अखबार की सुर्खियों में प्रश्न चिह्न? / जयप्रकाश चौकसे

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अखबार की सुर्खियों में प्रश्न चिह्न?
प्रकाशन तिथि : 02 जुलाई 2018

अट्‌ठाइस जून को वॉशिंगटन के एक अखबार के दफ्तर में एक व्यक्ति ने पांच कर्मचारियों को गोली मार दी। उस व्यक्ति ने 2012 में अखबार पर मानहानि का दावा दायर किया था। अदालती निर्णय में देरी से नाराज व्यक्ति हिंसा पर उतर आया। 1996 से लेकर 2018 तक इस तरह की हिंसा की पांच घटनाएं हुई हैं। अमेरिका में शिक्षा परिसर में भी कई हत्याएं हुई हैं और इस विषय पर एक फिल्म बनी थी 'क्लास ऑफ 84'। एक अन्य अमेरिकन फिल्म का नाम था 'हिस्ट्री ऑफ वायलेंस' जिसमें एक चौदह वर्ष का छात्र अपने सहपाठी को गोली मार देता है। वह बयान देता है कि उसके पिता ने आपसी रंजिश में हिंसा का सहारा लिया था। उसने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया कि पिता ने हिंसा क्यों की थी। उनके द्वारा मारा गया व्यक्ति बार-बार उनकी पत्नी को छेड़ा करता था।

अमेरिका में हथियार खरीदने का अधिकार हर व्यक्ति को है और हर एक का मकान व्यक्ति का साम्राज्य है, जिसकी रक्षा का दायित्व उसका अपना है। कुछ लोगों ने हथियार रखने के मौलिक अधिकार को समाप्त करने का प्रयास किया परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। हथियार रखना वहां बुनियादी अधिकार माना जाता है। दूसरी तरफ भारत में बिना लाइसेंस लिए हथियार रखना अपराध है परंतु अवैध हथियारों की गिनती संभव नहीं है। चुनाव के समय हथियारों का जमकर उपयोग किया जाता है। प्रकाश झा की 'दामुल' में हथियार का चुनाव में इस्तेमाल एक मुद्‌दा था। अनुराग कश्यप की फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में यह दिखाया गया है कि हर व्यक्ति के पास अनेक हथियार हैं। काबिले एतराज यह है कि इस फिल्म के सारे पात्र अल्पसंख्यक वर्ग के हैं। मानो वासेपुर में अन्य धर्म का अनुयायी कोई नहीं है। साम्प्रदायिकता अपना लिबास बदलकर कुछ फिल्मकारों के अवचेतन में समाई है। सच तो यह है कि अब कोई क्षेत्र इस संक्रामक रोग से मुक्त नहीं है। इसके पूर्व इसी फिल्मकार की 'ब्लैक फ्रायडे' में हल्के से स्पर्श थे, जो उस किताब में नहीं है, जिससे प्रेरित यह फिल्म है। उनकी 'गुलाल' नामक फिल्म में सामंतवादी हमला करके अपनी सत्ता हासिल करना चाहते हैं।

बहरहाल, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सुपुत्री ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि अहिंसा हमारा स्वभाव कभी नहीं रहा। महात्मा गांधी ने अहिंसा की शक्ति सिद्ध की। कुछ लोगों ने औरंगजेब का उदाहरण देते हुए मुसलमान बादशाहों को हिंसक बताया है परंतु सम्राट अशोक ने भी हत्याएं की हैं। कुणाल की आंखें फोड़कर उन्हें जंगल में छोड़ दिया गया था। इस विषय पर नाटक लिखे गए हैं और किशोर साहू ने फिल्म भी बनाई थी। महात्मा बुद्ध और महावीर ने अहिंसा पर विश्वास जताया। चेतन आनंद ने महात्मा बुद्ध के आदर्श पर 'अंजलि' फिल्म बनाई थी। ज्ञातव्य है कि जर्मन कॉनरेड रुक्स ने 'सिद्धार्थ' नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें सिम्मी ग्रेवाल और शशि कपूर ने अभिनय किया था। इस फिल्म में सिम्मी ग्रेवाल का एक साहसी दृश्य विवाद का विषय बना था। अखबार के मालिकों पर बहुत से दबाव होते हैं और कुछ तथ्य उन्हें छिपाने भी पड़ते हैं, क्योंकि कुछ रुपए में बिकने वाली एक कॉपी की लागत बहुत अधिक है और हॉकर का कमीशन कटने के बाद बहुत कम रकम हाथ में आती है। अत: विज्ञापन ही उनका एकमात्र सहारा है। 'पेज थ्री' नामक फिल्म में अखबार मालिक पर दबाव का एक दृश्य है।

शशि कपूर अभिनीत 'न्यू दिल्ली टाइम्स' भी इसी विषय पर बनी फिल्म थी। इसी के साथ हमें यह भी याद रखना है कि अमेरिका का वॉटरगेट स्कैंडल एक अखबार ने ही जाहिर किया था। अखबारों पर कोबरा का दबाव होता है। गणतंत्र व्यवस्था का चौथा स्तंभ अखबार होते हैं। ज्ञातव्य है कि नानावटी प्रकरण में मुंबई के एक अखबार ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। इसी प्रकरण पर आरके नैयर ने फिल्म बनाई थी 'ये रास्ते हैं प्यार के'। कुछ समय पूर्व ही इसी प्रकरण पर अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म 'रुस्तम' का प्रदर्शन भी हुआ था परंतु उसमें देशभक्ति का समावेश किया गया था। देशभक्ति सिनेमा का आजमाया हुआ अस्त्र है।

आज टेलीविजन पर खबरें देने वाले अनेक चैनल हैं परंतु अखबार का महत्व घटा नहीं है। देखे जा रहे से पढ़े जाने पर आज भी लोग अधिक यकीन करते हैं। पाठक और मतदाता सिने दर्शक को कभी कम नहीं आंका जाना चाहिए। उनकी मार खुदा की लाठी की तरह बेआवाज होती है।

संपादक के नाम लिखे पाठकों के पत्रों में अवाम की राय जाहिर होती है। बहरहाल अखबार कुछ सनसनीखेज सुर्खियों के साथ प्रश्न चिह्न लगाकर प्रकाशित करते हैं ताकि उन पर मानहानि का मुकदमा कायम नहीं किया जा सके। हिरानी की 'संजू' में प्रश्न-चिह्न लगाकर असत्य प्रकाशित करने की कवायद पर सार्थक दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं। अखबार आंकड़ों के अखाड़े में विकास की किस्सागोई करते हैं मानो उन्होंने रात के अंधेरे में रस्सी को कोबरा समझ लिया है। सच तो यह है कि अब अखबार का संसार ही प्रश्न-चिह्न बन चुका है। जब गणतंत्र की संस्थाएं तोड़ी जा रही हैं तो चौथा स्तंभ भी हिल गया है। अखबार रात में तैयार किए जाते हैं और दिन के उजाले में पढ़े जाते हैं। सत्य-असत्य में रात और दिन का फर्क होता है। गणतंत्र व्यवस्था की गोधूलि में तथ्य स्पष्ट दिखाई देते हैं। संभवत: इसी कारण अखबारों के दोपहरिया संस्करण भी प्रकाशित होते हैं और दोपहरिया अखबार रस्सी को कोबरा समझे जाने के भ्रम से मुक्त हो सकते हैं परंतु सबसे त्रासद पक्ष यह है कि इस दौर में विश्वास का संकट है और हम कौरव बनाम कौरव की महाभारत के अशांति पर्व में जी रहे हैं।