अंधे युग की वापसी के संकेत / जयप्रकाश चौकसे

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अंधे युग की वापसी के संकेत
प्रकाशन तिथि :17 जनवरी 2016


संसार में सभी धाराएं और घटनाएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। मौसम के चक्र से खेती-बाड़ी और समस्त मानवीय जीवन जुड़ा है। विचारकों का समानांतर संसार भी एक चक्र में घूमता है। इस विचार के एक पक्ष पर गौर करके हम कारण तलाश करें तो कई अंधेरे पक्ष प्रकाश-वृत्त में आ जाते हैं। भले ही आप इसे दूर की कौड़ी कहें परंतु अहमदाबाद और मध्यप्रदेश में कैटरेक्ट के ऑपरेशन में अनेक लोग दृष्टिहीन हो गए हैं और इसके अस्पताल के शल्य चिकित्सा कक्ष में कीटाणु होना बताया जा रहा है परंतु डॉक्टर इससे मुक्त नहीं हो सकते। उन्हें अपने काम करने की जगह की सफाई का ध्यान रखना चाहिए था। यह स्वच्छ भारत अभियान का कलंक है।

स्वच्छता के प्रति आग्रह काबिले तारीफ है परंतु गंदगी के मूल कारण गरीबी और अशिक्षा है। जिन करोड़ों लोगों को यह विश्वास नहीं कि आज भोजन मिलेगा या नहीं, उनसे अपेक्षा करें कि वे भूखे पेट घर को स्वच्छ रखेंगे, यह हास्यास्पद है परंतु मूल कारणों को अनदेखा करना व केवल लाक्षणिक इलाज करना हमारी आदत है। अब यह गौरतलब है कि कैटरेक्ट के ऑपरेशन में दृष्टिहीन होना और शिक्षा के व्यापमं घोटाले में क्या संबंध है? इस संबंध की जांच पड़ताल मुझे चार दशक पूर्व एक घटना का स्मरण कराती है। मेरे एक मित्र और साथी मराठी भाषी अत्यंत ईमानदार और निष्ठावान रसायनशास्त्र के प्रोफेसर से एक छात्र के कुछ अंक बढ़ाने का निवेदन किया गया, क्योंकि उस छात्र को महज पास होने से मेडिकल कॉलेज में दाखला मिल सकता था। उस नेक प्रोफेसर ने इस तरह का काम कभी नहीं किया था परंतु इस बार सिफारिश एक ऐसे मित्र ने की थी, जिन्हें वे अपना निकटतम मानते थे और साहित्य-संगीत के माध्यम से वे जुड़े थे। अत: प्रोफेसर ने पहली और आखिरी बार एक मासूम-सा दिखने वाला समझौता किया। कुछ वर्षों पश्चात आधी रात को प्रोफेसर सिफारिश करने वाले मित्र को केवल यह बताने गया कि जिस छात्र के अंक बढ़ाए थे, आज डॉक्टर बन जाने के बाद उसने प्रोफेसर के निकट रिश्तेदार को ऑपरेशन के समय एनेस्थेशिया का अधिक डोज़ देकर शल्य चिकित्सा के पहले ही मार दिया।

मासूम से दिखने वाले समझौतों के कितने दूरगामी परिणाम हो सकते हैं- इसका अनुमान हम नहीं लगा पाते। व्यापमं घोटाले के माइक्रोस्कोप से बचे कुछ अयोग्य लोग डॉक्टर, इंजीनियर बन सकते हैं और कितने पुल, बांध टूट सकते हैं तथा साधारण-सा रोग अनाड़ी डॉक्टर के परामर्श से मौत का कारण बन सकता है। हम अपने जातिवाद या अन्य उन्मादों के कारण जब अपना मत अयोग्य व्यक्ति को देते हैं तब उसके दूरगामी परिणाम के बारे में नहीं सोचते। आज सभी राजनीतिक दलों में गहराई से सोचने वाले नेताओं का अभाव है। आजादी के बाद वाले समय में हर राजनीतिक दल के पास बुद्धिजीवी थे और आज उनका अकाल-सा हो गया है। हमने लगातार मीडियोक्रिटी (साधारणता) को बढ़ावा दिया है और गुणवत्ता को अनदेखा किया है।हमारी शिक्षा प्रणाली और परीक्षा के मानदंडों की छलनी में इतने छेद हैं कि प्रतिभाहीन व्यक्ति महत्वपूर्ण महकमों में अफसर बन जाते हैं। प्रतिभा 'ड्रग्स' की राह पर चल पड़ती है। हमारे फिल्मकार सत्येन पॉल, जो प्रकाश मेहरा के मित्र थे और उनकी सफलता का पथ भी उन्होंने ही खोजा था, उनके प्रतिभाशाली पुत्र का परीक्षा परिणाम आया और असफल होने पर उसने आत्महत्या कर ली। जब उसकी शवयात्रा घर से निकल रही थी तब विश्वविद्यालय के अधिकारी ने बताया कि वह तो प्रथम आया था परंतु परीक्षा परिणाम प्रकाशित करने में कहीं त्रुटि रह गई। अब एक युवा प्रतिभाशाली छात्र की 'हत्या' की जवाबदारी किस पर डालें? यह घटियापन को प्रतिभा पर तरजीह देने वाली व्यवस्था का अपराध है। भारतीय जीवन के हर क्षेत्र में इस व्यवस्था ने कहर ढाया है।

शिक्षा प्रणाली और मनुष्य के लोभ ने प्रायवेट शिक्षा के ट्यूटोरियल रचे हैं। अनेक प्रसिद्ध और सफल शिक्षा संस्थानों में परीक्षा पास करने के गुर अत्यंत गहराई से पढ़ाए जाते हैं। परीक्षा ने ज्ञान को खारिज कर दिया है। याद कीजिए राजकुमार हीरानी की फिल्म 'थ्री इडियट्स।' इसी कॉलम में एक सत्य घटना का विवरण दिया गया था, जिसमें परिवार के दबाव में प्रथम आने की दौड़ में छात्र अपने से अधिक प्रतिभावान छात्र का कत्ल कर देता है। हमने निर्मम प्रतिद्वंद्विता का चकर रचा है। यह बात केवल अहमदाबाद या मध्यप्रदेश में इलाज के नाम पर दृष्टिहीन बनाने की बातों से नहीं जुड़ी है वरन यह समय का संकेत है कि हम पुन: अंधे युग का निर्माण करने जा रहे हैं। धर्मवीर भारत का 'अंधा-युग' पढ़ें। दृष्टिहीन धृतराष्ट्र और जबरन अंधत्व ओढ़ने वाली गांधारी की संतानें तब भी ज्यादा थीं और आज भी पांडवों की संख्या कम है। आयन रेंड के उपन्यास 'फाउंटेन हेड' के नायक रोआर्क का विश्वास था कि क्रिएटिविटी, प्रोडक्टिविटी और अपने काम में दक्ष होना ही तीन गुण है, शेष सब अवगुण! हम सब गौर करें कि किसान अौर छात्र क्यों आत्महत्या कर रहे हैं और 'बाकी इतिहास' के नायक की तरह पूछें कि हम सब क्यों आत्महत्या नहीं कर रहे हैं।