अखाड़ा / सौरभ कुमार वाचस्पति

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और जब इस बार उस राजपूत जुआन ने रघुआ को भी पटक दिया तो राजपूत और ब्राह्मण उछलने लगे। वे कसकर सीटियाँ और तालियाँ बजाने लगे। जोश में आकर एक ने कहा -" साले कुर्मी - कोइरी क्या खाकर कुश्ती लड़ेंगे?"

दुसरे ने आँख मारकर कहा -" और दुसाध - गुआर?"

उसका इशारा तिरवेनी पर था जो दस जोड़े की कुश्ती देखने के बाद भी चुपचाप था। उसके अखाड़े के जुआन अभी तक कुश्ती में उतरे ही नहीं थे। उसने एक अखाडा चला रखा था, पहले तो उसमे सभी जातियों के लोग आते थे मिहनत करने पर तीन वर्ष पहले एक राजपूत "असेसर" ने जब कोइरी, बढई, गुआर, चमार, दुसाध सभी जुआनो को पछाड़ दिया तो राजपूतों ने इन पर व्यंग करना शुरू कर दिया। वे किसी भी बात में यही उदहारण देते की राजपूत से कौन टकरा सकता है। और एक दिन तो असेसर ने तिरवेनी को ही "चैलेंज " कर दिया। उसने यह भी नहीं सोचा की उसका भी गुरु तिरवेनी ही है। तिरवेनी ने ही उसे कुश्ती के दाव- पेंच सिखाए थे। बस उसने चैलेंज कर दिया। तिरवेनी के दिल को काफी चोट लगी। वह भीतर ही भीतर टूट गया। उसने सभी छोटी जाति के नए जवानों को अपने घर बुलाया। उन्हें अपने दिल के दर्द की दास्तान सुनाई। प्रेरणा दी की "तुम्हे बकरी से बाघ बनाना चाहता हूँ, तैयार हो जाओ।" जातीय उन्माद और ब्राह्मण-राजपूत के अन्याय से चिढ़कर सभी जातियों के जवानों ने मिहनत करना शुरू कर दिया। और तीन ही वर्ष में बड़े धाकड़ जवान तैयार हो गए। गुआरों में कुइरा बड़ा तगड़ा जुआन निकला। उसकी कुश्ती खड़े-खड़े होती थी। तिरमुहानी के मेले में जब वह कुश्ती लड़ता तो लोगो की भीड़ उमड़ पड़ती थी। कुर्मी में जुगो, कोइरी में रामदेव, बढई में खेलिया, चमार में बहिरा, मलाह में धोनुआ …………… सभी जातियों में कोई न कोई ऐसा हुआ की बीस कोस उत्तर -दक्खिन- पूरब - पच्छिम उसका जोड़ा खोजना मुश्किल था। दुर्गा पूजा के अवसर पर दुर्गा मंदिर के सामने ही हर वर्ष कुश्ती होती थी। इस वर्ष भी हुई। गाँव भर में चंदा हुआ। दूसरी जगहों के भी जुआन आए। गाँव के राजपूत - बाभन जुआनो ने उनमे से अधिक को चित्त कर दिया था। और अब वे उन्माद में उन जातियों को गालियाँ देने लगे थे। रामस्वरूप मास्टर का बेटा भी बढ़िया जुआन था। उसने बाहर से आए तीन जवानों को पटक दिया तो रामस्वरूप का सीना गर्व से फूलने लगा। बोला -" ये साले छोटी जात के लोग साग-पात खाकर चले आते हैं कुश्ती लड़ने।"

रामदेव से रहा नहीं गया। वह बिना लंगोट कसे ही कूद गया अखाड़े पर। दो चक्कर बिजली की सी गति से दौड़ा-" है कोई माई का लाल जो मुझसे लड़ सके।"

रामस्वरूप की भौह तन गई। उसने अपने बेटे की ओर देखा। उसका बेटा छ: फीट लम्बा जुआन था जबकि रामदेव मात्र साढ़े चार फीट का। उसने इशारा किया, बस उसका बेटा कूद गया अखाड़े में। अखाड़े से मिटटी उठाकर सलामी ली और रामदेव की ओर झपट पड़ा।

पलभर ही तो हुआ। किसी ने देखा -किसी ने नहीं, रामदेव ने रमानाथ को ऐसा झटका दिया की वह अधमरा होकर अपने बाप के पैर पर चित्त होकर लुढ़क गया। रामदेव को चाहने वाले किलकारियां मारने लगे। तभी जीवछ मास्टर उठा - अखाड़े पर आया और बोला -" यह कुश्ती नहीं हुई।"

"क्यों?" हर तरफ से बस यही आवाज़ सुनाई दी!

"फिर से लड़ाएँगे रमानाथ और रमदेवा को!"

अब तिरवेनी से रहा नहीं गया, वह उठा -"मुह संभालकर बोलो मास्टर, मेरे जुआन को रमदेवा कहते शरम नहीं आती? तेरा रमनथवा जिससे लडेगा कहो। मेरे जुआन तैयार हैं।"

तिरवेनी की बात जीवछ और रामस्वरूप के करेज में ठक से लगी। "साला एक दुसाध होकर राजपूत को रमनथवा कह कर बुलाएगा?"

रामदेव ने कहा- " तिरवेनी भाई, मैं फिर से लड़ लूँगा।"

" नहीं रे रामदेव, तुमने तो पटक दिया, अब कोई दूसरा लडेगा।"

रामनाथ ने कुइरा गुआर को चुना। कुइरा मुस्कुराते हुए अखाड़े पर उतरा, कहा -" बड़े बेबूझ हो तुम। मुझसे लड़ोगे?"

रामनाथ बोला -" तो अपनी हार मान लो। "

तभी एक हलकी सी आवाज़ कुइरा के कानो तक पहुंची -"डरेवर को ठोकर मार दे कुइअर, लड़ ले।"

यह तिरवेनी की आवाज़ थी।

उसकी भाषा केवल कुइरा समझ सका। उसने लंगोट कसी, मुस्कुराते हुए सलामी ली।

रामनाथ चोट खाए सांप की तरह फुफकारने और घात लगाने लगा। खड़े-खड़े कुश्ती लड़ने वाला कुइरा आज गजब की कुश्ती लड़ रहा था। लोग अचरज भरी निगाहों से उसे देख रहे थे। वस्तुतः वह एक ही जगह खड़ा था; केवल उसके हाथ ही दाएं - बाएँ, आगे - पीछे हो रहे थे। पैर एक ही जगह मिटटी पर जमे हुए थे। मगर रामनाथ परेशान था। वह उसके हाथो में ही उलझकर रह गया था। वह पसीना -पसीना हो गया। एकाएक राजपूतों ने हल्ला कर दिया -" कुइरा को कुश्ती लड़ने नहीं आता, बंद करो कुश्ती।"

कुइरा लड़ते हुए ही बोला -" नहीं लड़ने आता तो कहो अपने जुआन से, पटक दे मुझे।"

तभी तिरवेनी बोला -" कुइरा, देर मत कर, और भी कमाल दिखाना है मुझे।"

बस फिर क्या था, कुइरा ने रामनाथ की एक उंगली पकड़ ली और ऐसा झटका दिया की बीच अखाड़े में वह धडाम से जा गिरा। अब कुइरा ने उसे ऐसे चित्त किया जैसे कोई खेल कर रहा हो। रामनाथ की कमर से अपना ठेहुना सटाकर उसने ऐसा दबाया की "खट्ट" से आवाज आई और रामनाथ बच्चों की चीख-चीख कर रोने लगा -" बाप रे बाप, कमर तोड़ दी हरामजादे ने।"

राजपूत जवान लाठी लेकर कुइरा पर टूट पड़े पर कुश्ती में माहिर कुइरा ने रामनाथ को इस तरह नचाया की सारी लाठियां रामनाथ के शरीर पर ही पड़ी। लाठियां चलनी रूक गई। पुलिस आ गई। थोड-थाम हुआ। फिर कुश्ती शुरू हुई। बदले की भावना से असेसर ने तिरवेनी को ललकारा। मगर जुगो आगे बढ़ा।

उसने कहा -" पहले मुझ से लड़ लो, फिर तिरवेनी से लड़ना।"

असेसर चिढ़कर बोला -" क्या तिर्वेनिया मुझसे डरता है जो तू लडेगा?"

जुगो बोला -"डरेगा क्यों? मगर तिरवेनी के लड़ने का मतलब होगा -अंतिम कुश्ती। मै चाहता हूँ की जितने भी राजपूत और बाभन जुआन हैं इस वर्ष तिरवेनी के जुआनो से फ़रिया ले।"

"ओहो, तो बात ऐसी है!"

"और क्या?"

बस क्या था, पहले बाभन जुआन उतरे। तेरह जवानों को जुगो ने लगातार पटक दिया। वह ज्यों-ज्यों लड़ता था त्यों-त्यों अधिक फुर्तीला दिखाई पड़ता था। अब राजपूत जवान उठे। जब तीन जवानों को जुगो ने पटक दिया तो असेसर अड़ गया।

"ठीक है, अंतिम कुश्ती ही सही, मै तिरवेनी से ही लडूंगा।"

"और जो जीतेगा उसके दरवाजे पर "केतकी" रात भर नाचेगी।"

"नियम तो ऐसा ही है। यही होगा।"

और तब तिरवेनी अखाड़े पर उतरा।


२.

असेसर जितना दांव लगाता; तिरवेनी अगले ही क्षण उसे बेदांव कर देता। असेसर ने बचपन से लेकर अब तक जितने भी दांव सीखे थे; सब लगाए। तिरवेनी अपने शरीर को ढीला छोड़ देता, असेसर दांव लगाकर खुश होता की इस दांव से वह तिरवेनी को पटक देगा। लेकिन अगले ही पल उसे अपना दांव बेकार नज़र आने लगता। वह काफी थक चुका था।

वस्तुतः तिरवेनी कोई दांव ही नहीं लगा रहा था। वह तो सिर्फ असेसर के दांव से अपनी रक्षा कर रहा था। बदले में असेसर खुद फेंका जाता था। लोग सोचते की अब तिरवेनी असेसर को धर दबोचेगा; पर ऐसा वह कर ही नहीं रहा था। वह असेसर को संभलने का मौका देता। परेशान करता। अंत में तिरवेनी बोला -

"है कोई और दांव तुम्हारे पास?"

"तुम कहना क्या चाहते हो?" असेसर हांफते हुए बोला।

"दांव लगालो बेटा; पीछे मत कहना की अमुक दांव लगाता तो पटक देता!"

"क्या मैं तुमसे कमजोर हूँ?"

"नहीं, गुरु का अपमान नहीं करना चाहिए!" तिरवेनी मुस्कुराया।

"भाड़ में जाए गुरु!"

"यह जीवन की अंतिम कुश्ती है।"

"किसके जीवन की?"

"तुम्हारे जीवन की।"

"क्यों"

"प्रत्येक क्यों का मैं जवाब नहीं देता! तैयार हो जा, मैं अब अपना दांव चलता हूँ।"

असेसर उसकी चेतावनी सुनकर संभला, मगर तिरवेनी ने दांव लगाकर एक झटका दिया। असेसर की दाहिनी केहुनी उखड गई। वह बीच अखाड़े में चित्त फेंका गया।

तिरवेनी दहाडा -" है किसी में दम; जो दुसाध से लड़ सके?"

कोई नहीं निकला अखाड़े पर।

जीवछ और रामस्वरूप सर नीचा किए खिसक गए। तिरवेनी के जुआनो ने उसे अपने कन्धों पर उठा लिया। वे लोग आनंद से उछल रहे थे, जैसे उन्हें बरसों से चली आ रही गुलामी से छुटकारा मिल गया हो। लखिया भीड़ में से उछलती आई और तिरवेनी के मुह में दुर्गाजी का प्रसाद ठूंस दिया। सारे गाँव में मिठाई बांटी गई। लोग ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। वे तिरवेनी की बड़ाई अलग -अलग ढंग से कर रहे थे। फिर कुछ जुआनों ने तिरवेनी के दरवाजे पर मंच बनाया। वे बहुत खुश थे ; क्योंकि बाभनी "केतकी बाई" उनके यहाँ रात भर नाचने वाली जो थी।

"देख केतकी, तुम्हारे ही हाथो में हमारी इज्जत है। तू बचा या डुबा।"

"बेइज्जत तो तुम सब दिन में ही हो चुके हो। अब मैं क्या कर सकती हूँ?"

"तुम्हे उस दुसाध के दरवाजे पर नहीं नाचना है।"

"क्या यह परंपरा के विरुद्ध नहीं होगा?"

"परंपरा को हमलोग जन्म देते हैं केतकी। अबतक तू राजपूत के दरवाजे पर नाचती आई है, अब अगर तू उस दुसाध के दरवाजे पर नाचेगी तो क्या यह हमारे लिए ज़िंदा मरना नहीं होगा?"

"देखो जीवछ मास्टर , आज से दस वर्ष पहले दुर्गा माँ के चरण छूकर मैंने कसम खाई थी की मैं केवल राजपूत के दरवाजे पर ही नाचूंगी। आज भी मैं अपने वचन पर दृढ हूँ। मैं राजपूत के ही दरवाजे पर ही नाचूंगी।"

"हाँ , मुझे तुमसे यही उम्मीद थी।"

"तो मंच कहाँ बनाओगे तुम लोग?"

"रामस्वरूप मास्टर के दरवाजे पर।"

"वहां क्यों, मैं वहां नहीं नाचूंगी। मैं तो राजपूत के दरवाजे पर नाचूंगी।"

"ये क्या बकवास कर रही हो केतकी?"

"मैं बकवास नहीं कर रही जीवछ मास्टर, सच बोल रही हूँ। सारे गाँव में श्रेष्ठ राजपूत तिरवेनी है। उसकी शक्ति के आगे कौन नहीं झुका? और वह शक्ति ध्वंस की नहीं, नवनिर्माण की है। विमुक्ति की है। विजेता ही राजपूत होता है। राजपूत - जो विजेता बने या मौत का वरन करे। तुम सब तो अधमरे हो। ना तो वीरगति मिली और न ही विजय। विजेता तिरवेनी है। वह दुसाध नहीं, राजपूत है; सच्चा राजपूत। मै उसके यहाँ ही नाचूंगी।"

"ऐसा नहीं होगा।"

"ऐसा ही होगा। तिरवेनी के आदमी आते होंगे। जीवछ मास्टर, तुम लोग चले जाओ। मैं अपना वचन नहीं तोड़ सकती। "

उसी समय बहिरा, कुइरा और रामदेव आदि आ गए। केतकी तैयार थी, चल पड़ी। जीवछ और उसके साथी दांत पीसते रह गए।


३.

"विजय का अर्थ मै किसी को दबा दूं, ऐसा नहीं है। विजयी को चाहिए की वह किसी की प्रतिष्ठा का मज़ाक न उडाए! अपने विजय का अहं न करे। केतकी; तुम्हें मैं अपने यहाँ नाचने के लिए बाध्य नहीं करूंगा। विजय मेरी हुई है, नियम के मुताबिक तुम्हें मेरे दरवाजे पर नाचना चाहिए। फिर भी तुम नाचने, ना नाचने के लिए आज़ाद हो। बोलो?" तिरवेनी बड़ी ही विनम्रता से बोला।

"कौन कहता है की तुम दुसाध हो? तुम सच्चे राजपूत हो तिरवेनी। तुम्हारी इस उदार भावना ने तो मुझे और भी खुश कर दिया। मैं नाचूंगी; और ऐसा नाचूंगी जैसा आजतक कभी नहीं नाची।"

लोग ख़ुशी से उछल पड़े। कोई तालियाँ पीटने लगा तो कोई झाल - झांझर बजाने लगा। लाउड-स्पीकर भी बजे। एक - आध फ़िल्मी गीत सुन - सुनाकर लाउड - स्पीकर बंद कर दिया गया। बड़ी भीड़ उमड़ रही थी नाच देखने के लिए। केतकी बाई मंच पर आई - ऐसे रूप में; जैसा आजतक कभी ना सजी थी। आकर दर्शकों को प्रणाम किया। और फिर नाचना शुरू किया।

उसके अंग - अंग में अद्भुत लोच - लावण्य था। लोग तालियाँ बजाते बजाते थक नहीं रहे थे। लगभग एक घंटे तक लगातार नाचने के बाद वह रुकी। उसने फिर दर्शकों को प्रणाम किया। चारों ओर तालियों की गडगडाहट गूँज गई। और तब उसने गीत शुरू किया। गीत की दो कड़ी समाप्त कर वह तीसरी पर थी की एकाएक वह परदे के पीछे चली गई। तबला और हारमोनियम पर ताल - धुन गूंजते रहे। भीतर जाते ही उसने जुगो से पूछा -" तिरवेनी कहाँ है?"

तिरवेनी तुरंत आया। उसने तिरवेनी के कान में गुपचुप कुछ कहा और चली गई। स्टेज पर गीत की तीसरी कड़ी गूंजने लगी। सभी का ध्यान अपनी ओर खींचे वह गा रही थी। तभी भीड़ को चीरते हुए तिरवेनी एक नकाबपोश को अपनी पीठ पर लादे; उसके हाथ की पिस्तौल पर अपने हाथ का दवाब लिए स्टेज पर चढ़ गया। उसे पटका और पिस्तौल छीन कर उसी की गर्दन पर सटा दिया।

"साले। तू केतकी की हत्या करना चाहता था?"

"नहीं।" नकाबपोश घिघिया उठा।

और तब तिरवेनी ने उसका नकाब फाड़ दिया। पहलवानी धौल गर्दन पर जमा दी की वह चीखकर बोला "बताता हूँ "

"बता!"

"रामस्वरूप मास्टर ने पांच हजार रुपये दिए थे की तिरवेनी को मार दो और यह बन्दूक भी दी। और .... मैं आ गया। मुझे रुपयों की जरूरत थी दवा के बिना मेरा बाप मर रहा है।"

"हूँ ..." तिरवेनी ने केतकी को धन्यवाद् दिया की इसी की तेज नजर ने इस नकाबपोश को देखा। और परदे के पीछे जाकर मुझे सचेत किया। उसने पिस्तौल अपने पास रख ली और नकाबपोश को चेतावनी देकर छोड़ दिया।

नकाबपोश लुढ़कता हुआ भीड़ में ससर गया।

तबले पर फिर थाप पड़ने लगी। केतकी बाई के पैरों में पंख लगे रहे। लोग साँझ से सूरज निकलने तक नाच देखते रहे।