अंधेरों में अपना चमकता चेतन विश्‍वास गाड़ती स्त्रियाँ / कुमार मुकुल

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महादेवी वर्मा के आँसुओं से लबरेज़ हिंदी कविता में गगन गिल ने करुणा का आलोक रचा तो कात्यायनी ने उसे एक विद्रोही मुद्रा दी। अब अपने पहले कविता संग्रह 'अपने जैसा जीवन' में सविता सिंह समकालीन हिंदी कविता की सीमाएँ बतलाती उसे तोड़ती नज़र आ रही हैं। कविता में उनकी चुनौती कविता के बाहर परंपरा तक जाती दिखती है। वे खुद को उस मातृसत्तात्मक समाज से जोड़ती हैं, जहाँ ऊँचे ललाट वाली विदुषियाँ रहती थीं। जिनका विराट व्यकितत्व होता था पुरुषों की तरह। ऋग्वेद में एक पंकित है-'ममपुत्रा: शत्रु हरो•थो मे दुहिता विराट!' जिस सूक्त की यह पंकित है, उसकी रचनाकार एक स्‍त्री ऋषि शची पौलमी हैं। अपनी कविता 'परंपरा' में सविता उसी विराट स्त्री को तलाशती दिखती हैं, जो ऋग्वेद के बाद फिर नहीं दिखती है। ऋग्वेद में शची पौलमी के अलावा यमी, उर्वशी, इन्द्राणी आदि दर्जनों महिलाएं हैं, जिन्होंने सूक्त (श्लोक) रचे हैं। पुरुष ऋषियों के मुकाबले इनके सूक्तों में इनका आत्मविश्वास ज्यादा प्रकट हुआ है। आज भी अगर कुछ शंकराचार्य स्त्री के वेद पढ़ने के विरोधी हैं, तो इसका यही कारण दिखता है कि कहीं वेद पढ़कर वे अपने खो चुके आत्मविश्वास को पुन: प्राप्त ना कर लें। उपरोक्त ऋचा का आरंभ करती शची पहले कहती हैं कि सूर्य के उदय के साथ मेरा भाग्योदय होता है। अब लंबे अंतराल के बाद सविता सिंह की कविताओं में शची के उदात कवित्व बोध की स्मृति दिखार्इ पड़ती है-

दूर तक सदियों से चली आ रही परंपरा में
उल्लास नहीं मेरे लिए
कविता नहीं
शब्द भले ही रोशनी के पर्याय
रहे हों औरों के लिए
...शब्द लेकिन छिपकर
मेरी आँखों में धुंधलका बोते रहे हैं


...दूर तक सदियों से चली आ रही परंपरा
में वह ऊँचे ललाट वाली विदुषी नहीं
जो पैदा करे स्पर्धा... (परंपरा में)

प्रकृति की कठोर निस्संगता अपने परस्पर विरोधी धाराओं के साथ सविता के यहाँ अभिव्यकित पाती है। प्रकृति और जीवन की विडंबनाओं के ऐसे चित्र इससे पहले बांग्ला कवियों शकित चटटोपाध्‍याय, विष्णु डे के यहाँ ही मिलते हैं।

ऐसे में क्या करती हो तुम...
...जब पत्ते झर रहे होते हैं
एक कठोर निरंतरता में...
या
आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझ में

हर रात उतना ही प्रकाश मरता है...
(मैं तारों का एक घर)

उदात्तता, जो पुरुषों की थाती मानी जाती रही है उसमें भी सविता की कविता बटटा लगाती दिखती है। सविता की प्रकृति संबंधी कविताओं की विशेषता यह है कि वहाँ खुद कवयित्री प्रकृति स्वरूप होकर स्थितियों को अभिव्यक्त करती है। इसमें कई तरह की बेरुखी झलकती है और यही इन कविताओं की ताकत बन जाती है।

मायकोवस्की ने आत्महत्या के पहले तारों भरे आकाश का जिक्र करती एक कविता लिखी थी। सविता की कविता में भी प्रकृति का वह मारक सम्मोहन बार-बार अभिव्यक्त हुआ है।

जो संशय अरुण कमल के तीसरे संग्रह ‘नए इलाके में’ की कविताओं की जान है या इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि जो संशय अरुण कमल की कविताओं की जान निकाल देता है वह सविता के यहाँ भी मौजूद है। पर जिजीविषा और अपार धैर्य को अभिव्यक्त करतीं कविताएँ सविता के पास ज्यादा हैं। और यह संतुलन उनकी परंपरान्वेषी व्यापक जीवन दृष्टि के कारण ही संभव हो सका है।

कुछ भी हो सकता है आज
कोई आत्महत्या या मौत...
आज शााम से पहले ही आ सकती है मौत (संशय)
या
कोई हवा मुझे भी ले चले अपनी रौ में
उन नदियों, पहाड़ों, जंगलों में...
मुझे भी दिखाए कठिनतम
स्थितियों में भी कैसे
बचा रहता है जीवन
दस बजिया फूल की एक डाल कैसे
टूटकर जीवन नहीं खोती
जरा-सी मिट्टी से लगकर
कहीं पत्थरों में बनी संकरी फाँक में
जीने लगती है नया एक जीवन (कोई हवा)

अपनी चर्चित कविता भागी हुई लड़कियाँ’ में आलोक धन्वा लिखते हैं -

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सबमें
गलतियाँ भी खुद ही करेगी
सबकुछ देखेंगी
शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखते ही जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी।

सविता की कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि मात्रा दस साल पहले तक आलोक जैसे कवि ने जैसी स्त्री की कल्पना की थी वह इनमें मौजूद है। सविता की कविताएँ बता रही हैं कि अब उन्हें दूसरे की करुण और परिभाषाओं की जरूरत नहीं। अपने हिस्से के अंधेरों को कम करना, उनसे जूझना सीख गई हैं सविता की स्त्रियाँ। यह कैसी विडंबना है हिंदी की युवा कविता पीढ़ी के एक प्रतिनिधि, प्रेम रंजन अनिमेष जब अपने पहले कविता संग्रह ‘मिट्टी के फल’ में अपनी ‘गालियाँ’ कविता में हार न मानने वाली स्त्री के हथियार के रूप में नाखूनों के अलावा मात्रा गालियों की कल्पना कर पाते हैं उसी समय युवा कवयित्री सविता सिंह अपने कविता-संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ में लिख रही होती हैं -

मन पर न करने दूँ राज
किसी देवता को
धर्म में नतमस्तक होने को तैयार
किसी सुख को जो हो दुख का ही पर्याय
मन पर न झेलूं कोई कोई वार
न रोऊँ अकेले किसी कोने में
...
सोचती हूँ इतना सोचने से
कटता जाएगा दिन और रात का निर्मम प्रहार मुझ पर
क्रमशः कम होते जाएंगे अंधेरे मेरे हिस्से के (अंधेरे मेरे हिस्से के)


एक अंधेरा है जो सालता है मुझे
धमकाता है -
मैं ही हूँ अस्तित्व में तेरे
मुझसे ही बना तू अपनी दुनिया
...
एक विश्वास है कि
इस अंधेरे के बीचों-बीच गड़ा है
चेतना का पिंड जो चमकता है रात में...।
एक दुनिया है जो कहती है,
मुझमें बनी हो तुम...
...
एक सच है जिसे अब मैं भी जानती हूँ
कि दुख-दुनियाओं का यह संसार भी
आखिर कुछ नहीं होता।
(एक अंधेरा है जो सालता है)

तो ये है सविता की स्त्रियाँ, अपनी अभिव्यक्ति के लिए नाखूनों व गालियों की मुहातज नहीं ये। ये वे हैं जिन्होंने अपने चमकते, चेतन विश्वासों को अंधेरे के बीचोबीच गाड़ दिया है। सविता के पास ‘भय की याचना’ और ‘आह मृत्यु’ जैसी कविताएँ भी हैं। मृत्यु के उस ताप को बहुत कम लोगों ने अनुभूत किया है -

...समय आ गया है
तारे भी टिमटिमाते हैं अपरिचित ढंग से अब
पेड़ विस्मय से देखते हैं दूसरी तरफ
कुछ घटित हुआ है अवश्य मेरे विरुद्ध
लेकिन आह! मृत्यु
अभी तो कुछ भी नहीं किया। प्रेम भी नहीं ठीक से
सो भी नहीं सकी आँख-भर

जैसे मौत की आँखों में आँखें डाल देख चुकी हों सविता उसके पार तक।

जैसी एक नई दुनिया शुरू होती है उन कविताओं के साथ जो उससे पहले कभी ऐसी नहीं थी। ‘सुख’ कविता में आप मृत्यु के बीच स्थिति जीवन के मधुर स्वप्नों की पैजनी बजता सुन सकते हैं -

नींद में उतरने के लिए खड़े हैं
अनगिनत सपने
शब्दों का पूरा एक संसार
बदल रहा है एक नए दुख में।

अपना अतीत तलाशती ‘बैठी हैं औरतें विलाप में’

...रोती विलाप करती स्त्रियाँ
करती शामिल पूरे इतिहास को
जिसमें उनके लिए अंधकार का मरुस्थल बिछा है
बैठी हैं याद करतीं अपनी महान परंपरा को
जिसमें थी उनकी स्वायत्ता
...अन्नदात्री वे उपेक्षित नहीं करती थीं
एक भी मनुष्य को...

स्त्रियों के चेहरे यहाँ पुरुषों की नजर से देखे गए परंपरागत चेहरे नहीं, ‘सत्याग्रही’ स्त्रियों के चेहरे, स्त्रियों की भविष्य की दुनिया के चित्र हैं यहाँ, अपने पूर्वजों के शाप और अभिलाषाओं से दूर पूर्णतया अपनी। जिस समय भारतीय राजनीति के जोशीले चक्रवर्ती नायक भारतीय इतिहास की ‘डाल-डाल पर सोने की चिडि़या’ बैठाना चाह रहे हैं, सविता उनकी महान इतिहास दृष्टि का मजाक उड़ाती लिखती हैं -

नमन करूं उस देश को
जहाँ मार दी जाती है हर रोज
ढेर सारी औरतें
जहाँ एक औरत का जीवित रहना
एक चमत्कार की तरह है।

वर्गों के बंटवारे के बाहर रह जाती स्त्री जाति की त्रासदी को रेखांकित करती है सविता।

...सोने-चाँदी से लदी वह राजा की बेटी
मान-मर्यादा के लिए सौंप दी गई

जीवन में ‘प्रेम’ के दर्शन और उसकी क्रांतिकारी भूमिका के अधिकांश कवि एक थाती की तरह उल्लेखित करते हैं पर सविता शायद यहाँ भी ऐसी कवयित्री हैं जो प्रेम की रूढि़यों पर भी उंगली उठाने का साहस करती हैं -

बहुत आसानी से बदलती इस दुनिया में
बदल सकता है जीवन
लेकिन तब जब मन ही इतना रूढ़ हो
प्रेम जैसा ही
तब कुछ भी नया रचे जाने का उल्‍लास
वह पा नहीं सकता

प्रेमी मन की चंचलता के आख्यानों से साहित्य पटा है पर मन की भी रूढि़ होती है उसे कितने देख पाते हैं। यह कहा जा सकता है कि सविता की यह बहुस्तरीय जीवन दृष्टि उसे सही अर्थ में युवा कविता के प्रतिनिधि कवि के तौर पर सामने लाती है। यह सविता की दृष्टि ही है जो आजादी के क्षणों का भी ऊर्जा के श्रोत के रूप में दोहन का पाती है -

मुझमें मरकर टपक पड़ती है कोई एक चिडि़या
रिसने लगता है उससे मेरा ही खून
...
करने दे मुझे फिर मेरे हिस्से के काम
पाने दे मुझे मेरे अवसाद।

जीवन जगत में स्त्री जाति की आधी भूमिका को शायद पहली बार पूरा दिखाना चाहती हैं सविता की कविताएं, बिना अपना स्वर उंचा किए, वह भी विश्वस्त ढंग से।