अंतडिय़ों तक पहुंचा '24' सीरियल / जयप्रकाश चौकसे

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अंतडिय़ों तक पहुंचा '24' सीरियल
प्रकाशन तिथि : 27 नवम्बर 2013


हर शुक्रवार-शनिवार रात 10 बजे कलर्स पर अनिल कपूर के सीरियल '24' का प्रसारण होता है। एक सफल अमेरिकन सीरियल का हिंदुस्तानी संस्करण बड़ी निष्ठा से बनाया गया है। यह अगर महज एक स्पाई थ्रिलर होता तो शायद दर्शक को इस तरह नहीं बांध पाता। उसके हर क्षण में तनाव एवं मानवीय संवेदना भरी है। अपनी भावना की तीव्रता से सीरियल दर्शक की अंतडिय़ों तक जा पहुंचता है। दर्शक पात्रों के डर को महसूस करता है। उसके तनाव को जीता है। इस आत्मीय तादात्म्य को बनाने के लिए निर्देशक ने मानवीय मनोविज्ञान का सहारा लिया है। मसलन, अनिल कपूर की पत्नी और बेटी को एक संकट से बचाया जा चुका है। परंतु उन्हें सुरक्षित रखने के लिए जिस एजेंट को अनिल ने भेजा है, वह कभी उससे गहरा प्यार करती थी। लेकिन अनिल उसकी योग्यता मात्र का कायल था। बहरहाल, पत्नी यह सब जानती है। वह एजेंट से व्यक्तिगत सवाल पूछना शुरू करती है। जबकि एजेंट को उसे इंटेरोगेट करना है। इस उल्टे इंटेरोगेशन से एजेंट आहत हो जाती है। अपना काम अपने सहायक को सौंपती है। इस भावना के द्वंद्व का परिणाम यह होता है कि योग्य एजेंट के जाते ही अनिल की पत्नी फिर संकट में पड़ जाती है। उसकी जान पर बन आती है। सारे सीरियल में इसी तरह के भीतरी द्वंद्व को बाहरी घटनाओं से बखूबी जोड़ा गया और दोहरे द्वंद्व की धार से दर्शक अप्रभावित नहीं रह पाता।

दूसरी ओर, अनिल पर राष्ट्रदोह का आरोप है। उसकी तथाकथित प्रेमिका का पति अपनी पत्नी के प्रेम को जानते हुए भी अनिल के पक्ष में निर्णायक गवाही देता है। इसके समानांतर घटनाक्रम यह है कि भावी प्रधानमंत्री की प्रेस सचिव यह जानते ही कि उसका प्रेमी भावी प्रधानमंत्री के कत्ल की साजिश में शामिल है, तुरंत उनकी रक्षा की खातिर सब कुछ सच बता देती है। साजिश का पर्दाफाश करने के लिए सहर्ष तैयार हो जाती है। राजनीतिक पृष्ठभूमि इस तरह रची गई है कि दर्शक काल्पनिक भावी प्रधानमंत्री के पिता के रूप में राजीव गांधी को देखता है। परंतु इसी रूपक को हम आगे नहीं बढ़ा पाते क्योंकि मेनका का पुत्र यथार्थ में विरोध पक्ष में है। जबकि सीरियल में वह प्रधानमंत्री का सबसे निकट का विश्वासपात्र व्यक्ति है और अपनी मित्रता को अक्षुण रखने के लिए अपनी महत्वाकांक्षी मां के खिलाफ प्रमाण भी ले आया है। सीरियल में भारत की राजनीति का स्पर्श मात्र है। फॉर्मूले के अनुरूप इसमें पाकिस्तान के गुप्तचर खलनायक नहीं हैं। वरन् श्रीलंका का हिंसक दल अपने पुनरागमन के लिए साजिश रच रहा है ताकि पिता की तरह पुत्र की भी हत्या कर दें। साथ ही उस परिवार के विश्वस्त एजेंट अनिल को भी मार दें। कहानी में डोरे भीतर डोरा है। परंतु रहस्य की सभी परतों में मानवीय करुणा, डर, चिंता और साहस भी गूंथा गया है। निर्देशक ने दिल और दिमाग के साथ ही दर्शक की अंतडिय़ों में हाथ डाला है क्योंकि डर और चिंता का सबसे अधिक प्रभाव अंतडिय़ों पर पड़ता है और दर्शकों की अंतडिय़ां रोने लगती हैं। कमजोर पेट वाले सीरियल प्रारंभ होने के पहले स्पोरलेक का सेवन कर सकते हैं।

सारे पात्रों के लिए कलाकारोंं का चयन कमाल का है। मंदिरा बेदी की तो कॉलर बोन भी भावों को अभिव्यक्त कर रही है। अनिल कपूर का यह श्रेष्ठ प्रयास है। 'तेजाब' का जलाभुना परिपक्व अनिल इस सीरियल का केंद्रीय पात्र है। यह सीरियल अन्य सीरियलों की लिजलिजी भावुकता से मुक्त है। किसी पात्र ने धार्मिक मुखौटा भी नहीं लगाया है। कोई अफसाना हकीकत के इस तरह करीब हो सकता है, यह देखने और अनुभव करने की बात है। यह संभव है कि इस सीरियल की लोकप्रियता 'दिया और बाती' या 'जोधा अकबर' के समान नहीं हो। परंतु यह परिवर्तन का शंखनाद है। मनोरंजन के क्षितिज पर एक नई रोशनी है। इससे जुड़े तमाम कलाकार और तकनीशियन बधाई के पात्र हैं। इसके प्रदर्शन के पूरा होने पर कलर्स को चाहिए कि किसी इतवार इसे पूरे 24 घंटे दिखाए।