अगनपाखी / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 1

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पुनर्नवा

एक रचना के कितने पाठ होते हैं ? शायद अनंत।

सुविधा के लिए कहूँ तो व्यक्तियों के अपने-अपने पाठ, समय के अपने-अपने पाठ और स्थितियों के अनुसार अलग-अलग पाठ। यह तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि एक रचना को हर पाठक अपनी अलग दृष्टि से देखता है, कहें कि पाठकीय रचनात्मकता से गुजरता है। अपनी एक रचना ‘स्मृतिदंश’ लिखने और छपकर आने के बाद मैं भी एक ऐसी पाठक बन गई, जो रचना का पुनःपाठ करता है। पढ़ते-पढ़ते बेचैनी बढ़ने लगती, लगता कि कहीं कुछ छूट गया है। फिर-फिर पढ़ना और छूटे हुए का रीतापन और बढ़ते जाना...लिखे हुए की ‘कमी’ बन गया। यों तो लेखक हर रचना के बाद उसका पुस्तकीय-पाठ करते हुए विचलित होता है। काश-काश करता हुए कराहता है कि अमुक प्रसंग ऐसे आता तो ? अमुक संवाद इन शब्दों को लेकर उतरता तो ? अमुक स्थिति को और गहरा किया जाता तो ? तो इस रचना का रुप और निखरता और सँवरता। लेकिन यह सिलसिला तो अनंत है। मूल बात यह है कि रचनाकार अपनी रचना से न कभी संतुष्ट होता है और न मुक्त।

मुझे ‘स्मृतिदंश’ के पुनःपाठ के लगभग झकझोर डाला और मैं यहाँ तक आ गई कि-यह तो वह है ही नहीं, जो मैं कहना चाहती थी-मेरे इस विचार को बल दिया इसी रचना की नायिका भुवन ने। परेशान कर डालने की सीमा तक उसने मेरे पीछा किया। जिद भी बड़ी अटपटी-कि उसे इस रूप में नहीं होना था। ऊपर से असहाय होने के कारण विनम्र दिखनेवाली स्त्री भीतर से किस ताकत का सपना देखती है, लेखिका यह क्यों नहीं समझी ? उसके साथ न्याय नहीं हुआ। मैं उन दिनों दूसरे उपन्यास लिख रही थी। दूसरी नायिकाएँ मेरे साथ थीं। उसी व्यस्तता और पात्रों के घेरे में भुवन की आवाज उठती, जो अलग से सुनाई पड़ती। पहले तो मैं घबरा जाती और फिर झुँझला उठती। न जाने कितने यत्नों-प्रयत्नों से उसे अनसुना करने की कोशिश करती। सचमुच वह मेरी सबसे ज्यादा कमजोर नायिका थी, मगर उतनी ही शक्ति से मुझे पुकारती। ऐसा करते-करते एक-दो साल नहीं, चार-छः वर्ष नहीं, पूरे ग्यारह साल बीतने को हैं। में उसे निरंतर टालती रही। एक दिन अचानक लगा कि उसने मेरी कलम पकड़ ली है। कागज पर कब्जा कर लिया है। लेखक के इन औजारों पर वह अपना हक जता रही है। आश्चर्य तब हुआ जब लिखते-लिखते लगा कि भुवन इन बीते वर्षों में मेरे भीतर नया आकार लेती रही। नया कलेवर उसने कैसे धारण किया ? उसका पहला रूप झूठा था, या यह दूसरा ? शायद यह मेरा उस समय का सच था, और यह आज का। मैं ही खुद को भुवन के रूप में रखकर अपने आप से लड़ रही थी और परिवर्तन के लिए विद्रोह तक जाने में कभी चार कदम बढ़ती तो कभी दो कदम पीछे हटती। अनुभव यह रहा कि सफर में मुसाफिर चले, थके, लड़खड़ाये या मुँह के बल गिरे, लक्ष्य बड़ा बेरहम होता है। संभवतः कथा का यही लक्ष्य-रूप मेरे भीतर रहा हो और उस समय व्यक्त न कर पाई हूँ। अब यह एक नया उपन्यास है। हो सकता है पात्रों के नाम और स्थान वही हों, मगर अब वहाँ का इसमें कुछ भी नहीं। अगर मैं पात्रों स्थानों के नाम बदल देती तो भी कोई अंतर न पड़ता। ‘अगनपाखी’ उतना ही नया होता।


26.6.2001 कचहरी। -मैत्रेयी पुष्पा