अगनपाखी / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 3

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मैं चन्दर !

ऑफिस में चन्द्रप्रकाश, महापाप की अपराधिनी भुवन की बहन का बेटा भक्तों का उतना ही अपराधी हूँ, जितनी कि भुवनमोहिनी। जनता की अदालत में मेरा हलफ बयान दर्ज हो।

जाड़े की दोपहर एक चिट्ठी मिली, डायरी के हिसाब से दिन था मंगलवार।

चिट्ठी में वह लिखा था, जो उसने मुँह से कभी कहा नहीं, शायद इसलिए ही चिट्ठी लिखी थी। मेरे बराबर की उम्रवाली मौसी की चिट्ठी कुछ इस तरह थी-


‘तुम मेरे सासरे वालों से डरते हो। वे क्या शेर हैं जो तुम्हें खा जाएँगे ? डर के मारे नहीं आते, मत जाओ। तुम सोचते हो मैं अकेली घबराकर अपनी बान से हट जाऊँगी, याद नहीं हो तो याद कर लेना मेरी माँ मुझे शिला पर कभी भरोसा नहीं था। सोचते होगे, मैं तुम्हारी राह देख रही हूँ, हट्ट ! मुझे तुम पर कभी भरोसा नहीं था। बस सोचा था, पढ़-लिखकर आदमी समझदार हो जाता है, लोग कहते हैं तो यह बात सच होगी। पर नहीं, तुमने लोगों की बात पर पानी फेर दिया। तुम्हें बुलाने का मकसद यह रहा कि आगरा जाकर डॉक्टरों की बात समझने और मुझे बताने के लिए तुम होते। चलो, अब मैं ही जेठ के संग चली जाऊँगी। घूँघट जेठ को करती हूँ, डाक्टरों का थोड़े ही करूँगी ? प्रार्थना करूँगी कि वे लोग मुझे आसान बोली में समझा दें, रोगी की हालत सुधरेगी कि नहीं सुधरेगी ? बता दें, आखिर मैं रोगी की घरवाली हूँ। दिन-रात उसके संग बिताने वाली हूँ। चन्दर, कई बार पछताती हूँ, जैसा चल रहा था, चलने क्यों नहीं दिया ? पर मन नहीं मानता। तुम मानो न मानो।’

चिट्ठी लिखी कि चुनौती दी ?

उसने बचपन से यही रवइया अपनाया है। चक्रव्यूह जैसी जगह घुसने से इन्कार नहीं करेगी, हालात काबू नहीं आएँगे, हमें उकसाएगी। हमें माने मैं और मेरा भाई बिरजू। हम भी क्या करें ? उसकी जेठ के सामने हमारी पिघ्घी बँध जाती थी। कारण कि वे वैभव सम्पन्न हवेली के मालिक, ऊपर से रिश्ते में भारी, किसी तरह की गुस्ताखी माफ नहीं करेंगे जो हमसे जो अनजाने ही गलती के रूप में हो जाएगी। वे हमें राजा सरीखे लगते। ऊपर से नानी कहती रहतीं-भुवन उनकी बहू है, वे जाने, भुवन जाने, हम कौन ? वैसे भी बेटीवाले होने के नाते हम कमजोर माने जाएँगे, कमजोर हैं भी।

मगर भुवन की चुनौती ?

मैं चलने का मन बनाता हूँ। बस में सवार होकर चलने की कल्पना करता हूँ, शरीर में काँटे खड़े हो जाते हैं। ठण्ड नहीं है, ठण्ड लगती है। नहीं, मुझे नहीं जाना। उसे तो खतरों में पड़ने के लिए बुलावा देने की आदत है। जानबूझकर साँप की बाँबी में हाथ दो, कहाँ की समझदारी है ?

मैं पढ़ा-लिखा हूँ, भुवन मुझे समझदार मान रही है। मैं जाकर रहूँगा।


कुँवर अजयसिंह के डर पर फतह पाने का भ्रम ओढ़ लेता हूँ तो उधर से पिताजी घर दबोचते हैं। देखते या सुनते ही कहेंगे-पागल हो गया है ? कुँवर ठीक ही कहते हैं कि चन्दर उसे शह देता है।

मैं पूछना चाहता था कि क्या शह दी ? उससे पहले ही पिताजी बोले थे-तुम्हारा जाना भी भुवन को शह देना माना जाएगा। मायके वालों को देखकर भी लड़की शेर हो जाती है। अनजाने ही ससुर-जेठ की मर्यादा भूल जाती है। मायके वालों की उपस्थिति में कितनी लड़कियाँ घूँघट करती हैं ? सो बेटा तुम न जाओ। भुवन के पीठ पीछे खड़े होकर कुँवर की ताकत न छिजाओ। समर्थ आदमी छीज जाए तो मौके पर तुम्हारे काम क्या आएगा ? ताकत में इजाफ़ा करो और ताकतवर के साथ शामिल हो जाओ, इतना नहीं जानते तो क्या पढ़े-लिखे हो ?

मैं आज बिलकुल चुप था। सफर के कोई लक्षण प्रकट नहीं किए। पिताजी के सामने पड़ूँ तो सिर झुका लूँ। सिर झुकाने वाले बेटे पर कौन-सा पिता निछावर न हो जाए ?

निछावर होकर उन्होंने पूछा था-क्या बात है ? डाकिया कोई चिट्ठी लाया था, किसकी थी ?-सुनकर मैं पिछली यादों से निकला। सामने मुकाबला था।

सत्य बोला-भुवन की थी। बुलाया है।

-जाओगे ?

-जाकर क्या करूँगा-यह वाक्य पिताजी को मोह लेगा, सोचकर कहा था।

-जो कर पाओ सो कर लेना। तुम उस घर के ढर्रे को कितना बदल पाओगे और क्यों बदलोगे, सोच लो।

मैं चुप था। लेकिन कहना चाहता था, कुछ नहीं बदल पाऊँगा, जानता हूँ फिर भी जाना चाहता हूँ क्योंकि वह मुझे देखकर बदलेगी नहीं सँभल तो जाएगी। किसी संकट में सँभल जाना भी क्या कोई अर्थ नहीं रखता ? कुछ न कर सका, इतना कर देना मुझे कुछ सन्तोष देगा। मेरी चुप्पी इस समय पिताजी के लिए धृष्टता थी।

फिर भी उन्होंने कहा-चले जाओ। चले जाओ-उनकी आवाज में अनचाही लोच थी। भुवन के प्रति संवेदनशीलता है या नहीं, पर उजागर तो कर रहे हैं। शायद मुझे विमुख करना अब उन्हें गवारा नहीं। बेकार फालतू था तो गाली देकर बात कर लेते थे। जब से नौकरी लगी है, सम्मान सा देने लगे हैं, जो बड़ा अटपटा लगता है। मैं सहायक विकास अधिकारी (सहकारिता) क्या उनके लिए भी अफसर हूँ ? खैर !

नहीं, यह भी हो सकता है कि उन्हें अपने किए पर पछतावा हो, सो मुझे ज्यादा ही ताकतवर होने के लिए सलाह दे रहे हों। निश्चित ही पिछले किए की घबराहट का सोता फूटा है, वे कुँवर को पछाड़ना चाह रहे हों। भुवन के वर को नानी के सामने लाने वाले पिताजी ही थे। इसमें भी सन्देह नहीं कि पिताजी को सभी नहीं तो कुछ असलियतें मालूम जरूर होंगी और नानी ने अपने दामाद पर अंधभक्त की तरह विश्वास किया होगा। पिताजी ने असल कुछ बताया नहीं, तब क्या भूल भी गए ?

आज नानी जब यह कहती हैं कि बरजोर सिंह धनधान्य देखकर भुवन को हवेली में ऐसे दे आए, जैसे पहले लोग नामर्द राजाओं को अपनी बेटी ब्याह देते थे और राजा हो जाते थे, तो क्या गलत कहती हैं नानी ?

परन्तु ब्याह की गाँठ खोलना किसके बस की बात है ? राजा के बस की भी नहीं, भगवान के बस की भी नहीं। ये सब गाँठ को तोड़ भले ही दें।-यह नानी का मानना है।

मैं छटपटाता हूँ।