अज्ञात डगर / सुधा भार्गव

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सोनाली के दोनों बेटे उससे बहुत दूर भारत से बाहर थे|

पति नीलकांत की बीमारी के कारण छोटे बेटे को आस्ट्रेलिया से भारत आना पड़ा| बड़ा बेटा विदेश में ही रहा| उसकी नौकरी ऎसी थी कि बीच -बीच में वह स्वदेश जाता रहता था| इससे माँ बाप को बहुत संतोष था| दुर्भाग्य से चार साल बाद ही नीलकांत की मृत्यु हो गई| छोटे बेटे का मन भारत से उछ्टने लगा और चाहें जब शुरू हो जाता --मैं तो टोरेन्टो (कनाडा )चला जाऊंगा, मैं तो सिंगापुर जाऊंगा| जरा भी न सोचता कि उसकी बातों से माँ के ऊपर क्या बीतती होगी--|

माँ ने कहा भी -बेटा तू चला जायेगा तो मैं कहाँ जाऊंगी?

-मेरे साथ|

मजे की बात --बेटा तो कहकर भूल जाता पर उसकी मन :स्थिति डावांडोल हो उठती|

उस दिन बड़ा बेटा न्यू जर्सीसे आया हुआ था| दोनों के सामने वह बोली --

-तुम दोनों बाहर रहोगे तो न मैं बड़े के पास रहूँगी न छोटे के पास, भारत में मेरे नाते -रिश्तेदार और दोस्त भी हैं| रहूँगी भारत और तुम लागों से समय -समय पर मिलने आऊंगी|

-ओह माँ! चिंता न करो| हमें क्या आपकी चिंता नहीं है? दोनों आगे -पीछे बोले|

कुछ दिनों को वह शांत हो गई मगर जब सुना छोटे ने अमेरिका जाने का निश्चय कर लिया है, वह हड़बड़ा उठी -

-बेटा अपने उज्जवल भविष्य के लिए तुम अमेरिका जा रहे हो ---- जानकर खुश हूँ पर मेरी बात याद है न! निश्चय करके जाना मैं कहाँ रहूँगी?

-सब निश्चित हो जायेगा| | मैं पता लगा रहा हूँ| मेरे कई मित्र हैं जिनके माँ -बाप भारत में ही रहते हैं, आराम से रहते हैं और जब चाहे बच्चों से मिलने चले जाते हैं|

-यही तो मैं चाहती हूँ|

-मैं भी तो यही चाहता हूँ माँ!

ज्यों -ज्यों बेटे के जाने के दिन नजदीक आने लगे माँ का दिल तेजी से धडकने लगा| जाने के एक हफ्ते पहले दिन छिपे बेटा बोला -

-माँ मेरे साथ चलो!

-कहाँ?

-चलो तो!

बेटे ने माँ का हाथ पकड़ा और घर से बाहर हो गया|

वृद्धाश्रम के आगे कार झटके से रुकी, सोनल को तो लगा उसके ह्रदय की गति रुकी-- बस रुकी--!कल्पना से परे--!

अध्यक्ष ने बहुत गर्म जोशी से हाथ मिलाया और उन्हें आश्रम दिखाते हुए बोला-यहाँ दो तरह के कमरे हैं| एक वे जो अनुदान के सहारे चलते हैं और दूसरे वे जिनका खर्चा रहने वाले खुद उठाते हैं| इनको कमरे के साथ शौचालय,छोटा सा ड्राइंग रूम व रसोईघर भी होता है| जरुरत पड़ने पर सेविकाएँ भी रहती हैं|

-कितना खर्चा देना पड़ता है? बेटे ने पूछा|

-करीब १५ हजार प्रतिमास|

-इतना ज्यादा---! सोनल चौंक पड़ी|

-ओह माँ हमें खर्चा नहीं देखना अपनी सुविधा देखनी है| एक तरह से ये वरिष्ठ नागरिकों की सुविधा का ध्यान रखते हुए साफ सुथरे बनाये गये है और आधुनिक उपकरणों से भी सुसज्जित हैं| आपको यह कमरा कैसा लगा?

-अच्छा लगा मगर ---|

- मगर -वगर कुछ नहीं! बाद में बातें कर लेंगे --|

बेटे ने एक चैक काट कर अध्यक्ष महोदय के हाथ में थाम दिया|

सोनल भनभनाती हुई कार में जा बैठी--- बिना मुझसे पूछे--- मेरे ही भविष्य का-निश्चय|

माँ का हाथ अपने हाथ में लेते हए बेटा स्नेहसिक्त शब्दों में बोला --माँ नाराज न हो| मैंने एक साल के लिए आश्रम में पैसा जमा कर दिया है| आप को वहाँ रहना पसंद न आया तो उसे छोड़ देना| वैसेवहाँ न कोई बिल जमा करने का झंझट न नौकरानी का सिरदर्द! अच्छा अस्पतान- अच्छी डाक्टर. अच्छी से अच्छी देखभाल!

-मेरा यहाँ मन कैसे लगेगा?

-आपको यहाँ कौन सा बारह महीने रहना है| दीदी- भैया और मेरे पास रहने के बाद मुश्किल से ३-४ माह बचेंगे|

- अरे मैं अपने भाई बहनों के साथ भी तो रहूँगी|

-हाँ! हाँ मामा लोगों के पास भी रह लेना| वैसे यहाँ भी----- आपका मन खूब लगेगा| समय -समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं जिसमें भाग लेकर आश्रम के लोग अपने शौक पूरे करते हैं| अपना हुनर दिखाकर अजीब सी संतुष्टि होती है -यह तो आप मुझसे ज्यादा समझती हैं सितार वादक जो ठहरीं|

-अब तू अपनी बात मनमाने के लिए मेरी चापलूसी मत कर|

-आप हैं ही ऐसी! यहाँ भी आपके हमउम्र आपका लोहा मानने लगेंगे|

सोनल के चेहरे पर हलकी सी मुस्कान उभरी पर दूसरे ही पल बोझिल सी हो उठी -

-मेरे मकान का क्या होगा जिसमें मैं रहती हूँ?

-उसे छोड़ने की तो बात ही नहीं| जरूरत का समान यहाँ ले आना, बाक़ी-- एक कमरे में बंद कर देंगे और उसे किराये पर चढ़ा देंगे|

-मुझे नहीं चढ़ाना किराये पर --झंझट है|

-झंझट काहे का --मैं करूंगा सब कुछ| फिर माँ समझने की कोशिश करो --उससे करीब २५हजार रूपये किराया आएगा| आश्रम और आपका खर्चा भी निकाल आएगा| पैसे से पैसा कमाया जाय तो क्या हर्ज है|

कुछ देर के लिए दोनों के बीच मौन आलती -पालती मार कर बैठ गया|

बेटा खामोश था -वह अपनी राय जबरदस्ती माँ पर थोपना नहीं चाहता था,माँ चुप थी -बेटे की बात समझ तो गई पर कदम अनजानी राह की ओर बढ़ने से इंकार कर रहे थे| थक चुकी थी वह शरीर से भी और दिमाग से भी| सोनल को समय चाहिए था निर्णय लेने के लिए| अभी तक मिलकर निर्णय लिए जाते थे| सहारे की आदत पड़ चुकी थी| लेकिन जबसे सहारा देनेवाले ने मुँह मोड़ लिया उसे अपना दिमाग ज्यादा खर्च करना पड़ता था| जब कंगाल हो जाती तो बिस्तर पर कटे वृक्ष की भांति जा पड़ती|

आज भी वही हुआ| घर पहुंचते ही वह शयनागार में घुस गई| दूसरे क्या सोचेंगे! चिंता नहीं थी| चिंता थी अपने कल की|

आधी रात तक करवटें बदलती रही|

आँखें मूँदने का प्रयत्न करती मगर उनमें प्रश्न -उत्तर के मध्य छिड़ता महाभारत नजर आता| कब नींद ने आ दबोचा पता नहीं| चिड़ियों की चीं-चीं से वह भोर ही उठ गई| आदत के अनुसार खुली हवा में बरामदे में जा खड़ी हुई| सवेरा तो रोज होता था लेकिन आज का सवेरापन कुछ नया -नया लगा| इस नयेपन में स्नान करते ही सोनल के कदम नई डगर की ओर स्वत: बढ़ने लगे|