अगन-हिंडोला / भाग - 4 / उषा किरण खान

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मियाँ हसन सूर जमाल खाँ के बुलावे पर जौनपुर जाने पर आमादा थे उन्होंने उन उलझन भरी बातों पर तवज्जो नहीं दी। हिसार छोड़ अपने कुनबे समेत जौनपुर को चल पड़े। बेगम सबा ने रास्ते में ही दूसरे बेटे निजाम को जन्म दिया। रास्ते में तंबुओं में जितना कुछ हो सकता था उतना किया जा सका। बेगम की तबीयत नासाज रहने लगी। फरीद अपने नन्हे-मुन्ने छोटे भाई को मुहब्बत तो खूब करते पर दूसरे बच्चे की आमद, खराब तबीयत और धीमे-धीमे ही सही सफर पर रहने की वजह से सबा बेगम बच्चे पर नजर नहीं रख पाती। अब्बा हुजूर भी गोद में लेकर नहीं घुमाते। रास्ते में रेवड़ियाँ बिक रही थीं जिसे खरीदने के लिए फरीद पैसे माँग रहे थे और आँसू बहाकर रो रहे थे। खेलने के चक्कर में उनके हाथ पैर धूल से अटे पड़े थे। घुँघराले बाल पेशानी के पसीने से चिपके थे, गोल गोल गाल पर आँसू की लकीरें थीं कि उधर से एक नजूमी गुजरा। रोते हुए फरीद को देखकर ठिठका। उसे पुचकार कर गोद में उठाया और आँसू पोंछकर कहा - "नहीं रोते बरखुरदार, हिंदोस्तान का बादशाह कहीं रोता है?" - फरीद रोना भूलकर नजूमी की दाढ़ी सहलाने लगा। नजूमी की बात से आसपास खड़े साईस बाँदियाँ अचरज में पड़ गए। उन्होंने एक दूसरे की ओर देखा। तब तक रमता जोगी बहता पानी की मानिंद वह अपना झोला झपाटा उठाकर गायब हो गया। सबों में फरीद को गोद में उठाने की होड़ लग गई। काफिला जौनपुर आकर रुका। हसन सूर जमाल खाँ की खिदमत में मुब्तिला हो गए। बेगम और पूरे कुनबे के लिए एक बड़ी हवेली मिल गई। जौनपुर शहर बेहद खूबसूरत और रौनकवाला था। फरीद को जगह खूब रास आई। हसन खाँ सूर के रुतबे बढ़े तो फरीद की इज्जत अफजाई होने लगी। उनका घुड़सवारी, तैराकी, शमशीरबाजी और शिकार में दिल लगता। वे अच्छे तीरंदाज हो गए थे। हसन सूर काम से लौट कर बेगम सबा के पास आते तो उदास हो जाते। सबा बीमार हो गई थी। उसका गोरा गुदाज बदन पीलिया गया था, नीली आँखें बुझी हुई लौ हों जैसे, शरीर हड्डी का ढाँचा रह गया था। उधर मुन्नीबाई की चमक बढ़ रही थी। हसन खाँ की तीमारदारी कर उसने अपने वश में कर लिया था और एक दिन दूसरी बेगम बन बैठी। फरीद और निजाम बड़े हो रहे थे उन्हें अपने वालिद का यह कदम बिल्कुल न भाया। अब वे मुन्नीबाई को खुलेआम बेइज्जत कर देते। बदले में मुन्नीबाई भी कोई कोर कसर न छोड़ती। वह अक्सर हसन खाँ सूर को दोनों बच्चों और बीवी की ओर से भड़काती रहती। सबा बिस्तरे पर पड़ी-पड़ी यह सब देखती कुढ़ती रहती। उसकी यह कुढ़न कितने दिन चलती, अल्लाह मियाँ के यहाँ से बुलावा आ गया। अब मुन्नीबाई का मुसलसल अख्तियार हो गया - कुनबे पर। उसके दो बेटे पैदा हो चुके थे। बुलंद शहर की ओर से जमाल खाँ का काफिला जौनपुर की ओर आ रहा था। लाव-लश्कर ने डेरा डाल लिया था। साईस ने बड़े अदब से जमाल खाँ को घोड़े से उतरा। जमीन पर पैर टेकते ही उसके पंजे मुड़ गए। वह अपने आप को सँभाल न सका और जमीन पर लुढ़क गया। चारों ओर से अमले कारिंदे दौड़ पड़े। अमीर जमाल खाँ को उठाकर तंबू में ले गए। साथ चल रहे हकीम ने चोट पर मलहम मला और गरम बालू से सिंकाई की। रात भर जमाल खाँ तकलीफ में जगे रहे पास में उनका बेटा नसीब खाँ था जिसे उन्होंने बुला भेजा था कि कुछ ऊँच-नीच समझा सकें। नसीब खाँ को उन्होंने समझाया कि हसन सूर एक ईमानदार और मेहनती रोह पठान है जो हमेशा अपने काम को खुदा समझता है। उस पर भरोसा करके सहसराम का किला और जागीर सौंप देना चाहिए। जमाल खाँ ज़्यादा दिन जिंदा नहीं रहे पैर मुड़ना और गिरना उनके लिए मानो अल्लाह का बुलावा ही था।

हसन सूर का रुतबा बहुत बढ़ गया। फरीद, निजाम सहसराम आए। जंगलों पहाड़ों में फरीद का खूब मन रमता। वे दूर-दूर तक घोड़े दौड़ाते चले जाते। जंगल के दूसरे छोर पर जाकर वहाँ के किसानों आदिवासियों के घर-रोटी खा लेते। उनके साथ तीरंदाजी का नया-नया तरीका सीखते। उनका भाई निजाम भी उनके पीछे पीछे लगा रहता। हसन सूर के पास बिल्कुल फुरसत नहीं थी कि वे इन पर नजर रखते। मुन्नीबाई अपने बच्चों को खिला-पिला कर तेल फुलेल लगाकर परकोटे में रखती जबकि इन दोनों भाइयों के पैरों के जूते तक फटे-पुराने होते। एक दिन हसन सूर ने देखा कि अपना कोई मुल्तानी नस्ल का घोड़ा हिनहिनाता कतार में दौड़ा चला आ रहा है। दौड़ते घोड़े पर लगाम पकड़ फरीद ने जीन कसा और उछल कर चढ़ बैठे। बड़े बड़े पत्थरों के बीच ऐसा कारनामा, हसन सूर का कलेजा मुँह को आ गया। पीछे से निजाम भी एक घोड़े पर चढ़ा आ रहा था। उनके चेहरे खुशी से चमक रहे थे। हसन सूर ने देखा फरीद का गोरा भरा-भरा गाल खरोचों से भरा है। ओठ सूखकर पपड़ियाए हुए हैं। बाल रूखे-सूखे पगड़ी में बँधे हैं। जूते खस्ताहाल हैं और पायजामे अंगरखे मुसे-मुसे से हैं। फरीद की अम्माँ ने सपना देखा था कि गोद में सूरज उतर आया है, इसके जनम की कितनी उतावली थी इन्हें खुद, आज नजर भर देख नहीं पाते। अम्माँ नहीं हैं, इनके पास वक्त नहीं है। क्या कद निकल आया है। फरीद का। सीना चौड़ा हो गया हसन सूर का। वे समझते हैं कि इनकी दूसरी बेगम इन बच्चों को फूटी आँख नहीं देख सकती। उन्हें मालूम हुआ कि इन घोड़ों का रखरखाव, इनकी तालीम खुद फरीद ने अपने हाथों में ले रखी है। आखिर रोह पठान हैं ये अफगान। घोड़ों के बारे में इनसे ज़्यादा कौन जानता है? फक्र से सीना चौड़ा हो उठता है हसन सूर का जिनके पुरखे छड़ी लेकर मक्का शरीफ गए थे और अरब में थे तब कैस कहलाए थे। खुद हजरत मुहम्मद साहब ने यह नाम रखा था। खुद उन्होंने ही सुलेमान पहाड़ी की ओर जाने और दुनिया के नई रोशनी फैलाने का हुक्म दिया था। सच है नई रोशनी फैलान से कोई किसी को कैसे रोक सकता है? रोशनी किसी के रोके रुकती भी तो नहीं।

"जाओ, आज हमारे बेटों के साथ ही दस्तरखान बिछाया जाय हम साथ खाएँगे।" -हसन सूर ने अपने नौकरों से कहा। वैसा ही हुआ। फरीद और निजाम साथ बैठे। हसन सूर फरीद से मुखातिब हुए - "मियाँ फरीद, आप जौनपुर चले जाइए, अपनी पढ़ाई पूरी कीजिए।"

"बेशक अब्बा हुजूर मैं भी यही चाहता हूँ। आप जब कहें चला जाऊँगा।"

"आप जल्दी ही जाइएगा।" - हसन सूर ने कहा।

"जौनपुर में ज़्यादा पढ़ाई होगी। तालीम देने वाले मदरसे हैं।" - फरीद खासे खुश थे।