अजीब दास्तां, कहां शुरू कहां खतम / जयप्रकाश चौकसे

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अजीब दास्तां, कहां शुरू कहां खतम
प्रकाशन तिथि : 07 मई 2013


चार फिल्मकारों ने आधे -आधे घंटे की चार लघु फिल्मों को बाम्बे टॉकीज के नाम से सिने शताब्दी अवसर पर प्रदर्शित किया । करण जौहर की फिल्म में युवा नायक आंधी तूफान की तरह अपने घर में घुसता है और अपने पिता से कहता है 'वह छक्का नहीं है, गे है और न छक्का होना बुरा है और ना ही गे होना बुरा है।' समलैंगिकता के पक्ष में यह सशक्त बयान है। दूसरे परिवार में बाइस वर्ष से विवाहित रनदीप हुडा एक चैनल के लोकप्रिय न्यूज रीडर हैं और उनकी पत्नी रानी मुखर्जी एक अखबार में मनोरंजन परिशिष्ट की संपादक हैं। उन्हीं के सहायक के रूप में उस युवा को नौकरी मिली है और वह अपने परिचय में पहला वाक्य यह बोलता है कि वह गे है। पूरी फिल्म में वह अपने गे होने की घोषणा लाऊड स्पीकर पर नहीं करता परन्तु बुलन्द आवाज में करता है। वह अपनी बॉस रानी से उसकी सैक्स लाइफ भी जानना चाहता है। इस तरह के पात्र और वार्तालाप आपने विगत सौ साल के सिनेमा में कभी नहीं सुने परन्तु अगले सौ साल में यह होने वाला है क्योंकि करण जौहर ने समलैंगिकता के होम्योपैथिक डोज बहुत पहले देना शुरू किया था और उनकी पिछली फिल्म में तो कॉलेज का प्राचार्य भी अपनी मृत्यु शैया तक पर अपनी समलैंगिकता की अधूरी इच्छाओं का अफसोस करते हुए दिखाया गया है। उन्होंने यह सिलसिला अपनी फिल्म कल हो न हो में ही हास्य दृश्य की तरह शुरू किया था।

बहरहाल, इस लघु कथा में रानी मुखर्जी को अंतिम दृश्य में यह जानकारी मिलती है कि स्वयं उसके पति की पहली सैक्स पसंद भी वही है और इतने वर्ष तक उन्होंने यह राज छुपाये रखा। उनके पति और सहायक के बीच का रिश्ता प्रेम का बना और उसे दबाने के प्रयास में उनके पति ने हिंसा भी की है। अब उसे एहसास होता है कि विगत वर्षो में उसके शरीर का इस्तेमाल जूठन की तरह हुआ है। वह वितृष्णा से भर जाती है और अपनी त्वचा को साफ करने लगती है। वह अपनी शादी को समाप्त घोषित करती है और स्वयं को स्वतंत्र महसूस करते हुए साज श्रंृगार में लग जाती है। गोया कि अब उसकी बारी है। करण जौहर ने पारम्परिक रिश्ते की आलोचना नहीं की है परन्तु समलंैगिकता के पक्ष में सशक्त बयान दिया है। इस फिल्म में गे लोगों की कुढऩ और छुपे रहने की यंत्रणा भी दिखाई है। विदेशों में समलैगिक लोगों के अपने क्लब है, पत्रिकाएं है और फिल्में भी हैं। करण जौहर ने लिजलिजी भावनाओं की पारम्परिक फिल्में रची हैं और इस फिल्म को उनका घोषणापत्र मान लें तो यह कहना होगा कि उनके सिनेमा के दोनों छोरों के बीच एक पूरा यथार्थ संसार है जिसमें गरीबी है, मंहगाई है, भ्रष्टाचार है और सत्ता का नग्न तांडव भी है परन्तु उन्हें अपनी निजी पसंद के संसार को रचने की पूरी स्वतंत्रता है। इस लघु फिल्म के प्रस्तुतीकरण में सिनेमाई वयस्कंता करण ने हासिल की है जो अब तक उनके सिनेमा में नहीं थी।

दूसरी फिल्म सुदीप बनर्जी की है और यह सत्यजीतराय की लिखी लघु कथा पर आधारित है। पिता रंगमंच का मंजा हुआ अभिनेता है और उसकी बीमारी के समय उसके पुत्र ने उनकी भूमिका की है परन्तु उसे पिता जैसी सफलता नहीं मिली । वह जीवन का लक्ष्य पाने के लिए बहुत भटका है परन्तु एक दिन सड़क पर फिल्म की शूटिंग में उसे छोटी सी भूमिका जूनियर की तरह मिली है और वह खुश है कि अब उसे लक्ष्य मिल गया । अपनी बीमार बेटी को उसने मजा लेकर अपना अनुभव सुनाया। सुदीप ने सघन भावनाओं को बड़ी सिनेमाई किफायत से प्रस्तुत किया है और सत्यजीत राय के 92 वें जन्म दिन पर उनकी लिखी फिल्म और उन्हीं के अंदाज में बनाई फिल्म बनाई देखना सुखद लगा। तीसरी फिल्म जोया अख्तर की है। मध्यम वर्ग के परिवार में भाई बहन में गहरा स्नेह है। माता-पिता लड़के को खिलाड़ी बनाने के लिए कैम्प में तीन हजार जमा करते हंै परन्तु बालक की रूचि नाचने में है और कैटरीना कैफ उसकी आदर्श है। पिता उसके लड़की का स्वांग करके नाचने से खफा है।बहन के कैम्प के लिए दो हजार रूपये नही है और उसे बहलाने के लिए कैटरीना कैफ नुमा बार्बी डॉल लाई गई है जो उसके भाई को पसंद है। गोया कि परिवार में आज भी लिंग भेद है और बालकों को ज्यादा स्नेह दिया जाता है। दोनों बच्चों की अपनी बचत साढ़े सत्रह सौ है और ढाई सौ अर्जित करने के लिए वे मोहल्ले में एक शो करते हैं जिसमें बालक शीला की जवानी प्रस्तुत करता है और उसके दर्शकों का खूब मनोरंजन होता है। इस फिल्म में टेलीविजन पर बालक कैटरीना कैफ का साक्षात्कार देखता है जिसमें वह कहती है कि कभी अपने सपनों को पूरा करने के लिए उन्हें उजागर नहीं करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि प्रारंभिक दौर में पुरूषों ने ही नायका की भूमिका निबाही और रंगमंच पर भी इसकी लंबी परम्परा रही है।

चौथी फिल्म नए सिनेमा के स्वयंभू मसीहा अनुराग कश्यप की है और इसके टाइटिल गीत में अमिताभ बच्चन महिमा कुछ ऐसी रची गई है मानो कोई भक्त अपने आराध्य देवता के लिए विनय पत्रिका रच रहा है। उन्हें तमाम नायकों का बाप कहा गया है। स्वयं अमिताभ बच्चन इसे सुनकर विचलित हो सकते हैं। यह भी अजीब सी बात है कि कुछ समय पूर्व अनुराग बच्चन जी के कठोर आलोचक रहे हैं। यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है कि कब किसकी आलोचना या प्रशंसा करें। बहरहाल, टाइटिल गीत को अनसुना कर सकें तो कहना होगा कि अनुराग कश्यप की फिल्म इन चारों से सबसे श्रेष्ठ है और मनोरंजक भी है। इलाहाबाद के एक मध्यम वर्ग के एक बुजुर्ग दिलीपकुमार के प्रशंसक थे और उनकी इच्छानुरूप उनके पुत्र ने मुंबई जाकर दिलीपकुमार का चखा हुआ शहद लाकर पिता को दिया और वे काफी वर्ष जिए। अब उनका पुत्र मुरब्बा लेकर अमिताभ बच्चन से मिलकर शेष मुरब्बा पिता को देता है। पिता जानता र्है कि उसका पुत्र अमिताभ बच्चन से बहुत कष्ट उठाकर मिला है परन्तु यह वह मुरब्बा नहीं है । पुत्र का मर्तबान रेल के डिब्बे में ही टूट गया था। उसने इलाहाबाद में अचार के मर्तबान में मुरब्बा रखा इसलिए पकड़ा गया। हिन्दुस्तानी सिनेमा के प्रशंसकों में ऐसा ही जुनून होता है। वे अपने नायक के मर्तबान और मुरब्बे को बखूबी जानते हैं। यह कैसा अजीब सा अदृश्य रिश्ता है जो आम आदमी के जीवन में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है । अनेक आम आदमी फिल्म गीत- संगीत से प्रेरित होते हंै ।कभी- कभी जीवन भव सागर में डूबते हुए आम आदमी सिनेमा के तिनके के सहारे पार लग जाता है। प्रशंसक और सिनेमा का रिश्ता अपरिभाषेय है। और इस में उसकी ताकत भी है। इन चारों बौद्धिकता से लबरेज फिल्मों में वह सादगी और सरलता नहीं है जो हिन्दुस्तानी सिनेमा का चरित्र रहा है।