अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है / अरुण होता

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सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (1899-1961) हिंदी के छायावाद के प्रमुख कवि हैं। संपूर्ण आधुनिक काल के भी महत्वपूर्ण कवि हैं। निराला हिंदी साहित्य के केंद्रीय कवि के रूप में जाने जा सकते हैं। उनके पूर्व कबीरदास जैसा व्यक्तित्व था तो परवर्ती काल में नागार्जुन जैसे व्यक्तित्व का आगमन हुआ। निराला को कुछ लोग 'आधुनिक युग का कबीर' कहते हैं। परंतु यह एक आश्चर्य है कि महाप्राण निराला ने अपने संपूर्ण रचना-संसार में कबीर पर कुछ नहीं लिखा सिवाय एक टिप्पणी। तुलसीदास उनके प्रिय कवि थे। उन्होंने 'तुलसीदास' कविता लिखी। 'तुलसीदास' निराला की प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। निराला की यथार्थ चेतना कबीर के निकट है। फिर भी, प्रखर एवं उदात्त अभिव्यक्ति का निदर्शन प्रस्तुत करती है 'तुलसीदास' शीर्षक कविता। संभवतः तुलसी के काव्य-मूल्य से निराला परिचित थे। हिंदी जाति में तुलसी के काव्य का प्रभाव, लोकमानस की सफल अभिव्यंजना, तुलसी की सर्जनात्मक प्रतिभा एवं राम-काव्य के प्रति आकर्षण के कारण निराला के प्रिय कवि तुलसी रहे हों, इस तथ्य को अस्वीकारा नहीं जा सकता है।

बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से लेकर साठोत्तरी काल तक निराला सृजन-कर्म में निरत रहे। बंगाल के महिषादल में जन्मे निराला बंगाल की संस्कृति से प्रभावित हुए। कोमल कल्पना, शक्ति की आराधना उन्हें बंगाल ने दी तो बैसवाड़े की संघर्षमय संस्कृति ने उन्हें प्रखर और जिद्दी स्वभाव प्रदान किया। निराला के प्रथम काव्य संकलन अनामिका (कलकत्ता, 1923) से लेकर 'सांध्य काकली' (इलाहाबाद, 1969) तक आनंदामृत, विषाद-विष, यथार्थ- कल्पना, आशा-निराशा, उपेक्षा-प्रशंसा, कोमल-प्रखर, आदि भाव चित्रित हैं। 'विरुद्धों का सामंजस्य' निराला-साहित्य का भी मूल वैशिष्ट्य है। इसलिए निराला के कठोर आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल को कहना पड़ा - 'बहु-वस्तु-स्पर्शिनी प्रतिभा निराला जी में है।'

'निराला' भारतीय साहित्य के निर्माता हैं। उनकी रचनाओं में बहुविध रूप हैं, अनेक स्तर हैं। उन्होंने जीवन से कविता की यात्रा की, न कि कविता से जीवन की। फलस्वरूप उनकी रचनाएँ जीवन की प्राथमिकता की दस्तावेज हैं। निराला एक ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाओं और जीवन में कोई अंतर नहीं है। ये दोनों अभिन्न हैं। कवि ने जैसा जीवन व्यतीत किया, जो अनुभव हुए उसकी ईमानदारी से अभिव्यक्ति की है। न यहाँ कोई दुराव-छिपाव, न छल-प्रपंच और न ही कोई दुगलापन। बड़ी शिद्दत के साथ कवि ने अपने व्यापक जीवनानुभवों को प्रकट किया है। इस संदर्भ में निराला के गंभीर अध्येता दूधनाथ सिंह ने कहा है - 'संसार के किसी भाग में ऐसे कवि बहुत कम होंगे जो रचना-स्तरों के अनेक रूपों को साथ-साथ वहन कर सकें और लगातार अनेकमुखी कविताएँ रचने में समर्थ हों, इसका प्रमुख कारण यही था कि निराला ने जीवन को एक ही साथ अनेक स्तरों पर जिया।'1

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक नेतृत्व के उत्कर्ष काल में निराला का साहित्यिक जीवन शुरू होता है। 'जुही की कली' (1916) मुक्त छंद की कविता संपादक ने लौटा दी। निराला 'समन्वय' पत्र से जुड़े। बाद में 'सुधा' से भी जुड़े रहे। 'मतवाला' से जुड़े और उससे उनका संघर्ष भी रहा। निराला का रचनाकाल प्राक्-स्वातंत्र्य और उत्तर स्वातंत्र्य काल तक व्याप्त था। एक तरफ मुक्ति संग्राम का जबर्दस्त प्रभाव था तो दूसरी तरफ खोखली आजादी से उत्पन्न निराशा एवं अनास्था थीं। एक ओर साम्राज्यवाद एवं सामंतवादी का सम्मिलित चक्रव्यूह तो दूसरी ओर सामाजिक रूढ़ियों, कुसंस्कारों, गलित परंपराओं से मुक्ति की कामना। भारतीयों की शोचनीय आर्थिक दशा को उन्होंने गद्दे पर बैठे-बैठे नहीं देखा था बल्कि उसकी रग-रग से परिचिय थे। बिना चीनी की फीकी नमकीन चाय पीकर कई रातें बिता देने वाले निराला जी ने आर्थिक दुर्दशा को अपने अंगों से निभाया था। उचित दवा-दारू के अभाव में एकमात्र पुत्री सरोज मृत्यु के कराल मुख में समा गई। बाल्यावस्था में माता की मृत्यु, युवावस्था में पत्नी की फिर पुत्री की। निराला के लिए परिस्थितियाँ कभी अनुकूल न रहीं, सदा प्रतिकूल परिस्थितियों में जीना पड़ा। क्या वैयक्तिक जीवन में और क्या साहित्य के क्षेत्र में, सर्वदा विरोध का सामना करना पड़ा। परंतु वे पराजयबोध का शिकार कभी न हुए। लड़ते रहना, जूझते रहना, संघर्षरत होना निराला का मूलमंत्र रहा। उनका रचना-संसार जिजीविषा का निदर्शन है, एक बेहद जिद्दी व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है। 'विश्वभारती पत्रिका' अंग्रेजी (अगस्त 1937) में अज्ञेय ने लिखा था - 'और इसके लिए उन्हें उचित श्रेय देने के बाद और कुछ कहने की जरूरत नहीं। इसके अलावा उनमें और कोई अच्छाई नहीं। और एक साहित्यिक शक्ति के रूप में, जैसे भी देखें, निराला अब मृत हैं।'

निराला जी इससे आहत हुए पर कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, आराधना, गीत गुंज, सांध्य काकली ही नहीं, सुकुल की बीबी, चतुरी चमार, कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा, चोटी की पकड़, जैसे ग्रंथों से अज्ञेय जी को मौन जवाब दिया। फलस्वरूप निराला को मृत घोषित करने वाले अज्ञेय जी को 'बसंत का अग्रदूत' लिखना पड़ा। उक्त स्मृति लेख में अज्ञेय जी ने लिखा है - 'निराला जी के काव्य के विषय में मेरा मन पूरी तरह बदल चुका था। वह परिवर्तन कुछ नाटकीय ढंग से ही हुआ। शायद कुछ पाठकों के लिए यह भी आश्चर्य की बात होगी कि उनकी 'जुही की कली' अथवा 'राम की शक्तिपूजा' पढ़कर नहीं हुआ, उनका 'तुलसीदास' पढ़कर हुआ। अब भी उस अनुभव को याद करता हूँ तो मानो एक गहराई में खो जाता हूँ।'

आचार्य शुक्ल हों या 'विशाल भारत' के पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी अनेक साहित्य के पंडितों ने निराला के विरुद्ध अभियान चलाया। कठोर आलोचना की गई। यहाँ तक कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने निराला की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा - 'निराला की रचनाएँ साधारण पाठकों को तो दुर्बोध मालूम ही होती हैं, उनके प्रशंसकों को भी कभी-कभी दुरूह लगती हैं। इसका कारण यह है कि कवि अपने आवेगों को संयत रखकर नहीं लिख सकता। एक बात कहते-कहते उसे उसी से संबंधित (और कभी-कभी उल्टी पड़ने वाली) दूसरी बात याद आ जाती है। कवि अपने आवेगों पर अंकुश नहीं रख सकता। अंकुश वह रख सकता है जो भावों को सजाने और सुघड़ बनाने का प्रयास करता है। निराला यह नहीं करते इसलिए उनके भावों की अविरल धारा में ऐसे प्रसंग छूट जाते हैं जो साधारण पाठक के लिए प्रासंगिक नहीं जँचते। इसलिए उनकी कविताएँ दुर्बोध हो जाती हैं। ...निराला की कविता के इस पक्ष ने उसे अधिक लोकप्रिय नहीं होने दिया।' आचार्य द्विवेदी जी ने निराला की कविताओं पर जिस अस्वाभाविकता और दुर्बोध्यता का आरोप लगाया है वह नितांत एकांगी है। अनामिका, परिमल से लेकर कुकुरमुत्ता, बेला आदि में जो स्वाभाविकता और ईमानदारी से अभिव्यक्ति है, वह अन्यत्र कहाँ हैं? दूसरी बात है निराला की कविता की अलोकप्रियता। संपूर्ण हिंदी साहित्य में निराला की कविताएँ कितनी लोकप्रिय हुई हैं और उनकी कविताओं ने आज तक न जाने कितने कवियों को प्रभावित किया है। समकालीन कविता के रचनाकार निराला की कविताओं की ओर बार-बार जाते हैं, इस पर कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। निराला जैसा व्यक्तित्व एवं अपार प्रतिभा संपन्न कवि हिंदी साहित्य में निराले हैं। 'राम की शक्तिपूजा' की प्रारंभिक अट्ठारह पंक्तियों के आधार पर ही कोई निष्कर्ष दे दिया गया हो तो बात समझी जा सकती है। 'कुकुरमुत्ता' को प्रभाकर माचवे निराला-काव्य में महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु मानते हैं तो नंदकिशोर नवल इसे संपूर्ण आधुनिक हिंदी कविता का नया प्रस्थान-बिंदु स्वीकार करते हैं। निराला के बिना परवर्ती हिंदी कविता का स्वरूप अधूरा ही रहता। इस संदर्भ में कवि तथा आलोचक केदारनाथ सिंह ने उचित ही कहा है - 'प्रगतिशील कविता, नई कविता, प्रयोगवाद और एकदम समकालीन कविता जो भी कह लीजिए आप, इन सबके बीज कहीं न कहीं निराला में मिलते हैं। परंतु निराला से सीखने की तुलना में हुआ क्या है कि धीरे-धीरे निराला को हमने एक मिथक में बदल दिया है। एक ऐसा लीजेंड जिसका बड़ा गहरा दबाव हमारे पूरे हिंदी समाज पर पड़ा है।'2

छायावाद के बारे में मान्यता रही है कवि कल्पना के पंख के सहारे मुक्त गगन में विचरण करता है। इस धरती से उसका कोई संबंध नहीं रहता। परंतु निराला जी ने जो कल्पना की है उसका प्रत्यक्ष संबंध इस धरती से रहा है। कुछ पल के लिए गगन में उड़ान भरें भी तो अपने यथार्थ लोक में उतर आते हैं। निराला की कल्पना मनोरम अपार्थिव लोक का सृजन नहीं करती है। पृथ्वी के सौंदर्य से निराला की कल्पना युक्त है। निराला ने यह सौंदर्य जुही, बेला, नर्गिस में पाया। इन फूलों की सुगंध से वे मोहित हुए। मलय पवन, गंगा, गंगा का किनारा, नक्षत्र-चंद्रमा, बादल, सघन वन आदि में पृथ्वी के सौंदर्य को ढूँढ़कर कवि मुग्ध होता है। वसंत हो या ग्रीष्म, शिशिर हो या वर्षा कवि निराला ने प्रकृति के सौंदर्य को निहारा, अनुभूत किया और उसे अपनी कल्पना से अभिव्यक्त किया।'3

निराला मुक्ति-संग्राम युगीन कवि हैं। उनकी रचनाओं में मुक्ति-चेतना का प्रबल स्वर है। मनुष्य मात्र को बंधन-मुक्त करने के लिए आत्म-सम्मान, देश-भक्ति, अधिकार और कर्तव्य में समन्वय होना आवश्यक है। निराला इस तत्व से पूर्णतया परिचित थे। इसलिए उनकी मुक्ति-चेतना केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की तंग गली में आबद्ध न थी। आत्म-गौरव के भाव को उज्जीवित करने के लिए उन्होंने कभी इतिहास का सहारा लिया तो कभी मिथकीय संदर्भों का। इतिहास के शव से शिव की प्रतिष्ठा करने के लिए वे तत्पर हो उठे। मिथकीय संदर्भों के बहाने उन्होंने अतीत के पुनर्निमाण का प्रयास किया है। दोनों ही स्थितियों में उन्होंने मानवीय जय-यात्रा का उद्घोष किया है।

निराला जी ने स्वतंत्रता के दो रूपों का चित्रण किया है। ये दो रूप हैं - बाह्य स्वतंत्रता और अंतः स्वतंत्रता। कुसंस्कारों, अंधविश्वासों, रुढ़ियों से मुक्त हुए बिना औपनिवेशिक शक्ति से मुक्ति का कोई औचित्य नहीं है। मनुष्य की अंतश्चेतना मुक्त हो, विकसित हो तो राजनीतिक आजादी का सही अर्थ स्पष्ट हो सकता है। अन्यथा, राजनीतिक आजादी एक झुनझुना बन कर रह जाएगी। अज्ञानता, भेद-भाव, ग्रसित मान्यताओं एवं दकियानूसी विचारों से मुक्त होना कवि के लिए आवश्यक प्रतीत हुआ। तभी कवि ने प्रार्थना-गीत में प्रस्तुत किया है -

काट अंध-उर के बंधन स्तर

बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर

कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे।

अज्ञानता के अंधकार का ज्ञान के प्रकाश से विनाश हो। केवल भारतीय नहीं, दुनिया के सभी पराधीन व्यक्ति ज्ञानालोक से प्रकाशवान हों, मुक्त हों। संपूर्ण विश्व में मुक्ति-चेतना का भाव प्रसारित हो। पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति की आकांक्षा कवि निराला की सर्वाधिक चिंता का विषय रहा है।

निराला ने तुलसी को अपना आदर्श माना है, आराध्य के रूप में स्वीकार किया है। अपने समय के अज्ञानांधकार से समाज को मुक्त करने का प्रयास तुलसी ने किया था। यह प्रयास निराला का भी था। अज्ञान रूपी अंधकार को निर्मूल करने के उद्देश्य से निराला ने कहा है -

करना होगा यह तिमिर पार,

देखना सत्य का मिहिर-द्वार,

बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय।

लड़ना विरोध के द्वंद्व-समर,

है सत्य मार्ग पर स्थिर निर्भर,

जाना भिन्न भी देह निज पर निःसंशय।।

अपने रचना-संसार में कवि ने पराधीन राष्ट्र की पीड़ा को विभिन्न संदर्भों में प्रस्तुत किया है। निराला विद्रोही, अतिक्रांतिकारी चेतना के कवि के रूप में भी ख्यात हैं। गुलाम देश को बंधन-मुक्त करने की तीव्र आकांक्षा कवि की थी। परंतु कोरा भावावेश में आकर कवि निराला ने राष्ट्रीय गान नहीं लिखे। कवि की स्वतंत्र चेतना भारत की भौगोलिक सीमा तक ही आबद्ध न थी। उन्होंने उसे सार्वजनिक रूप प्रदान किया है। एक ओर भारतवर्ष का प्रशस्तिमूलक चित्रण है तो दूसरी ओर संपूर्ण संसार की मंगल-कामना अभिव्यक्त है :

(क) भारति, जय-विजय करे।

कनक शस्य कमल धरे।

लंका पदतल-शतदल

गर्जितोर्मि सागर-जल

धोता शुचि चरण युगल

स्तव कर बहुत अर्थ भरे।

(ख) जगमग जग कर दे।

निराला ने 'जन्मभूमि' (1920) शीर्षक कविता लिखी। यह उनकी प्रथम प्रकाशित कविता है। जन्मभूमि में देशभक्ति की भावना है। कहा जा सकता है कि निराला की राष्ट्रीय भावना देशभक्ति पर आधारित है। देश-प्रेम के बिना स्वाधीनता-आंदोलन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। निराला ने राष्ट्र को स्वाधीन रूप से देखने की प्रेरणा हिंदी से प्राप्त की। राष्ट्रभाषा हिंदी की अपार शक्ति से वे परिचित थे। हिंदी सामासिक संस्कृति की वाहक बन सकती है। उसी के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन लड़ा जा सकता है। इसलिए निराला ने लिखा -

'सुनी राष्ट्रभाषा की जबसे भव्य मनोहर तान

मिटी मोह-माया की निद्रा गए रूप पहचान।'

कवि ने 'बाहरी स्वाधीनता और स्त्रियाँ', 'बाहर और भीतर' जैसे अनेक निबंध लिखे। इनमें कवि निराला की स्वाधीनता के लिए चिंता प्रकट हुई है। उनकी स्वतंत्र-चेतना का व्यापक चित्रण उनके निबंधों में हुआ है।

छायावादी कवियों की स्वाधीन चेतना एक नई दृष्टि का परिचायक है। विराट कल्पना एवं स्वतंत्र अभिव्यक्ति एक दूसरे से भिन्न नहीं है। चेतना कभी अधीनता स्वीकार नहीं करती है। चेतना मुक्त धारा के समान प्रवहमान होती है। कवि के शब्दों में -

आज हो गए ढीले सारे बंधन

मुक्त हो गए प्राण

रुका है सारा करुणा-क्रंदन।

निराला के लिए स्वाधीनता एक शब्द है जिसके अनेक अर्थ हैं। उन्होंने कहा भी है -

विपुल उल्लासमय विश्व के क्षण-क्षण में

भूधर महान और क्षुद्र कण-कण में

एक स्वाधीनता का गूँजता है विपुल हर्ष।

निराला सांस्कृतिक उन्नयन के लिए अतीतोन्मुख होते हैं। प्रसाद जी ने इतिहास के भव्य एवं उदात्त अध्यायों के माध्यम से पराजित और निराश भारतीयों के मन में नव आशा का संचार किया था। निराला ने भी भारतीय सांस्कृतिक उन्नयन के लिए इतिहास के विभिन्न अध्यायों में से मोतियों का चयन किया है। 'खंडहर के प्रति', 'दिल्ली', 'यमुना के प्रति', 'महाराज शिवाजी का पत्र' (1922) आदि कविताओं के माध्यम से भारतीयों को प्रेरित तथा उद्बुद्ध किया है। यह अलग बात है कि 'महाराज शिवाजी का पत्र' शीर्षक कविता में निराला को गलत समझा गया। इस बात का निराकरण करते हुए बच्चन सिंह ने कहा है - 'शिवाजी का कार्य आत्म-रक्षार्थ था। उन्होंने मुसलमानों के सांस्कृतिक प्रहार के विरुद्ध आवाज उठाई है। यहाँ मुसलमान के प्रति विद्वेष की भावना नहीं है। औरंगजेब अत्याचारी साम्राज्यवादियों का प्रतीक है।'4

भारतीय इतिहास को महिमामंडित करते हुए निराला ने भारत के प्राचीन गौरव का चित्रण किया है। अपनी संस्कृति के जीवंत अंशों को पुनरुज्जीवित करने का प्रयास किया है। यमुना के प्रणय-सौंदर्य को उदात्त बनाने के प्रयास में निराला ने कहा है-

मुक्त हृदय के सिंहासन पर

किस अतीत के ये सम्राट

दीप रहे जिसके मस्तक पर

रवि-शशि-तारे-विश्व-विराट।

निराला ने यमुना की विराट कल्पना को निखिल विश्व की जिज्ञासा के रूप में चित्रित किया है। उनके अनुसार यमुना के वर्तमान की आँख-मिचौली अतीत रूपी शैशव के साथ होती है। विस्मृति के अतल गर्भ से उठकर आने वाली स्मिति यमुना के श्याम कपोलों पर चकित विहार करती है -

उठ-उठकर अतीत विस्मृति से

किसकी स्मिति यह - किसका प्यार

तेरे श्याम कपोलों में सुला

कर जाती है चकित विहार?

निराला केवल संघर्ष और विद्रोह के कवि नहीं, राष्ट्रीय आंदोलन के भी रचयिता हैं। भारतीय मुक्ति संग्राम के दौरान उनके अपने चिंतन-मनन बार-बार उज्जीवित हुए हैं। उन्होंने उस मंथन को कभी कविता में उतारा तो कभी गद्य में। इसी क्रम में वे महात्मा गांधी से मिलते हैं। लखनऊ में गांधी जी से मिलकर खुला विवाद करते हैं। निराला ने केवल उपनिवेशवाद के विरुद्ध कविता लिखकर मौनव्रत साध लेना उचित न समझा था। उन्होंने अपनी रचनाओं से जनता को प्रत्यक्ष रूप में प्रभावित करने का प्रयास भी किया था। इस संदर्भ में रामविलास शर्मा का कथन है - 'भारत-सोवियत-मैत्री-संघ के खुले अधिवेशन (लखनऊ) में जहाँ सहस्र जनों ने श्री जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती सरोजिनी नायडू का भाषण सुना, वहाँ निराला ने अपने मेघमंद्र स्वरों में 'बादल राग' सुनाया।'5

भारत के इतिहास में सन 1918-20 के आस-पास का समय अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। सुषुप्तावस्था में रहा भारत का यह जागरण काल था। राजनेता अपनी दृष्टि से देश को जगाने का प्रयत्न कर रहे थे तो साहित्यकार भी इसके लिए कटिबद्ध थे। यह जागरण केवल बाह्य न था अंतः जागरण भी था। जाग्रत हुए बिना, जागरूकता के अभाव में शक्ति की साधना संभव नहीं है। मुक्ति तो कदापि नहीं मिल सकती। इसलिए निराला की रचना 'जागो फिर एक बार' में सबसे पहले बद्धजीव जगता है। उसके भीतर का ब्रह्मभाव जाग्रतावस्था में आता है। फिर वह जाग्रत पुरुष देश को जगाता है। सुप्त देश उसकी ओजस्वी वाणी से जागरूक हो उठता है। राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के साथ-साथ सांस्कृतिक नवजागरण का प्रतिनिधित्व करने वाली कविता है 'जागो फिर एक बार'। निराला की मुक्ति-चेतना व्यापक तथा बहुआयामी है। यह न तो इकहरी है और न एकायामी। मुक्ति-चेतना व्यापक मान्यताओं से हो या छंदबद्धता से - मनुष्य, राष्ट्र की कविता की मुक्ति का प्रश्न निराला के लिए एक है, अलग-अलग नहीं।'6

निराला की दृष्टि में भारत किसी भौगोलिक सीमा में आबद्ध नहीं। यह साझी संस्कृति का निदर्शन है। भारत केवल एक भू-भाग नहीं बल्कि विविध सांस्कृतिक विशेषताओं से परिपूर्ण एक राष्ट्र है। जड़ता, जघन्यता, अहमन्यता आदि का निराला की भारत-परिकल्पना में कोई स्थान नहीं है -

'भारत ही जीवन-धन

ज्योतिर्मय परम-रमण

सर-सरिता वन-उपवन।'

और भी,

'नहीं कहीं जड़-जघन्य

नहीं कहीं अहम्मन्य

नहीं कहीं स्तन्य-वन्य

चिन्मय केवल चिंतन।'

निराला के जागरण गीत केवल जागरण गीत के लिए नहीं लिखे गए। इन गीतों में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का जीता-जागता परिवेश चित्रित है। ये गीत पूरे काल खंड के सूचक हैं। इसी समय जनता तिरंगा फहरा रही थी। राजनीति के क्षेत्र में आत्माहुति की प्रधानता थी। इसी दौरान भगत सिंह जैसा क्रांतिकारी असेम्बली में बम फेंक रहा था। प्रसाद जी लिख रहे थे - 'कौन लेगा भार यह, कौन विचलेगा नहीं?' निराला की कविताओं में परतंत्रता के प्रति आक्रोश और क्रांति के उद्दाम उफान हैं। युगों की संचित विद्रोह चेतना और सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक पराभवजनित क्रांति धारा, 'वह तोड़ती पत्थर', 'विधवा' जैसी कविताओं में साकार हुई है। इस संदर्भ में 'भिक्षुक' जैसी कविता भी स्मरणीय है। निराला ने मेहनतकश मजदूर औरत के हाथों में गुरू हथौड़ा थमा दिया। मजदूरनी ने बार-बार प्रहार किया। यह यथार्थ का तीव्र प्रहार है। अपनी सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था पर कड़ी चोट है। पूँजीवादी औपनिवेशिक शक्तियों पर मजदूरनी 'करती बार-बार प्रहार।'

दासत्व की पीड़ा, अवहेलित जीवन की व्यथा, शोषण का तीव्र दंश सहते विधवा की अंतर्वेदना प्रकट होती है -

'ओस-कण सा पल्लवों से झर गया

जो अश्रु, भारत का उसी से सर गया।'

यह सत्य है कि भारतीय विधवा के प्रति कवि की तीव्र संवेदना से भरपूर कविता है 'विधवा'। परंतु प्राक्-स्वतंत्र काल में पराधीनता की मार्मिक व्यंजना को भुलाया नहीं जा सकता है। आशय यह है कि इन कविताओं में परोक्ष रूप से नव-जागरण की अंतरानुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं। पुनः निराला की स्वाधीनता संबंधी दृष्टि का परिप्रेक्ष्य व्यापक रहा है जिसकी चर्चा एतद्पूर्व की जा चुकी है।

भारत के सांस्कृतिक नवोत्थान एवं राजनैतिक पुनर्जागरण काल में निराला जी ने शक्ति, साहस और आस्था के गीत रचे हैं। उन्होंने कुंठा, अनास्था और पराजय को कभी महत्व नहीं दिया। उन्होंने परंपरा का निर्वाह किया परंतु परंपरा के नाम पर कभी भी रूढ़ियों, अंधविश्वासों और जर्जर मान्यताओं का समर्थन नहीं किया। लीक पर चलना उन्हें कतई पसंद न था। उन्होंने अपना मार्ग स्वयं निर्मित किया। उस मार्ग पर ढेरों लोग चले और आज भी चल रहे हैं।

'धिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध।'

यहाँ भी कवि स्वयं को धिक्कार जरूर रहा है, परंतु न तो वह निराश है और न पराजित, उसकी पीड़ा आम आदमी की पीड़ा बन जाती है। कवि अपने बहाने, राम के बहाने परतंत्रकाल के मनुष्य, सामान्य मानव के जीवन-संघर्ष को रूपायित कर देता है। वह नीलकंठ बनकर तमाम विष पी जाना चाहता है, सरोज का पिता ही नहीं समाज का हर परतंत्र व्यक्ति उक्त व्यथा को व्यक्त करना चाहता। उसे पी जाना चाहता है -

'दुःख ही जीवन की कथा रही

क्या कहूँ आज जो नहीं कही'

निराला ने राम की शक्ति-पूजा में शक्ति के विरुद्ध शक्ति-साधना की है। कई अर्थों में 'सरोज स्मृति' एवं 'राम की शक्तिपूजा' एक दूसरे की पूरक रचना है। 'सरोज स्मृति' का दुख 'राम की शक्तिपूजा' में घनीभूत हुआ है। तुलसीदास के पर्यवसित सूर्य के घनघोर अंधकार से 'राम की शक्तिपूजा' का प्रारंभ होता है। 'रवि हुआ अस्त ज्योति के पत्र पर लिखा अमर। रह गया राम रावण का अपराजेय समर।' निराला की तीनों प्रौढ़तम कृतियों के केंद्र में जीवन-संघर्ष है। यह जीवन-संघर्ष बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध के आम आदमी का है। यही आम आदमी निराला की कविता की शक्ति है। मानवीय करुणा और सहानुभूति के कवि निराला ने अपनी प्रौढ़तर कृतियों में अपने जीवन-संघर्ष के माध्यम से युग-सत्य को साकार किया है। इन रचनाओं में हाहाकार है। करुण क्रंदन है। और है गर्जितोर्मि ललकार। इसलिए कहा भी गया है - 'निराला-युगीन यथार्थ के प्रति अत्यंत सजग थे। कुछ तो उनके निजी जीवन की पीड़ा ने और कुछ उनकी प्रखर-मुक्त प्रतिभा ने उन्हें यथार्थ के विषम एवं निम्नतर पक्षों की ओर भी आकृष्ट किया। यह आकर्षण कहीं तो करुणा के रूप में व्यक्त हुआ है और कहीं व्यंग्य और उपहास के रूप में।'7

निराला ने आजीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष किया। विरोधों का सामना किया। अर्थाभाव से वे जूझते रहे। बनी-बनाई लकीर पर चलनेवाले फकीरों पर जम कर बरसे। अभावों की हृदय-विदारक व्यथा झेलते रहे। परंतु अपनी सारस्वत साधना से विरत न हुए। उसमें तल्लीन रहे। स्थितप्रज्ञ बने रहे। समाज भले ही उनकी उपेक्षा करे परंतु एक स्वस्थ एवं सुसंस्कृत समाज-निर्माण के लिए उन्होंने कभी व्यंग्य का सहारा लिया तो कभी गहरी मानवीय संवेदना का। प्रतिकूल परिस्थितियों ने उन्हें जरूर पल भर के लिए हिला दिया था परंतु उन्होंने उन विपरीत परिस्थितियों के सामने घुटने टेकना स्वीकार न किया। भीरुता और कापुरुषता से कोसों दूर खड़े होकर उन्होंने पौरुष-काव्य लिखा। खेल-खेल में छोटा बच्चा हार जाता है, पर हार स्वीकार नहीं करता। फिर खेलता है, दुगने उत्साह के साथ। उसमें जिद आ जाती है और वह जिद्दी स्वभाव अपनाते हुए बार-बार विजय के लिए खेलता है। ऐसा ही मनोभाव है कवि निराला का। उनकी रचनाएँ हमें हिम्मत बँधाती हैं भयंकर हाहाकार और तूफान को ललकार देने के लिए। युद्ध-प्रांगण में शतसिंह के शौर्य के साथ संघर्षरत होने के लिए। कवि के शब्दों में -

'सिंहों की माद में आया है आज स्यार

जागो फिर एक बार'

'फिर' शब्द पर गौर करें। भारतीय पहले भी जाग चुके थे तमाम विपरीत परिस्थितियों में। एतद्पूर्व वे अपना पराक्रम दिखा चुके हैं। अब उसकी पुनरावृत्ति करनी है। ऐक्यबद्धता, संबद्धता की पुनः आवश्यकता है।

निराला की 'सरोज स्मृति' और 'राम की शक्ति-पूजा' एक ही समय में लिखी गई हैं। पहली कविता का रचनाकाल 1935 है तो दूसरे का 1936। हिंदी का श्रेष्ठतम शोक गीत (एलेजी) है 'सरोज-स्मृति'। पुत्री सरोज के असामयिक निधन पर लिखी गई यह कविता एक ओर कवि का व्यक्तिगत जीवन और यथार्थ के चित्र अंकित करती है तो दूसरी ओर अपने युग की त्रासदी की गाथा प्रस्तुत करती है। कवि जीवन के कठोर अनुभव हैं तो प्रिया एवं पुत्री की स्मृतियों के चित्र भी चित्रित हैं। एक ओर संपादकों पर व्यंग्य-वाणी प्रहार हुई है तो दूसरी ओर रूढ़िभंजक निराला की वैज्ञानिक सूझबूझ भरी प्रगतिशीलता। एक ओर कान्यकुब्ज-कुल कुलांगारों पर विनोद व्यंग्य है तो दूसरी ओर गीता का अनासक्ति योग। कवि-जीवन की व्यर्थता, हताशा का अनुभव ही नहीं तत्कालीन मध्यवर्गीय भारतीय पिता की अपारगता एवं विफलता भी प्रतिध्वनित है -

'धन्ये, मैं पिता निरर्थक था

कुछ भी तेरे हित न कर सका!

जाना तो अर्थागमोपाय,

पर रहा सदा संकुचित-काय

लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर

हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।'

यहाँ एक मध्यवर्गीय निर्धन पिता के अंतर्मन की समूची वेदना अभिव्यक्त हुई है। 'अर्थागमोपाय' तो मालूम है लेकिन विवेक वैसा करने में बाधा पहुँचाता है। अर्थ ही अनर्थ का मूल था। पूँजी का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ रहा था। पर निराला ने उससे अपने आपको अछूता रखा। फलतः वे स्वार्थ-समर में निरंतर पराजित हुए। यह पराजय मानवता, मानवीय संवेदना एवं विवेक बोध की विजय का उद्घोष है। क्योंकि आत्म-सम्मानी निराला ने सदा अपनी अड़िगता और तेजस्विता का परिचय दिया है। उन्होंने अपने स्वत्व एवं स्वाभिमान को कभी भी विस्मृत नहीं किया। 'सरोजस्मृति' में निराला ने जरूर अपनी 'दीनता' दिखाई है। यह दीनता पुत्री के सामने है। वात्सल्य प्रेम से उत्पन्न है। संपादक के 'गुणों' का बखान करते समय, मुक्तछंद की रचनाएँ लौटा दी जाने की बेला में वे क्षुब्ध हो उठते हैं। 'पास की नोचता हुआ घास' और उसे इधर-उधर फेंककर उनकी अज्ञानता पर आहुति देकर वे हारते-थकते नहीं, बल्कि संपादक की समझ पर तीव्र प्रहार कर रहे होते हैं।

निराला का व्यक्तित्व क्रांतिकारी था। यह क्रांति केवल साहित्य के क्षेत्र में नहीं थी। साहित्य और जीवन-दोनों क्षेत्रों में उनकी क्रांतिकारिता मौजूद थी। कविताओं में ही नहीं अपने वैयक्तिक जीवन में भी उन्होंने भाग्य को ठुकराया, कर्म को प्राधान्य दिया। ज्योतिष की भविष्यवाणियों को भ्रामक सिद्ध किया। जन्मकुंडली फड़वा दी। पुत्री के विवाह में स्वयं मंत्रोच्चारण किया। माँ की कुल शिक्षा स्वयं उन्होंने दी। कण्व ऋषि की भूमिका निभाई। सरोज शकुंतला तो थी परंतु 'वह शकुंतला, पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।'

पूरे हिंदी काव्य-जगत में पुत्र स्नेह पर तमाम कविताएँ हैं पर पुत्री-स्नेह पर? सुभद्राकुमारी ने 'मेरा बचपन' कविता लिखी है पर उसका स्वर कुछ और है। कवि ने यहाँ भी अपना अनूठापन दिखाया है। दुःख की अनुभूति को गहनता के साथ हृदबोध करानेवाली कविता है 'सरोज स्मृति।' दुःख की तीव्रता तथा उसके संसार से परिचित कराने वाली यह कविता बहुआयामी बन जाती है। मलयज के शब्दों में - 'सरोज स्मृति दुःख को लेकर उड़ने या उसमें खोने के लिए नहीं, बल्कि दुःख को याद करने, उससे भीतर ही भीतर मर्माहत होने और बीच-बीच में बाहर कभी व्यंग्य-विद्रूप में तो कभी आत्म धिक्कार में चीख पड़ने के लिए है। यह चीख छायावादी दुख की स्वनिर्भर दुनिया से बाहर आने की चीख है।'8 कवि का स्वानुभूत दुःख सामान्य व्यक्ति के दुःख का अहसास कराता है। कवि-कर्म के दुस्तर मार्ग से परिचित कराता है। पिता के दुःख कष्ट खासकर असामर्थ्य पिता की दुःख यंत्रणा का परिचायक बन जाता है। 'सरोज-स्मृति' वैयक्तिकता से भरपूर होकर भी निर्वैयक्तिक बन जाती है, ठोस यथार्थ पर रची गई उक्त कविता में आदर्श-यथार्थ, हास्य-रोदन, सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव, किशोर-यौवन आदि जाने कितनी विपरीत स्थितियों का सामंजस्य विद्यमान है। इसमें चुनौती हैं तो आर्तनाद भी और है पिता की प्रबल चीख। पिता के लिए पुत्री ही नहीं कवि के लिए रचना या उससे भी बढ़कर कुछ और थी सरोज। इसलिए 'सरोज स्मृति' कवि निराला के हृदय की गहराई से उत्पन्न कविता है। इसमें कवि के वैयक्तिक जीवन के साथ-साथ उसके परिवेश की सहज अभिव्यक्ति है। उक्त कविता के अंतिम पद में कवि ने अपने दृढ़-संकल्प को रूपायित किया है। आशा एवं विश्वास से भरा कवि-मन कहता है -

'कन्ये, गत कर्मों का अर्पण

कर, करता मैं तेरा तर्पण!'

अंतिम पंक्तियाँ हैं 'सरोज-स्मृति' की। अपने अभावग्रस्त जीवन के पथ पर किए गए सभी कार्य भले ही उसी प्रकार नष्ट हो जाएँ जैसे कि शरद ऋतु में तुषारपात से पुष्पों का समूचा सौंदर्य नष्ट हो जाता है। पर कवि-कर्म से विरत होना निराला को स्वीकार नहीं। वे इसमें अविचलित रहना चाहते हैं। ऐसी अपराजेय शक्ति बहुत कम कवियों की होगी। अपराजेय शक्तिसंपन्न व्यक्ति का स्वर निराशा का नहीं होता है। भले ही अपनी पुस्तक 'निराला' में रामविलास शर्मा ने 'सरोज स्मृति' की अंतिम पंक्तियों के आधार पर कहा है - 'सरोज स्मृति' का अंत 'राम की शक्ति-पूजा' के आशावाद से नहीं होता। निराला मस्तक झुकाकर अपने कर्म पर वज्रपात सहने के लिए तत्पर होते हैं। यथार्थ जीवन की यह एक नई और कटु अनुभूति थी जो निराला हिंदी को दे रहे थे।'9

'सरोज स्मृति' अपराजेयता के साथ समाप्त होती है तो 'राम की शक्तिपूजा' उस अपराजेय शक्ति के साथ प्रारंभ होती है। 'राम की शक्तिपूजा' में अस्तगामी सूर्य का चित्रण प्रारंभिक पंक्ति में हुआ है। परंतु यहाँ प्रसाद जी का 'अरुण-करुण-बिंब' नहीं है। घटाटोप अंधकार का साम्राज्य व्याप्त होने ही वाला है। दिनभर युद्ध चलता रहा। यह युद्ध मिथकीय पात्र राम-रावण का ही नहीं है। युद्ध है आधुनिक सामान्य मानव का और स्वयं कवि का भी। सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय के बीच का भी युद्ध है। इसलिए 'राम की शक्तिपूजा' एक बहुआयामी कविता है। यह प्रतीकात्मक है। औपनिवशिक शक्ति को चुनौती देने वाली कविता है। यह मुक्ति संग्राम की कविता है। समय के आरपार की कविता है।

मैथिलीशरण ने पौराणिक चरित्रों को आधुनिक रूप में प्रस्तुत करने का कठिन काम अत्यंत सफलता के साथ संपन्न किया था। निराला की 'राम की शक्तिपूजा' में भी राम-रावणादि चरित्रों का आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुतीकरण है। यहाँ राम न तो 'दसरथ-सुत' हैं और न ही कोई दिव्य सत्ता या ईश्वर। राम अत्यंत निरुपाय, संशयग्रस्त एवं निराश हैं। निराशा एवं हताशा की स्थिति में उनकी आँखों से अश्रुदल भी गिरते हैं। संभवतः इसलिए रामविलास शर्मा से लेकर डॉ. नामवर सिंह जैसे आलोचकों ने आलोच्य कविता को आधुनिक मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ से जोड़ा है। आधुनिक मध्यवर्गीय व्यक्ति हताश, उदास होने के पश्चात टूटकर बिखर जाता है परंतु संभावना यह भी बनी रहती है कि वह फिर से उत्साह से भरकर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयासरत हो। 'राम की शक्तिपूजा' में कवि ने इस स्थिति का चित्रण किया है। तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जिजीविषा बनी रहती हे। प्रयास लगा रहता है। संभावना का द्वार मुक्त रहता है।

युद्ध की पृष्ठभूमि में रचित 'राम की शक्तिपूजा' एक कालजयी रचना है। इस युद्ध में विजय की प्राप्ति के उद्देश्य से शक्ति की पूजा होती है। इस युद्ध के भी कई आयाम हैं। रचनाकाल को ध्यान में रखा जाए तो प्रथम विश्वयुद्ध की परिसमाप्ति हो चुकी थी। दूसरे विश्वयुद्ध की तैयारी हो रही थी। कवि निराला ने राम-रावण का युद्ध प्रस्तुत किया है पर जैसे कि बताया जा चुका है नीति-अनीति, न्याय-अन्याय, सदाचार-अत्याचार का भी यह युद्ध है। इस युद्ध का एक और संदर्भ है कवि के अंतर्मन एवं बाह्यमन का, प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने-जूझनेवाले आधुनिक मध्यवर्गीय व्यक्ति का। व्यक्ति का अंतर्मन अपने अहंकार से भी लड़ता है। इसलिए 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना' को इतना महत्व दिया गया है। शक्ति आयातित नहीं होती। वह हमारे भीतर होती है। उसे पहचानने की आवश्यकता है।

राम को अपनी विजय की आशंका हो रही है। उनकी आशंका के मूल में शक्ति है जो अन्याय और अत्याचार में लिप्त रावण का साथ दे रही है - 'अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति!' राम के आश्चर्य से पूरा युग साकार हो उठा है। बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में तो क्या आज भी माफिया डॉनों से लेकर भ्रष्ट राजनेताओं का साथ शक्ति दे रही हैं। वे ही तमाम शक्तियों को अपनी मुट्ठी में दबाए रखे हैं। निरपराध को दोषी करार दिया जाता है। अपराधी सीना ताने खड़ा रहता है। युगीन विडंबना का ऐसा चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। अन्याय के साथ शक्ति रहती हे और न्याय का साथ शक्ति नहीं देती। अन्याय का मार्ग सुगम होता है। न्याय का मार्ग दुर्गम। मार्ग भले ही दुस्तर हो उसे चुनना है। शक्ति का अर्जन करना है। सीता का उद्धार करना है। अर्थात् पराधीनता की बेड़ी से मुक्ति प्रदान करना है। मुक्ति के लिए शक्ति की जरूरत है। शक्ति के बिना मुक्ति असंभव है। मन की प्रबल इच्छा शक्ति की साधना करनी है। यह शक्ति आत्मानुभूति, अद्वितीय एवं लोकमंगलकारी है। इसलिए निर्मला जैन ने कहा है - 'राम की शक्तिपूजा निराला की काव्य शक्ति का प्रमाण भी है और हिंदी के शक्ति-काव्य का प्रतिमान भी।'10

'राम की शक्ति-पूजा' में एक बिंब बार-बार रूपायित हुआ है और यह है अंधकार का। कविता के प्रारंभ में 'रवि हुआ अस्त', 'है अमानिशा, उगलता गगन घन अंधकार', 'नैशांधकार' 'ऐसे क्षण अंधकार घन में' आदि का चक्र 'निशि हुई विगत' के साथ पूर्ण होता है। चतुर्दिक अंधकार का साम्राज्य व्याप्त है। निराला कतई अंधकार के कवि न समझे जायें। रवि अस्त तो हो गया परंतु ज्योति के पत्र पर राम-रावण ने अपराजेय युद्ध अंकित हो गया। अमावस्या की रात में आकाश मानो अंधकार उगल रहा है। इस अंधकार को अगाध समुद्र का अप्रतिहत गर्जन और भी सघन बना रहा है। 'रावण-महिमा श्यामा विभावरी अंधकार' तो है, परंतु आशा का केंद्र है 'एक जलती मशाल' राम की शक्ति साधना में घना अंधकार व्याप्त है। परंतु अंधकार तो कवि का साध्य नहीं है। साध्य है प्रकाश। इसलिए राम जब शक्ति की आराधना के लिए बैठते हैं तो कवि कहता है - 'निशि हुई विगत, नभ के ललाट पर प्रथम किरण फूटी।' पूरी कविता में अंधकार और प्रकाश है। युद्धभूमि से लौटते राम का चित्रण इस बात का साक्ष्य है -

उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशांधकार ।

चमकती दूर ताराऐं ज्यों हों कहीं पार।।

सघन अंधकार में प्रकाश की एक चमक आशा एवं विश्वास का भाव भर देती है। निराशा के अंधकार में डूबे हुए मन के किसी कोने में आशा का एक कण नवोत्साह भर सकता है। कवि ने अंधकार के माध्यम से यथार्थ का चित्रण किया है। तत्कालीन युग में परिव्याप्त अंधकार से समस्त सहृदय पीड़ित थे। अंधकार मन के भीतर भी था और बाहर भी। परंतु अंधकार का विनाश हो तमिश्रा का पराभव हो और प्रकाश से सारा विश्व जगमगा उठे - यह निराला की जीवन दृष्टि है। कराहती मानवता नवीन रूप से प्रतिष्ठित हो। सत्य की विजय हो। जनता शक्ति संपन्न हो। शक्ति, अधिकारी अत्याचारियों के हाथ से सामान्य जन के लिए हस्तांतरित हो। राम की तरह आम आदमी इसे मूलमंत्र माने -

'वह एक और मन रहा राम का जो न थका

जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय।'

कवि का जीवन-संघर्ष पूरी कविता में बिंबित है राम के संघर्ष के बहाने। परंतु यह संघर्ष केवल कवि का बनकर नहीं रह जाता। तत्कालीन मध्यवर्गीय व्यक्ति का भी बन जाता है। जीवन-संघर्ष ही सत्य का रूप धारण कर लेता है। इसलिए 'राम की शक्तिपूजा' हिंदी की एक कालजयी कविता है।

पुत्री-प्रेम पर विरचित कविता 'सरोज-स्मृति' है तो पत्नी-प्रेम पर आधारित कविता 'राम की शक्तिपूजा' है। पत्नी की मुक्ति हेतु शक्ति को अपना एक 'नीलकमल' अर्पित करके पुरश्चरण को पूर्ण करना उत्सर्ग-भाव का परिचायक है। प्राक-स्वतंत्रता काल में ऐसे उत्सर्ग-भाव की उत्कटता की आवश्यक थी -

'दो नीलकमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण

पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।'

निराला 'कोरा आशावाद' में जीवित रहना नहीं जानते। आशा को क्रियान्वित करने के लिए कठोर संघर्ष करते हैं। औरों को भी उस संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। रामविलास शर्मा ने कहा है - 'हिंदी के साहित्य को एक नई दिशा की ओर गति देना ऐतिहासिक आवश्यकता थी। एक युग की भूमि पार करके निराला उसकी सीमा तक पहुँच गए थे, अब दूसरे युग की भूमि पर कदम उठाना जरूरी था। निराला ने यह कदम उठाया।'11

निराला की कविता 'कुकुरमुत्ता' 1941 में लिखी गई और इसका प्रथम प्रकाशन 1942 में हुआ। 450 पंक्तियों की इस लंबी कविता में निराला के शाणित व्यंग्य हैं। भाषा का निर्बंध प्रवाह है। काव्य, प्रतिमान की दृष्टि से अप्रतिम है। स्वयं निराला के शब्दों में 'मैं इसे अपनी 'तुलसीदास' की कोटि की रचना मानता हूँ।' परंतु सदा की भाँति निराला की इस कविता को भी विरोधों का सामना करना पड़ा। लंबी अवधि तक यह कविता एक अबूझ पहेली बनकर रह गई। निराला के मर्मज्ञ पाठक रामविलास जी भी इसके काव्योपम गुणों से अप्रसन्न थे। इस कविता को किसी ने जटिल कहा तो किसी ने इसे अनर्गल प्रलाप करार दिया।

'कुकुरमुत्ता' की पृष्ठभूमि में कहा यह जाता है कि निराला पर श्री पुरुषोत्तम दास टंडन का एक सौ रुपए चार आने का ऋण था। निराला ने ऋण-मुक्त होना चाहा और हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से 'कुकुरमुत्ता' का प्रकाशन करवाना चाहा। परंतु टंडनजी ने कोई उत्साह न दिखाया। संभवतः उन्हें कविता पसंद न आई। 'जुही की कली' की फिर से स्थिति सामने आ गई। 'काव्य अभिजात्य से मुक्ति' के प्रयास को तथा हिंदी कविता को नई दिशा प्रदान करनेवाली कविता को निराला के समकालीन समझने में चूक रहे थे। निराला ने साहित्य के क्षेत्र में सदा युग प्रवर्तन किया है। छायावाद हो या प्रगतिवाद कवि निराला सदा अग्रगण्य रहे। नंदकिशोर नवल ने कहा है - 'कुकुरमुत्ता' निराला की महत्वपूर्ण उपलब्धि इस कारण है कि इस कविता में जैसे उन्होंने अपने सर्जनात्मक लक्ष्य को पा लिया है और उनके सामने जो सर्जनात्मक चुनौती थी, उसका सफलतापूर्वक मुकाबला किया है।'12

'कुकुरमुत्ता' शीर्षक कविता दो भागों में विभक्त है। पहले भाग में कुकुरमुत्ता का स्वगत भाषण है। नवाब के बाग में माली तथा अन्य नौकर-चाकर द्वारा फूल उगाने का वर्णन है। दूसरी ओर गंदी और नम जगह पर कुकुरमुत्ता स्वयं उग आता है। कुकुरमुत्ता मेहनतकश लोगों का प्रतिनिधि बनकर उभरता है। सर्वहारा वर्ग, श्रमिक, मजदूर ही सही अर्थ में पृथ्वी पर मौजूद तमाम चीजों के स्वामी हैं। गुलाब परजीवी है। दूसरों के सहारे के बिना खिल नहीं सकता। वह शोषक भी है। दूसरों का शोषण करते हुए खिलता रहता है। कुकुरमुत्ता उपयोगी है। गुलाब केवल अमीरों का मन बहला सकता है। गुलाब शोषक एवं पूँजीपति वर्ग का प्रतीक बनकर उभरा है। प्रकाशचंद्र गुप्त, बच्चन सिंह, रणजीत आदि ने इस विचार को पुष्ट किया है। कुकुरमुत्ता की गुलाब के प्रति ललकार है -

'अबे, सुन बे, गुलाब

भूल मत जो पाई, खुशबू, रंगोआब,

खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट

डाल पर इतराता है कैपिटलिस्ट

बहुतों को तूने बनाया है गुलाम

माली कर रखा, खिलाया जाड़ा-घाम'

उपर्युक्त उद्धृतांश का प्रथम शब्द है 'अबे'। 'अबे', 'बे' की भाषा यूँ ही नहीं निकलती। तीव्र आक्रोश के क्षण उत्पन्न होती है। लंबे संघर्ष से तथा यथार्थ के कठोर प्रहार सहन करने के पश्चात यह भाषा उत्पन्न होती है। कुकुरमुत्ता के बहाने मानो निराला पूँजीपतियों की पोल खोल कर रहे हैं।

निराला की 'शक्तिपूजा' के बाद भी साहित्य-जगत में उपेक्षा होती रही। विरोध तो उनकी परछाईं बनकर सदा रहा। कहीं वे अस्वीकृत हुए तो कहीं अपमानित। निराला अपने स्वभावानुसार उस व्यर्थताबोध की परिधि के बाहर आए। प्रताड़ित जीवन को चुनौती मानते हुए कुकुरमुत्ता के बहाने कहते हैं -

'देख मुझको मैं बढ़ा

डेढ़ बालिश्त और ऊँचे चढ़ा

और अपने से उगा मैं

बिना दाने का चुगा मैं

कलम मेरा नहीं लगता

मेरा जीवन आप जगता।'

इस संदर्भ में नामवर सिंह ने कहा है - 'कुकुरमुत्ता' कविता अपनी अंतःप्रक्रिया में मार्क्सवाद की पक्षधरता या साम्राज्यवाद के विरोध में लिखी गई कविता नहीं है। यह उस निराला की कविता है जिस निराला पर सन 37 में कलावादी और मार्क्सवादी दोनों प्रहार कर रहे थे। अंग्रेजी कविता और कवियों की नकल पर हिंदी में भी आधुनिक और आधुनिकताबोध के नाम पर कलमें लगाई जा रही थीं। 'कुकुरमुत्ता' इन कलमों पर व्यंग्य करता है और अपनी मौलिकता और स्वतः पैदा होने की अहमन्यता को घोषित करता है।'13

'कुकुरमुत्ता' के व्यंग्य को लेकर आलोचना जगत में पारस्परिक विरोधी विचार हैं, वास्तव में आलोचकों में निहित मतभेद केवल 'कुकुरमुत्ता' को लेकर ही नहीं निराला के समूचे रचना-संसार के संबंध में मतवैविध्य है। यह इसलिए कि निराला बहुआयामी कवि हैं। उनकी रचनाधर्मिता के विविध आयाम हैं। आलोचक किसी एक आयाम को उठा लेते हैं और अपनी स्थापना को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं। परंतु होना यह चाहिए कि निराला का अध्ययन संपूर्णता में हो तथा उनके रचना-संघर्ष और जीवन-संघर्ष की अभेदता को पाठकों के सामने उपस्थित किया जाए। कवि की युगीन पीड़ा को उज्जीवित करने का प्रयास होना चाहिए। कवि की रचना प्रक्रिया की सही समझ विकसित की जाए।

ये.पे. चेलिशेव से लेकर विनोद तिवारी तक ने यह स्वीकार किया है कि निराला ने अपनी रचनाओं में (जीवन में भी) तमाम संकीर्णताओं पर वज्र प्रहार किया है। उन्होंने 'निश्छल और पवित्र मानवीयता', श्रमजीवी एवं मेहनतकशों की गरिमा एवं प्रतिष्ठा को बचाए रखने का अनथक प्रयास किया है। चेलिशेव ने कहा भी है - 'सारी हिंदी कविता में संभवतः मेहनतकशों के जीवन का, उनके दुख-दर्दों और क्षणिक खुशियों का इतना सच्चा चित्रण ढूँढ़ पाना कठिन है। जितना निराला की इस यथार्थवादी कविता में मिलता है, अभावों, दुख-दर्दों और भूख से मरने के स्थायी भय के लिए जात-पांत, धर्म और नस्ल के पूर्वाग्रह कोई अस्तित्व नहीं रखते।'14

निराला युगप्रवर्तक कवि हैं। उनकी रचनाओं में न केवल उनका युग बल्कि आज का एवं आनेवाला युग भी बिंबायित है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से अतीत, वर्तमान एवं भविष्य की मूकता को वाणी प्रदान की। कवि ने आम आदमी को चेतनाद्दीप्त करने का प्रयास किया। अंधकार के साम्राज्य से निजात पाने के लिए रश्मि की खोज की। निराला के शब्दों में -

'पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,

आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय कुंज में,

अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है,

दिङ्निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र पुंज में।'

संदर्भ

1. सिंह दूधनाथ, निराला : आत्महंता आस्था, पृ. 16,

2. समकालीन हिंदी कविता और निराला, पक्षधर वार्ता, वर्ष- 2, अंक- 5-6, पृ. 38

3. शर्मा रामविलास, राग-विराग, पृ.18,

4. सिंह बच्चन, क्रांतिकारी कवि निराला, पृ. 26,

5. शर्मा डॉ.रामविलास, निराला, 1962, पृ. 175

6. ए. अरविंदाक्षन, निराला - एक पुनर्मूल्यांकन, पृ. 141

7. डॉ. नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 556

8. मलयज, कविता और कवि, निराला कवि छवि, पृ. 127

9. शर्मा रामविलास, निराला, पृ. 100,

10. डॉ. ए. अरविंदाक्षन - निराला एक पुनर्मूल्यांकन, पृ. 101

11. शर्मा रामविलास, निराला, पृ. 106,

12. संपादक - नंदकिशोर नवल, निराला : कवि-छवि, पृ. 193, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली

13. सिंह नामवर, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद की शोध पत्रिका, 'हिंदुस्तानी' अंक 2, अप्रैल- जून 1997 में 'निराला, नई अर्थवत्ता की तलाश' शीर्षक लेख

14. चेलिशेव ये.पे. - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' पृ. 92, 1998