अगन-हिंडोला / भाग - 6 / उषा किरण खान

Gadya Kosh से
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"फरीद मियाँ, ये कैसी आवाजें हैं, बढ़ती ही जा रही हैं। यहाँ रुकना टीक होगा क्या?" - नसीब खाँ घबड़ा गए. फरीद ने गौर से सुना "मुझे लगता है आसपास ठठेरों की बस्ती है। अपने जौनपुर के बाहरी इलाकों में, उन बस्तियों में ऐसी ही आवाजें सुनने को मिलती हैं। पीतल तांबे पीटने की आवाजें हैं। घोड़े दौड़ा कर देखा तो सच पाया गया। एक बड़ा-सा गाँव ठठेरों का था। इन दौरों के दौर में फरीद ने जाना कि लुहारों के गाँव किधर हैं, चमड़े और लकड़ियों के कारीगर कहाँ हैं। बड़ी-बड़ी मिट्टी की दीवारों वाले दो मंजिले परकोटों वाला घर कौन बनाने की सलाहियत रखता है। किस फसलों को कितना पानी चाहिए, तैयारी के लिए कितना वक्त चाहिए, कैसे खेत और खलिहान की ज़रूरत किस अनाज के लिए है। हिंदोस्तानी आबादी के साथ पले बढ़े फरीद को मालूम था कि अलग-अलग टोलों मुहल्लों में रहने वाली आबादियाँ अपने हुनर की वजह से इकट्ठी रहते हैं। बड़े पेड़ों की छाँव में मदरसे और पाठशालाएँ दीखीं। आम लोगों के दुख दर्द को देखा। फरीद ने जो काफिया पढ़ रखा था काजी शहाबुद्दीन के मशहूर टीका सहित उसमें इनके बारे कुछ नहीं था। यह तो महसूस करने वाली बातें थीं।

"फरीद तुम तेज निगाहों वाले इनसान हो। चारों ओर चौकन्ने रहते हो। जहाँ जाते हो वहाँ के माहौल और वाकयातों को जान जाते हो इस सफर में रहकर मुझे इलहाम हो रहा है कि तुम किसानों से, गँवइयों से उन्हीं की तरह बातें कर रहे हो। अपना माहीचा बाकरखानी छोड़ बाटी-लिट्टी खा रहे हो। चबेने चबा रहे हो। घोड़े हो क्या?" - हँसकर कहा नसीब खाँ ने। फरीद ठहाके लगाने के सिवा कर ही क्या सकता था। यह तो अपनी अपनी फितरत अपना अपना नसीब मुल्ला के नाम भर रख देने से कोई नसीब वाला नहीं हो जाता। इनायत यूँ नहीं बरसाई जाती है। गढ़ा खोदे बिना तालाब नहीं बनता। बड़ा काम सौंपने के पहले खुदा ने इस पठान अफगान को नेमतें बख्शीं, तमाम नेमतें जो फकीर को शहंशाह बनाती हैं। बिहार सूबा से लौटकर नसीब खाँ और फरीद जौनपुर पहुँचे ही थे कि हसन सूर का खत आया। उन्होंने नसीब खाँ से इल्तिजा की थी कि अब वे फरीद को भेज दें। फरीद की तालीम पूरी हो गई होगी। दोनों परगने देखने की जिम्मेदारी उठाने लायक हो गए होंगे। खत लेकर आनेवाले हसन सूर के नजदीकी सिपाही ने अर्ज किया कि वे बेहद बीमार चल रहे हैं। फरीद को यह सब यूँ ही नहीं मिला जब वे लोग सूबए बिहार गए थे उसी वक्त हसन सूर मियाँ जमाल खाँ सूबेदार से मिलने आए. उधर हसन सूर भी बीमार चल रहे थे। जमाल खाँ ने हसन सूर को अपने हकीम से दवा दिलवाई. हसन ने उनका था हाथ चूमकर कहा - "मसनदे आली, इंशाल्लाह आप जल्दी उठकर खड़े हो जाएँगे। आपके हकीम साहब की दो दिनों की दवा ने मेरी रंगों में बिजली दौड़ा दी, अब आप भी चंगे हो जाएँगे।" खुदा खैर करे हसन सूर, यह मुगालता मैं नहीं पालता आप भी न पालें। हमारे इख्तियार में जो कुछ था उस पर अमल कर चुका आप भी समय रहते परगनों की बागडोर फरीद के हाथों सौंप दें। फरीद यूँ तो पहले से ही जहीन था, अब गहरी और ऊँची पढ़ाई कर वह इस मुल्क में बिरला ही है। आपकी यह औलाद आपका सर ऊँचा करेगी। इसमें ताकत, सूझबूझ और दिलेरी है। यह लोमड़ी की तरह चालाक और खरगोश की तरह चौकन्ना है। ऐसे इनसान कुछ कर गुजरने आते हैं दुनिया में। एक बड़ी बात हमने देखी है इसमें आपको अंदाजा भी है? "

"क्या हुजूर" - हसन शूर का दिल फरीद के लिए मुहब्बत से लबालब भर गया था।

"उसने मुझसे बातचीत के वक्त कई बार यह कहा है कि - क्या कभी सारे सूर, अफगान, पठान एक नहीं हो सकते? यह उनको एक करने में लग जाएगा। आगे पीछे की तारीखें पढ़कर जान गया है कि समरकंद से लाहौर के रास्ते आने वाली मुगलों की सेना के सामने इब्राहिम लोदी तब तक नहीं टिकेंगे जब तक सारे पठान अफगान एकजुट न होंगे।"

"बहुत दूर की सोचता है फरीद।" - अपने बेटे की ऊँची सोच पर फख्र हो आया उन्हें। लौटते ही उन्होंने यह खत भेजा। जमाल खाँ ने फरीद को समझा बुझाकर सहसराम भेजा। फरीद जाना तो चाहता ही था फिर भी कहा - "मैं अपने वालिद की दोनों जागीरों को सँभाल लूँगा, उनकी देखभाल भी करूँगा पर वे बेबस हैं। उनकी बीवी जो निहायत नाशुक्री है मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। अगर उन्होंने उसकी बात पर कान दिया तो शायद वे मुझे न रख पाएँ।"

"तुम्हें बड़े काम करने हैं, छोटी छोटी परेशानियों से कभी न हैरान होना। जाओ एक सिपाही की तरह जुट जाओ, अकीदतमंद की तरह अपनी सोच को अंजाम दो। आमीन"

रोहतास के पत्थर वाले दुर्ग के नीचे खड़े होकर हसन सूर ने उसका इस्तकबाल किया। वह दुर्ग राजा का था जहाँ जाना आसान नहीं था। राजा अपना फर्ज अच्छी तरह अदा करता था कभी भी जागीरदार को शिकायत का मौका नहीं देता था। हाँ, वह मुंडेश्वरी देवी के मंदिर में पूजा करने के लिए साल में एक बार ही किले से नीचे उतरता था। फरीद को देखकर हसन सूर बेहद खुश हुआ।

"आओ बेटे अब तुम ही दोनों परगने देखो"

"मैं देखूँगा पर आप पूरी तरह मुझे देखने देंगे तब।"

"मैंने तुम्हारे उपर सब कुछ छोड़ दिया है। तुम मेरे सबसे बड़ी औलाद हो। तुम पर ही तो भरोसा है।"

"अब्बा हुजूर, यह मैं इसलिए कहता हूँ कि कई जगहों पर आपके रिश्तेदार जागीर का काम देख रहे हैं। मैंने अगर उनके काम में गड़बड़ी पाई तो हटा दूँगा। रहम नहीं करूँगा।"

"तुम्हें जागीर का शिकदार बनाया है अब तुम्हारे इख्तियार में हैं कि तुम कैसे चलाओ."

इत्मीनान होकर फरीद अपने काम में जुट गए. फरीद ने सबसे पहले गाँवों की ओर रुख किया। गाँव के किसान ही किसी राज्य की धुरी हैं। वे अन्न उपजाते हैं, वे न हों तो सारी सभ्यता ही नष्ट हो जाय। अरबी फारसी और हिंदवी का विद्वान फरीद किसी मुगालते में न था कि कोई सिकदार या अमीर दुनिया चला सकता है। सबने महसूस किया कि रोहतास सासाराम और हवासपुर टाँडा के किसान अच्छी खेती करते हैं और अच्छी नस्लों के ढोर पालते हैं पर बेहद तकलीफदेह जिंदगी गुजारते हैं। बारिश न हो और फसल अच्छी न हुई तो इलाके छोड़कर दूर जा बसते हैं। अपना इलाका खाली और बंजर हुआ जाता है। दरिया फतह करने पर जाना कि मुहम्मद गोरी के समय से ही इन पर फाजिल माहसूल लगाया और वसूला जाता है। बेगार के लिए लोगों को पकड़ कर जबर्दस्ती ले जाया जाता है। समय पर खेती नहीं हो सकता निराई गुराई नहीं हो, समय पर खेतों में पानी न डाला जा सके तो खेतिहर भागकर ऐसे तालुके में चले जाते जहाँ यह सब नहीं होता। फरीद ने तुरत फुरत माहसूल बंद कराए और बेगार तो बिल्कुल ही बंद करा दिया। दस घरों के उपर एक आदमी की बहाली सिर्फ इसलिए की कि वे किसानों की सलामती का ख्याल रख सकें। खूबसूरत नौजवान फरीद किसानों के बीच खड़ा होकर कहता - "मैं इनसान की सहायता करने वाला एक सैयद हूँ। तुम सब जो मेरी रियाया हो मुझ से ज़रा भी न डरो, मुझसे बेखौफ होकर अपनी तकलीफें बयाँ करो।"

खेतों में काम होने लगे। तालाब कुँए खुदे रहट चलने लगे। फसलें लहलहा उठीं। रोहतास सहसराम तालुका की खुशहाली की हवा दूर-दूर तक फैल गई. हिंदोस्तान उस वक्त अच्छे दौर से नहीं गुजर रहा था। छोटे-छोटे रियासत बन गए थे। लूट मार का खौफ सूबों में तारी था। फरीद के राजपाट की, उसके सुलझें विचारों की उसके सुधारों की खबरें चंदन की खुशबू की तरह चारों और फैल गई थी। फरीद ने राहजनी करने वालों को मुस्तैदी से पकड़ना शुरू किया। उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी गई. लिहाजा इसके रकबे में चोरी डकैती राहजनी नहीं होती। फरीद ने बाँस के पुल बनवाए उसका मन तालुके में रम गया।

खुशहाली की खबर सुन दूर दराज के लोग आने लगे, बंजर जमीने हरी होने लगीं। फरीद ने खेती की जमीने देकर हजारों लोगों को बसाया। पैदावार बढ़ी तो आप से आप माहसूल कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया। खजाने भरने लगे। फरीद के काम की तारीफ से उनकी सौतेली अम्माँ मुन्नी बाई को बड़ी कोफ्त होती। उसके सगे वाले जो तालुके में माहसूल वसूलने, बेगार करवाने के शौकीन थे वे फरीद की दरियादिली से नाराज थे। उनके हाथों की खुजली जो नहीं मिटती थी। उन्होंने मुन्नी बाई से शिकायत की पर कोई उपाय तो था नहीं क्योंकि फरीद मियाँ ने खजाने को भर दिया था। वे आहें भर कर रह जाते और अपनी तकदीर को कोसते कि अब सिर्फ वेतन पर गुजारा करना पड़ता। ऊपरी कमाई और बेगार का सुख छिन गया। कुछ करने की सोंच तो रहे थे पर कही रास्ता नहीं दीख रहा था। लाचार फरीद के रहमोकरम पर दिन काट रहे थे। फरीद उनसे हिसाब पूछते तो वे जलभुन कर खाक हो जाते। आनेवाले मजलूमों में एक मारवाड़ से आया क्षत्रिय जय सिंह था। मारवाड़ इलाके में अकाल पड़ गया था। एक-एक गाँव काफिले बनाकर पूरब की ओर निकल आए थे। जय सिंह ने रोहतास में शरण पाई थी। उन्हें खेत मिला था फसलें उगाने को। उनके साथ उनकी कमसिन बेटी थी, बला की खूबसूरत। फरीद गर्मी की भरी दुपहरी में अपना तालुका घूमकर आ रहा था। खेतों की हरियाली मन मोह रही थी। खेत जहाँ खत्म हुए वहाँ कुछ नए बने घर देखे फरीद ने। प्यास से उसका गला सूख रहा था। अभी हवेली दूर थी, गले में काँटे उग आए जान पड़ते थे। घोड़े से उतरकर उसने पास खड़े एक पेड़ से बाँध दिया और सामने की कुटिया में आवाज लगाइ. "कोई है? राहगीर को पानी पिलाओ." - आवाज सुनकर एक युवती कमर पर घड़ा रखे नमूदार हुई. फरीद को पानी पिलाया फरीद अपलक उस लड़की को देखता रह गया। पीले रंग का घाघरा, हरी ओढ़नी। जरीगोटे और शीशे के काम से जगमग। पीली चोली पसीने से तरबतर चिपक गई थी जोबन के उभार से। घड़ा भर पानी पीकर भी फरीद की प्यास न बुझी। अजीब-सी तिश्नगी थी।