अंतिम परिणिति / विपिन चौधरी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभी एक मिनट पहले वह मेरी आँखों के सामने थी और अब मेरी आँख के घेरे में कोई नहीं है. इस घनघोर धुप में सरपट हिरनी से भागती वह न जाने कहाँ गायब हो गयी. सामने बाजार में अनेकोंनेक गालियाँ थी, पता नहीं वह कौन से गली में जा कर गम हो गयी थी. वह मेरी दृष्टी के विस्तार में कहीं नहीं थी. जहाँ मैं खड़ी थी वहां से केवल गलियों की धूल ही नज़र आ रही थी.

वह ही थी, बिलकुल वही थी ठीक वही चेहरा मोहरा वही पहले वाला. उसने फटे-मैले कपडे, उलझे बाल और निर्जीव आँखों वाली आँखों वाली यह लड़की, उसे पहचानने में देर तो लगी पर उसे इस हालात में भी पहचान पाना कठिन था. लेकिन मन उसे इस स्तिथि में देखने को तैयार नहीं था कि अभी-अभी दर्श देने वाली लड़की वर्तिका ही थी.

यह एक ऐसा सत्य था मेरे सामने जिसे मैं न स्वीकार कर सकती हूँ न अस्वीकार.

यह सच हैं की जीवन में अक्सर अतीत के टुकडे मुड-मुड कर वर्तमान में प्रवेश करअपना दान पानी मांगते हैं. पर वर्तिका का दुख अतीत का भी था और वर्तमान का भी. एक स्थाई मील के पत्थर की तरह दुःख वर्तिका की जीवन में गड गया था.

वर्तिका कभी सोंदर्य का प्रतिमान हुआ करती थी, घुटनों तक के लंबे बाल गली मोहल्ले की बालाओं के बीच चर्चा का विषय हुआ करते थे. उसकी बड़ी-बड़ी पनीली आँखों में साफ़ तौर पर नज़र आने वाला अवसाद का पीला रंग हमेशा छलका रहता था. आज इस घड़ी वर्तिका की बड़ी -बड़ी आंखे इस कदर खौफनाक और निस्तेज दिखाई दे रही है की उन्हे देखते ही मेरे भीतर एक सिहरन दौड़ गयी. जुलाई की अंगारे बरसाती दोपहर में चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. पेड पौधे चुपचाप दम साधे खडे हुए थे. बाज़ार की चहल कदमी शाम तक के लिए ठहर गयी थी. पड़ोस में इस पीपल के नीचे तीन रेहड़ी वाले आराम कर रहे थे.

मुझे देख कर वर्तिका का चौक कर भाग उठाना यह सरशा रहा था की वह मुझे पहचान गयी हैं उसने मुझमे अपने अतीत की स्याह काली परछाइयां को देख लिया है ओर वह डर उठी होगी. यह एक लंबी यात्रा थी एक होनहार लड़की की पागलपन तक की स्तिथी में आने की.

अब वह सिर्फ एक पगली थी, वर्तिका नाम पर गर्त पड़े कितने बरस हो गए थे यह उसे भी नहीं मालूम. जब इस जगत के सारी चीज़ों ने वर्तिका का साथ छोड दिया था तो नाम भला क्यों उसके साथ रहता. वह अपने आप से भी बेखबर हो चुकी पगली थी अब. पगली की इस नाम के साथ उसे ठोकर ओर हिकारत ही मिलता रहा.

समय ने उसके साथ जरूर कोई घिनौना खेल खेला है उस की गवाह है उसका पगली का यह रूप. जरूर भाग्य ने उसके साथ कोई घिनौना खेल खेला है और समाज ने उस की मासूमियत का जम कर शिकार किया है.उसके भीतर की संचेतना बिखर गयी है, अब यही भाग्य उसकी जिंदगी का खेल खराब कर न जाने कौन सी खुशी प्राप्त कर रहा है. और फिर अपने आप को पूरी तरह से निर्दोष मान रहा है

अब इस पगली की राह में समाज भी नहीं था, कोई क़ानून भी नहीं न ही प्रकृति के किसी विधि-विधान से उसका कोई रिश्ता रह गया था.

अब वह पगली के रूप में बिलकुल आज़ाद है बिलकुल स्वतन्त्र सभी रिश्ते नातों से, रात दिन, सुबह शाम और मौसमों की आवाजाही से. पर उसके पास चेतना के बिखरे हुए सूत्र हैं जिन के बल पर वह अभी भी जिन्दा है. और पेट की भूख थी जिस के बल पर वह इधर उधर भटका करती थी इन मैले-फटे कपड़ों में.

अभी कुछ देर पहले उसकी आँखों में मुझे देखकर जो चमक उभरी थी वह लोप हो गयी थी. मेरे वर्तिका नाम से उसे पुकारने से जैसे वह बरसों पुरानी तन्द्रा से जागी. जैसे बुत को किसी ने संजीवनी पिला दी हो.

मुझे बुत की तरह विस्मित अवस्था में छोड कर वह भाग खड़ी हुई थी. मैं उसके भागने के सदमे में ही थी कि सब्जी वाले की आवाज़ से मेरी तन्द्रा भंग हुई. यही सब्जी वाला वर्तिका को देख कर झिडक रहा था अभी-अभी.

शायद वह भी मुझे उस पगली को एक नाम से संबोधित कर पुकारने से हतप्रभ हो रहा हो.

“मैडम यह पगली है पिछले काफी समय से इधर-उधर घूमती रहती है यही पड़ा हुआ बचा खुचा का लेती है और पार्क के बैंच पर सोई रहती है.

मैं अपने व्यस्त कार्यक्रम के बीच से थोडा सा समय निकाल कर मैं इस भरी दोपहर में बुटीक में अपने सिले हुए कपडे लेने आई थी. जैसे ही बुटीक के दरवाजे से बाहर निकली पास ही एक सब्जी वाले के एक लड़की को बुरी तरह से झिड़कने को देर कर रुकी तो पाँव वही ठिठक कर रह गए.

देखती हूँ उस भिखारी सी दिखने वाली लड़की से यह सब्जी वाला लड़ झगड़ रहा है, उस लड़की ने शायद उसकी रेहड़ी से एक ककड़ी उठा ली थी जिससे वह सब्जी वाला बुरी तरह से भिन्ना रहा था.

मेरी नज़र उस लड़की पर जो एक बार ठहरी तो दिमाग में कुछ हलचल सी हुई. ये लड़की, ये लड़की, वर्तिका अरे ये तो वर्तिका है, हाँ वर्तिका.

अब मेरा मन और दिमाग दोनों में उद्वेलना बढ़ गयी. बरसों पुरानी स्मृतियों के तह लगा कर रखे गए पन्ने वर्तमान की हवा से बुरी तरह फडफडाने लगे और फिर इन पन्नों पर एक काली परछाईं उभरी और उभरते उभरते जो एक स्पष्ट तस्वीर उभर कर सामने आई वह वर्तिका की ही थी.

अब मैं वर्तमान में थी, और वर्तमान बिलकुल निवस्त्र हो खड़ा था ठीक मेरे सामने.

इस पगली ने नाक में दम का दिया हैं. इसे खाने को कुछ न दो तो रेहड़ी से चीज़ें उठा कर भाग खड़ी होती है. यह इसका रोज का काम है. लगता है इसे बंद कर रखना पड़ेगा.

अभी-अभी मेरे कानों में जो गूंज रहा था वह हिलाने के लिए काफी था. नंगे पाँव, रुखे-सूखे बाल, कुम्भ्लाया हुआ चेहरा. तेईस चौबीस साल की वर्तिका एक बुढिया में तब्दील हो चुकी थी. मै अपनी आंखे फाड़ कर उसे रही थी. अतीत की वर्तिका और वर्तमान की वर्तिका में कोई मेल नहीं था पर फिर भी वे दोनों एक ही थी. मुझे इन दोनों को एक करने में काफी मशक्कत करनी पडी. कहाँ वो पहले वाली खूबसूरत लड़की और कहाँ ये पगली.

यही सोचते-सोचते उसके मुंह से अचानक से निकला

वर –ती ----का

और वर्तिका ने मेरी आवाज़ पर कोई हरकत नहीं की.

इस बार मैने कुछ जोर से उसका नाम लिया. इस बार उसकी गर्दन मेरी और मुडी. कुछ पल मेरी ओर देखने के उसकी आँखों में कुछ भाव आये और तत्काल ही लोप हो गए.

मै कुछ और कहती या समझती उससे पहले ही वह भाग खड़ी हुई. इस तेज़ी से मानो उसके पांवों में पर लग गए हों

यह सब इतनी तेज़ी से हुआ की मैं कुछ समझ ही नहीं पाई थी.

याद आया मुझे वो पल जब चित्रा ने, वर्तिका की हथेलियों को देखते हुये कहा था.

“तो भरी जवानी में ही पागल हो जायेगी देख लेना”.

वर्तिका के चले जाने के बाद हम सहेलियों ने चित्रा को इतना डांटा कि चित्रा रोने लगी.

“मैंने जो उसकी हथेली पर देकह वही तो बताया.

अच्छा रहने दे अपना हस्तरेखा का ज्ञान अपने पास ही रख, बेचारी लड़की को उदास कर दिया. पहले से ही वह इतनी परेशान है. क्या तुझे नहीं मालूम. यदि हम उसका दुःख दूर नहीं कर सकते तो कम से कम उस पर दुःख का भार और तो नहीं बढ़ाना चाहिए.

आज वर्तिका को देख कर आज लगा चित्रा की उस दिन की कही बात बरबस ही याद आई. शायद वर्तिका उस समय से ही पागलपन की सीढीयां धीरे- धीरे चढती चली जा रही थी. वह जिस चुप्पी को अपने साथ समेटती जा रही थी वह ही उसे खोखला करती जा रही थी. हम सब जानते थे उसके जीवन की अंतर्गाथा को, जो सहज और प्रवाह जीवन को गति देता है उसी जीवन ने वर्तिका के भाग्य के आगे एक बड़ा सा पत्थर लगा दिया हो जैसे.

कितना गम, कितना अँधेरा कितने आँसू थे उसके जीवन में, वह बिखर रही थी टुकडे टुकडे होकर, बह रही थी आँसू आँसू हो कर, जी रही थी अँधेरे- अँधेरे.

इस बीच समय ने दस साल हम सहिलेयों के बीच से चुरा लिए हैं, दस साल का ये अंतराल इतना लंबा हो गया है की वर्तिका को मै आज एक पगली के रूप में देख रही हूँ. कितना दुःख बांध कर लाई थी यह लड़की अपने आँचल में, जो आज तक खर्च होने का नाम नहीं ले रहा था. इस दौरान एक लड़की का आत्मस्वाभिमान, आत्मगौरव भी उस से छिन गया है, उसके पहले वाले आँसू भी अब नहीं है बस एक शून्य है जिस के पार नहीं जाया जा सकता है.

कुछ मिनट मैं वहां खड़ी रही, फिर ऑटो ले कर अपने घर आ गयी. मैने तुरंत ही सरिता को दिल्ली फोन लगाया और आज वर्तिका की इस गति के बारे में बताया सुन कर वह भी स्तब्ध रह गयी.

अब तक हम यही समझती रही थी की वर्तिका अपने ताउजी के परिवार के साथ भोपल चली गयी है.

आज भी जब हम तीनों सहेलियां मिलती है तब अपनी उन अज़ीज़ दिनों की बातें जरूर होती हैं. और उन बातों में वर्तिका का जिक्र भी जरूर होता है. ऐसी हर बैठक में अक्सर हमारी बातें हंसी-खुशी से शुरू होती पर आखिर तक आते-आते एक बेपनाह उदासी हमें घेर लेती, क्योंकि हम उल्लास में भर कर अपनी युवावस्था के दिनों की और लौटते थे जहाँ वर्तिका पूरे दम- ख़म के स बाते शुरू के साथ मौजूद होती तब हम उदास कदमों और भारी मन से वर्तमान में लौटते.

आज फोन पर बाते करते हुए मैंने और सरिता ने उन पुरानी समृतियों को खंगाला जिन में वर्तिका का नाम पता मौजूद था. डी ए वी स्कूल से दसवीं पास कर जब मैंने राजकीय कॉलेज में दाखिला लिया तभी वहाँ मेरी नई सहेलियां बनी सरिता और चित्रा, ये दोनों चचेरी बहनें थी. उनके गाँव में कोई कॉलेज नहीं था इसलिए ही उन्होंने अपने गाँव से पन्द्रह किलोमीटर दूर हमारे शहर के दूसरे छोर पर एक कमरा किराये पर ले लिया.

तब दिन ही सुहावने हुआ करते थे, हरे पत्तों से हरियाले दिन, बहते हुए पानी से तरल दिन, हमारे सिर्फ हमारे दिन. सब कुछ नया था तब, नया कॉलेज, नई सहेलियां, हर और बसंत ही बसंत. इंद्रधनुष के रंग हमे अपने आस पास ही दिखाई देता था. तितलियों, फूलों और सहेलियों से दोस्ती गाढी हुआ करती थी. हमारे आस पास सपनों की भीड़ इक्कठी हो गयी थी फिर भी हम अपने सपनों को उनकी जड़ों से अलग नहीं करना चाहते थे. बचपन में कई सुनी और पढ़ी हुई परीकथाओं की परियों के जादुई किस्सों से हम ऊपर उठ चुके थे और अपनी इस युवावस्था में थोडा और ऊपर उठ कर फिल्मों की नायिकाओं के जायदा नजदीक आ गए थे और उनसे अपना अक्स मिलने की भरपुर कोशिश किया करते थे. तमाम दुःख दर्द अपने घर के बड़ों बूढों की और धकेल दिये थे हमने और हम अपने सपनों के रंगीन आवर्त में सरक आये थे.

मेरी सहेलियों के कमरे का रास्ता मेरे घर और कॉलेज के बीच में पड़ने से मै अक्सर उनके कमरे में रुक जाया करती थी.

गोविंदगढ़ बाजार में जहाँ सरिता उअर चित्र का कमरा था. वहाँ ढेर सारे आपस में सटे हुए घर और दुकाने थी. इस इलाके की तस्वीर शहर के दूसरे इलाकों से बिलकुल अलग थी. गालियाँ बेहद संकरी और सीवर वयस्था का कोई नामो निशान नहीं था. बदबू से भरी गलियाँ, बिलकुल नीचे से गुजरती हुई गालियाँ और टूटी हुई सडकें यह सब देख कर ऐसा लगता था एक ही शहर में दो दुनिया बसती हों जैसे.

शहर में नए नए सेक्टर और बाजार खड़े हो रहे थे पर शहर के इस कोने की और किसी का ध्यान नहीं गया था और किसी सुधारवादी अफसर के कदम भी यहाँ नहीं पड़े थे. कभी विभाजन का गवाह रहा था गोविन्दगद बाजार. साठ साल पहले पाकिस्तान के अनेक शहरों से अपना घर बार छोड कर आये परिवारों ने यहाँ आ कर अपनी रोजी रोटी की तलाश शुरू की थी. मेरे दादी बताती है आज़ादी से पहले यहाँ का बाजार कंस्वा मोहल्ला कहलाता था यहाँ कसाईयों की मीट की अनेकों दुकाने थी. विभाजन के बाद यहाँ की चालीस दुकानें सरकार द्वारा पकिस्तान से आये लोगों के नाम कर दी थी साठ ही थोड़ी से जमीन भी दे दी थी. और लोगों ने अपनी दुकानों के पास घर बना लिए थे. बढ़ती जनसँख्या के चलते यहाँ इतनी भीड़ हो गयी है कि यह बाजार का सबसे संकरा और भीड़ भाड वाला इलाका बन गया था. किसी बड़े वाहन के कुछ देर रुक जाने पर पूरे गोविन्दगढ़ बाज़ार का रास्ता पूरी तरह से जाम हो जाता था. आज भी हमारे शहर में जहाँ आधुनिकता के सारे उपकरण, जिमखाना कलब, कम्युनिटी सेंटर, शोपिंग सेंटर और विशालकाय पार्क बन गए हैं वही यह इलाका और भी अँधेरे में चला गया है.

हमे तब भी इस बाज़ार की कचरे से अटी हुई गलियों से गुजरते हुए नाक पर रूमाल रख कर गुज़रना पड़ता था.पर हमे उसकी कोई प्रवाह नहीं थी अपनी सहेलियों का साथ ही सुकून देता था. सुरक्षा के लिहाज से इस जगह को ठीक जान कर ही सरिता और चित्र के अभिभावकों ने यहाँ इस बाजार में कमरा किराये पर ले लिया था. तब आज की तरह छोटे शहरों में पेइंग गेस्ट का चलन प्रकाश में नहीं था.

वर्तिका से पहली बार मिलने आई थी मैं. उसकी अभूतपूर्व चुप्पी से परिचय भी यही हुआ था.

वह बेहद अंतर्मुखी लड़की थी. हमेशा अपने में गम रहने वाली लड़की. चुप्पी को उसने अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया था. तब गुमसुमता में लिपटी रहने वाली उसकी चुप्पी को तोडना हम लोगो को एक बड़ा अपराध लगता था.

हम उसकी चुप्पी का आदर करते थे.

वह जब भी कॉलेज आती चुप्पी को अपने साथ लाती.

जिस दिन चित्रा और सरिता ने कमरा किराये पर लिया था. उसी के सामने रहती थी वर्तिका. वर्तिका को मैने कई बार सरिता और चित्रा के कमरे में देखा. अक्सर वह कुछ न कुछ मांगने के लिए आई होती. हम तीनो को वर्तिका की माँ पर बेहद गुस्सा आता जो वह बेटी को हमारे पास भेज देती हैं. जबकी हम पढ़ने वाले विद्यार्थी है यहाँ हम्रारे पास सिर्फ हमारी जरुरत का थोडा सा सामान ही है.

कई बार तो हम वर्तिका पर ही बडबडाते हुए वर्तिका पर तिरछी नज़र डालते ताकि वह हमारी नाराजगी अपनी माँ को जा कर बताये. वर्तिका की चुप्पी को हम उसका घमंडीपन समझ बैठे थे. पर उस चुप्पी की हकिक़त जब हम लोगो के सामने आई तो हम तीनो ही कुछ समय के लिए चुप हो गए थे.

हम सहेलियों के खिलखिलाते खुशनुमा जीवन में वर्तिका की चुप्पी बेहद भारी पडी थी. जब देर सवेर हमे वर्तिका के जीवन में पसरी हुई अमावस्या के बारे में पता चला था. वर्तिका के माता पिता एक सड़क दुर्घटना में मारे गए थे. तब वर्तिका की उम्र केवल बारह वर्ष की थी, उसी दुर्घटना में उसे मामूली खरोंच आई थी.

तब रिश्तेदारों की नज़र वर्तिका पर नहीं उसके माता पिता की सम्पति पर टिक गयी थी. वे लोग जिम्मेदारी तो लेने को तैयार थे पर तभी जब सभ कुछ उनके नाम पर हो जायेगा. वर्तिका तो एक बोझ थी उन लोगों के लिए

सारे रिश्ते यही आ कर कर खतम हो गए थे वर्तिका के लिए. कल की दुलारी बेटी आज सबकी लिए बेचारी हो गयी थी. लोग सोच रहे थे कि लड़का होता हो थोडा बड़ा हो कर अपना कमा खाता पर लड़की, इसकी तो शादी भी करनी होगी, बोझ के ऊपर बोझ. न जाने कैसे फूटी किस्मत लिखवा कर आई है.

आखिरकार समाज के सामने अपने आप को ऊँचा दिखाते हुए वर्ति़क के ताऊ आगे आये उन्होंने वर्तिका के पालन- पोषण की जिम्मवारी ली और शहर का मकान बेच कर नन्ही वर्तिका को अपने साथ ले आये.

भाग्य का उलट फेर ही था यह जिसके चलते वर्तिका के चरों और बिखरे फूल एकदम से काँटों में तब्दील हो गए. उसके आँसू पोंछने वाला कोई नहीं था. ताऊ-ताई उनके लाडले बच्चों के बीच वह अकेली पड़ गयी थी. अकेली और उदास. बच्चों का चुलबुलापन उसके आसपास से लोप हो गया था. ताऊ का सारा परिवार इकट्ठे बैठ कर टेलीविज़न देखता, हंसी मजाक करता, घुमने जाता और उन सबसे अलग वर्तिका कमरे में बैठ कर उपां अकेलापन बुन रही होती. समय बीतता गया प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में उसने दसवी की परीक्षा पास की.

वर्तिका से दोस्ती करने के लिए उसके करीब आने की कोशिश करने लगे हम लोग. किताबों में उसकी रूचि देख कर हम अपने पुस्तकालय से शरतचंद्र, शिवानी, प्रेमचंद्र और विवेकानद की ढेरो किताबे ला कर देते. वह अपने आँचल में छुपा कर उन किताबों को ले जाती और तय समय पर लौटा देती. यह भी सच था कि उसके पास किताबें न होती तो शायद उस जीवन को जी पाना बहुत मुश्किल हो जाता. किताबें उसका दुःख ढाप लेती थी. वह बेहद मगन हो कर पढ़ती थी.

कथा कहानी के संसार मे पूरी तरह से रच बस जाया करती थी वो. तब उसका अवसाद कुछ कम हो जाता हो शायद. क्योंकि बाहर के लोगो से वह कम ही हिलती मिलती थी.

अब धीरे- धीरे वर्तिका हमारे मृदु वयवहार से प्रसन्न रहने लगी थी. उसकी आँखों में मित्रता का स्थाई भाव रहने लगा था. पर बातचीत में अब भी पहले वाली कंजूसी दिखती थी वो.

जबकि हमारी बातें एक बार जो शुरू होती तो खतम ही नहीं होने का नाम लेती थी.चित्रा, सरिता और मै तीनो ढेर सारी बातें करते अपने प्राध्यापकों की फिल्मों की, हीरो- हीरोइनो की, घर के अंदर की घर के बाहर की, नेल पोलिश से ले कर लेटेस्ट फैशन तक. बस परीक्षाओं के दिन ही हमे अपने सिलेबस की याद आती. उन दिनों ही हम अपना कोर्स पूरा करने की चिंता में घुल रहे होते और बाकी दिनों में अपने युवापन के सपनों की हल्की खुमारी में घुल रहे होते.

हम जानते थे वर्तिका के पास भी सपने होंगे पर उनका क्या रूप रंग था यह हम नहीं जानते थे क्योंकि वर्तिका कभी अपनी बातें हमसे साँझा नहीं करती थी. वह अपने आप से बातें करने की आदत का शिकार थी. अक्सर खुद ही बडबडाती रहती थी वह या कहानियाँ पढते-पढते उनके किरदारों से खुद ही बातें किया करती रहती थी.

एक बार जब वह हमे अपनी किताबें लौटने आई थी तो उस किताब के भीतर से एक पन्ना निकला था जिसमे उसके हाथ से लिखी कविता हम लोगों ने पढ़ी तभी हमें पता चला वर्तिका की काव्य प्रतिभा का .

उस लंबी कविता को पढ़ कर हमारा ह्रदय द्रवित हो उठा था. उसके खुद के जीवन को आत्मसात करती कविता थी वो. जहाँ दुःख और अँधेरा अपने पूरे वजूद के साथ सब्दों के रूप में जम गया था. उसी कविता की दो तीन पंक्तियाँ आज भी मुझे याद है.

दुःख का ही अमूर्त विस्तार है यह अंधेरा

मेरे अगल बगल और सभी दिशाओं का

सच वर्तिका का मासूम जीवन दुःख और अँधेरे का पर्याय बन चुका था और इस छोटी सी उम्र में वर्तिका ने उसे पहचान भी लिया था. वह अपने जीवन को इस तरह से घसीट रही थी मानो उसने जबरदस्ती समय के पाँव पकड़ रखे हों और समय उसे अपने साथ ले जाने को बिलकुल तैयार न हो. समाज में वह बिना किसी कसूर के ही कसूरवार बना दी गयी थी. समाज ने उसे कटघरे में ला कर जोर जबरदस्ती करने की कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी. उसके सामने ही लोग उसे बेचारी अनाथ लड़की कह कर संबोधित किया करते थे और उसके ताऊ के परिवार की सरहाना किया करते थे की उन्होंने कैसे एक अनाथ लड़की को आसानी से अपना लिया है.

केवल हम ही जानते थे की वर्तिका को कहीं आने जाने की इजाजत नहीं है. यदा- कदा ही वह चित्रा और सरिता के कमरे में कुछ मांगने ही आती थी. वहाँ भी थोड़ी से देर हनी पर ही उसकी ताई चिल्ला-चिल्ला कर बुला लेती थी.

दिन रात में और चारो पहर मौसमों में तब्दील होते देख रहे थे. धीरे- धीरे हम चारों सहेलियां भी समय के प्रवाह से अलग थलग पड़ गयी थी. चित्रा अपनी बुआ के पास आगे की पढाई के लिए आस्ट्रलिया चली गयी थी. सरिता दिल्ली में मीडिया मैनेजमेंट में पी एच डी कर रही थी और मैं चंडीगढ में होम साइंस की लेक्चरर लग गयी थी. हम तीनों वर्तिका को वहीं अपने ताऊ के घर पर दुखों की बलि-वेदी पर अकेली और असहाय छोड आये थे.

आज ६ साल बाद उससे मुलाकात हुयी भी तो उस स्तिथि में जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

अभी-अभी मैं वर्तिका से हुई अचानक की मुलाकात और उसके गायब हो जाने की बातें सोचते-सोचते मै बेडरूम की और जा रही थी कि फोन की घटी बज उठी. मेरे फोन तक पहुँचने से पहले माँ ने फोन उठाया.

सरिता का ही फोन था, उसने वर्तिका के बारे में मालुमात करने की कोशिश की थी. उसकी ननद की सहेली जो हमारे शहर के उसी गोविंदगढ़ बाजार में ब्याही गयी थी जिसमे कभी वर्तिका के ताऊ रहा करते थे.

वर्तिका की शादी वही पड़ोस में रहने वाले विधुर से कर दी गयी थी और उसकी शादी करते ही उसके ताऊ का परिवार अपना मकान बेच कर भोपाल चला गया था. और शादी के कुछ दिनों बाद ही वर्तिका के पति की मौत हो गी थी उसके पति के दोनों विवाहित लड़कों ने वर्तिका को पीट-पीट कर घर से निकाल दिया था.

उसके बाद वह कहाँ चली गयी थी किसी को नहीं मालूम. तब अचानक पांच छः महीने के बाद बाज़ार में वर्तिका को पड़ोस की किसी महिला ने वर्तिका को देखा.

एक बार फिर लौट आई थी उसी नरक में इस बार आई थी तो अपने पूरे होश-हवाश खो कर और तब से आज तक वह गलियों में पगली बन घुमती रहती है. पास की झुगी- बस्तियों में रहने वाले आवारा लड़के वर्तिका को रात उठा ले जाते है और भोर होते ही बाजार मी छोड जाते हैं.

पूरे दिन वह कहाँ करती है किसी को यह जानने की परवाह नहीं. आखिर कोई क्यों इस पगली में दिलचस्पी ले.

पहले से ही कठोर यह दुनिया वर्तिका रुपी पगली के लिए और भी अमानुष हो गयी थी. अपने साश्वत स्वभाव को बनाये रखने के लिए दुनिया हमेशा तैयार रहती है,

जीवन में इतनी बुरी घड़ियाँ भी कभी आ सकती हैं ये वर्तिका की हालात देख कर ही मालूम हुआ. अब इस पगली के जीवन और अमावस्या के अँधेरे में कोई अंतर नहीं रहा था.