अंतरंग / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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आज भी शाम साढ़े चार बजते ही रिटायर्ड लेफ्टिनेन्ट कर्नल केशव शर्मा पांच किलोमीटर सायकिल चला कर गोल्फकोर्स पर आ डटते हैं। हालांकि अब खेलते नहीं‚ न शरीर में दम – खम बाकी रहा न नज़र में वो पैनापन‚ अल्ज़ीमर्स के हल्के असर से हाथ भी कांपते रहते हैं — शॉट कैसे लगेगा? कभी वो गोल्फ के शातिर खिलाड़ी थे।अब वे नौसिखुओं में अपना अनुभव निशुल्क बांटते हैं। वह भी किसी के बिना मांगे‚ बिना पूछे।पर ये नौसिखुए लोग उनका बहुत सम्मान करते हैं। विशिष्ट सेवा मैडल प्राप्त इन लेफ्टिनेन्ट कर्नल महाशय का पूरा जीवन फौज और गोल्फ की नज़र हो गया। अब सत्तर साल के हो गया है‚ पर उनकी उस फौजी ग्रिलिंग क चलते जीवन में अनुशासन और गोल्फ के प्रति मोह अब भी बाकी है।

आज भी वे शाम पांच बजे से आ बैठे हैं — गोल्फकोर्स के इस हिस्से में जहां एक बैंच लगी है और पानी के एक छोटे से गढ्ढे के उस पार गोल्फ का बारहवां होल है। इस गोल्फकोर्स का सबसे मुश्किल मुकाम। कल सायकिल का स्टैण्ड टूट गया था‚ एक बच्चे की बॉल से सायकिल गिर गई थी कल और स्टैण्ड निकल गया था‚ सो बिना स्टैण्ड की यह सायकिल सामने ही उन्होंने लिटा कर रख दी है। सायकिल चलाना उनके नियमित व्यायाम का हिस्सा है। बच्चे कहते हैं‚ घर पर ला देंगे एक्सरसाइज़ वाली सायकिल‚ रोड पर तेज़ वाहनों का खतरा तो रहता ही है उस पर सत्तर की उमर और कमज़ोर नज़र। पर वो कहां सुनते हैं‚ घर पर सायक्लिंग में क्या खाक मज़ा है‚ जो बाहर है‚ नज़ारे बदलती दुनिया के — उन्हें दुनिया और जीवन से जोड़ते हैं। सैर की सैर‚ व्यायाम का व्यायाम। साढ़े छÁ बजे जब तक ठीक – ठाक घर नहीं पहुंच जाते सबसे छोटी बहू नमिता की जान टंगी रहती है दरवाजे पर… वे उसी को सबसे ज़्यादा चाहते हैं‚ भले ही बेटा नालायक है पर बहू हीरे की कनी है।वही है जिसके बूते घर चलता है‚ एक अच्छी ऑर्थोडोन्टल सर्जन है‚ बढ़िया पे्रक्टिस चलती है। बेटा‚ एम। बी।ए। करके बेकार घूमता है… उससे कहीं टिका नहीं जाता… एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी… या कई महीनों खाली बैठता है… घर में आलसी सा…आजकल भी खाली है… देर में उठना‚ नमिता से झगड़ना‚ उनसे बेबात बहस करना… खाने में मीन – मेख निकालना… फिर सो जाना और शाम को तैयार होकर तफरीह को निकल पड़ना‚ नमिता साथ जाना चाहे या बेटा ज़िद करे तो झगड़ा इसी सब से दूर भाग आते हैं‚ कर्नल केशव‚ यहां हरे भरे कोने में कुछ पल एकान्त के‚ कुछ लोगों से मिलने – जुलने के…दिल फूल सा हल्का हो जाता है।

उन्हें इंतज़ार है‚ पिछले ही माह बने अपने मित्र मि। कण्णन का‚ संयोग से यह दक्षिण भारतीय महाशय भी गोल्फ में रुचि रखते हैं और भारतीय रेल सेवा से किसी उच्चाधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। मि। कण्णन की सेहत उनसे कुछ अच्छी और उम्र उनसे कुछ कम है सो वे अब भी गोल्फ खेल लेते हैं और थोड़ा सा खेल कर थक कर उनके पास आ बैठते हैं। फिर बातें होती हैं पहले गोल्फ की‚ फिर फौज की‚ फिर राजनीति की‚ बदलते परिवेश की फिर बात आकर ठहर जाती है घर – परिवार पर। संयोग यह भी है कि दोनों लम्बे समय से विधुर हैं। एक सी परिस्थितियों ने दोनों को जल्दी ही अंतरंग बना दिया है। जब भी दोनों में किसी एक का दिल दुखा होता है‚ तो यह अंतरंगता प्रगाढ़ हो जाती है। कण्णन यूं भी लम्बी तनाव से भरी नौकरी के दौरान ही हायपरटेन्शन के शिकार हो गये थे। मधुमेह और इसका जीवनसंगी उच्चरक्तचाप उनके साथ पिछले दस साल से है। वे थोड़े चंचल और उग्रता की कुछ हदें छूते हुए व्यग्र किस्म के व्यक्ति हैं। जबकि केशव अपने तन – मन को फौजी अनुशासन में रखते आये हैं‚ अल्ज़ीमर्स के हल्के से असर के अलावा उन्हें कोई परेशानी नहीं है। वे स्वयं तो हमेशा गति में रखते हैं‚ सुबह छ बजे उठ कर योग – मनन‚ फिर नाश्ते के बाद बागवानी — अपने छोटे से लॉन में उन्होंने न जाने कितने किस्म के गर्मियों के खुश्बूदार फूल उगा रखे हैं‚ कितने क्रोटन्स‚ सकुलेन्ट्स‚ कैक्टाई तरतीब व सौन्दर्यबोध के साथ लगा रखे हैं। नमिता खुश हो जाती है‚ जब सब उसके लॉन की तारीफ करते हैं तो वह गर्व से कहती है‚” ना‚ कौन गार्डनर इतना सुन्दर लॉन बना सकता है? मेरे फादर इन लॉ का ही सारा एफर्ट है यह।”

वे घड़ी देखते हैं — अब तक तो कण्णन को आ जाना चाहिये था। छÁ बज गये। कल तो बड़ा कह रहा था‚” ये कल के छोकरे अपने आप को तीसमारखां गोल्फर समझते हैं। कल इन्हें दिखाता हूँ गोल्फ है क्या। अपना इम्पोर्टेड गोल्फ किट लेकर आऊंगा।”

शायद कहीं अटक गया हो। अब सबकी किस्मत मेरे जैसी तो नहीं ना। नमिता ठीक साढ़े चार बजे चाय बना कर उनके पास आ बैठती है‚ भले ही अपने डेन्टल क्लीनिक से तभी ही लौटी हो… पर चाय का टीम – टाम पूरा व समय से। हां बिलकुल‚ केतली को टीकोज़ी से ढंक कर‚ मिल्क पॉट – टी पॉट के ताम झाम के साथ। उसे पता है पापा कितना खुश हो जाते हैं इस ज़रा सी कोशिश से वरना सुबह – शाम का खाना तो वे बाई के हाथ का बना‚ टेबल पर रखा हुआ‚ बिला शिकवा खा लेते हैं। यही छोटा सा सुख वह उन्हें दे पाती है। यही वजह है कि छोटे बेटे के नालायक बिगड़ैल‚ लापरवाह‚ गैरज़िम्मेदार‚ लगभग बेरोज़गार होने के बावज़ूद वे यहीं उसी के साथ रहते हैं‚ वरना कनाडा में बसे दोनों बड़े कितना बुलाते हैं। पर उनसे अपना देश नहीं छूटता‚ फिर नमिता को उनकी ज़रूरत है… नन्हीं पोती संचिता को फिर कौन देखेगा?

कण्णन की नियति एकदम अलग। बड़ा सा घर बनवाया था‚ रेल्वे की नौकरी में रहते – रहते। रिटायरमेन्ट के बाद महज चार साल वे सुकून से अपनी पत्नी के साथ रह सके‚ बेटों की शादी की‚ वहीं से बेटी को विदा किया। बेटी के विवाह के एक माह बाद ही पत्नी की मृत्यु हो गयी और एक – एक कर बेटे अलग हो गये‚ इस घर में बसी उन यादों को छाती से लगा कर बैठा है। एक बेटी है‚ वह आती – जाती रहती है। एक नौकरानी है जो घर की व उसकी देखभाल करती है। एक पारिवारिक डॉक्टर है जो सप्ताह के सप्ताह उनका चैकअप किया करता है।

केशव एक बैचेनी भरी निगाह अपनी घड़ी पर डालते हैं… पौने सात बज गये हैं। अब क्या आयेगा कण्णन…गोल्फ का खेल भी सिमटने लगा है। जॉगर्स लौट गये हैं‚ कोने की बेन्च पर एक प्रेमी युगल भी उठ खड़ा हुआ है। गुलमोहर के पेड़ पर बिछा किरणों का जाल सूरज ने कब का समेट लिया। तोते बड़े पेड़ों के कोटरों पर लौटर खूब शोर मचा रहे हैं।वे भी देर तक अपने मित्र की प्रतीक्षा कर ज़मीन पर लेटी सायकिल उठाते हैं‚ फिर थके कदमों से धीमे – धीमे पैडल मारते हुए लौट आते हैं।

केशव लगभग पूरे सप्ताह अपने अन्तरंग मित्र की प्रतीक्षा इसी तरह करते रहे‚ फिर बेचैन हो गये और स्वयं पर लानत भेजने लगे कि इतने दिनों से मिल रहे हैं‚ घर का पता तक नहीं पूछा। नमिता उनकी बेचैनी समझ पर रही थी। उनका मोबाइल भी तो बन्द पड़ा है‚ कितनी बार वही नम्बर मिलाया तो वही आवाज़‚” दिस मोबाइल इज़ करन्टली स्विच्डऑफ।” न और कोई नम्बर न पता। एक व्यग्रता से उनका मन भर उठा था। कहां‚ कैसे पता पायें कण्णन का।

सोमवार वे महज कण्णन का पता लगाने के लिये ही गोल्फकोर्स पहुंचे थे‚ आज यही गोल्फकोर्स उन्हंई सूना सा लग रहा था‚ कण्णन की उत्साहित‚ उत्तेजित तेज़ आवाज़ और ठहाकों की गूंज के बिना यह बैंच‚ यह पिन‚ मखमली घास के टुकड़े और पानी का सुन्दर छोटा सा पॉण्ड सूना सा लग रहा था। दूर एक समूह गोल्फर्स का एकाग्रता से एक गोल्फर को शॉट लगाते हुए देख रहा था… उन्हें लगा की उस समूह में कण्णन का ही एक जूनियर अधिकारी फिरोज़ मौजूद है‚ जिससे लगभग दो सप्ताह पहले ही उन्हें कण्णन ने परिचित करवाया था।

केशव लगभग हांफते हुए तेज़ सायक्लिंग करके फिरोज़ के पास पहुंचे थे कि‚ उन्हें हांफते देख फिरोज़ चकित था‚

“क्या हुआ सर”

“फिरोज़ डू यू नो वेयर अबाउट्स ऑफ कण्णन? वेयर इज ही? हैव यू सीन हिम? डू यू हैव हिज़ एड्रैस?”

इतनी उत्तेजना शायद ही केशव ने कभी अपने जीवन में दिखाई थी। न जाने कैसा मोह था‚ इस ढलती सांझ – सी उम्र में बने एक मित्र के प्रतिॐ न जाने कैसा डर था… पल – पल अंत को पहुंचती इस क्षीण सी उम्र्र की पगडण्डी को लेकरॐ

“डोन्ट यू नो सर?”

“व्हाट” उनका मन किसी अजानी आशंका से लगभग बैठ ही गया था।

“लास्ट वीक ही हैड हिज़ फस्र्ट हार्टअटैक ‚ नाउ ही इज़ एडमिटेड इन ऑल इण्डिया इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्सेज़। ही इज़ इन क्रिटीकल कण्डीशन सर।”

केशव के चेहरे पर हवाइयां उड़ रहीं थीं।

“सर आई हैव सीन यू सो मैनी टाइम्स अलोन इन गोल्फकोर्स बट आई थॉट‚ यू मस्ट बी अवेयर अबाउट हिम…।” “नो‚ आइ वाज़न्ट।” कह कर केशव लौट गये।

अगले ही दिन सुबह दस बजे वह और नमिता ऐम्स की लम्बी भूलभुलैय्या सी गैलरियों में खाक छान रहे थे। आखिरकार उन्हें कण्णन का वार्ड मिल गया। वे चप्पल उतार कर कार्डियोलॉजी डिपार्टमेन्ट के पोस्ट ऑपरेशनल आई सी यू वार्ड में घुसे। नर्स से पूछा तो पता चला कि — हाल ही में उनकी एन्जियोप्लास्टी हुई है … पर नर्स ने कहा‚ ' रिकवरी ' बहुत ' स्लो ' है… ज़्यादा बात न करें पेशेन्ट से। आई सी यू में दायें से तीसरे बैड पर मि। कण्णन लेटे थे। पास ही उनकी बेटी खड़ी थी‚ बैग कन्धे पर लटका था‚ शायद वापस जाने की तैयारी में थी। एक साथ इतने लोग अन्दर नहीं रुक सकते थे इसीलिये‚ उन्हें देखते ही वह जल्दी – जल्दी सामान समेटने लगी।


कण्णन ने एक मुस्कुराहट दी। केशव का मन भर आया।

“यू ब्लडी… डिचर… अपने यार को ही नहीं बताया?”

कण्णन की आंखों में पीड़ा थी… वह कुछ कहना चाहते थे।

“चल तू तो अब चुप ही रह… तुझे तो बाद में देखूंगा।”

“अंकल‚ आप को कैसे बताऊं…वह तो मिरैकल ही हुआ है‚ पापा को देर रात नींद में ही हार्ट अटैक पड़ा… न जाने मुझे क्या इन्ट्यूशन हुआ कि सुबह ऑफिस जाते हुए पापा के घर की तरफ कार मोड़ ली… पहुंची तो पापा अनकॉन्शस… बाई ने सोचा सो रहे हैं…अगर मैं नहीं पहुंचती तो…पता नहीं……” कह कर कण्णन की बेटी की आंखें भर गईं।

“तुम चिन्ता मत करो बेटी… मैं हूं ना… अब रोज़ शाम गोल्फकोर्स की जगह यहां महफिल जुड़ेगी। तुम अब चाहो तो घर या ऑफिस हो आओ‚ बहू तू भी जा। मैं टैक्सी से घर पहुंच जाऊंगा।” फिर अपने मित्र की तरफ मुखातिब होकर बोले‚” तू जल्दी से रिकवर कर आई सी यू से पर्सनल वार्ड में आजा फिर गप्पें मारा करेंगे। फिर गोल्फकोर्स तेरा इन्तज़ार कर रहा है। पता है मैं गोल्फ पर एक साझी किताब लिखने की सोच रहा हूँ तेरे साथ… ये आज कल के छोकरे क्या जाने असली गोल्फ।”

मि० कण्णन की आंखें गीली हो गईं थीं। उनकी आंखों में गोल्फ कोर्स की शामें सजीव हो गई थीं। वह हरा घास का विशाल टुकड़ा‚ वह पानी से भरा वह पारदर्शी गड्ढा… जिसमें पेड़ों की छायाएं बनती – मिटती थीं। वह लम्बा चौड़ा गोल्फकोर्स जिसमें कई टूर्नामेन्ट्स उन्होंने जीते थे। और अभी तो अन्तरंगता की प्रतीक उनकी साझी किताब… गोल्फ पर… वाह कितना खूबसूरत सपना है — जिसे पूरा करने को जीने की इच्छा फिर पलकें झपकाने लगी थी।