अगिनदेहा, खण्ड-5 / रंजन

Gadya Kosh से
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अपने शहर लौट आने के बावज़ूद भी बेबी उसके वज़ूद में छायी रही। काश हैलो ही कह पाता वह।

अपने स्टूडियो के काऊंटर पर ख़ामोश बैठा रज्जू, बेबी के ख़्यालों में डूबा था कि कोले दा अपनी खटारा 'जावा' मोटर साईकल पर आ पहुंचे। उन्हें देखते ही रज्ज़ू सामान्य होकर मुस्कुराया।

'क्या हाल है अपने आर्टिस्ट का?' कोले दा ने हँस कर रज्ज़ू से पूछा।

उसकी तो चांदी है। 'मोनालिसा' और 'द लास्ट सपर' पर भिड़ा है आजकल। रज्ज़ू ने बताया।

कोले दा पक्के कलाकार थे। उनकी ऊँगलियां और हथेली इस क़दर मुलायम थीं कि आँखों बंद कर हाथ मिलाओ तो लगे किसी नाज़ुकबदन गुदाज़ लड़की से हाथ मिलाया हो। हाथों की ही तरह उनका दिल और दिमाग़ भी लड़कियों के लिए बेहद मुलायम थे।

उम्र में भारती और रज्ज़ू से दो-तीन वर्ष बड़े होने के कारण वे ख़ुद को सीनियर समझते थे।

कोले दा हँस पड़े-'और करेगा भी क्या? तीन-तीन बार अपनी पेंटिंग्स का वन-मैन एग्ज़ीविशन लगा कर हार गया। अरे उसको कुछ आता है क्या! कैलेण्डर के लिए भी तो कोशिश करबे किया था, क्या हुआ! हो गया न फ़ेल और अब सुनते हैं कोय मियां है, वही बनवा रहा है उससे रिप्लीका'।

उन्होंने फिर हाथ मटकाया और कहने लगे, 'अब रिप्लीका बनाना भी मज़ाक़ है क्या? कैसा काम करता होगा हम नै जानते हैं? खै़र छोड़ो, काजल से मिले थे? ...अरे उसकी बीबी!'।

-'हां, वहीं तो रूके थे। बड़ी अच्छी है बेचारी। भारती से बीस क्या, तीस है समझिये।' रज्ज़ू ने कहा, तो कोले दा फिर मुस्कुराए. उनकी आँखों रहस्यमयी हो गईं और उन्होंने हौले से पूछा,

-'इंजीनियर की बेटी को देखे?'

-'आप बेबी के बारे में कह रहे हैं?'

-'हां भाय, बेबी! गप्प हुआ कि नै तुमरा? गज़ब की चीज़ है वह भी।'

-'आप मिले हैं क्या?' रज्ज़ू ने पूछा, तो कोले दा खुलकर हँस पड़े।

-'खाली मिलबे किए हैं क्या? खैर छोड़ो अब तुमसे क्या बताएं। अरे वह तो हमको छोड़ती ही नहीं है। जब जाते हैं तो हमरे पासे मँडराती रहती है। ई औरी-छौरी के चक्कर में रहें, तो हमको कोई कमी है क्या? हम तो भाय साफ़-साफ़ उसको समझा दिए एक बार कि रांग-नंबर डायल मत करो। कोय फायदा नै है मेरे पास। भारती को भी समझा दिए हैं, हम जब आयें, ई लड़की-फड़की को हमसे दूरे रखा करो।'

रज्ज़ू तिलमिलाया। उसकी भावनायें आहत हो गईं। कोले दा, कल तक जिसके चक्कर में पागलों की तरह दीवाने थे और जाति-धर्म बदल कर भी शादी के लिए उतावले थे, उसे छोड़ कर दूसरी बाला से अचानक प्रेम विवाह कर लिया और अभी अपनी सदाचारिता का बखान कर रहे हैं।

जैसी कि इनकी आदत है, इन्होंने ज़रूर ज़रूरत से ज़्यादा लार टपकायी होगी। ओछी हरकतें की होंगी और बेबी ने इनको लिफ्ट न दिया होगा। इसीलिए ऐसी प्रतिक्रिया है।

-'अब सोचने क्या लगे?'

-'नहीं... सोचेंगे क्या? आप तो कोले दा जानते ही हैं, हम किस चक्कर में गए थे। फ़ुरसत थी कहाँ? दिन भर डाक्टर का चक्कर और रात भर जागरण!'

-'जागरण!'

-'क्या बतायें, भारती सोने देता था? भोरम-भोर गप्प करता रहता और सारे दिन मुझे झपकी आती रहती थी।'

कोले दा, रज्ज़ू की बात पर हो-हो कर हँसने लगे। हँसी रुकी तो धीरे से कहा, 'लेकिन है ज़ोरदार!'।

-'कौन?'

-'अरे वही...इंजीनियर की बेटी और कौन!'

-'बहुत इंटरेस्ट ले रहे हैं आप, बात क्या है?'

-'तुम नै न समझोगे, बहुत नौटंकी है।'

-'नौटंकी क्या है कोले दा? मुझे तो बेचारी बड़ी अच्छी लगी।'

कोले दा ने ग़ौर से रज्ज़ू को देखा। उनके अंतर में क्या पक रहा था, रज्ज़ू समझ न सका। क्षणिक मौन के उपरांत कोले दा फिर से कहने लगे,

-'तुमको पता नहीं है। शाम होते ही इंजीनियर की छत पर रास-लीला शुरू हो जाती है। एक दोस्त है उसका, सक्सेना! एस. पी. से रिटायर हुआ है। न बीबी, न बच्चा। अकेले रहता है और एक नम्बर का इश्कबाज़-अय्याश है वह बुड्््ढा।'

कोले दा के चेहरे पर विचित्रा मुस्कान तैरने लगी। उनकी मुस्कान में कुटिलता थी या ईर्ष्या या दोनों, पता नहीं, परन्तु उनकी आँखों में चमक बढ़ गई. वे कह रहे थे, 'साला, बेबी को गोद में बैठा कर बेटी-बेटी करता है, उसे चूमता है और बेबी ही क्या, वह तो एक टिकट में दो मज़ा लेता है। जानते हो? भारती की बीवी को भी लपेट लेता है बुड्ढा।'

-'आप तो कोले दा बहुत बात जानते हैं। बैठे हैं उनकी महफ़िल में क्या?'

-'क्या बकते हो।'

-'फिर आपको कैसे पता है? इतना डिटेल किसने बताया आपको?'

-'लो...और कौन बताएगा? भारती ख़ुदे कहता है हमको। वह तो ख़ुद कसमसाते रहता है लेकिन मजबूर है बेचारा।'

-'मज़बूर क्यों है, छोड़ दे वह जगह। पैसा तो कमाईये रहा है। मुश्किल क्या है?'

-'मुश्किल है उसकी बीबी. पता नहीं उसको क्या मज़ा आता है उस बुड्ढे में?'

रज्ज़ू को बुरा लगा। कोले दा तो काजल भाभी पर सीधे कीचड़ उछालने लगे। उसने आपत्ति की, 'अब काजल भाभी को मत लपेटिये। वे तो बेहद अच्छी हैं। भारती जैसे पिलपिलिये का नसीब अच्छा था कि उसे काजल भाभी जैसी पत्नी मिल गई. नहीं तो टौव्वाते रहता आज तक।'

-'अच्छा छोड़ो इस बात को। हमको यह बताव, तुम मिले उस बेबी से?'

-'नहीं।'

-'सच कहते हो?'

उक्ता गया रज्ज़ू, 'अब छोड़िए इस बेबी पुराण को, आप बताइये क्या हो रहा है आजकल'।

-'होगा क्या, हमको फुरसत है? सुबह जो बैठते हैं स्टूडियो में तो शाम तक काम करते रहते हैं। आओ न किसी दिन, तुम तो आते ही नहीं हो आजकल। अरे एक बार देखो तो सही, क्या कर रहे हैं हम।'

रज्ज़ू ने कुछ नहीं कहा तो कोले दा ने फिर कहा, 'आंय जी रज्ज़ू, एक बात पूछते हैं तुमसे...हम रिप्लीका नें बना सकते हैं?'

रज्ज़ू चौंका, यह रिप्लीका कहाँ से आ गया। कोले दा तो रिप्लीका के नाम पर ही चिढ़ जाते थे। अब, क्या हम दूसरों की नक़ल उतारने का काम करेंगे? फिर अपना आर्ट क्या रहा? उनसे जब भी भारती की रिप्लीका पर बात हुई थी, उन्होंने यही कहा था। लेकिन राज़ खोला था भारती ने।

पिछले महीने कोले दा, भारती के पास पूरे दस दिन आकर जम गये थे। भारती को तो उन्होंने भनक भी न लगने दी थी कि चक्कर क्या है। वह तो क़ासिम भाई ने ही भारती को बताया था कि कोले दा अपनी रिप्लीका पर बात करने आए थे और ख़ुद को उन्होंने भारती का सीनियर भी बता दिया था।

भारती ने दुखी होकर रज्ज़ू से कहा था, 'कैसे आदमी हैं कोले दा। अरे उनको रिप्लीका ही बनाना था तो हमसे कहते। मेरे ही घर में रहकर, मेरा ही पत्ता साफ़ करने लगे'।

-'हां बोलो न, हम रिप्लीका नै बना सकते हैं? ...क्या कहते हो।' कोले दा ने उत्सुकता से पूछा तो रज्ज़ू की तंद्रा टूटी, -'आप रिप्लीका के चक्कर में कब आ गये? आप तो इसके ख़िलाफ थे कोले दा'।

-'वह तो है लेकिन हम पूछते हैं, हम रिप्लीका बना सकते हैं कि नहीं? आज शाम में आओ...देखना एक रिप्लीका बनाए हैं।'

रज्ज़ू ने कहना चाहा, लगता है आपको लाख रुपये एडवांस वाला मामला मालूम हो चुका है। लेकिन वह चुप ही रहा।

जिस रिप्लीका पर, आर्टिस्ट को वे हजार लानतें भेजते थे; अब ख़ुद उसके लिए हमारे कोले दा रोज़़ सपने देखने लगे। पहले उनका तर्क था कि कोई भी सच्चा आर्टिस्ट, कभी रिप्लीका नहीं बनाएगा। यह तो नक़ल है। कलाकार अपनी मूल रचना करता है और कला का व्यापारी, मूल-कलाकृतियों की रिप्लीका बनवाता है।

अब उनका तर्क बदल गया था। उन्होंने अपने आप को समझा दिया। ये सारे तर्क पुराने जमाने के हैं। जमाना बदल चुका है। कला वह जो बिके. जिसका कोई ख़रीदार न हो, वह कला किस काम की। फिर ओल्ड मास्टर्स की अनुकृति क्या मामूली बात है? और अगर उसके स्तर का कलाकार, विंची की अनुकृति करेगा तो उसमें भी वह नये अंदाज़़ पैदा कर देगा।

विंची के जमाने में पेंटिंग के मैटेरियल ही कितने कम थे। अर्थ कलर्स से कितने शेड्स बनाता वह? अब तो वक़्त ही बदल गया है। विंची की पेंटिंग्स अगर वह बना दे तो ऑरिजनल पर भारी हो जाएगा।

कोले दा के अंदर से बाहर तक की शिराओं में ख़ुशी की लहरें दौड़ गईं। वह मिलेगा, भारती के डीलर से। उसने जब भारती जैसे कच्चे कलाकार को पूरे लाख रुपये का एडवांस चेक दे दिया तो फिर...और आगे सोच न सका वह। ख़्यालों से ही उसका दिल गद्गद् हो गया।

क़ासिम भाई ने जब जाना कि ये भारती जी के सीनियर हैं तो उसने कुर्सी से उठ कर इनका स्वागत किया था। लेकिन कोले दा ने ज्यों ही जेब से सिगरेट की डब्बी निकाली, क़ासिम भाई ने बुरा-सा मुँह बनाया। उसे सिगरेट की बास बर्दाश्त नहीं होती थी। लेकिन कोले दा तो अपने में मस्त थे, उन्होंने क़ासिम के बदले भाव की परवाह किए बगै़र अपनी सिगरेट जलाई, लम्बा कश खींचा और ढेर सारे धुआँ उगल दिया।

क़ासिम भाई की इच्छा हुई कि वह इस आर्टिस्ट को उसकी कुर्सी समेत बाहर फेंक दे। लेकिन उसने ख़ुद को किसी तरह रोका, उठा और कोले दा से कहा, 'मैं फ़ौरन हाज़िर हुआ, तब तक आप इस कमबख़्त को फूंक लीजिये'।

और तेज़ी से बाहर आकर उसने कोले दा को हजार लानतें रसीद कर दीं।

भारती से उन्होंने कुछ नहीं बताया। पूरे दस दिन जमे रहे। बेबी जब भी उनके पास से गुज़रती, इनकी लालसा भरी नज़रें, उसके कपड़ों के पार तक का एक्स-रे करने लगतीं और कोले दा जब तक रुके, रोज़़ क़ासिम भाई से मिलते रहे।

-'क़ासिम साहब! अब हम अपनी तारीफ़ ख़ुद ही करें यह तो होगा नहीं। हम जब आपके पास अपना काम लेकर आएंगे तभी आप जानेंगे, यह रिप्लीका क्या होता है। यह आरती-भारती को कुछ आता है? अरे इसको तो ब्रश पकड़ना भी हमीं सिखाये हैं।' कहते हुए अगले दिन उसने फिर सिगरेट का धुआँ फेंका तो क़ासिम से रहा न गया। नाक पर रूमाल रख कर उसने कहा था,

-'बाक़ी सब तो ठीक है कोले दा, लेकिन एक इल्तिजा है...मुझे इस नामुराद सिगरेट से बड़ी नफ़रत है। मेहरबानी करके, मेरे पास तो कम से कम...'

उसकी बात पूरी होने के पहले ही कोले दा हँस पड़े, फिर कहा 'हो जाएगी, आपकी भी आदत हो जाएगी। वैसे ताज्ज़ुब है आर्टिस्टों की सोहबत में रहते हैं आप और..., खै़र कोई बात नहीं, आपको पहले कहना था। अब आपके ऑफ़िस में यह मेरी आख़िरी सिगरेट है।'

कह कर उसने फिर ज़ोर का कश लिया। पूरे फेफड़े में धुआँ भरा और होठों को गोल करके धुँये के गोल-गोल छल्ले निकालने लगा।

अपनी तमाम क़ाबिलियत ख़र्च कर उन्होंने जो रिप्लीका बनाई थी, वह रज्ज़ू को एक बार दिखाना चाहता था। वह जानता था इस रिप्लीका को देखते ही क़ासिम भाई इनके लिए अपना दस्तरखान बिछा कर ख़ुद को बिछा देगा।

रज्ज़ू तो देख न पाया लेकिन कोले दा का जब सब्र समाप्त हो गया तो वह अपनी रिप्लीका के साथ टेªन में बैठ गया। सात घण्टों के सफ़र में उसने सत्तर सपने देख डाले। पहले उसने देखा वह टैक्सी से क़ासिम के दफ़्तर के सामने उतर रहा है और क़ासिम भाई उसके इस्तक़बाल के लिए दुहरे होते हुए टैक्सी का दरवाज़ा खोल रहे हैं। इन दो सेेकेण्ड के दृश्य को उसने देर तक देखा। देखता रहा और मुस्कुराता रहा।

फिर उसने देखा, दफ़्तर के अंदर क़ासिम भाई उसकी रिप्लीका देख रहे हें, 'इसे कहते हैं पेंटिंग! आप सही फ़रमा रहे थे जनाब। अब देखिये आपकी कैसी घूम मचती है। लेकिन एक वायदा करना होगा आपको, आपका डीलर हमेशा मैं ही रहूँगा।'

कोले दा मंद-मंद मुस्कुराते हैं। नई सिगरेट जलाते हैं और धुएँ का गोला क़ासिम के चेहरे पर फेंकते हैं। क़ासिम हमेशा की तरह अपने हाथ को पंखा नहीं बनाता है, चेहरा नहीं बिगाड़ता है बल्कि ख़ुशामदी लहजे में कहता है, ' जितनी मर्जी, मेरे चेहरे पर अपनी सिगरेट फंूको, लेकिन बिरादर मुझको भूलना मत। मैं अपनी सारी ताक़त लगा दूंगा। सारी दुनिया में आपकी धूम मचवा दूंगा, मैं...मैं।

इस दृश्य में उसे और भी आनंद आया। उसने अलग-अलग कोणों से इस दृश्य को हजार फ्ऱेमों में देखना शुरू किया और वह बुदबुदाया, 'साले दो कौड़ी के डीलर को आर्टिस्ट की पहचान नहीं। साले के सामने एक सिगरेट जलायी थी तो मुँह में कुनैन चला गया था बेटे के. अब देखना कैसे...'

-'भाई साहब! तबीयत तो ठीक है आपकी?' उसके कंधों को हिलाते हुए साथ वाले मुसाफ़िर ने पूछा तो कोले दा का स्वप्न भंग हो गया।

टेªन बाढ़ स्टेशन पर रूकने वाली थी। उतरने वाले यात्रियों की हलचलें शुरू हो गई थीं। कोले दा ने अपने ब्रीफ़केस को अपनी गोद में रख लिया। अख़बार में लिपटा रिप्लीका वहीं खिड़की से सटी जमीन पर पड़ी थी।

-'क्या बात है, आपने बताया नहीं।' उसी ने फिर पूछा, ' तबीयत तो ठीक है?

-'हां...हां...ठीक है भाय।'

-'फिर आप हवा में किससे बातें कर रहे थे?'

-'मैं! हवा में! क्या मज़ाक करते हैं।'

-'तो मैं मज़ाक कर रहा था?'

सामने की बर्थ पर बैठे सारे लोग मुस्कुरा रहे थे और कोले दा झेंपते हुए खड़े हो गये, 'आते हैं ज़रा बाथरूम से'

मेल टेªन की यह जेनरल बोगी थी। सीटों की तख़्तियां जहां-तहां से टूटी हुई थीं। आमने-सामने के आठ लोगों की जगह पर पंद्रह लोग बैठे थे।

फ़र्श पर फेंके गए चिनिया बादाम के छिलके और ढेर सारी दूसरी गंदगी भरी थी। आमने सामने बैठे पांच लोग रमी में व्यस्त थे। ये शायद इस रूट के डेली पैसेंजर थे। बाक़ी बैठे दस लोगों में एक तो अपने कोले दा ही थे जो अपने हसीन सपनों में इस तरह डूबे थे कि बाक़ी यात्रियों के अस्तित्व तक से अनभिज्ञ थे।

शेष नौ लोगों के बीच देश की राजनीति बहस का मुद्दा बनी थी और वे पूरे जोशो-ख़रोश से अपनी-अपनी बातें रख रहे थे।

लेकिन कोले दा के उठ के जाते ही उनकी बहस का मुद्दा राजनीति से बदल कर हमारे कोले दा पर केन्द्रित हो गया।

-'कलाकार है भाई साहब,' एक ने अपना ज्ञान बधारा, -'देखते नहीं अख़बार से ढँकी पेंटिंग रखी है उसने।'

-'पागल है साला,' दूसरे ने प्रतिक्रिया दी, -'जबसे बैठा है...देखा नहीं, ऊल-जलूल हरकतें कर रहा है।'

इसकी बात पर हँसी का ठहाका लगा तो लोग देर तक हँसते रहे।

-'क्या हुआ काका? तुमलोग हँस क्यों रहे हो अचानक?' रमी पार्टी से एक ने पास बैठे बुज़ुर्ग से सवाल किया जिसके ठहाके सबपे भारी थे।

-'कुछ नहीं भाय, एक साला पागल चढ़ गया है टेªन में।'

-'किधर है?'

-'बाथरूम गया है।'

वह वापस रमी में मश़गूल हो गया।

कोले दा जब क़ासिम के ऑफ़िस पहुंचे तो लड़के ने चैम्बर के बाहर वाले टूल पर उनको बैठा दिया। क़ासिम के साथ कुछ लोग बैठे बातें कर रहे थे। अपने केबिन के अंदर से ही क़ासिम ने कोले दा को देख लिया था और बातों में व्यस्त हो गया।

पता नहीं कौन लोग हैं अंदर। कोले दा को ताव तो बेहद आ रहा था लेकिन वे करते क्या? बैठे-बैठे चौथी सिगरेट फूंक रहे थे कि उसके केबिन में बैठे लोग उठे। ऑफ़िस का लड़का बाहर निकल कर कोले दा के पास पहुंचा तो ये जनाब अंदर जाने के लिए उठ खड़े हुए. लड़के ने कहा-'सिगरेट ख़त्म करके अंदर आइये।'

कोले दा ने वहीं जमीन पर सिगरेट का टुकड़ा कुचला। ब्रीफ़केस और रिप्लीका उठाया और क़ासिम के चैम्बर में जा पहुंचा।

-'क्या है ये?'

कोले दा ने क़ासिम को जवाब न देकर रिप्लीका को अख़बार से मुक्त करना शुरू किया। ख़ुद देख लो बेटा क्या है अंदर। देखेगा तो आँखों फट जायेंगी। तंुरत लड़के को दौड़ाएगा ठण्डा-गरम लाने के लिए. साले ने देख कर भी मुझको अनदेखा कर दिया और गप्प मारता रहा फ़ज़ूल से। अभी जानता ही नहीं, कोले क्या चीज़़ है। रिप्लीका को देखने दो एक बार। हाथ जोड़ के थरथराता रहेगा मेरे सामने।

बाहर लौंडे की औक़ात देखो-बोला, सिगरेट ख़त्म करके आइये अंदर। ठीक है बेटा! रिप्लीका देखो मेरा, फिर फूंकता हूँ सिगरेट तुमरे मुँह पर...

क़ासिम गौर से देख रहा था। कोले दा ने अख़बार हटा कर रिप्लीका सामने रख दिया।

-'रिप्लीका है यह?' क़ासिम गुर्राया, 'सारी कलर स्कीम आपने बदल कर रख दी है। यह रिप्रोडक्शन है या आपका अपना आरिजीनल वर्क?'

-'यही तो फ़र्क है एक जूनियर और एक सीनियर आर्टिस्ट में। वह जो भी करेगा उसमें उसकी अपनी ऑरिजीनल क्रियेटिविटी थोड़े छिपेगी? आप इसे मार्केट में रखिए तो पहले, फिर देखिए क्या होता है?' कह कर कोले दा सामने वाली कुर्सी पर जम गये।

क़ासिम ने कुछ न कहा। उसके अंदर का क्रोध उसके दबाए न दबा तो आख़िर वह दहाड़ा-'उठिये तो चुपचाप...उठिये! अपना कूड़ा सम्हालिये और दफा हो जाइये फ़ौरन।'

कोले दा हड़बड़ाये तो उसने फिर कहा, -' क़बल इसके कि मेरे सब्र का

बांध टूटे, फ़ौरन से पेश्तर... दफ़ा हो जाइये यहाँ से। '

अब वहाँ रूकने की कोई गुंजाइश न थी। कोले दा ने अपनी पेंटिंग उठाई, ब्रीफकेस सम्हाला और बेआबरू होकर बाहर निकल, बैठ गए रिक्शेे पर।

कहां चूक हो गई थी, उनकी समझ में न आया। उन्होंने तो 'द लास्ट सपर' के ऑरिजिनल कलर्स स्कीम को बदल कर अपनी कला प्रदर्शित की थी। इतनी मेहनत से तैयार किया था इसे, फिर क़ासिम क्यों इस तरह...हुंह! वह आर्टिस्ट थोड़े है जो समझेगा मेरे आर्ट को। साले को तमीज़ है, फ़ाईन आर्ट होता क्या है? और बेटा ख़ुद को आर्ट क्रिटिक का बाप समझता है।

कोले दा ने नई सिगरेट जलाई. फेफड़ों में धुआँ भरा और मुँह खोल कर फेंक दिया। अब इस रिप्लीका का क्या होगा? भारती ने देख लिया तो ग़लत हो जाएगा। हमेशा तो वह उसे रिप्लीका बनाने पर गालियां देता आया था। आज ख़ुद वह रिप्लीका लिए वहाँ पहुंचेगा तो उसकी अपनी इज्ज़त क्या रहेगी? क्या करे वह? तभी उसकी आँखों चमकीं। क्या आइडिया आया है...वाह! सोचते ही वह ख़ुश हो गया। अपनी रिप्लीका वह बेबी को प्रेज़ेन्ट कर देगा।

-'अरे कोले दा! कब आए आप? वेलकम टू आवर' जानकी कुटीर' ... बेबी उसे देखते ही उड़कर उसके पास पहुंचेगी। वह नज़ाकत से उसे अपनी रिप्लीका ग़िफ्ट करेगा। बेबी ख़ुशी से पागल होकर लिपट जाएगी।

सोचते ही वह ख़ुद पर हँसा। साली हमको देखते ही बिदक जाती है। पता नहीं क्या मिलता है उसे उस बुड्ढे में?

'जानकी कुटीर' के सामने उसने रिक्शा रूकवाया। उतरा और सीधे सीढ़ियां चढ़ने लगा। बेख़्याली में उसने देखा नहीं। बेबी कुछ सोचती हुई सीढ़ियां उतर रही थी। उसके हाथों का रिप्लीका बेबी को छू गया तो उसने तीखी निगाहों से कोले दा को घूरा।

कोले दा की नज़र सीढ़ियों पर थी। बेबी की चप्पल चमक रही थी। उसकी निगाह उठी और अनायास उसके बोल फूटे, 'आपका चप्पल बड़ा शानदार है।'

-'उतारूँ क्या?'

कोले दा एक क्षण रूके, उसके अधरों पर शैतानी मुस्कुराहट उभरी। इस मौके पर मौज़ूं एक पुराना चुटकुला उसे याद आया। उसने अगली सीढ़ी फलांगते हुए कहा, 'आपकी स्कर्ट तो और भी शानदार है।'

कोले दा की जैसी फज़ीहत क़ासिम भाई के पास हुई उसने कोले दा को उलझा दिया। ग़लती आख़िर हुई कहाँ? सोचता हुआ वह भारती के विंग में पहुंचा। दरवाज़ा बंद देख उसे बड़ी कोफ़्त हुई. फिर उसने सोचा-अच्छा ही हुआ। अब अपने हाथों में अपनी बनाई हुई रिप्लीका के लिए सफ़ाइ क्या देगा वह?

उसे यही बेहतर लगा कि वह वापस स्टेशन जाकर अपनी टेªन पकड़ ले और उसने यही किया। गुनाह बेलज़्जत होकर ख़रामां-ख़रामां वह 'जानकी कुटीर' की सीढ़ियां उतर गया।

कोले दा अपनी ही धुन में 'जानकी कुटीर' के मुख्य प्रवेश द्वार पर पहुंचा तो देखा कई नौकरों के साथ काजल, अंदर आ रही है।

कोले दा को देख ठिठक कर वह रूकी। काजल से नज़रें मिलते ही कोले दा मुस्कुराए. कितनी ताज़ी-ताज़ी लग रही है। कोले दा ने देखा, हमेशा की तरह उसके धने लम्बे बाल उसकी कमर तक लहरा रहे हैं।

काजल ने नौकरों को अंदर जाने कहा और ख़ुद रूक गई, -' कब आए

कोले दा? '

अब तक वे क़रीब आ चुके थे। कितनी कमसिन है...सांवली है तो क्या हुआ...साला भारती...क्या क़िस्मत है साले की। काजल के पास पहुंचते ही कोले दा ने काजल के गालों की चुटकी ले ली और भद्दी हँसी हँसने लगे।

चिहुँक गई काजल, फिर क्रोध में जलने लगी, -'यह क्या बद्तमीज़ी है कोले दा!'

उन्होंने वैसे ही हँसते हुए ढिठाई से कहा, -'क्यों बुढढा छूता है तो तुम्हें मज़ा आता है और मैंने।'

-' बड़े बद्तमीज़ हैं आप...चलिए निकल जाइए यहाँ से...मैं ख़ामख़ा कोई तमाशा खड़ा करना नहीं चाहती।

गड़बड़ा गए कोले दा। आज का दिन ही ग़लत है। सोचा हुआ सारे काम उल्टा हो रहा है। अब काजल को ही देखो, बुढ्ढे से ईश्क़ फ़रमाती है...खुले आम... और मुझे भाषण देती है।

कोले दा सोचते ही रहे और क्रोध में पैर पटकती काजल, अंदर चली गई.

श्रीवास्तव, सक्सेना, ललिता, काजल, भारती, क़ासिम, कोले दा और बेबी; ये आठ के आठ तो अवसाद, विषाद, हँसी या ख़ुशी में जी ही रहे थे। किसी की ज़िन्दगी फर्स्ट गियर में, किसी की सेकेण्ड, थर्ड, फ़ोर्थ में और सक्सेना की टॉप गियर में चल रही थी। रही बेबी! उसकी ज़िन्दगी तो न्यूट्रल गियर में पड़ी थी और उसके जीवन का स्पंदित जेट इंजन किसी भी क्षण उड़ान भरने को बेक़रार था। रह गया रज्ज़ू! उसकी अच्छी-ख़ासी शांत ज़िन्दगी में न जाने क्या हो गया कि वह खोया-खोया-सा रहने लगा। कभी अचानक मुस्कुराता और कभी अगले ही क्षण मौन-गंभीर हो जाता। उसकी धड़कनें बढ़ जातीं।

क्या हुआ है उसे? कहीं प्रेम-प्यार का चक्कर तो नहीं? नहीं! वह ख़ुद को समझाता। वह तो इतनी फ़ॉरवर्ड है कि दस बार उसे बाज़ार ले जाकर बेच सकती है। अंग्रेज़ी कैसे फ़र्राटेदार बोलती है। उसका जीवन-स्तर, रहन-सहन, उसकी सोच, हर स्तर पर उससे अलग है। रज्ज़ू से तो उसकी हैलो-बाय तक न हुई फिर वह क्यों इस क़दर परेशान है। बेबी के लिए न विकर्षण है न आकर्षण।

सीढ़ियां उतरते वक़्त का वह दृश्य जब न तब उसे परेशान करता, जब उसने अपने हाथ हिलाकर उसे विश किया था। ऐसी तो न उसकी इच्छा थी, न जुर्रत। लगा था, उसके हाथ ख़ुद-उठ गये थे विश करने। रिक्शे में बैठ कर उसकी गर्दन क्यों पलटी थी? उसकी निगाह ने अंतिम बार बेबी को क्यों ढूंढा था? और 'जानकी कुटीर' के ओझल होते ही, उसे कसक क्यों हुई थी।

यह तो साफ़-साफ़ इकतरफ़़ा प्यार था। उसने दृढ़ता से, ख़ुद से इंकार कर दिया। फिर क्या इकतरफ़़ा आकर्षण था यह? ...नहीं...उसे क्या पड़ी है? भारती ने बताया नहीं था? फिर वह क्यों डालेगा अपना सर ओखल में। मुस्कुराया वह, तो विकर्षण था यह! और उसके दिल ने फिर से इक़ार कर दिया।

वर्षों गुज़र गये थे जब एकबार उसने अपने मित्रा से पूछा था, 'यह प्यार क्या सबकी ज़िन्दगी में होता ही है।'

तो उसने हँसते हुए इस बात की तसदीक़ की थी और कहा था, 'हाँ, सबकी ज़िन्दगी में होता है।'

तब उसकी उम्र सोलह वर्ष थी और उसने जानना चाहा था कि यह होता कैसे है? उसके मित्रा ने उसे समझाया था, 'इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता और ढूंढना भी नहीं होता है। वह तो बस हो जाता है।' बातचीत के इसी क्रम में उसने आगे फिर कहा था, -'तुम्हारी भी उम्र तो हो ही गई है। बस देखते जाओ, तुम्हें भी हो जाएगा किसी दिन।'

अब पता नहीं रज्ज़ू को क्या सूझी थी कि उसने ऐसी बातें पूछ लीं अन्यथा उसकी सुबह तो अखाड़े से शुरू होती थी और दिन स्कूल में समाप्त होता था।

सुबह अंधेरे ही वह गौशाले के अखाड़े में पहुंचता। लंगोट बांध कर मुगद्र घुमाना, दण्ड-बैठकी लगाना और शरीर के पसीने को मिट्टी से रगड़ कर कुश्ती लड़ना उसे बहुत अच्छा लगता था।

घर पहुंच कर स्नान करता, भरपूर नाश्ता करता फिर स्कूल जाने के पूर्व रेडियो सिलोन पर फ़िल्मी गाने सुनता और स्कूल के लिए निकल जाता।

इस दैनिंदनी में यह प्रेम-प्यार कहाँ से आया, उसे पता नहीं, लेकिन उसने उसी वर्ष ऐसी जिज्ञासा की थी... यह उसे आज भी याद है। उसने बंगाली टोला स्थित 'यंग मेन्स हेल्थ एसोसियेशन' ज्वाइन कर लिया। स्कूल के बाद फ़ुटबाल, फिर कला-विद्यालय और उसके बाद देर शाम 'बंगाली टोला' का हेल्थ क्लब। सुबह-सबेरे वह तब भी गौशाला जाता ही था।

और यहीं अपना रज्ज़ू पड़ गया प्रेम-प्यार के चक्कर में। हुआ यूं कि हेल्थ क्लब के व्यवस्थापक अपने परिवार के साथ वहीं रहते थे। उनकी लड़कियां जितनी खुबसूरत थीं उससे ज़्यादा वे सारे शहर में मशहूर थीं। शहर की नाम-चीन हस्तियां जमी रहतीं वहां। क्लब में जितने लड़के आते, वे भी क्यू में थे। हालत अजीब थी और ऐसे माहौल का असर तो रज्ज़ू पर भी होना ही था। उसके अंदर भी हलचल मची। मामला और भी ज़्यादा इस कारण गड़बड़ाया कि वह उस परिवार का प्यारा-दुलारा बन चुका था और जो मुख्य आकर्षण की केन्द्र बिंदू थी, वह स्व्यम इससे मुस्कुराकर बातें करती थी। फ़ोटोग्राफ़ी के शौक़़ के कारण, उसके पास अपना कैमरा था ही और हो गया एक दिन फ़ोटो सेशन! पूरी रील उतर गई. उसने बड़े मनोयोग से उसके क्लोज-अप बनाए और बैठ गया उसमें रंग भरने। अब जाने क्यों और किस ख़्याल से उसने कुंवारी कन्या के क्लोज़-अप में न केवल लाल बिंदी लगा दी बल्कि बिंदी के अंदर छोटा-सा 'आर' अक्षर भी अंकित कर दिया।

ग़लती शायद छोटी थी लेकिन हंगामा बड़ा हो गया। वैसे हंगामा करने वालों में न उस हिरोइन का हाथ था, न उसके परिजनों का। आसमां तो उन्होंने सर पर उठा लिया, जो क्यू में खड़े थे।

बात इस क़दर बिगड़ेगी यह तो रज्ज़ू ने कभी कल्पना भी न की थी और नतीजतन उसने कान पकड़ लिये कि ऐसी भूल फिर कभी न करेगा।

एक वह दिन था और एक आज का दिन है। उसने जो क़सम खाई थी... जो निश्चय किया था, क्या उसे तोड़ देगा? यह बेबी उसे क्यों इस तरह याद आ रही है? अभी तो सिलसिला शुरू भी न हो पाया है। चुपचाप बैठ कर तौबा क्यों नहीं कर लेता वह बेबी से!