अजोर / अशोक शाह

Gadya Kosh से
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गाँव पहले जैसा नहीं था। कहीं भी कुछ भी पहले जैसा नहीं होता। वे पेड़ नहीं रहे। बाग-बगीचे सारे काट दिये गए। उनकी लकड़ियाँ या तो जलाकर आग ताप ली गयीं थीं या फर्नीचर में बदल गयीं। पुराने सारे लोग स्वर्ग सिधार चुके थे। अधिकांश लोग घर छोड़कर चले गए थे या नये घर बना लिये थे। कुएँ, तालाब लगभग सभी पाट दिये गए थे। रास्ते और पगडंडियाँ भी बदल गयीं थीं। नये-नये रास्ते उभर आये थे। सारी फ़सलों के बीज भी बदल चुके थे। सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्णसंकर बीज ही बाज़ार एवं खेतों तक फैले थे। खाओ तो उनमें कोई स्वाद नहीं। मात्र पेट ही भरा जा सकता है। इतना ही नहीं फसलों की विविधता भी लुप्त हो गयी थी। टागुँन, साई, सांवा, मड़आ, खेसारी, कोदो, रामदाना इत्यादि लुप्त हो चुके थे। लगता है मौसम और ऋतुएँ भी बदल चुकी थीं। बारिश कम होने लगी थी और आबोहवा में बदलाव तो काफ़ी निराशाजनक था।

सबसे बड़ा बदलाव आदमियों के कार्य, व्यवहार, प्यार, विश्वास में आ गया था। इष्र्या, द्वेष, घृणा, स्पर्धा, अविश्वास, वैमनस्यता आदि में भारी वृद्धि हो गयी थी। कोई भी व्यक्ति अविभाजित इकाई नहीं रहा। हर व्यक्ति कम से कम 'दो' हो गया था। बाहर से कुछ और भीतर कुछ और। ऐसा लगता था मानो वह बिना तैयारी के चलती ट्रªन में चढ़ गया हो और उसका दिल घोर, निराशा, उपेक्षा और असुरक्षा से भर गया हो। पूरी गारण्टी के साथ एक ही बात कही जा सकती थी कि दो ही चीजे़ नहीं बदली थी। पहली तो यह कि सूरज आज भी पूरब दिशा में उगता है और दूसरी उस गाँव का नाम जो अब भी वही पुराना ही है।

वह बच्चा समय की उसी पुरानी गली में अकेला ही खेल रहा था। बगल में कुत्ता लेटा था। बच्चे की नाक पर बैठी छोटी मक्खी लगातार पंख हिला रही थी। ग़रीबी की गन्दगी से जन्म लेती है और उसका ही उत्पाद खाती है। बच्चे की नाक से लगातार बहते पोंटे में अगले दोनों पैर धसाये माड़ की तरह सुड़क रही थी और उसके पंख संतुलन बनाये कनात जैसे फैले थे। बच्चे को जब-जब खुजलाहट महसूस होती नन्ही-नन्ही मुटिठयों से नाक को मसल लेता था। पोंटा गालों पर फैल जाता था। मक्खी फिर कनात-सी तन जाती। परेशान होकर बच्चा खिजियाता, किकियाता पर कोई सुनने वाला नहीं था।

माँ आज बिना मिले दिन को आकार देने में व्यस्त थी।

बच्चा कुछ धूल बटोरता, नासिका छिद्रों पर मल लेता जहाँ से पोंटा लगातार निकले जा रहा था। कुछ पलों के लिए राहत महसूसता। उसका रिरियाना बंद हो जाता। लेकिन अगले पल एक नहीं दो मक्खियाँ आकर बैठ जाती है। उनका दावा है कि बच्चे से जयादा वे भूखी हैं। बच्चा उन्हें सिर झटकके भगाता है। हाथ ज़मीन पर पटकता है। एक आवाज़ आती है। वह खिलखिला उठता है। फिर एक और थाप ज़मीन पर मारता है। वही आवाज़ आती है। अबकी बार कुछ तेज। लेकिन मक्खियाँ पीछा नहीं छोड़तीं। अबकी बार चार आई हैं। नाक के दोनों छेदों पर कब्जा कर वे पूरी ताकत से चूसने लगीं थीं।

निवृत्ति के लिए सुबह-सुबह खेत पर गयी माँ अब तक लौटी नहीं थी। खेत पर जाकर उसने दो बच्चों वाली अपनी इकलौती बकरी को हरी दूबों वाले खेत के मेड़ से साथ बाँधा। गेहूँ के खेत से खर-पतवारों की निंदाई कर, ईख के सूखे पत्ते इकट्ठा कर गोईंठे को उलट-पलट चुकी थी। शाम तक उपले सूख जाएँगे। जल्दी-जल्दी धान के एक बोझे को खोला है। कल ही तो बच्चे के बाबूजी ने काटके खेत से लाए थे। धान की नयी क़िस्म है। नंगे पैरो से धान की बालों को मिस रही है। एड़ियों को डंठल पर गड़ाये पैरों के पंजो से बालों की मसल रही है। नमी अधिक होने के कारण धान के दाने धीरे-धीरे छूट रहे हैं। वह बार-बार पैरों को तेज गति से चला रही है। पैरो के तलवों के घर्षण से दाने कुछ गर्म होकर डंठल से अलग हो रहे हैं। धान को अलग कर उसने बोरे में डाला। पेठारी को इकट्ठा कर पुलिया बनायी। ईख के पत्तो के साथ बाँधकर कांख में दबाया। बकरियों को खोला, टोकरी में घास को जमाकर सिर पर रखा। जल्दी-जल्दी पांव चलाते घर की ओर लपकी। सुबह के सात बज चुके थे। सूरज निकल आया। बदन में थोड़ी गरमी महसूस होने लगी थी। लेकिन सुबह की धूप का आनन्द लेने का समय उसके पास नहीं था। बाक़ी समय तो सूरज के साथ ही रहना था।

बच्चा कुछ अधिक बिलबिला उठा। दानों हाथों की मुट्ठियों से दोनों नासिकायों को ज़ोर से मल दिया। तत्क्षण के लिए भिन-भिन करती मक्खियाँ तो उड़ गयीं पर पोंटा दोनों गालों पर और फैल गया। उसकी गन्ध पा बहुत सारी मक्खियाँ भिन-भिनाने लगीं थीं। बच्चे के गाल भी मक्खियों के आहार का स्रोत बन गए थे। देखते-देखते मक्खियों का पूरा झुण्ड ही गाल, आँख, नाक पर छा गया। आँखों में लगा कींचड़ का अलग स्वाद था। बच्चा जोर-जोर से चिल्लाने लगा था। बचाव का कोई रास्ता न पा वह रोते-रोते ज़मीन पर पेट के बल लेट गया। पर मक्खियों ने पीछा नहीं छोड़ा। अब वे नीचे से चेहरे पर वार करने लगीं। वे भिनभिनाती गोता लगाते हुए आतीं और फट से ऊपर निकल जातीं। ज़मीन पर लोटने से वह पूरा धूल-धुसरित हो चुका था। धीरे-धीरे गाल पर लगा पोंटा सूखने लगा था। सूखने के कारण गाल की चमड़ी में खिंचाव उत्पन्न होने से बच्चे को खुजली होने लगी और पूरी ताकत से वह रोने लगा। ज़मीन पर लेटा-लेटा वह आसमान को सहायता के लिए बुला रहा था।

घर पहुँचते ही माँ ने बकरी को बाँधा। पेंठारी रसोई घर में रखा। धान को सूप में उड़ेला। फिर बच्चे को गोद में उठा लिया। कुर्ती का बटन खोला और स्तनों को बच्चे के मुहँ डाल दिया। ईश्वरीय प्रसाद पा बच्चा एकदम चुप हो गया और पचर-पचर दूध पीने लगा। बच्चे के बालो में फँसे कंकड़ तथा तिनकों को बीन के अलग किया, सहलाया और दूध पिलाने के बाद उसे गोदी में बैठाकर उसकी नाक को तर्जनी ओर अँगूठे से पकड़कर पोंटा बाहर निकाला। पानी से अपना हाथ एवं बच्चे का चेहरा साफ़ किया और जल्दी-जल्दी सूप से धान फटकने लगी। कंकड़, मिट्टी अलग कर, धान को ओखली में डाल दिया। लेकिन मूसल गायब था। सहसा उसे याद आया। कल पड़ोसन ले गयी थी। वापस नहीं किया। लगभग दौड़ते हुए पड़ोसन के घर पहुँची। तभी उसकी नज़र अपने इकलौते बैल पर गयी। नाद से मुहँ उठाकर उसकी ओर ही देख रहा था। पेठारी और घास को मिलाकर नाद में डाला और भागती हुई लौटी। ओखली में धान कूटने लगी।

दूध पीकर बच्चा एकदम शान्त हो गया। दोनों पैरों से लगभग हवा को चीरते हुए किलकारियाँ भर रहा था। नाक साफ़ होने के कारण मक्खियाँ अब नहीं भिनभिना रही थीं। लेकिन यह राहत कुछ ही देर के लिए थी। कहीं से घूमता हुआ पालतू कुत्ता फिर घर लौटा था। कुकियाता हुआ बच्चे के पास ही पूरा एक गोल चक्कर लगाता हुआ पैर मोड़ कर बैठ गया। अपने मुहँ को उसने अपने पिछले दोनों पैरों और पेट के बीच छिपा लिया था। बच्चे का उछलता हुआ पैर उसकी पुछ पर पड़ा तो पेट में से मुहँ निकाला। बच्चे का तलवा चाटा और अपने पेट में मुहँ घुसेड़ लिया। अप्रत्याषित पे्रम पा बच्चा खिल-खिला उठा और जोर-जोर से अपना पैर उछालने लगा। बीच-बीच में माँ की आवाज़ सुनकर प्रसन्नता से गिलगिलाता रहा।

आधा घण्टे की कुटाई के पश्चात उसने धान के छिलके अलग कर दिये। ओखली से निकाल कर चावल को फटका, भूसा अलग किया। फिर ओखली में रखकर चावल को छाँटने लगी ताकि दानें थोड़ा और साफ़ हो जाएँ। भूरे रंग का चावल अब निखर आया था। चावल से कौन को अलग कर बैल के नाद में डाल दिया। देखा, बैल रूखा-सूखा खाकर ऊब चुका था। उसने बाल्टी उठायी। दो सौ मीटर दूर इनार से पानी भरा। बैल के नाद में डाला। अब बैल नाक डुबोकर खुशी-खुशी खाने लगा था। रसोईघर में आकर पेठारी और ईख की सूखी पत्तियों से आग जलाया तथा चूल्हे पर तसले में पानी भर अदहन चढ़ा दिया। फिर उसने खेत से लाए गए बथुए और सरसों के साग से खर-पतवार बीन कर अलग किया। साग को पहसुल से काट कर बारीक किया और कढ़ाई में चूल्हे पर पानी उबलने के लिए छोड़ दिया। अगले पाँच मिनट के अन्तराल में उसने घर-आँगन को झाड़ू से बुहार लिया। खाट उठाया और गुदड़े को झाड़कर अलग रेंगनी पर टाँग दिया। खौलते हुए अदहन में चावल डाला। आँच के बुझ जाने के कारण फिर उसने ईख की पत्तियों के साथ गोंईठा भी डाला। पलटे से साग को पलटा और नमक डालकर ढँक दिया। अब तक चावल पकके खौलने लगा था। अब बारी माड़ निकालने की थी। तसले को परया से ढँका। पुराने कपड़े की मदद से परया सहित तसले के ऊपरी भाग को दोनों हाथों से अपनी ओर झुकाया। नीचे रखे एक बड़े-से खोरे में माड़ की धार बह निकली। तसले को यथावत चूल्हे पर छोड़ दिया ताकि चावल थोड़ा सोंधा जाए और गीला न रहे। कुछ देर बाद चूल्हे से भात को उतार कर बगल में रख दिया। तबतक साग भी अच्छी तरह पक चुका था। कड़ाही उतारकर नीचे रखा। थोड़ी भूख का अहसास हुआ लेकिन अभी फुरसत नहीं थी।

उसे ख़्याल आया कहीं कुछ छुटा हुआ है। वह गोहरौरी में पहुँची। कल का इकट्ठ किया गया गोबर अभी भी पड़ा था। गड़ासी से उसने पेठारी के साथ ईख की पत्तियों का छोटा-छोटा गुच्छा बनाकर ठेहे पर काटने लगी। कटी पत्तियों को गोबर के साथ मिलाकर गूँथा एवं जल्दी-जल्दी चिपड़ी पाथने लगी। इनार पर जाकर हाथ-पैर धोआ। आम के दातुन से दाँत साफ़ किया। चेहरा धोया और बाल्टी में पानी भरकर लौटी। एक पल के लिए टूटे ऐनक को हाथ में लेकर अपना चेहरा निहारा। एक संतोषजनक मुस्कुराहट में होंठ खींच गए। उसने टिकुली को सीधा कर ललाट के बीचो-बीच चिपकाया। लम्बे-लम्बे धूल सने घने बालों को पीछे की तरफ़ अपने हाथों में लेकर झाड़ा और चोटी फिर बना ली।

बच्चा मुहल्ले के दोस्तों के साथ गोली खेलकर तबतक घर वापस आ चुका था। उसे भुख लग रही थी। माड़ में नमक डालकर उसने पीने के लिये दिया और ख़ुद भी पी लिया। साग बनाने के लिए डिब्बों एवं डलियों को खँगाला। एक दो लहसुन मिले पर हरी मिर्च नदारद थी। तभी उसे ध्यान आया कि वे तो कल शाम को ही ख़त्म हो गयी थीं। दौड़ी-दौड़ी पड़ोसन के घर गयी और आठ-दस हरी-लाल मिर्च माँग कर ले आई। पड़ोसी के खेतों में इस बार मिर्च अच्छी लगी। मिर्च और लहसुन को बारीक काटा और साग में मिलाकर भात-साग बेटे को परोस दिया। तब तक नौ से अधिक बज चुके थे। बेटे के लिए कुछ भात-साग अलग रखकर बाक़ी एक थरिया और खोरे में रख पोटली बाँध लिया। गाँव में एक सरकारी स्कूल था। खाना-खाना ख़त्म करते ही उसने बेटे से कहा-

'इसकूल के लिए तैयार हो जाओ।'

बेटे ने साफ़ मना कर दिया कि उसे इसकूल नहीं जाना है। माँ ने सोचा फिर इतनी सारी मेहनत किस काम की।

'तुम्हे इसकूल तो जाना ही होगा'

'नहीं, मैं नहीं जाऊँगा। मुझे खेलना है।'

इतना कहकर वह भागने के लिए उठा ही था कि माँ ने उसका हाथ पकड़ लिया मानो उसने आने वाले कल को फिसलते-फिसलते बचा लिया हो।

बेटा रोने लगा। उसकी कोई परवाह न की गयी। उसका चेहरा धोकर, माथे में सरसों का तेल डालकर कंघी कर स्कूल के लिए तैयार कर लिया। खाने का सामान सिर पर धरकर, हाथ में स्लेट-पेंसिल-मनोहर पोथी का झोला पकड़े वह स्कूल तक गयी और बच्चे को पहली किलास में बैठा कर मास्टर साहब से बोली-

'मास्टर साहब ज़रा ध्यान रखियेगा। कहीं स्कूल से खिसक न ले। यह बिल्कुल ही पढ़ना नहीं चाहता। दिनभर खेलता ही रहता है।'

वहाँ से सीधे वह खेत पर गयी जहाँ बेटे के बाबूजी धान काट रहे थे। पीछे-पीछे कुत्ता भी लग लिया थ। उसे याद आया कि उसने तो कुछ भी नहीं खाया था। पत्नी को देखते ही उनके हाथ रूक गए। बाल्टी के पानी से हाथ मुहँ धोकर नीम का दतुअन करने लगे।

भात-साग थरिया में रख कर हँसुआ से वह धान काटने लगी। कोंकियाता हुआ कुत्ता थोड़ी दूरी पर कटे हुए धान के ऊपर बैठ गया।

'बबुआ कहाँ है।'

'इसकूल छोड़ के आई हूँ।'

'तुमने खाया, क्या?'

'नहीं, माड़ पीया है।'

'साग अच्छा बनाया है। मिर्च बहुत तेज है। पड़ोसी की मिर्च तीखी है, नया कोई सूरजमुखी बीज बोया है।'

'हाँ, अपनी मिर्च तो अभी फूला भी नहीं पायी है।'

'ठीक है, तुम भी खा लो।'

खाते हुए माँ ने देखा कि कुकुरा अधखुली पलकों से देखे जा रहा था। भात में साग मिलाकर उसे आवाज़ दी। ख़ाली बर्तनों को समेटा, गठरी बाँधी और धान काटने में लग गयी।

बेटा आज स्कूल में टिक गया था। उसने सौ तक गिनती सीख लिया था। क ख ग घ ठीक से पढ़ने लगा था। दोपहर घर लौटा तो सीधे रसोईघर में गया। साग-भात पूरा खा लिया। बाहर आया तो देखा कि बैल नाद पर बँधा रह गया था। उकड़ाकर उसे मड़ई के भीतर बाँध दिया। बैल को जान में जान आई। कुकुट पाकर धम्म से बैठ गया, मानो इसका ही इंतज़ार कर रहा हो। बच्चा खेलने निकल गया। इस बार उसका निशाना काफ़ी अच्छा रहा। अपने सारे दोस्तो को निराश कर दिया। जीती गयीं कांच की नयी-नयी गोलियाँ उसकी पैंट की जेब में अपरिमित मधुर ध्वनि निकालती बज रही थीं।

चार बजते-बजते दोनों ने मिलकर पूरा धान काट लिया था। अब उन्हें बोझा बनाकर बाँधने की बारी थी। इसके लिए रस्सी या गुर्ही की ज़रूरत थी। गुर्ही पेठारी से ही बनानी थी। पेठारी के एक सिरे को हँसुआ में फँसाकर माँ ऐठती जाती, वह पेठारी दूसरे सिरे से जोड़ता जाता और गुर्ही बनती जाती। बाँधने के लिए उन्होने बीस गुर्हियाँ बनायी होगी। अर्थात बीस बोझा धान। धान को बाँधने के पश्चात उसे खलिहान तक सिर पर रखकर ढोते-ढोते शाम के छह बज गए। लौटते वक़्त रास्ते में उसने खेसारी, केराव, बथुआ, सरसों की भाजी खोंट ली।

खलिहान में आकर बाबूजी ने धान का एक बोझा खोला। पटरे पर रखकर धान पीटने लगे। अलग हुए धान को बोरे में रखा। पेठारी को बाँधा। धान तथा पैठारी सिर पर रखकर वे घर लौटे तो शाम के सात बज चुके थे। आते ही बेटे को पुकारा जो अभी तक गलियों में दोस्तों के साथ खेल रहा था। इस बार वे गोली नहीं खेल रहे थे बल्कि बुझवल बुझा रहे थे। आवाज़ सुनकर बेटे का माथा ठनका। यह तो बाबूजी की आवाज़ थी। लगा कि बाबूजी खेत से आ चुके हैं। सिर पर पांव धरकर वह घर भागा। मन ही मन डर भी रहा था कि कहीं पिटाई न हो जाए। तब तक बाबूजी लालटेन जला चुके थे। पीली-पीली रोशनी से घर-द्वार जगमगा उठा था। बेटे को पढ़ने के लिए कह कहीं निकल गए।

माँ पहले ही घर पहुँच चुकी थी। बैल को सानी-पानी देने के बाद, रसोई घर की सफ़ाई की, बर्तन धोए। रसोई में मिट्टी की ढेबरी जलाया। लेकिन चावल ख़त्म था। अब क्या? डेहरी खोला। पुराना कुछ जौ अभी बचा हुआ था। थोड़ा जौ तथा दूसरी डेहरी से बाजरा निकाला और जांत पीसने लगी। तभी दरवाजे पर उसे कुछ आवाज़ सुनाई पड़ी। बेटा बड़ी बहन और पहुना को देखते ही खुश हो गया था। माँ के बाद जिसे वह सबसे अधिक चाहता था वह बड़ी बहन ही थी। बेटी आते ही हाथ बटाने के लिए माँ के साथ जांत चलाने लगी। लेकिन माँ ने मना करते हुए कहा कि पाहुन आए हैं तो तुम केराव चकरी में दर लो। थोड़ी दाल भी बना लेते हैं। एक साल से बचाकर रखा गया केराव आज काम आ ही गया। दाल दरने के बाद बेटी ने साग काट लिया। केराव की हरी भाजी देखकर वह ख़ुशी हुई थी। जब वह माँ के साथ रहती थी तब वह केराव की भाजी खोंटकर कच्चे ही खा जाती थी।

उसने ख़ूब मस्ती की थी खेतों से लेकर खलिहान तक। लेकिन एक ही बात का मलाल रह गया था और आज उसने पूछ ही लिया-

'माँ, तुमने मुझे क्यों नहीं पढ़ाया। क्या मेरे पास अक्ल कम थी या कमजोर थी?' माँ चुप रही।

माँ को चुप देख अपना सवाल फिर दुहराया। मानों वह डूबती जा रही सदी का एक सिरा थामे उसे पलटने की आख़िरी कोशिश कर रही हो अन्यथा उसके हसरत भरे अनुतरित प्रश्नो का जवाब कौन देता।

'तुमने मुझे अपने आग़ोश में क्यों लिया? मुझसे तो एक नयी सदी शुरू हो सकती थी। मैं उस शुरूआत की सूत्रधार क्यों न बन सकी, माँ। बताओ ना।'

माँ ने कोई जवाब नहीं दिया। वह चुप थी जैसे कोई छिजती हुई परछाई अँधेरे में गुम हुए जा रही हो।

माँ के शरीर और मन का कोई भी अंग या कोशिका ऐसी नहीं थी जो रोज़ ना थकतीं हो। पर भीतर-ही भीतर कहीं एक दृढ़ संकल्प जन्म ले चुका था। अपने उसी संकल्प को वह पोष-पाल रही थी। अपनी ज़िन्दगी के एक-एक पल और अपने शरीर के ख़ून की एक-एक बूँद से। वह समय को अपनी ऊँगलियों की गति से बदल देगी और सूरज को कहेगी तुम पश्चिम से उगना।

चैकी पर रोटी बेलते हुए सहसा उसने कहा, -

'बेटी, मेरी कुव्वत नहीं थी तुम्हे इसकूल भेजने की। या समझ लो कि मेरी मती मारी गयी थी तभी तो मेरे भेजे में यह बात घुसी नहीं थी। लेकिन बेटी, अब जबकि तुम जान गयी हो इसलिए वचन दो कि अपनी बेटियों को इसकूल ज़रूर भेजोगी। अब इस बात को अपने बाबूजी से मत पूछना।'

यह कहते हुए आँसूओं की बूँदे आटे की कठवत में टपक पड़ीं जिन्हें ढेबरी की टिमटिमाती जोत में कोई देख नहीं सका। वह बीतती सदी का मौन पश्चाताप था जो नया विहान लाने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर चुका था।

माँ-बेटी की बतकही के दरम्यान ही रोटी, दाल तथा साग बन के तैयार हो गए। माँ ने अपने हाथ का बना लाल मिर्च का भरूआ आँचार भी पाहुन के लिए निकाला। जब सभी खा-पीकर सो गए तो, माँ ने धीरे से पूछा-

'क्या पैसों का इंतज़ाम हो गया।'

'हाँ, कुछ तो हुआ लेकिन फिर भी बहुत कम है।'

'कैसे काम होगा। बड़ा बेटा भी बहुत मुश्किल से ही गुज़ारा कर रहा है। खाने के अलावा जो भी बचता है, घर भेज देता है।'

'चलो कुछ न कुछ हो ही जाएगा। प्रभु मालिक है। चिन्ता की बात नहीं। बेटा पढ़ने में बहुत तेज है। इतना कि तुम और हम सोच भी नहीं सकते।'

बेटी की आँखों में नींद नहीं थी। माँ-बाबूजी की बातें वह भी सुन रही थी। उसके दिल में उछाह का सागर हिलोरे ले रहा था। आसमान छूने को आतुर। वह भी तो अपने सारे गहने बेचकर कुछ पैसे ले आई और अभी तक माँ को कुछ भी नहीं बताया था।

अगले दिन की सुबह सचमुच नया विहान लेकर आई। नयी पीढ़ी नयी सदी के साथ जन्म ले चुकी थी। बाबूजी ने सुबह चार बजे उठ के लालटेन जला दिया था। बैल को उकड़ाकर नाद से बाँध दिया था। सारा सामान एक बार दोनों ने चेक किया। तब तक बेटा तैयार होकर आ चुका था। माँ-बाबूजी तथा बहन के पैर छुए।

बेटी ने धीरे से माँ के हाथो में रुपये रखते हुए कहा-'बाबू को दे देना।'

माँ के आँखों से भर-भर आँसू बह रहे थे। मानो गंगोत्री से गंगा अभी-अभी निकली हो। बेटे का दही-गुड़ खिलाते हुए बस इतना ही कहा-

'बेटा, अपना ध्यान रखना।'

माँ की ज़िन्दगी भर की सुबह-षाम की बिखरी किरणें जोत बनकर बेटे के चेहरे पर अभूतपूर्व अजोर ला चुकी थी। फिनिक्स अपना काम कर चुकी थी। बेटा अमेरिका जा रहा था। एम.आई.टी. में इकनामिक्स में ग्रेजुएशन के लिए उसे स्कालरशिप मिल चुकी थी।

(परिकथा मार्च-अप्रैल 2020)