम्पित स्वर में आरोरा ने कहा, “मुझे सोचने दो - जाओ!”

एंटनी, तरुण फ़िलासफर किन्तु स्त्री-प्रकृति से अनभिज्ञ, चुपचाप अपनी डायरी उठा कर छत पर चला गया।

उसके जाते ही आरोरा खिल-खिलाकर हँसी-फिर वह हँसी पागल के उन्मत्त अट्टहास-सी हो गयी...

बाहर कार्ल ने सुना, और मन-ही-मन बोला, “दीखता ही था... हिस्टीरिया...” फिर वह उठकर भीतर चला आया।

पर छत पर बैठा एंटनी बहुत दूर विचरण कर रहा था; उसने वह हँसी नहीं सुनी।

5

रात बहुत जा चुकी थी, पर कार्ल और एंटनी दोनों जाग रहे थे। आरोरा थककर शान्त हो गयी थी, और फिर सो गयी थी, यद्यपि उसकी नींद शान्त नहीं थी - वह बार-बार चौंकती थी, और हाथ-पैर पटकती थी, मानो छटपटा रही हो। जब ऐसा होता तब दोनों एक बार चिन्तित दृष्टि से उसकी ओर देखते, और फिर बातें करने लग जाते।

वे दोनों भविष्य के लिए मनसूबे बाँध रहे थे... मिटिलीनी पहुँचकर कार्ल क्या करेगा, कहाँ जाएगा, एंटनी कहाँ उसे मिलेगा, पत्र-व्यवहार कैसे हो सकेगा, इत्यादि... कार्ल ने एक-दो कपड़े, और कुछ काग़ज़ इत्यादि एक कम्बल में लपेट कर यात्रा की तैयार कर ली थी।

एकाएक आरोरा एक हल्की-सी चीख मार कर उठ बैठी, और आँखें फाड़-फाड़ कर सब ओर देखने लगी। एंटनी ने पास जाकर प्यार से कहा, “क्या है, इरी?”

आरोरा पहले तो उससे चिपट गयी, किन्तु तत्काल ही उसने उसे परे धकेल दिया। एंटनी विस्मय के कारण कुछ बोल नहीं सका।

थोड़ी देर बाद आरोरा ने अस्वाभाविक स्वर में कहा, “तुमसे एक बात कहनी है।”

इस बात का अभिप्राय समझ कर कार्ल स्वयं उठ कर दूसरे कमरे में चला गया।

आरोरा ने पूछा, “टोनी, तुम अवश्य ही मुझे भेज दोगे?”

एंटनी ने हाथ उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “क्यों, क्या है आरोरा?”

“बताओ, ज़रूर भेजोगे?”

रुक-रुककर, “मेरे ख़याल में तुम चली जाओ तो सभी के लिए अच्छा है।”

“हूँ। तुमने अपना पासपोर्ट पढ़ा है?”

“हाँ, क्यों?”

आरोरा कुछ देर तक नहीं बोली। उसके चेहरे से ज्ञात होता था कि वह कुछ कहने के लिए साहस का संचय कर रही है... फिर उसने जल्दी-जल्दी से कह डाला, “मैं कल कार्ल से विवाह करूँगी!”

“क्या?”

आरोरा ने फिर, प्रत्येक शब्द पर ज़ोर देकर दुहराया, “मैं – कल – कार्ल – से – विवाह -करूँगी!”

एंटनी को इतना विस्मय हुआ कि वह कुछ बोल नहीं सका। उसने चुपचाप कार्ल के कम्बल पर पड़ी पासपोर्ट उठायी और उसे अन्यमनस्क होकर देखता रहा...

उस पर लिखा था, “एंटनी स्टेरास, और उसकी प्रेमिका - आरोरा”, इत्यादि। एंटनी इस वाक्य को चार-पाँच बार पढ़ गया, पर उसे मानो उसका अभिप्राय ही नहीं समझ आया, उससे आरोरा की बात का सम्बन्ध निकालना तो दूर...

आरोरा बोली, “मैं एंटनी स्टेरास की प्रेमिका हूँ। मेरी और उसकी सगाई हो चुकी है।”

एंटनी ने उसी विस्मय के स्वर में कहा, “पर-”

आरोरा ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया। बोली, “एंटनी की प्रेमिका कार्ल के प्रति प्रणयिनी का व्यवहार नहीं करेगी।”

अब एंटनी को समस्या समझ आयी। वह घबराया हुआ-सा कभी पासपोर्ट की ओर, कभी आरोरा की ओर देखने लगा।

आरोरा फिर बोली, “इसलिए मैं कल कार्ल के साथ विवाह कर लूँगी।”

एंटनी बहुत देर तक सिर झुकाये न जाने क्या सोचता रहा। क्रान्ति और जीवन के जिस संघर्ष को वह अब तक पूर्णतया नहीं समझ पाया था, वह एकाएक उसके सामने आ गया। उसके सामने उसके गत जीवन के बहुत-से चित्र नाच गये-अलग-अलग नहीं, एक ही दीप्त छाया-पट पर...

किन्तु साथ ही उसी दृश्य को घेरे हुए उसके चारों ओर, आग की लपटें... और उन लपटों में से धुएँ की तरह निकलते हुए, व्यथा और भूख से विकृत लाखों मानव-मुख...

न जाने क्या उसके मन में एक शब्द-समूह-निरर्थक शब्द-समूह-नाचने लगा, “तीन लाख, तीन लाख, अरोरा...”

उसने सिर उठाया और तन कर खड़ा हो गया। उसकी आँखों में व्यथा नहीं थी, आनन्द नहीं था, विजय नहीं थी, उत्सर्ग नहीं था; था एक उन्मत्त अभिमान दर्प...

बोला, “ठीक है, यही होगा।” फिर एकाएक घूमकर लम्बे-लम्बे कदम रखता हुआ छत पर चल दिया...

आरोरा भूमि पर बैठ गयी ऐसे जैसे गिलास के लुढ़कने से उसमें का दूध बिखर गया हो -और फूट-फूट कर रोने लगी। हिस्टीरिया ने जिस व्यथा को दबा दिया था, वह और भी अधिक वेगवती होकर निकली।

कार्ल अन्दर आया, और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चुपचाप आरोरा के पास खड़ा रहा।

और आरोरा रोती रही...

और एंटनी छत पर बैठ कर ज्वाला के प्रकाश में डायरी लिये बैठा लिखे जा रहा था, पागल की तरह, मानो उसका जीवन उस लिखने पर निर्भर करता हो...

6

वह भयंकर ज्वाला जो अनेक अकाल-मृत्युओं का कारण हुई थी, अनेक अकाल प्रसवों का भी कारण हुई...

कार्ल आरोरा को लेकर जिस पथ पर धीरे-धीरे चला जा रहा था, उस पर उसने पाँच-छः प्रसविनी स्त्रियाँ पड़ी देखीं...

कार्ल ने एक बार चुपचाप उसकी ओर देखा, और चलता गया। वह मन ही मन आरोरा की मनःस्थिति समझने का प्रयत्न कर रहा था, पर समझ नहीं पाता था।

उनका विवाह हो चुका था। उसी भीड़ में फँसे हुए एक वृद्ध पादरी ने उनका विवाह-संस्कार कर दिया था।

एंटनी उनके विवाह पर नहीं गया था, अब उनके साथ बन्दरगाह पर भी नहीं आया। वे उसके पासपोर्ट पर जा रहे थे, इसलिए उसका साथ आना ठीक नहीं था, क्योंकि शायद कोई पहचान का आदमी मिल जाता... यही कह कर वह स्वयं रह गया था। आरोरा ने उसे साथ बुलाने का बिलकुल आग्रह नहीं किया, और कार्ल ने भी यह सोचकर कि इस प्रकार वियोग का दुख कम हो जाएगा, कोई बाधा नहीं की। आरोरा ने चलते समय एंटनी से विदा भी नहीं ली -यद्यपि कार्ल उन्हें अवसर देने के लिए परे हट गया था... एंटनी ने कहा, “आरोरा, ऐसे ही चली जाओगी? तब आरोरा ने बिना उसकी ओर देखे ही उत्साह-हीन स्वर में कहा था, “ऐसे ही नहीं -क्रान्ति की रक्षा करने जाऊँगी!” और तीव्र गति से बाहर निकल गयी थी...

बन्दरगाह पर स्त्रियों, बच्चों, लड़कों और वृद्धों की क़तारें खड़ी थीं। आठ-दस तुर्की सैनिक उनका या उनके पासपोर्ट का निरीक्षण कर रहे थे। जिसकी आयु के विषय में उन्हें सन्देह होता, उसे वे अलग कर लेते थे, और बाक़ी उनकी अनुमति लेकर सामने जुटी हुई अमरीकन डोंगियों में बैठकर जहाज़ों की ओर चले जा रहे थे...

कार्ल और आरोरा भी उसी क़तार में जा कर खड़े हो गये और बिना उत्साह, बिना औत्सुक्य के जहाज़ों के मस्तूलों की ओर देखने लगे...

7

एंटनी फिर छत पर खड़ा था। आग अब बहुत पास आ गयी थी, एंटनी के माथे पर उसके ताप से जो स्वेद-बिन्दु उत्पन्न होते, साथ ही उसी के ताप के कारण सूखते भी जा रहे थे...

उसके एक हाथ में लिफ़ाफ़ा था, और दूसरे में एक छोटा-सा पत्र...

“तुमने मेरा अपमान किया है, मैं इसीलिए तुम्हें छोड़कर चली जा रही हूँ। क्रोध में जा रही हूँ - ऐसे ही वियोग सह्य हो सकेगा। बाद - बहुत बाद - रो लेंगे, जब क्रान्ति हो चुकेगी।

“लिफ़ाफ़े में अपने बालों की एक लट काटकर रख जाती हूँ। मैं क्रान्ति की हूँ, तो इसे तो रख ही लेना।”

पत्र एंटनी के हाथ से गिर पड़ा। उसने लिफ़ाफ़े से वह सुनहली लट निकाली और विमनस्क भाव से बार-बार उसे अपनी उँगली पर लपेटने और खोलने लगा...

फिर एकाएक रुककर उसने पत्र उठाया, उसमें लट लपेट कर लिफ़ाफ़ें में डाली और लिफ़ाफ़ा अन्दर की जेब में रख लिया...

फिर वह उतर कर घर में आया, और डायरी लेकर लिखने बैठ गया...

‘जीवन तीव्र और अनवरुद्ध गति से आगे बढ़ता जा रहा है, और मैं मूर्ख की तरह उसके साथ क़दम मिलाकर चलने की निष्फल चेष्टा कर रहा हूँ... पैदल आदमी सरपट दौड़ते घोड़े से क़दम मिलाये...

‘पर क्या? जीवन के साथ नहीं चल सकता, तो जिधर जीवन की गति है उस दिशा में तो जा सकता हूँ, मैंने आरोरा को स्वेच्छा से जाने दिया है - स्वयं भेजा है...

‘प्राण अभी तक रोते हैं, “आरोरा, आरोरा!” पर मैंने उसे छोड़ दिया है-इतना ही नहीं, वह भी मुझे छोड़ कर चली गयी है...

‘मैंने अपने सामर्थ्य के परे हाथ बढ़ाया था - पर बिना अपने सामर्थ्य के परे हाथ बढ़ाये क्रान्ति नहीं हो सकती...

‘मेरा जीवन सम्पूर्ण हो गया है। आरोरा, मैं तुमसे विदा लेता हूँ। पर - अब तुम मेरी कौन हो जिससे विदा लूँ?

‘नहीं, अभी मेरा एक काम बाक़ी है - अभी क्रान्ति सम्पूर्ण नहीं हुई... मैं बलिदान कर चुका हूँ, पर अभी प्रसाद नहीं मिला...’

8

आग स्मर्ना नगर का विनाश करके बुझ चुकी थी।

क्रान्ति की ज्वाला मिटिलीनी टापू से बढ़ती हुई ग्रीस-भर में फैल चुकी थी। कांस्टैंटाइन देश को छोड़कर भाग गया था। हवाई जहाज़ आकर नयी सरकार के फ़रमान बाँट गये थे...

किन्तु आग के बचे हुए लोग अभी स्मर्ना में पड़े विधि के विधान की प्रतीक्षा कर रहे थे...

और क्रान्ति की ज्वाला से बचे हुए क्रान्ति-शत्रु अभी तक षड्यन्त्र रच रहे थे...

और विजयी तुर्क, विजय से सन्तुष्ट न होकर, बन्दरगाह पर एकत्र होकर पानी में काँटे डाल रहे थे - डूबे हुए ग्रीक शवों को खींच-खींचकर निकालने के लिए-उनके शरीरों पर आभूषण, धन, कपड़े तक उतार लेने के लिए...

नभ में ऊषा नाच रही थी।

एंटनी बन्दरगाह पर पोर्ट-भवन के बाहर खड़ा एक फ़ेहरिस्त देख रहा था जो कि उसी वक़्त लगाई गयी थी। यह क्रान्ति पक्ष की आहुतियों की सूची थी।

एंटनी के पैरों में साँकलें पड़ी हुई थीं - वह तुर्की का युद्ध-बन्दी थी और भाग कर यहाँ आया था। एंटनी का शरीर थकान से चूर हो रहा था, मुख क्लेश और दुख से पीला पड़ गया था - वह स्मर्ना से अंगोरा की सड़क पर और क़ैदियों के साथ कुली के काम में लगाया गया था। एंटनी का अपना कोई नहीं था जिसकी वह चिन्ता करता, पर इतने दिनों से कार्ल का कोई समाचार नहीं आया था... और आरोरा का पता नहीं था...

एंटनी की दृष्टि एक नाम पर अटक गयी, पर न जाने क्यों उसे कोई धक्का नहीं लगा, विस्मय भी नहीं हुआ...

“एंटनी स्टेरास, मिटिलीनी के विद्रोह के समय हवाई जहाज़ के गिर जाने से, 2 अक्टूबर।”

एंटनी ने शून्य भाव से कहा, “कार्ल...” और फिर निरुद्देश्य-सा आगे पढ़ने लगा...

“नामहीन मृत्युएँ :

कियोस द्वीप में, सैनिक बारक में, एक पुरुष, आयु लगभग 23, मृत्यु का कारण अज्ञात... मैसिडोनिया में- ...थ्रेस में ...सालोनिका बन्दरगाह पर-”

एंटनी चौंककर रुक गया - फिर एक साँस में तेज़ी से पढ़ गया :

“एक युवती, आयु लगभग सत्रह वर्ष, कपड़ों में एक पुराना पासपोर्ट है जिसमें एंटनी स्टेरास का नाम लिखा हुआ है। युवती के शरीर पर आठ गोलियों के घाव हैं। सालोनिका में हेजानेस्टीज़ की सेना के कुछ बचे एकतन्त्रवादियों ने जो गुप्त ट्रिब्युनल खड़ा किया था; यह उसी का काम है। ये व्यक्ति अब कोर्टमार्शल कर दिये गये हैं।”

एंटनी धीरे-धीरे वहाँ से हटकर घाट के सिरे पर आ गया... यहाँ उसकी ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं था, केवल पाँच-सात तुर्क पानी से मुर्दे निकाल रहे थे...

एंटनी ने जेब में से अपनी डायरी निकाली। क्षण-भर उसकी ओर देखता रहा। फिर उसने वह पृष्ठ निकाला जहाँ उसने अपनी प्रतिज्ञा लिखी थी, और एक बार प्रतिज्ञा पढ़ गया - “मैं, एंटनी स्टेरास, प्रतिज्ञा करता हूँ...”

फिर एकाएक बोला, “एंटनी स्टेरास तो मर चुका!”

और डायरी समुद्र में फेंक दी।

फिर उसने जेब में से एक लिफ़ाफ़ा निकाल उसमें से बालों की एक लट निकाली। नवोदित सूर्य की किरणों में उसका सुनहलापन और भी अधिक शोभित हो गया था। एंटनी कुछ देर उसे सूँघता रहा। फिर उसने एक बाल निकाला, और उसे सूर्य के सामने रखकर क्षण-भर देखता रहा -और फिर छोड़कर समुद्र की ओर उड़ा दिया...

इसी प्रकार एक के बाद एक, एक के बाद एक, बाल...

जब सब समाप्त हो गये, तब धीरे से बोला, “मेरी आरोरा गयी, अब क्रान्ति की आरोरा है...”

आकाश में हवाई जहाज़ मंडरा रहा था; उससे परचे गिराये जा रहे थे। दो-चार लोग चिल्ला रहे थे, “सुनो, सुनो, ग्रीस के सब राजबन्दी छूट गये...”

एंटनी ने एक लम्बी साँस ली, और धीरे-धीरे नगर पार कर बड़े फाटक पर पहुँचा। यहाँ उसने एक बार घूमकर स्मर्ना नगर के भग्नावशेषों को देखा, फिर अभिमान से सिर ऊँचा उठाकर साँकल झनकाता हुआ आगे चल पड़ा - उसी पथ पर जिस पर से वह एक बार पहले दिग्विजय का भक्त और साम्राज्य का आकांक्षी गुज़रा था, और जिस पर अब उसके लिए एकमात्र आशा तुर्कों के हाथ प्राण-दंड की आशा थी - तुर्की राज्य की राजधानी अंगोरा के पथ पर...

(मुलतान जेल, मई 1933)