अगस्त-क्रांति सही या गलत / महारुद्र का महातांडव / सहजानन्द सरस्वती

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यहाँ पर एक स्पष्ट बात कहने के लिए भी जी चाहता है। 1942 में अगस्त-क्रांति हुई , यह बातचीत तभी से चालू है और आज भी उसकी अहमियत बड़े जोर से बखानी जाती है। इसमें झगड़ने का न तो समय है और न इसकी जरूरत ही है। मगर प्रश्न तो यह है कि यह क्रांति जनशक्ति को ─ उस अनियंत्रित जनशक्ति को , जो प्रलयंकर विस्फोट लाती है , महारुद्र का महातांडव करवाती है─ बढ़ानेवाली पूर्ण रूप से पल्लवित-पुष्पित करनेवाली थी , या कि बाबू-दल की वैधानिक शक्ति को ही ? जन शक्ति को भी उसने कुछ बढ़ाया हो सही ; लेकिन उससे भी लाख गुना यदि बाबू-शक्ति को , बाबुओं के वैधानिक बल को बढ़ाया हो , तो मानना ही होगा कि जिस अगस्त-क्रांति का हमें गौरव है , फक्रहै , उससे हम आगे बढ़ने के बजाय सब मिलकर पीछे ही गए। अप्रिय होने पर भी यह अत्यंत विचारणीय बात है। और , यह तो मानना ही होगा कि बाबुओं की वैधानिक शक्ति इससे इतनी बढ़ी कि साम्राज्यशाही ने घुटने टेक उनके लिए गद्दी खाली कर दी। उन्हीं बाबुओं की संस्था-पार्टी-कांग्रेस के विरोध में खड़े होने की आज हिम्मत किसे है ? क्रांतिकारी शक्तियों को ये बाबू आज फूटी आँखों भी देख नहीं सकते। ये शक्तियाँ बिखरी हुई हैं , जिससे इन बाबुओं के दमन-दबाव का जमकर सामना करने में असमर्थ हैं। चीन , हिंद-चीन , हिंद-एशिया , मलाया और बर्मा में तो अगस्त-क्रांति जैसी कोई चीज हुई नहीं और सर्वत्र क्रांतिकारी जनशक्तियाँ इन बाबुओं एवं उनकी सरकारों के छक्के छुड़ा रही हैं। चीन तो शायद शीघ्र ही इन बाबुओं के शिकंजे से बाहर चला जाएगा। बाकियों में भी कुछ ऐसा ही होनेवाला है। हाँ , इसमें कुछ देर हो सकती है। बर्मा आदि देशों में बाबू-दल विप्लवी शक्तियों को मिलाने के लिए काफी आगे बढ़ा भी है─ इतना आगे , जिसकी कल्पना भी भारत की ' राष्ट्रीय ' सरकार कर नहीं सकती। बर्मा को तो बिना उस क्रांति के ही पूर्ण स्वतंत्रता मिल चुकी है , जबकि अगस्त-क्रांति का क्रीड़ा-स्थल हमारा भारत अभी तक ब्रिटेन का उपनिवेश ही है। इसी प्रकार की बहुतेरी बातें हमें सोचने को बाध्य करती हैं कि अगस्त का तूफानी आंदोलन गलत कदम था या सही।