अगिनदेहा, खण्ड-4 / रंजन

Gadya Kosh से
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रात आधी से ज़्यादा गुज़र गई. श्रीवास्तव कब का सो चुका था और अपने बंगले में पहुंच कर सक्सेना बाथ-टब में लेट चुका था। उसकी यह आदत थी कि श्रीवास्तव के ड्रिंक सेशन से लौट कर पहले वह ब्रश करता और बाथ-टब का पानी भरने के लिए खोल देता। इस बीच फ्रि़ज से आईस टेª निकाल कर, शीशे के एक ग्लास को, बर्फ़ के टुकड़ों से पूरा भर देता, फिर उसे व्हिस्की से लबालब कर, बाथ-टब के किनारे रख आता। बाथ-टब में यूडीकोलीन की पूरी शीशी ख़ाली कर, सक्सेना उसमें लेट जाता और रिलैक्स करते हुए ऑन-रॉक्स व्हिस्की चुसकता रहता।

आज भी उसने यही किया लेकिन रिलैक्स न कर सका। उसकी चेतना में बेबी के वाक्य अभी तक गूंज रहे थे 'दि बायोलाजिकल डिमाण्ड इज़ नॉट कन्सर्न्ड ओनली टू दि मेल जेण्डर।' बेबी की बातों से ज़्यादा, उसके तेवर सक्सेना को परेशान कर रहे थे।

बाथ-टब में लेटा सक्सेना, व्हिस्की चुसकते हुए बेबी की सोच में डूबा था।

बेबी के प्रति उसका नज़रिया बदलने लगा। कल तक वह उसकी बेटी थी जिसे अपनी गोद में बैठा, प्यार कर वह ख़ुद ख़ुश होता था। बेबी की एक-एक मुस्कान पर वह मुस्कुराता। उसकी उदासी पर उदास हो जाता। लेकिन आज उसकी सोच बदल गई, नज़रिया बदल गया। बेबी उसकी बेटी नहीं, ताज़ी-ताज़ी जवान हुई-बेहद खूबसूरत लड़की लगने लगी। उसकी मदमाती आँखों, गुलाब की पंखुरी की तरह भींगे-लरज़ते

अधर, गुलाबी-गुदाज़ गाल और उन्नत नशीले अंगों का नशा उसमें भरने लगा।

उसे ख़ुद पर ताज्ज़ुब हुआ, उसने पहले नोटिस क्यों नहीं लिया था। बेबी का रूठना, मुँह फुला कर बैठ जाना, फिर सक्सेना के पुचकारते ही मचल कर गोद में बैठ जाना।

गधा था वह! समझ न पाया कभी और उसे बच्ची ही समझता रहा। ईडियट! ख़ुद पर खफ़ा हो गया सक्सेना।

टब से निकल कर उसने तौलिये से ख़ुद को ढँका। एक नया ड्रिंक बनाकर बाथरूम से एटैच्ड ड्रेसिंग मिरर के सामने खड़ा हो गया। तौलिए में ढँके शरीर को उसने बड़ी बारीकी से निहारा। मुस्कुराया। रेशमी गाऊन चढ़ा कर चुस्की मारी। उसकी नाक में युडिकोलीन की भीनी-भीनी सुगंध भरी थी। शीशे के सामने ही खड़े-खड़े गर्दन के पीछे बॉडी-स्प्रे मार कर ढेर सारे टैल्कम-पाऊडर अपनी छाती के घने सफे़द बालों पर डाला। लेकिन पाऊडर भरे वे सफे़द बाल उसे रास न आये। उसने तेज़ी से पूरी छाती को गाऊन से ढक कर डोरी बांध ली और गिलास में बचा व्हिस्की एक ही बार में गटक गया।

व्हिस्की के संग, बेबी के नशे के कॉकटेल में मदमाता वह अपने बेडरूम में पहुंचा। उसने चेंज़र में म्युजिक लगाना चाहा, लेकिन इरादा बदल गया। नशे की तरंग में तर उसका तन-बदन बिस्तर पर ढह जाना चाहता था लेकिन अंदर की हवस इस क़दर सुलग चुकी थी कि उसके क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद, वॉल यूनिट में रखे वी. सी.डी. प्लेयर की तरफ़़ बढ़ गए. लॉकर से उसने ख़ास सी.डी. बॉक्स निकाला, प्लेयर में डाला और रिमोट पकड़े, टी.वी. के सामने पड़े सोफ़े पर धंस गया।

नींद और नशे की अधिकता से उसकी पलकें भारी होने लगीं। पलकें उठा कर उसने नींद और ख़ुमारी दूर करने की असफल कोशिश की। टी.वी. स्क्रीन पर नज़रें गड़ाये रखने की कोशिश करते हुए उसे पता ही न चला कि कब उसकी गर्दन नींद की बोझ तले दब गईं।

अपने सोफे़ पर बैठा सक्सेना नींद में गाफिल हो गया। एम्सटरडम के बाज़ार से खरीदा वह ख़ास सी.डी. सक्सेना के टेलीविज़न पर चलता रहा।

और...रोज़़ की तरह काजल! अपने चित्राकार पति की बकवास झेलने में फँसी थी। उसका पति उबलते हुए कह रहा था, -'साला आते ही तुम्हें चिपका कर गालों की चुटकी लेता है और तुम समझती हो कि बुड्ढा तुम्हें दुलार करता है?'

-'अब ख़ामख़ा राई का पहाड़ मत बनाओ.'

काजल ने अपने पति से सट कर उसे समझाने की कोशिश की, -'दादा जी की उम्र के हैं सक्सेना साहब और मैं उन्हें अच्छी तरह समझती हूँ। कभी-कभी जब दिन में भी आते हैं तो ललिता मैडम से भी हँसी-मज़ाक कर लेते हैं, फिर भी उन्होंने कभी कुछ ऑब्जेक्शनेबल नहीं किया है।'

काजल की बात पर वह और गरमा गया-'तुम नहीं जानती ऐसे बुड्ढों को...ये साले दुलार-पुचकार के बहाने और कुछ नहीं, केवल अपनी बुझती हवस पूरी करते हैं।'

काजल इस बार झल्ला कर शांत हो गयी। बेवक़ूफ़ी तो उसी की है, उसने सोचा। विस्तार में एक-एक बात अपने पति को बताती है जबकि वह जानती है, दुनिया के सारे पति अपनी पत्नी को लेकर किस क़दर पजेसिव होते हैं। पत्नी उसकी प्राईवेट और पर्सनल प्रॉपर्टी जो होती है।

सक्सेना इस वक़्त मेल-पार्लर में बैठा फ़ेसियल करा रहा था। अपनी आँखों के नीचे लटके जिस मांस के लोथड़े को उसने आज तक नज़र-अंदाज़़ किया था, अब वही आज इसकी परेशानी का अचानक बास बन गया। नतीजतन वह अपनी ज़िन्दगी में पहली बार किसी मेल-पार्लर में बैठा बड़ी शिद्दत से फेसियल कराने में मश़गूल था और श्रीवास्तव अपने मॉनीटर पर किसी के बंगले की डिज़ाईन में व्यस्त था।

काजल के विंग में जब पिछली रात, बेबी ने उस युवक को देखा था, तभी से उसके अंतस में नयी कोपलें उग आई थीं। उसकी परिकल्पनाओं में उभरते

आधे-अधूरे चेहरे, अचानक साकार हो गये। यही तो है वह, जिसकी प्रतीक्षा थी। फिर उसने देखा, उस युवक के साथ एक गरिमामयी महिला और एक विवाहित युवती भी थी।

उसकी उमंगों पर आघात हुआ। कौन है वह युवती? अकुलाहट इस क़दर बढ़ने लगी कि रोक न पाई वह ख़ुद को और झपटती हुई जा पहुंची काजल के कमरे में।

-'आओ बेबी.' उसे देखते ही काजल उठ गई थीं। 'आओ बैठो,' फिर उसने पास बैठी महिला से बेबी का परिचय कराया। बेबी तब अभिभूत हो गई जब महिला ने उठ कर पहले बेबी को अपनी बांहों में भर लिया फिर पास बैठा कर उसे स्नेहसिक्त आशीष देने लगी थीं। कमरे में उस गरिमामयी स्त्राी के अतिरिक्त उनकी विवाहित पुत्राी सुरेखा और काजल दी भी थीं।

-'चाय लोगी बेबी?' काजल ने उठते हुए पूछा। तब तक वह जान चुकी थी, जिसे उसने देखा था वह सुरेखा का बड़ा भाई है और यह ममतामयी स्त्राी इनकी माँ हैं। युवक का नाम भी वह जान गई थी-'रज्ज़ू।' माँ ने बताया था, बाहर का नाम तो राजकुमार है और घर का राजू लेकिन हम सभी उसे रज्ज़ू पुकराते हैं।

उसे कुंवारा जानकर उसका चेहरा खिल उठा था। माँ के पास ही पलंग के गद्दे पर, पालथी मार कर बैठते हुए बेबी ने चहक कर काजल से कहा, 'ज़रूर, लेकिन लीफ़ वाली चाय बनाईयेगा काजल दी।'

काजल चौंकी थी। ये क्या हो गया इसे? पैरों को मोड़, पालथी लगा कर तो बेबी बैठती न थी! आज तो गद्दे पर चढ़ माँ से सटकर इस तरह मुदित होे बैठी है जैसे इनकी ही कोख-जाया बेटी हो और मुद्दतों बाद मिली हो। लेकिन उसे अच्छा लगा था। हमेशा बुझी-बुझी, उदास काजल की ख़ुशी देख कर उसका मन भी ख़ुश हुआ। चाहे क्षण भर के लिए ही हो, बेबी की ख़ुशी काजल के लिये अमूल्य थी। खौलते पानी में चाय की लीफ़ डालते हुए, अजपा की तरह उसके अंतस में प्रार्थना के स्वर उठे-' काश! इसकी मुस्कुराहट, इसकी ख़ुशी, इसका आनंद यूं ही बना रहे। इसका चेहरा इसी तरह हमेशा, हमेशा खिला रहे।

रज्ज़ू तो अपने मित्रा भारती के साथ उसके स्टूडियो में बैठा था और बेबी, सुरेखा की सहेली, माँ की दुलारी बेटी बनी गप्पें मारने में व्यस्त हो चुकी थी।

अपने बेडरूम में ईज़ी-चेयर पर बैठी बेबी की आँखों में, रज्ज़ू, सुरेखा और माँ की एक-एक तस्वीर आ रही थी, जा रही थी। 'उंह...बड़ा शर्मीला बनता है,' अचानक उसके होंठ बुदबुदाये, 'दो दिनों में एक बार भी उसने नज़रें उठा कर मुझे न देखा।' फिर अचानक उसके अधर फैले और उसकी आँखों मुस्कुरायीं। उसने अपनी दोनों पलकें बंद कर लीं। सीढ़ियाँ उतरते हुए रज्ज़ू का थम जाना, उसके हाथों का उठना और बेबी को मुस्कुराते हुए विश करना और न जाने क्या-क्या सोचने-देखने लगी वह।

वह चाहती थी यह दृश्य थम जाये। थम जाये हमेशा के लिए. वह दौड़ कर टैरेस पर चली गई थी। उसने देखा था, रिक्शे में बैठा रज्ज़ू, पलट कर बालकनी की तरफ़ देख रहा था। किस क़दर कसमसाई थी वह! ऊपर तो नज़र डाल, मैं यहाँ हूँ, इस तरफ़। लेकिन वह तो निगाह उठा ही न रहा था और रिक्शा था कि भागता जा रहा था। वह चीख़ कर बताना चाहती थी लेकिन स्वर अटक गए और रिक्शा आगे मुड़ कर ओझल हो गया था।

सारे दिन वह बेचैन रही। रात सो न सकी। आँखों-आँखों में सारी रात कटती रही और गुज़रे वक़्त की तस्वीर उसकी जागी आँखों में सपना बन तैरती रही। कई दिनों तक काजल दी ने उससे हँस-हँस कर पूछा था। लेकिन वह इठलाती रही, भावनाओं को छिपाती रही। उसे पता था वह फिर आएगा। उसे दुबारा आकर सुरेखा की दवाई लिखानी है। वह प्रतीक्षा करेगी उसका।

अगली शाम वह काजल दी और रामरतन के साथ टैरेस गार्डेन में थी। सक्सेना के साथ श्रीवास्तव ने आते ही बेबी को देखा था और दोनों उसे देख कर प्रसन्नता से चौंके. बेबी तो लम्बे समय से टैरेस पर आती नहीं थी।

-'वेलकम बेबी! तुम्हें आज यहाँ देख कर बहुत अच्छा लग रहा है' सक्सेना ने बेबी को देखते ही प्रसन्नता से कहा था और फिर उसने श्रीवास्तव के कंधों पर हाथ रख कर काजल से कहा, 'आज जो चाहो अपने बॉस को खिलाओ...और मिस्टर इंजीनियर! देयर इज नो रिस्ट्रीक्संस टूडे फॉर यू. आज हम और बेबी जश्न मनायेंगे...कम-ऑन डार्लिंग।' सक्सेना बेबी की ओर मुख़ातिब होकर चहका तो बेबी मुस्कुराती हुई सक्सेना के पास आ गई. सक्सेना ने उसे पहले अपने अंक में समेटा, प्यार किया फिर अपने साथ लेकर आगे बढ़ गया। सक्सेना अंदर तक ख़ुश हो गया। बेबी को अपने अंक में समेटते वक़्त उसके दिल में तूफ़ान मचलने लगे। पहले कभी ऐसी अनुभूति नहीं हुई थी उसे। पहले तो वह बेटी थी उसकी!

लेकिन सक्सेना के अंदर बदल चुकी भावना का ख़्याल वह करती भी कैसे। ...उसके ख़्यालों में तो रज्ज़ू के ख़्याल छाए थे। बेबी तो सक्सेना के साथ डिनर टेबल पर चली गई और श्रीवास्तव वहीं काजल के पास रूक गया।

-'वेरी सरप्राइजिंग! आज बेबी का मूड कैसे सुधर गया?' श्रीवास्तव ने काजल से पूछा तो वह हँस पड़ी। श्रीवास्तव ने फिर पूछा-

-'यू हैव डन इट?'

-'नो सर! मैंने कुछ नहीं किया है। बेबी ख़ुद आई है और आज उसने आर्डर देकर चिकन रोस्ट भी बनवाया है।'

-'वेरी गुड! दैन वी विल आलसो टेक दैट, नो गरेबी एण्ड नन ऑफ़ स्पाईसी रेसेपी.' श्रीवास्तव भी मूड में आ गया था।

-'बट सर! आपके लिए तो...'

काजल को बगै़र मौक़ा दिये श्रीवास्तव चहका, ' नो मोर आरग्यूमेंट। आज हम सब रोस्ट चिकेन ही खायेंगे। एरेंज इट फ़ास्ट!

-'येस सर!' काजल ने पूरी तत्परता से कहा। श्रीवास्तव दो कदम बढ़ कर रुका, पलटा और काजल से फिर कहा, 'ऐण्ड रिमेम्बर! नो मोर सैड सोंग्स टुडे। आज बेबी की पसंद का म्यूज़िक प्ले करना।'

श्रीवास्तव की बात सुनकर काजल ने मुस्कुराते हुए सहमति में आदेश स्वीकार किया और श्रीवास्तव मैक्सिकन ग्रास पर बने स्टेप्स पर पैर रखते बढ़ गया।

रसोईया रामरतन भी आज प्रसन्न था। बेबी का आना उसे जितना अच्छा लगा था, उससे भी अच्छा उसे अपने मालिक को इस क़दर ख़ुश देखकर लगा।

टेबुल पर चिकन सूप का बॉल, व्हिस्की की बोतलें, शीशे के चमचमाते ग्लास, बफर्स, सोडा-मेकर और आईस क्यूब्स से भरा फ़्लास्क सजा दिया गया था।

सक्सेना ने दोनों ग्लासों में पटियाला पैग बनाकर सोडा का पंच मारा। अपने लिए पटियाला पैग देखकर भी श्रीवास्तव ने कोई एतराज न किया तो बेबी ने पूछा, 'पापा। आप अब ज़्यादा लेने लगे हैं।'

-'अरे नहीं बेटा, यह तुम्हारे अंकल की बदमाशी है। उसने अपने साथ मेरा भी, पटियाला ड्रिंक बना दिया है।'

-'लेकिन आप तो पापा, हमेशा इसको इश्यू बनाकर अंकल से लड़ते थे।'

बेबी की बात पर सक्सेना मुस्कुराया और श्रीवास्तव खुल कर हँस पड़ा फिर कहा, 'आज मैं बेहद ख़ुश हूँ बेटा। सक्सेना अगर रेगुलर ड्रिंक भी बनाता तो मैं इसे पटियाला कर देता।'

-'क्यों पापा?'

-'क्योंकि आज मेरी बेटी ख़ुश है और हमारे पास है।'

अचानक स्पीकर से पॉप संगीत शुरू हो गया तो बेबी चौंकी।

-'क्या हुआ?' श्रीवास्तव ने पूछा।

-'पापा मैं वही गीत सुनूंगी जो आप हमेशा सुना करते हैं।' बेबी ने मचल कर कहा। सक्सेना के हाथ रुक गए. उसका जाम होठों तक पहुंचते-पहुंचते रह गया। उसने ग़ौर से बेबी को देखा। श्रीवास्तव की भी उत्सुक निगाहें बेबी के चेहरे पर जम गईं। तीनों मौन हो गये।

-'क्या हुआ सर? लगता है यह म्यूज़िक टैªक पसंद न आया।' काजल ने आते ही पूछा।

-'काजल दी' बेबी ने कहा, 'पापा का फ़ेवरिट सांग ऑन कर दीजिये, प्लीज़।'

-'ओ. के. माई डियर!' काजल ने कहा और किचनेट पहुँच कर उसने तलत के गीत लगा दिये।

वातावरण में तुरंत परिवर्त्तन हुआ। तलत के स्वर गूंजने लगे,

' प्यार पर बस तो नहीं है

मेरा लेकिन फिर भी...'

बेबी ने आँखों बंद कर लीं और श्रीवास्तव ने अपने दोस्त को मुस्कुरा कर देखना शुरू कर दिया। सक्सेना के दिल ने चाहा, वह अपने सर के बाल नोच ले। किस चक्कर में फंस गई यह? किसी को दिल दे बैठी क्या? मामला क्या है आख़िर?

क़ासिम भाई के दरवाज़े पर पहुंच कर भारती एक बार रुका। अगर इसने आज भी ख़ाली हाथ टरका दिया तो?

पिछले तीन रिप्लीका की डेलीवरी वह कर चुका था और पैसों के लिए पूरे तीस चक्कर काटने के बावज़ूद उसे पैसे नहीं मिले थे। पैसे तो दूर, क़ासिम भाई का बर्ताव भी बदल चुका था। भारती की समझ में नहीं आया-मामला क्या है? इस बार बहुत सोच-विचार कर उसने फ़ैसला कर लिया था, रिप्लीका बनाने से ही वह अब तौबा कर लेगा। वैसे भी अपने देश में अब पेंटिंग बनाने वाले आर्टिस्ट और साईन-बोर्ड बनाने वाले पेंटर में क्या फ़र्क रह गया है। बल्कि एक साईन-बोर्ड पेंटर बेहतर है उससे। उसे अपने काम के बदले हाथ तो नहीं फैलाने पड़ते हैं?

क़ासिम भाई से आज तीनों रिप्लीका वापस मांग कर, हमेशा के लिए उसे सलाम कर लेगा।

सोचते ही उसके जबड़े कड़े हो गए और वह दरवाज़ा ठेल कर अंदर आ गया।

-'ख़ुशआमदीद भारती भाई! ...क़सम से कह रहा हूँ, अभी अगर ख़ुदा से और भी कुछ मांग लेता तो मुझे मिल जाता।'

भारती को देखते ही क़ासिम मियां अपनी कुर्सी छोड़ कर खड़ा हो गया। पचास वर्षीय क़ासिम पेंटिंग का डीलर था। पिछले बीस वर्षों से वह इसी धंधे में था। कलाकारों से मुग़ल-आर्ट का मिनीयेचर्स बनवा कर बेचना उसका मुख्य कारोबार था। भारती ने जब अपनी पेंटिंग्स उसे दिखाई थी तब उसने कोई रुचि न ली थी, फिर भी भारती के दो-चार लैण्डस्केप अपने ऑफ़िस में रख कर उसने मानो अहसान ही जताया था। महीनों भारती ने इंतज़ार किया लेकिन उसका एक भी लैण्डस्केप नहीं बिका। थक-हार कर उसने कैलेण्डरों के लिए काम शुरू कर दिया जो आपको पता ही है, जमा नहीं।

यह क़ासिम भाई ही थे जिन्होंने भारती को यूरोप के ओल्ड मास्टर्स की रिप्लीका बनाने की सलाह दी थी। लेकिन उस वक़्त तो भारती को यह काम मंजूर ही न था।

यह तो दूसरे की कला की अनुकृति थी, उसका ख़ुद का क्या था? और भारती ठहरा संवेदनशील कलाकार। उसने मना कर दिया था। फिर इस ज़िक्र का क्या फ़ायदा कि उसने बाद में 'रिप्लीका' बनाना क्यों मंज़ूर किया।

अभी का मामला तो यह था कि भारती के आने से क़ासिम मियां की रग-रग फड़क उठी। आज ही उसकी बात मशहूर फ्रें़च डीलर से तय हुई थी। उसे विंची की दोनों रिप्लीका पसंद आयी थी और उसने पांच सौ यूरो की दर से सौदा पक्का कर लिया था। भारती को वह तीन हज़ार रुपये की दर से भुगतान करता था, वह भी हज़ार, पांच सौ की क़िस्तों में। ऊपर से दुनिया भर का रोना रोते हुए जो जुमला हमेशा पेश करता वह था,

-'आज कल के नौजवानों को आर्ट की तो तमीज़ ही नहीं है। कैनवास और वॉलपेपर में इन्हें फ़र्क़ ही नज़र नहीं आता। अब मैं क्या बताऊँ भारती बिरादर...आपकी दस रिप्लीका अभी तक अनबिकी पड़ी हें और आप हैं कि रोज़़़ बरोज़़़ आ धमकते हैं। आपको पता है, आपके रिप्लीका में मैंने कितने पैसे फंसाये हैं?'

भारती की समझ में एक बात नहीं आती थी कि जब रिप्लीका बिकती नहीं है तो यह बनवाता ही क्यों है? ऊपर से तक़ाज़ा भी करता रहता है और पैसों के लिए जब जाओ तो सर पकड़ कर मातम मनाने बैठ जाता है।

लेकिन आज तो बात ही अलग थी। मामला क्या है? उसे देखते ही जो अपनी शक्ल बिगाड़ लेता था, आज फूल की तरह क्यों खिल गया?

भारती के लिए उसने लड़के को एस्प्रेसो कॉफ़ी लाने के लिए दौड़ाया और उसे सामने बैठा कर अपनी पूरी बत्तीसी खोल दी। क़ासिम भाई के मातमी चेहरे का तो वह अभ्यस्त था लेकिन इस स्थिति ने उसे परेशान कर दिया। ऊपर से जब क़ासिम भाई ने खीसें निपोरते हुए भारती के हाथों में पूरे एक लाख रुपयों का चेक थमा दिया तो उसकी स्थिति और भी असामान्य हो गई.

-'भारती बिरादर! अब क्या कहूँ आपसे...हजार-पांच सौ के लिए आपका रोज़़़-बरोज़़़ आना, ख़ुदा क़सम मुझसे बर्दाश्त न होता था। आप जैसे जह़ीन और पाक-साफ़ इंसान के लिए, यक़ीन मानिये, मैं रोज़़़ अपने ख़ुदा से दुआ मांगता था। या मौला! मेरे बिरादर पर अपनी रहमते-नज़र डाल और देखिए करिश्मा! आपकी पेंटिंग के लिए आख़िर उसने अपना बंदा भेज ही दिया। आज ही फ्ऱांस के डीलर से मैंने सौदा पक्का किया है... लेकिन बिरादर अब सारे मामला आप पर है... किरकिरी न हो जाए यह अब आपको देखना है।'

क़ासिम मियां क्या कह रहे हैं, भारती ने कुछ न सुना। उसके हाथ में पूरे एक लाख रुपये का चेक, क्या हक़ीक़त है? या वह सपने देख रहा है। बड़ी मुश्किल से उसे यक़ीन आया कि वह सपना नहीं हक़ीक़त था और यक़ीन आते ही उसकी आँखों छलछला गईं। उसकी आँखों में अचानक उसका गुज़रा वक़्त फिर से आकर ठहर गया।

दुबला-पतला-कृशकाय, सांवला-सा लड़का। बदन पर ढेरों छेद वाली सैण्डो गंजी, कमर में सूती निकर। कपड़े का एक गंदा झोला और एक छाता लिये, नंगे पैर बड़ी देर से कला विद्यालय के प्रांगण में उपेक्षित-सा खड़ा है। गुज़रने वाली हर उत्सुक निगाह का केन्द्र, वह लड़का वहाँ एडमिशन कराना चाहता है और लोग हैं कि उसका मज़ाक उड़ा रहे हैं।

भारती वही लड़का है और उसके हाथों में उसके नाम का पूरे एक लाख रुपये का चेक पड़ा है और वह रो रहा है।

-'अरे! यह क्या बिरादर? अमां क्या कर रहे हैं आप! ख़ुदा की फज़ल से इतना शानदार आर्डर आया है और आप हैं कि...' क़ासिम मियां उठ कर उसके पास आ गये और अपने शब्दों में मिश्री घोल कर आगे कहने लगे,

-'भारती बिरादर, बहुत बड़ा आर्डर है यह। पूरे दो सौ पेंटिंग सप्लाई करनी है। अब तो बस लग जाओ आप काम पर और भूल जाओ सारी दुनिया को।'

भारती ने रूमाल निकाल कर अपनी आँखों पोछीं, फिर कहा-'दो सौ?'

-'हां बिरादर, दो सौ...अभी हुआ क्या है? बस अब आप देखते जाओ. कहाँ से कहाँ पहुँचा देता हूँ आपको। आपकी पेंटिंग फ्ऱांस से गुज़रती हुई पूरी दुनिया में फैल जाएगी। नाम होगा, पैसा होगा। सारी दुनिया आपको जान जाएगी।'

-'मुझे कौन जानेगा। मेरा तो नाम भी नहीं रहता मेरी पेंटिंग पर। यह तो रिप्लीका है, रिप्रोडक्शन...बस।'

क़ासिम भाई के मुँह में कुनैन पड़ गया जैसे। उन्होंने मुँह बिचकाया -'अमां बड़े अहमक़ हो यार! इतने पैसे एक साथ तुम्हारे हाथ में पड़े हैं और तुम हो कि बस।'

भारती शुिक्रया अदा कर उठ गया तो क़ासिम की चेतावनी उसके कानों में पड़ी-'हाथों में बरकत पैदा करना बरख़ुरदार। ऐसा न हो कि पूरे महीने में केवल एक पेंटिंग देकर मुझे टरका दो।'

सहमति में सर हिला कर वह चला आया। बैंक जाकर उसने अपने खाते में चेक जमा किया और अपने ठिकाने की तरफ़़ चल पड़ा। क़ासिम भाई के पास पहुंचने से लेकर अब तक न जाने कितने हर्ष और विषादों से वह गुज़रा था लेकिन इस वक़्त उसके पैरों में पंख लग गये थे और वह उड़ कर काजल के पास पहुंच जाना चाहता था।

लाख रुपये की एकमुश्त कमाई! अपने खाते में एक साथ एक लाख रूपये जमा करेगा, यह ख्वाब तो उसने कभी नहीं देखा था।

उसकी निगाह ऊपर आसमान पर उठी और उसकी आँखों फिर से भर आईं। तुम्हारी महिमा अपरम्पार है प्रभू। उसके दोनों हाथ स्वयं ही उठ कर आपस में जुड़ गए.

स्टूडियो का पर्दा हटाते हुए भारती के पांव ठिठक गए.

काजल की जिन पेंटिंग्स को उसने काफ़ी सम्हाल कर छिपाया था, वे सारी पेंटिंग्स इस वक़्त उसके स्टूडियो में फैली थीं और बेबी उसकी कुर्सी पर शांत बैठी उन्हें निहार रही थी।

भारती को, काटो तो ख़ून नहीं। बुरी तरह चौंका वह, फिर शर्म से उसका चेहरा लाल हो गया। उसने सोचा खांस कर अपनी उपस्थिति की सूचना दे दे, लेकिन नहीं। फिर क्या करे वह, लौट जाए चुपचाप?

क्या सोचती होगी बेबी उसके विषय में? क्षण भर के अंतराल में ही न जाने कितनी बातें उसने सोच लीं और अंततः उसने कहना चाहा, 'बेबी यह क्या हरकत है तुम्हारी?' लेकिन शब्द कहीं अटक गये, खो गये। होठं तो हिले, परन्तु शब्द नहीं निकले।

तभी बेबी कुर्सी छोड़ कर खड़ी हो गई. उसकी पीठ अभी भी भारती की तरफ़ थी। सामने काजल का न्यूड पोर्टेªट।

अंगड़ाई लेती, पूर्ण निर्वसना काजल!

बेबी ने उसी की अनुकृति की। उसने अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा कर उसी मुद्रा में फैलाया। बाईं टांग पर शरीर का भार देकर दायीं टांग को विश्राम दिया और बिलकुल उसी मुद्रा में खड़ी हो कर काजल की पेंटिंग को निहारा।

भारती को उसकी आँखों दिखाई नहीं दे रही थीं। क्या होगा इन आँखों में? यौवन का उन्माद... या यौवन का अवसाद? भारती अब रुक न पाया। हौले से उसने पर्दे़ से अपने हाथ हटाए और निःशब्द लौट गया।

बेबी का पता नहीं लेकिन उसकी अपनी सांसें तेज हो गईं। बेबी का यौवन, उसकी मादकता, उसे मुदित करने लगी। उससे ग़लती हो गई थी, उसे मुस्कुराते हुए अपने स्टूडियो में जाना था। हौले से छिटकिनी बंद करनी थी और बेबी को अपनी बाहों में भर लेना था।

छिः ऽ-ऽ ऽ...उसे ख़ुद पर घिन आई. क्या हो गया है उसे। यह तो उसकी चारित्रिक हीनता है। इतना गंदा तो कभी नहीं था वह। उसे तो अपने चरित्रा पर बड़ा नाज़ था। आर्ट-कॉलेज में कितनी तितलियां थीं, उसने तो कभी नज़र भर कर किसी को देखा तक नहीं। फिर आज...?

उसे हँसी आ गई, उसका अन्तर्मन भी हँस पड़ा। लेकिन वह हँस कहाँ रहा था? यह तो उसके अंतर का विद्रूप व्यंग था जिसने उसे फटकारा, ' यह मत कह कि तुमने किसी की तरफ़़ कभी आँखों न उठाईं। उठा कर हासिल क्या होता तुम्हें? ख़ामख़ा का तमाशा खड़ा हो जाता। है क्या तुममें-न पिद्दी, न पिद्दी का शोरबा। चल वापस पहुंच अपने स्टूडियो। तवा गर्म है...चूक मत बेवक़ू़फ और उसे लगा सचमुच एक नम्बर का ईडियट है वह, फिर क्या था... तेज़ क़दमों से वह लौटा। सीढ़ियां फलांगता ऊपर पहुंचा लेकिन फिर भी उसे देर हो गई. हवा के तेज झोंके की तरह आ रही बेबी ने भारती को देखा, रुकी, उसे भरपूर तिरस्कृत नज़रों से घूरा। भारती ने स्पष्ट देखा, उसकी बड़ी-बड़ी आँखों ने मानो उसका मूल्यांकन किया।

उसकी आँखों वही कह रही थीं जो कुछ देर पूर्व उसने ख़ुद को कहा था-न पिद्दी, न पिद्दी का शोरबा। बेबी की आँखों ने उसे उपेक्षित किया और घृणा से मुँह बिचका कर उसने नज़रें फेर लीं। भारती तो खड़ा ही रहा और वह सीढ़ियां उतर गई.

स्टूडियो में पहुंचते ही भारती के अंदर फिर से विस्फोट हुआ। पेंटिंग के यौवन-कलशों पर विक्षिप्त आघात हुए थे। उसकी पेंटिंग्स नष्ट हो चुकी थी।

भारती अपनी उसी कुर्सी पर ढह गया, जिसपर उस वक़्त बेबी बैठी थी। उसकी आँखों बंद हो गईं। उसकी सांसें बेहद तेज़ थीं।

पता नहीं कितना वक़्त गुज़र चुका था उसे यूं ही आँखों बंद कर बैठे कि तभी काजल की आवाज़ आई, 'कब आए तुम?'

उसकी आँखों खुल गईं। उसे लगा मानो बेहद लम्बी दौड़ लगा कर अभी-अभी रुका हो। उसे मौन देख काजल पास आ गई. काजल की उंगलियां उसके बालों में फिरने लगीं, -'तबीयत ठीक नहीं है शायद! चाय पियोगे? बना दूं?'

-'नहीं ठीक हूँ मैं, आओ पास बैठो।' पास पड़े मोढ़े को खींच कर वह भारती के सम्मुख बैठ गई तो उसने विस्तार से सारी कहानी सुनाई.

काजल की आँखों में चिन्ता उतर आई थी। 'काजल दी... में आई लव यू?' उसकी चेतना में उलझी गुत्थियां और भी उलझ कर रह गयीं।

रज्ज़ू अपने बचपन से ही संकोची था। विशेष कर लड़कियों के समक्ष तो वह और भी गूंगा हो जाता। उनसे, नज़र उठा कर बात करने की हिम्मत न थी उसमें और भी न जाने कितनी ग्रंथियों, हीन भावनाओं के साथ पल कर वह बड़ा हुआ था। प्रेम-प्यार और विपरीत सेक्स उसे आकर्षित तो करते थे, लेकिन ये बातें सिर्फ़ उसकी अपनी कल्पना संसार तक सिमटी थीं।

पहली झलक में बेबी ने उसके दिल-दिमाग़ में हजारों रंग बिखेरे। उसके उच्च वर्गीय जीवन और अंगड़ाई लेते यौवन ने रज्ज़ू को शक्तिशाली चुम्बक की तरह खींचा और उसके पूरे वज़ूद में उसकी ख़ुशब़ू भर गई. अब हो गई मुश्किल। अपनी भावनाओं को छुपाने में उसे अपनी सम्पूर्ण उर्जा लगानी पड़ी।

आज ही सुबह वह भारती के पास अपनी माँ और छोटी बहन के साथ आया था। बहन बीमार थी। आर्ट स्कूल में दोनों साथ थे और भारती की ज़िद ने रज्ज़ू को अपनी माँ और बहन के साथ, वहाँ रह कर डाक्टरी जांच कराने को मज़बूर कर दिया था।

सुबह से ही बेबी ने भारती के कमरे में अपनी बैठकी जमा ली थी और देखते-देखते रज्ज़ू की माँ और बहन से इस क़दर घुल गई, मानो वर्षों की परिचित हो। बेबी के चुम्बकीय यौवन का रोब, देखते ही रज्ज़ू पर छा चुका था।

फ्ऱेश होकर वह भारती के साथ डाक्टर का नम्बर लगाने 'जानकी कुटीर' से बाहर निकला तो उसकी चेतना में बेबी छाई थी-उसके सौंदर्य का ताव छाया था।

डाक्टर के पास जा कर नम्बर लगाने और लौट कर वापस आने के दरम्यान, भारती ने जितनी बातें कीं उसके केन्द्र में सिर्फ़ और सिर्फ़ बेबी थी। उसकी बातों से रज्ज़ू की उलझनें बढ़ गईं। कभी लगता भारती उसे पगली क़रार दे रहा है, कभी लगता उसे ज़हरीली बताना चाहता है और कभी मनोरोगी। उसकी समझ में कोई बात नहीं आई, केवल इसके कि उससे दूर रहने की सलाह दी जा रही है।

रज्ज़ू ने हजार बातें खोद-खोद कर पूछी लेकिन भारती ने जवाब न देकर सिर्फ़ चेतावनी दी, उससे बच कर रहने की चेतावनी।

उलझनें और भी बढ़ गईं। एक ओर प्रबल आकर्षण-दूसरी ओर मित्रा की चेतावनी। रज्ज़ू की उत्सुकता और भी बढ़ गई. वह बेबी को जानने-समझने के लिए उत्सुक हो गया।

अगले दो दिनों तक डॉक्टर, पैथोलॉजी, एक्स-रे और प्रेसक्रिप्शन के मध्य वह व्यस्त और परेशान रहा। भारती चूंकि साये की तरह साथ रहता, वह चाह कर भी बेबी के करीब न हो पाया, जबकि उसका दिल बेबी के लिए बुरी तरह

धड़कता रहता।

रात के ग्यारह बज गये थे। सुबह की ट्रेन से रज्ज़ू को अपने घर वापस जाना था और अभी तक वह भारती के साथ उसके स्टूडियो में जमा था। उसकी मां, बहन और बेबी, भारती के बेड रूम में गप्पें मार रही थीं। काजल टैरेस गार्डेन में व्यस्त थीं। तलत महमूद के स्वर यहाँ तक आ रहे थे।

भारती ने स्टूडियो में ही दरी बिछा दी थी। रज्ज़ू के साथ गप्पें मारता वह दोनों रात वहीं सोया। सोया क्या...गप्पें मारते रात गुजारी।

सारे दिन की भाग दौड़ ने रज्ज़ू को बेहद थका दिया था। वह सोना चाहता था लेकिन भारती की बातें ख़त्म ही नहीं हो रही थीं। आर्ट-कॉलेज के दिनों की बातें, दोस्तों की बातें। दरअसल, रज्ज़ू और कोले दा के साथ पेंटिंग के क्लास में भारती की तिकड़ी थी। ये तीनों हमेशा साथ रहते। रज्ज़ू तो फ़ोटोग्राफ़र बन गया और कोले दा फ्ऱी लांस आर्टिस्ट हो गए. उम्र में कोले दा सीनियर थे इसीलिए रज्ज़ू और भारती उन्हें इज़्ज़त देते थे।

बहरहाल भारती की बातों का सिलसिला कोले दा पर आ गया और उसने रज्ज़ू से पूछा-'अपने कोले दा कैसे हैं...?' रज्ज़ू मुस्कुराया। वह कहता कि भारती ने फिर बात बढ़ाई-'जानते हो? कोले दा अभी पिछले हफ़्ते ही आए थे। चालू आदमी हो गए हैं आजकल।'

रज्ज़ू चौंका-'कहानी क्या है' ?

भारती हँसा। हँसते हुए ही उसने कहना शुरू किया, -'पता है न? ...क़ासिम भाई के कहने पर जब विंची के कैटलग से रिप्लीका बना कर मैंने दिया था तो कितना उछले थे...कोले दा...याद है न तुमको? क्या-क्या कहा था' ?

रज्ज़ू हँसा, तो भारती ने अपनी बात पूरी की, -'और सुनो अब मामला। यहाँ आने के बाद, मुझसे बगै़र बताए पहुंच गए क़ासिम भाई के पास और मेरा ही पत्ता काटने लगे'।

-'क्या कहते हो भारती!' रज्ज़ू ने कहा, -'कोले दा और रिप्लीका! अच्छा...क्या हुआ फिर?'

-'होना क्या था, क़ासिम भाई ने टरका दिया।'

-'तो क्या समझते हो एक बार टरक़ा देने से टरक़ जायेंगे वे?' कह कर रज्ज़ू हँसने लगा।

-'लगता है लाख रूपये एडवांस वाली बात वे जान गये हैं।'

भारती की बात पर रज्ज़ू ने पूछा-'क्यों? क़ासिम भाई से मुलाकात नहीं हुई तुम्हारी...उसी से पूछते...क्या बात हुई दोनों में'।

-'वह तो पता चल ही जाएगा।'

-'अब छोड़ो कोले दा का गप्प...मुझे तो नींद आ रही है। सो जाओ, सुबह बातें होंगी।' रज्ज़ू ने उबासी लेते हुए कहा।

-'ठीक है गुड नाईट। अब कोई गप्प नहीं।' कहते हुए भारती ने करवट बदल ली।

रज्ज़ू ने भी आँखों बंद कर लीं लेकिन कोले दा के ख़्याल ने परेशान करना शुरू कर दिया। कैसे आदमी हैं...कोले दा! बड़ी मुश्किल से तो भारती का सिलसिला बैठा है और जनाब पहुंच गए, इसकी थाली में मुँह मारने।

रज्ज़ू के स्टूडियो में रोज़़ शाम की बैठकी थी उनकी। रज्ज़ू को इस बात का आश्चर्य था कि उन्होंने कभी ज़िक्र तक न किया और आ पहुंचे यहां। कोले दा के प्रति उसका मन खट्टा हो गया।

-'सो गए क्या?' भारती ने पूछा।

-'अब क्या है?'

-'बेबी से कुछ बातचीत हुई क्या?'

-'बेबी से? ...कब? ...सारे समय तो तुम्हारे साथ था। उससे तो परिचय तक नहीं हुआ'।

-'अच्छा ही है, परिचय करने की ज़रूरत भी नहीं है'।

-'तुम क्यों हाथ धोकर पड़ गए हो उसके पीछे... असल मामला है क्या...साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते?'

-'क्या कहूँ तुमसे...मेंटल केस है वह! सुबह शाम टैरेस पर खड़ी होकर राह चलते लड़कों को घूरती रहती है।' जानकी कुटीर'में तो कोई है नहीं, जिससे लिपटे...छत पर खड़ी-खड़ी शौक़़ पूरा करती है। इसीलिए तुमको समझाया था, उससे दूर रहना।'

-'दो दिनों के लिए ही तो आया हूँ। न जान न पहचान...फिर तुम परेशान क्यों हो रहे रहो? और अब सोने दे यार...गुड नाईट...चलो सो जाओ अब'। कह कर रज्ज़ू ने करवट बदल ली।

लेकिन केवल करवट बदलने से क्या नींद आती है? भारती ने ज़रूरत से ज़्यादा कह-कह कर बेबी के प्रति उत्सुकता और भी जगा दी थी।

बगै़र औपचारिक परिचय के भी, आते-जाते उसे देख कर बेबी मुस्कुरा देती थी लेकिन भारती के कारण वह उसे 'हैलो' भी नहीं कह पाता था। उसकी इच्छा होती कि वह लपक कर उसे विश करे और बातें करे। उसके विषय में तो वह जान ही चुकी थी कि वह कौन है, फिर परिचय क्या? उसे भारती पर ग़ुस्सा आने लगा। हो सकता है भारती को वह लिफ्ट नहीं देती हो और यह ख़ामख़ा उसपर ताव खाता हो। कितनी अच्छी लगती है बेबी! सौम्य और सुंदर और यह भारती।

रज्ज़ू ने एक बार धीरे से खांसा। भारती के शरीर पर कोई हरकत नहीं हुई.

-'सो गये क्या?' उसने हौले से कहा।

-'देखो...देखो अब' ; भारती पलटा-'इसबार किसने गप्प शुरू किया? दो-दो बार गुड नाईट कर चुके हम... और तुम हो कि।'

-'अरे आर्टिस्ट चुप हो जा...दोनों बार गुड नाईट के बाद किसने बात शुरू की थी...मैंने या तुमने?'

-'अच्छा बाबा छोड़ो अब...कहना क्या है?'

-'कुछ नहीं।'

-'फिर जगाए क्यों?'

-'तो क्या तुम सोये थे?'

-'हां सोया था।'

-'ढिठाई कर रहे हो भारती...अच्छा चलो सो जाओ अब... गुड नाईट।'

-'फिर तो नहीं टोकोगे?'

-'कहा न...गुड नाईट।'

-'गुड नाईट।'

काजल आ चुकी थी। टैरेस गार्डेन का सेशन समाप्त हो चुका था। रज्ज़ू की मां, बहन और काजल कब की सो चुकी थीं। भारती और रज्ज़ू दर्जनों बार एक दूसरे को गुड नाईट कह कर आँखों बंद कर चुके थे और फिर, कभी इस तरफ़़ से, कभी उस तरफ़़ से कोई बात होती तो सिलसिला फिर शुरू हो जाता और इस सिलसिले में आख़िर दोनों कब सो गये, किसी को पता न चला।

सूरज उगने के पूर्व का उजाला, ब्रह्ममूहुर्त की बेला। दो रिक्शे 'जानकी कुटीर' के सामने रोके गये थे। मां, बहन, भारती और काजल के साथ रज्ज़ू सीढ़ियां उतर रहा था कि उसकी नज़र सामने की विंग से झांकती बेबी की नज़र से जा टकराईं। स्निग्ध मुस्कान, लरज़ते अधर और प्यासी आँखों। बेबी ने हाथ हिलाकर रज्ज़ू को विश किया तभी भारती की आवाज़ ने उसे चौंका दिया, 'क्या हुआ? चलो भाई, रुक क्यों गये?'।

भारती को बेबी की उपस्थिति का कोई भान नहीं था। रज्ज़ू ने फिर सीढ़ियां उतरनी शुरू कर दीं। भारती आगे था, रज्ज़ू पीछे। उसने अचानक हाथ हिला कर बेबी के विश का जवाब दिया और उसके सम्मोहन में जकड़ा, तेज़ी से बाक़ी सीढ़ियां उतर गया।