अक्षय कुमार के सामने एक यक्ष प्रश्न / जयप्रकाश चौकसे

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अक्षय कुमार के सामने एक यक्ष प्रश्न
प्रकाशन तिथि :04 फरवरी 2015


एक दौर में बिमल राय की निर्माण कंपनी आर्थिक संकट में थी और वे कलकता लौटने का विचार कर रहे थे। महान ऋत्विक घटक ने उन्हें 'मधुमति' की पटकथा दी और विश्वास दिलाया कि यह फिल्म कंपनी को बचा लेगी। फिल्म तय बजट से अधिक में बनी थी। दिलीप कुमार ने वितरकों को कहा कि वे अपना मेहनताना आधा कर रहे हैं और वितरक पहले से तय कीमत को बढ़ा दें तो फिल्म का प्रदर्शन हो सकता है। उन्होंने आश्वासन दिया कि फिल्म इतनी सफल होगी कि सबके आर्थिक संकट दूर होंगे और ऐसा ही हुआ। उस दौर में सब कलाकारों के मेहनताने के जोड़ से डेढ़ गुना अधिक धन फिल्म बनाने पर लगता था और सारे बजट इसी समान नियम से संचालित थे।

आज सितारों के मेहनताने के बाद निर्माता के पास इतना धन नहीं होता कि ठीक ढंग से फिल्म बना पाए। जिन सितारों के नाम पर यथेष्ठ धन प्राप्त होता है, उस दायरे से बाहर अक्षय कुमार के मेहनताने के कारण हानि हो रही है। 'बेबी' जैसी सुघढ़ थ्रिलर भी कमाई की फिल्म साबित नहीं हो रही। बॉक्स ऑफिस के जादूगर मुरगदास की 'हॉलिडे' सफल रही लेकिन मुनाफा बहुत कम हुआ। लंबे समय से अक्षय कुमार की फिल्मों को प्रारंभिक भीड़ नहीं मिलती जिससे फिल्म की गुणवता के अनुरूप लाभ नहीं हो पाता।

हाल ही में अक्षय की प्रभुदेवा निर्देशित फिल्म की शूटिंग स्थगित कर दी गई है क्योंकि प्रभुदेवा की 'एक्शन-जैक्सन' नहीं चली। सुना है कि पटकथा पुन: लिखी जा रही है। इस प्रकरण में यह भी सच है कि अक्षय निर्माता को निमंत्रण नहीं भेजते, स्वयं निर्माता उनके पास आता है और उनके मांगे मेहनताने को स्वीकार करता है। इसलिए शिकायत का औचित्य नहीं है। दरअसल सितारे कम हैं और निर्माता कोई अन्य व्यवसाय नहीं आने के कारण फिल्म बनाने को बाध्य है। हर निर्माता सुपरहिट बना रहा है - ऐसी वह कल्पना करता है तथा अधिक खर्च के यथार्थ को अधिक कमाई की कल्पना के दम पर निर्वाह करना चाहता है। हमारे मध्यम आय वर्ग में भी अनेक लोग कल्पित आय के आधार पर यथार्थ को आंकते हैं। हमारे देश की व्यवस्था के ढांचे और शासन करने पर आया खर्च ही सारे बजट तोड़ देता है। सरकारें फिजूल खर्च हैं। उत्सव प्रियता पर कितना धन व्यर्थ हो रहा है। क्या हमारे नेता, सरकारें और जनता का आचरण एक संकट में फंसे गरीब देश का है जिसे अपनी सतह से ऊपर उठना है?

आज अधिकांश फिल्में असफल हैं। क्योंकि हर सितारे और फिल्मकार के काम की आय का अनुमान होता है और उससे बहुत अधिक में फिल्म बनाई जा रही है। मसलन विशाल भारद्वाज की मैकबेथ प्रेरित 'मकबूल' कम बजट में बनने के कारण कमाई की फिल्म थी। इस फिल्म में पंकज कपूर और इरफान खान थे। बाद की 'ओंकारा' में अजय देवगन, करीना कपूर, सैफ थे अत: महंगे में बनी और महंगे में बिकी परन्तु तब तक विशाल का बॉक्स ऑफिस मूल्य कम था। अत: घाटा हुआ। फिल्म निर्माण में 25 प्रतिशत खर्च ऐसे हैं जिनका परदे पर प्रस्तुत फिल्म से कोई संबंध नहीं है जैसे सितारे के व्यक्तिगत स्टाफ पर एक लाख रुपए प्रतिदिन का खर्च और सितारे की पसंद के कास्ट्यूम बनाने वालों का एक खर्च करके दस रुपए वसूलना और टेलीविजन प्रचार पर बढ़ा हुआ खर्च। यह सारा मामला धूमिल की कविता से समझ में सकता है। कविता है 'एक आदमी रोटी बेलता है, दूसरा आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी रोटी बेलता है, रोटी खाता है, वह रोटी का व्यापार करता है, मैं पूछता हूं यह तीसरा आदमी कौन है, मेरे देश की संसद मौन है'। यह तीसरा आदमी ही हर उद्योग की जड़ खोद रहा है।

बहरहाल अक्षय ने भी सितारा बनने के लिए बहुत पापड़ बेले हैं। संभव है अपनी आड़ी-टेढ़ी यात्रा से वे इस नतीजे पर पहुंचे कि उनकी प्रतिदिन क्या आय होना चाहिए और इसी केंद्रीय विचार से उनके सारे निर्णय होते हैं। वह सुंदर, स्वस्थ और अनुशासनबद्ध व्यक्ति हैं तथा कुछ अभिनय भी अब करने लगे हैं परन्तु सवाल यह है कि क्या कभी वे दिलीप कुमार की तरह किसी 'मधुमति' की रक्षा के लिए अपना आधा मेहनताना छोड़ पाएंगे? अक्षय की तरह इस तरह का यक्ष प्रश्न हम सब साधारण लोगों के सामने भी खड़ा हता है कि क्या हम कभी कोई भलाई का काम कर पाएंगे? क्या हम कभी भय मुक्त होकर स्वयं को अभिव्यक्त कर पाएंगे?