अकेलेपन का डर और दुःख : कुछ सूत्र! / कमलेश कमल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुःख के कारणों की पड़ताल अकेलेपन के आंगन तक भी जाती है। भले ही विज्ञ जनों ने एकांत को एक सुअवसर कहा है-अपने आप को माँजने का, चमकाने का और महान् विचारक थोरो ने तो यहाँ तक कहा-"मुझे एकांत से योग्य साथी दूसरा नहीं मिला" ; पर देखा जाता है कि लोग निठल्ले लोगों के साथ रह लेंगे, गपोड़ियों के पास जाकर गप मार आएँगे लेकिन एकांत में नहीं रहेंगे।

विचारणीय है कि जहाँ विचारकों ने एकांत को मूर्खों के लिए क़ैद और ज्ञानियों के लिए स्वर्ग माना, वहीं आमजन इससे इतना घबड़ाते क्यों हैं? कुछ लोग तो एकांत से इतने उद्विग्न हो जाते हैं कि वे दूसरों के साथ रहकर दुःखी रह लेंगे, लड़-झगड़ लेंगे, वक़्त यूँ ही बर्बाद कर लेंगे पर अपने एकांत का सदुपयोग कर जीवन को ग्लानिरहित और उद्विग्नमुक्त बनाने का प्रयास नहीं करेंगे।

वस्तुतः, डरा हुआ व्यक्ति चीजों को वैसे ही नहीं देखता है, जैसी वे होती हैं; वह कुछ अलग ही देख लेता है। सामान्य चीजें भयंकर प्रतीत लगने लगती हैं और कभी-कभी तो व्यक्ति अपने भ्रम से भूत भी निर्मित कर लेता है।

तथ्य है कि मोह से ग्रस्त व्यक्ति विमोहित दृष्टि से, भ्रम से ग्रस्त व्यक्ति विभ्रमित दृष्टि से और भटका हुआ व्यक्ति विपथित दृष्टि से देखता है। सम्यक् दृष्टि से ये देख ही नहीं सकते। लोगों ने यह अनुभव साझा किया है कि जो घटनाएँ कभी हुई नहीं, या जिसके होने की संभावना न के बराबर है, अकेलेपन के डर में उन्हें 50 वीं बार या किसी-किसी मामले में 100वीं बार होने की कल्पना उन्होंने की है। मज़े की बात है कि किसी के साथ आते ही यह डर फिर निर्मूल हो जाता है।

ऐसा क्यों होता है। व्यर्थ के डर में सब कुछ सही और ख़तरा आसन्न क्यों लगने लगता है? इसका जवाब यह है कि जैसी दृष्टि, वैसी ही बुध्दि हो जाती है जो तद्नुरूप कर्म के लिए प्रेरित करती है। इससे पूरी सृष्टि ही दृष्टि के अनुरूप आभासित हो जाती है। डर की दृष्टि से डर की सृष्टि का निर्माण होता है।

एक प्रतीति है कि डर वैविध्य का दुश्मन होता है। कहा जाता है-"अनजाने दोस्त से जाना हुआ दुश्मन अच्छा।" यह डर की मनोदशा का भी वाचक है। जिसे हम नहीं जानते, उसके प्रति सशंकित रहते हैं। अल्प मात्रा में सावधानी तक तो ठीक है, पर ज़्यादा हो जाए तो एक प्रकार की बीमारी है। फूल झड़ते हैं, तो फल लगते हैं। नया अच्छा भी हो सकता है। अनजाना वरदान भी सिद्ध हो सकता है। नया उद्यम, नया शहर, नई नौकरी सबसे पहले नया अवसर लाता है, जीवन में विविधता लाता है। डर हमें इस विविधता को देखने ही नहीं देता।

कुछ लोग अकेलेपन से ऊबकर ऐसा कुछ कर जाते हैं, जिसके लिए बाद में पश्चात्ताप करते हैं-"अरे बहुत बड़ी ग़लती हो गई कि उसके यहाँ चला गया या उसको फ़ोन कर लिया।"

ग़ौर से देखें कि यहाँ क्या हुआ-अकेलेपन ने विवेक को प्रभावित किया। व्यक्ति हार गया, नीर-क्षीर विवेक से रहित हो गया और कुछ ऐसा कह गया, सुन गया या भुगत लिया जिसके लिए पछताना पड़ रहा है। यही अविवेक का परिणाम है कि व्यक्ति भूल जाता है-"एक चुप सौ सुख" या "अति परिचय से दूरी बढ़ती है" या "कहीं किसी के पास ज़्यादा टिकने से भाव गिरता है"। इस भूल का यह परिणाम होता है कि व्यक्ति को अपने ही कर्मों की सफाई देनी पड़ती है, क्लेश भुगतना पड़ता है।

प्रश्न उठता है कि पछतावा करने वाले ये भावुक पर डरे हुए लोग आख़िर दूर के किसी रिश्तेदार को फ़ोन क्यों मिला देते हैं, जिन्हें ये एकदम पसंद नहीं करते? क्यों भला ये उनसे बात कर समय नष्ट कर लेंगे पर चिंतन से अपने एकांत को पवित्र नहीं बनाएंगे?

इसका उत्तर यह है कि जब कोई व्यक्ति डरा हुआ होता है, विमोहित होता है या विभ्रमित होता है, तब वह निरीक्षण, परीक्षण और समीक्षण के लिए सर्वथा अशक्त हो जाता है।

डर का मोटर व्यक्ति की बुद्धि से तर्क, युक्ति आदि सकारात्मक चीजों को प्रक्षालित कर अविश्वास, अशक्तता, क्षीणता, दुर्बलता आदि अवगुणों को प्रक्षेपित कर देता है।

मस्तिष्क की भूमि कैसी भी उर्वर क्यों न हो, डर का पानी घुसते ही यह अन्वेषण, अनुसंधान और अन्वीक्षण के सर्वथा अयोग्य हो जाती है। इससे हमारा स्पष्ट रूप से देखना, हमारा भली प्रकार जानना आदि सम्भव नहीं हो पाता। दूसरी तरफ़ हमारी पूर्वधारणाएँ और हमारे पूर्वाग्रह आदि प्रभावी हो जाते हैं।

विरोधियों के बारे में चिंतन भी कभी-कभी डर उत्पन्न कर सकता है। उनके बारे में ज़्यादा सोचने-विचारने के दुष्प्रभाव के रूप में इसे समझना चाहिए। व्यक्तित्व विकास हेतु हमें हरदम यह ध्यान रखना चाहिए कि अपने विरोधियों को ज़्यादा महत्त्व न दें। उनकी हैसियत इतनी न बढ़ा दें कि हरदम उनका ही ख़्याल आए या उनके विरोध में अपनी ऊर्जा क्षरित होने लगे।

जिनमें चेतना का अभाव होता है, वे तात्कालिक सुख की ख़ोज में आत्मघाती और विनाशकारी प्रवृत्तियों में भी संलिप्त हो सकते हैं, जैसे नशा। यहाँ ध्यान रहे कि अकेलेपन का सदुपयोग जीवन के असंतोष से ऊबकर चेतना और बोध के जगत् में छलांग लगाने का अवसर एकांत दे सकता है।

वृद्धावस्था में अकेलेपन का अपना ही दुःख होता है। जवानी में तो समय ढलान से लुढ़कती गेंद की भाँति तेजी से भागता प्रतीत होता है, पर अब वही समय काटे नहीं कटता। एक तो शारीरिक अशक्तता किसी का साथ मांगती है, देखभाल मांगती है; पर जिनमें अपनी जवानी निवेशित कर दी, वे बच्चे अब ख़ुद अपने बच्चों में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसे में सामर्थ्य से जुटाए पैसे, भौतिक सुविधाएँ आदि से तो कुछ सहूलियत होती ही है, पर सकारात्मक चिंतन, प्रासादिक चिंतन हो जाए तो बात बन जाए।

लेकिन सामान्यतः क्या होता है? मोहाविष्ट मन बच्चों की ओर टकटकी लगाए रहता है, फिर शिकायतें जन्म लेती हैं। शरीर कमज़ोर हो जाता है, पर सुखेच्छा सदा कि तरह अब भी शक्तिशालिनी रहती है। ऐसे में बहुत शक्ति चाहिए उन कमजोरियों को झटक कर दूर करने की जिनसे कटुता न आए, ग्लानि, क्षोभ या हृदय-दौर्बल्य न आए और किसी के लिए द्वेष भी न रहे।

प्रासादिक चिंतन व्यक्ति को मान-अपमान से ऊपर उठा देता है। मान का नपना वह छोड़ देता है।

"मीयते अनेन इति मानम!"

जितना हम ख़ुद को मापते हैं, उसे ही अपना मान समझते हैं। कोई उससे कम समझ ले, तो अपमान हो जाता है और मान ज़्यादा मिले तो अभिमान हो जाता है। लेकिन प्रासादिक चिंतन व्यक्ति को निरभिमान बना देता है। ध्यान रहे कि चैतन्य के सिकुड़ने से, अंतःकरण के संकुचन से ही मैं, मेरा, मान, अपमान का क्लेश घेरता है। जब अंतःकरण का आयतन बढ़ जाता है, 'मेरा' से 'सबका' तक सब विस्तृत हो जाता है।

भारतीय संस्कृति ऐसे में वानप्रस्थ आश्रम की बात करती है। यह क्या है? आप यह मानकर चलें कि आप वन में हैं...कोई आपकी मदद के लिए नहीं है...ख़ुद ही पानी लाना होगा, खाने के लिए कुछ फ़ल-वल ख़ुद ही ढूँढना होगा और सोने की व्यवस्था और यहाँ तक कि अपनी सुरक्षा भी ख़ुद ही करनी होगी। यह आज का वानप्रस्थ है और बड़ा प्रासंगिक है। बच्चे दूर रहते हैं। मुहल्ले वालों को कोई मतलब नहीं रहता।

अपना ख़्याल ख़ुद ही रखना है। ऐसे में अगर स्वाबलंबन के साथ प्रभु स्मरण या आध्यात्मिक चिंतन हो, तो रागात्मिका-वृत्ति का शमन होता है, संताप कम होता है तथा शेष ज़िन्दगी आराम से कट जाती है। इस अर्थ में कहा जा सकता है कि धर्म मन का अस्पताल है, जहाँ इसे अब जाना ही चाहिए। तुलसी बाबा ने कहा-

" राम भजन बिन सुनहुँ खगेसा।

मिटईं न जीवन केर कलेसा॥"

इस तरह हम देखते हैं कि जीवन के क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) मिटें, यह आध्यात्मिक मार्ग के अनुसरण से ही संभव है। भक्ति की शक्ति से जीवन का बिखरा उत्तरार्ध भी संभल जाता है, जबकि तुलसी बाबा इसके बिना जीवन श्रीहीन मानते हैं-

" भगतिहीन नर सोहहिं कैसा।

बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥"

यहाँ इसका स्मरण रखना होगा कि आध्यात्मिक मार्ग को धर्म की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी धर्म को आध्यात्मिकता की।

वैसे भी गिरते हुए को जो उठा दे, विनाश के मार्ग से प्रगति के मार्ग पर लगा दे; वही तो धर्म है-पतितं पतन्नं पतिष्यनं धरतीति धर्म!