अक्करमाशी / शरण कुमार लिंबाले / पृष्ठ 2

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'अक्करमाशी' के लेखक का दर्द
आत्म आलोचना: शरण कुमार लिंबाले

'अक्करमाशी' शीर्षक पर ही ढ़ेरों प्रश्न उठाए गए. पुस्तक का शीर्षक आकर्षक होना चाहिए यह मान्य, पर 'अक्करमाशी', यह गाली है. किसी पुस्तक का शीर्षक गाली में क्यों नहीं दिया जा सकता? अक्करमाशी का अभिप्राय है- ग्यारह माशे. बारह माशे का एक तोला होता है. ग्यारह माशे का एक तोला नहीं हो सकता, क्योंकि एक माशे की कमी जो है. 'अक्करमाशी' व्यक्ति की भी ऐसी ही स्थिति होती है. उसका जन्म पारंपरिक संबंधो (पति-पत्नी) से नहीं होता. 'अक्करमाशी' में प्रयुक्त मेरी भाषा को लेकर अनेक प्रश्न उठाए गए. एक प्रश्न यह था कि 'अक्करमाशी' की भाषा अगर मानक भाषा होती तो?

अपेक्षा ठीक है. अक्करमाशी में तथाकथित गंदी बस्ती की भाषा का जिस प्रकार प्रयोग हुआ है, ठीक उसी प्रकार अत्यंत सरल और सूक्ष्म काव्य-भाषा का भी प्रयोग हुआ है. शब्द मुझे हमेशा गौण लगे हैं. उन शब्दों में निहित वेदना मुझे महत्वपूर्ण लगी है. मैं 'अक्करमाशी' की ओर एक कलाकृति के रूप में नहीं देखता. यह एक दस्तावेज है, कैफियत है. इस आत्मकथा की ओर सामाजिक अत्याचार की एक घटना के रूप में पाठक देखे, ऐसा मेरा आग्रह रहा है.

'अक्करमाशी' को मराठी में प्रकाशित किया पुणे के विद्या प्रकाशन ने. उन दिनों मैं सोलापुर में सेवारत था, वहां इस आत्मकथा को लेकर कई तरह की चर्चा थी. कुछ लोग कह रहे थे कि अपनी आत्मकथा को प्रकाशित करने हेतु लिंबाले ने प्रकाशक को दस हजार रुपये दिए हैं. ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले शायद मुझे बहुत अमीर समझते हैं. दस हजार रुपये मेरे लिए बड़ा स्वप्न है. मैं हमेशा लॉटरी की टिकटें लेता रहा हूं. अनेक स्वप्न देखता रहता हूं. परंतु आज तक कभी भी पांच-दस रुपयों से अधिक की लॉटरी नहीं निकली है. मेरे बदन पर ठीक ढ़ंग के कपड़े नहीं होते. जब होटल में चाय पीने जाता हूं तो वेटर समझ लोगों ने मुझे ही आर्डर दिया है.

मुझे लगता रहा कि मैने बेकार में ही आत्मकथा लिख डाली. अपने किसी निकटस्थ मित्र को 'अक्करमाशी' पढ़ने हेतु देने की मेरी इच्छा ही नहीं होती. छटपटाहट होती है. मेरा एक मित्र बैंक में नौकरी करता है. उसकी शिक्षित पत्नी के हाथों 'अक्करमाशी' लग गई. मेरा मित्र सकपका गया. वह ईमानदारी से चाह रहा था कि उसकी पत्नी 'अक्करमाशी' न पढ़े. क्योंकि मेरे इस मित्र का उल्लेख भी किताब में है. मेरा यह मित्र अपनी पिछली जिंदगी भूलना चाहता है. मैं जो जीकर आया हूं, वह जीवन निस्संदेह भयावह है. पर मैं वह सब कैसे क्या जी पाया, समझ नहीं पाता. इस पुस्तक में चित्रित दरिद्रता, अपमान, अत्याचार सब सही हैं. परंतु मेरी बहन इस सबको नकारती है. उसका कहना है कि अगर वह सब स्वीकार कर ले तो ससुराल में उसकी क्या इज्जत रहेगी? पुस्तक के प्रकाशन के बाद मेरे गांव के कई लोगों ने उसे पढ़ा. इसमें जिन-जिन का भी जिक्र है, वे मुझपे गुस्सा करने लगे. उनकी प्रतिक्रिया थी कि लिखना था तो अपने बारे में लिखते, गांव के संबंध में लिखने का तुम्हे क्या अधिकार है? पर अब धीरे-धीरे इस मानसिकता में परिवर्तन हो रहा है. अब गांव वाले मिलते हैं तो शिकायत नहीं करते, कौतूहल से बोलते हैं.

मैं आत्मकथा लिख रहा हूं, जब मैने इसकी घोषणा की तब मेरे घर के सभी सदस्यों को बेहद खुशी हुई. अपना नाम पुस्तक में छपेगा, यह उनकी खुशी का कारण था. पर मैने जो भी लिखा है, उसका वास्तव जब उन्हें मालूम हुआ तब से वे सभी मुझपर नाराज हो गए. मेरे काका यशवंतराव पाटिल गांव के पुलिस पटेल हैं. जाति से वे लिंगायत हैं. उन्होंने ही मुझमें पढ़ने की रुचि जगाई. बचपन में मुझे अनेक पुस्तकें वही लाकर देते थे. एक बार काका और मां में खूब झगड़ा हुआ. उस वक्त काका ने मुझे पास बुलाया और कहा, यह सब तू लिख. उनके वे शब्द मुझे आज भी याद हैं. मेरी नानी संताबाई की प्रतिक्रिया थी कि इतनी तकलीफें झेल कर हमने इसे पढ़ाया, बड़ा किया और इसने हमारी इज्जत खराब कर दी. मुझे नाजायज बच्चों का प्रश्न बहुत गंभीर और महत्व का लगता है.

भारतीय संविधान की चौदहवीं धारा के अनुसार, कानून के सम्मुख सभी समान हैं. ऐसा कहा गया है. परंतु पर्सनल लॉ इस मूलभूत अधिकार के विरोध में हैं. पर्सनल लॉ जायज-नाजायज में भेद करता है. इसमें उसका क्या दोष, आखिर वह भी उसी पिता से जन्म लेता है न. किसी व्यक्ति को नाजायज घोषित कर उसके अधिकारों को नकारना वास्तव में मानवता का गला घोटना है. इसी कारण संविधान में लिखा, 'एक मनुष्य-एक मूल्य' मुझे बेमानी लगता है.

'अक्करमाशी' लिखकर लिंबाले ने दलित समाज की बदनामी की है. एक प्रतिक्रिया ऐसी भी सुनने को मिली. दलितों का वही जीवन. मृत जानवरों को खींचना, उन्हें काटना, दरिद्रता और संस्कारहीन बस्तियां आदि के चित्रण का इस समाज को क्या उपयोग? यह न भी लिखते तो क्या बिगड़ता? अनेक लोगों की प्रतिक्रिया थी कि लिखना ही नहीं चाहिए था. आंदोलन आगे जाए इसलिए क्रांतिकारी साहित्य लिखा जाना चाहिए. कुछ लोग ऐसा भी कहते. दलित समाज की गंदी प्रथाओं और गंदे जीवन को लिख कर आप लोग प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि और रुपये पाते हैं. एक व्यक्ति की यह भी प्रतिक्रिया थी.

'एक ओर लेखक के रूप में तुम्हारी पहचान बनती है तो दूसरी ओर समाज की बदनामी होती है. दलित स्त्रियों पर बलात्कार होते हैं, तुम्हे ऐसा नहीं लिखना चाहिए.'

दलित पाठकों की ओर से प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं सुनने को मिलती हैं तो कई सवर्ण पाठकों की ओर से बहुत अच्छी प्रतिक्रियाएं सुनने को मिलती है. हम किस सड़ी हुई व्यवस्था में जी रहे हैं, 'अक्करमाशी' इसका प्रमाण है. इस पुस्तक को और पहले आना चाहिए था, पढ़कर अपराध बोध हुआ. ऐसी कुछ सवर्णों की प्रतिक्रिया थी. तो कुछ ऐसे भी निकले जिन्होंने कहा कि इससे कुछ नहीं होता, दलित साहित्य से पाठकों की मानसिकता में परिवर्तन, क्रांति आदि सब बेकार की बातें हैं. मध्यमवर्गीय समाज जायका बदलने के लिए दलित-साहित्य पढ़ता है. उल्टे दलित-साहित्य में व्यक्त विद्रोही संवेदनशीलता के कारण दलित और दलितेतर के बीच खाई बढ़ने वाली है.

सुनीता नामक मेरी बहन कहती रही कि अपने माता-पिता के जीवन का तमाशा दुनिया को क्यों बतलाया जाए? सुनीता का पति सुभाष मेरे घर आकर कहता, इसमें हमारा कुछ न लिखो. मेरी पत्नी कुसुम कहती है, यह सब क्यों लिखते हो? इसका उपयोग क्या? इसे पढ़कर अपने बच्चों को कौन स्वीकारेगा? कुसुम की बातें मुझे ठीक लगती हैं. बावजूद इसके मुझे यह कहना ही चाहिए. प्रत्येक गांव में जमींदार होते ही हैं. उनकी रखैलें होती हैं. इन रखैल स्त्रियों की संततियों की व्यथा का लोगों तक पहुंचना जरूरी लगता है. यह कहने के लिए ही यह आत्मकथा मुजे नजदीक की लगती है. प्रत्येक गांव में एक-दो वाहियात औरतें होती ही हैं. जब मैं ऐसा सुनता हूं तो मेरे मन में प्रश्न उभरता है कि क्या स्त्री ही वाहियात होती है? और उसमें भी क्या दलित स्त्री ही वाहियात होती है? क्या पुरुष वाहियात नहीं होते? स्त्रियों को वाहियात कहने के मूल में वाहियात पुरुषों के गंदे आचरण पर परदा डालना है.

'अक्करमाशी' का संपादन ठीक से नहीं हुआ. आत्मकथा में कालदोष है. पाठकों के मन की पकड़ पुस्तक तुरंत नहीं ले पाती. पुस्तक में अनुगत कथन की अपेक्षा काव्य-भाषा और चिंतन की अधिकता है. पुस्तक में उल्लिखित नाते-रिश्तों की पहचान तुरंत नहीं हो पाती. स्त्रियों की ओर देखने का लेखक का दृष्टिकोण बहुत पारंपरिक है. ऐसी अनेक प्रतिक्रियाएं भी मिली हैं. मैं अतर्मुख हो, इन सभी प्रतिक्रियाओं पर विचार कर रहा हूं.

(कैफियत, दै. केसरी, पुणे 16 जून,1985 को लिखे शरण कुमार लिंबाले के लेख पर आधारित । लिंबाले ने अपनी किताब में भी इस लेख का जिक्र किया है.)

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