अज्ञेय की असाध्य वीणा : एक सुन्दर काव्याभूषण / विनोद दास

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प्रत्येक लम्बी कविता,बड़ी कविता नहीं होती। हालाँकि कई बार कवि की वह महत्त्वाकांक्षी कविता जरूर होती है। अज्ञेय की असाध्य वीणा भी ऐसी ही एक कविता है। लम्बी और महत्त्वाकांक्षी।

असाध्य वीणा का वितान काफ़ी बड़ा है। लम्बी कविता की रचना को साधने के लिए आमतौर से तीन तरह की काव्य प्रविधियाँ अपनायी जाती रही हैं। पहली प्रविधि कविता को आख्यान की ईंटों पर खड़ी करने की है। कई दफ़ा ऐसी आख्यानपरक कविताएँ घटना या चरित्र पर आधारित होती हैं। कहना न होगा कि यह एक सरल-सहज प्रविधि है। इसमें कवि को काव्य ढाँचा सहज ही उपलब्ध हों जाता है। निराला की राम की शक्ति पूजा इसी श्रेणी की सर्वोत्कृष्ट कविता है। दूसरी प्रविधि,एक विषय पर केंद्रित छोटे-छोटे काव्य-खंडों में विचार स्फुलिंगों को जोड़कर लम्बी कविता रचने की है। इस प्रविधि में केदारनाथ सिंह की “बाघ” कविता की याद सहज आती है। आख्यानपरक कविता की तुलना में कवि इस प्रविधि में कुछ अधिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेता है। तीसरी प्रविधि में कवि अपने विचारों और भावनाओं के वेग के सहारे कविता को आगे बढ़ाता है। इसमें कवि पूरी तरह से संरचना से स्वतंत्र होता है। हालाँकि कवि के सृजनात्मक सामर्थ्य की परीक्षा इसमें सर्वाधिक होती है। इस प्रविधि में कवि को अपने भावोद्गारों और विचारों की सरणि से पाठक को इस तरह बाँधना होता है कि पाठक उसके प्रवाह में बहता चला जाए। इसमें कवि की बौद्धिक स्नायविक ऊर्जा की भूमिका बड़ी होती है। गजानन माधव मुक्तिबोध की लम्बी कविताएँ इसी रचनात्मक प्रक्रिया का प्रतिफल हैं। असाध्य वीणा एक आख्यानपरक कविता है। इसमें आख्यान का महीन धागा कविता को पूरी तरह से जोड़े रखता है।

कथा कुछ इस प्रकार है। एक राजा के पास तपस्वी साधक द्वारा निर्मित और भेंट की गयी एक ऐसी वीणा है जिसे अभी तक उसके राज्य में कोई बजा नहीं सका है। वीणा को बज्रकीर्ति ने उत्तराखण्ड पर्वतों में उगे एक प्राचीन किरीट तरु से बनाया है। गुफावासी केशकंबली प्रियंवद नामक सच्चे स्वरसाधक को राजा आमंत्रित करके उस वीणा को बजाने के लिए अनुरोध करते हैं। प्रियंवद के चरणों में वीणा रख दी जाती है। प्रियंवद वीणा को देखकर ज़मीन पर कंबल बिछाकर उस किरीटी तरु की वंदना करते हैं जिससे वीणा निर्मित है। प्रियंवद उस तरु की कल्पना में डूब जाते हैं जिसे अनेक वर्षा ऋतुओं,जुगुनुओं,भौरों,पक्षियों का साहचर्य मिल चुका है। बाल निश्छलता के साथ स्वर साधक प्रियंवद उस किरीट वृक्ष की संवेदना से अपना तादात्म्य स्थापित करता है। उस वृक्ष से जुड़े परिवेश को पूरी शिद्दत से याद करने के बाद प्रियंवद उससे विनयपूर्वक आह्वान करता है कि वीणा के तारों में वह वृक्ष अपनी संवेदना उतारे और अपने को गाये। फिर सहसा वीणा झनझना उठती है। सब उपस्थित रोमांचित हो जाते हैं। इसे सुनकर उपस्थित भावकों को अलग-अलग अनुभूति होती है। वीणा को बजाने के बाद साधक प्रियंवद राजा से कहता है कि आपने जो सुना है, न तो मेरा था और न ही वीणा का,यह उसका है जो शब्दहीन है। सबमें गाता है। नमस्कार करके प्रियंवद अपनी गुफा लौट जाता है। सभा विसर्जित हो जाती है।

इस कविता की अनेक व्याख्याएँ हो सकती हैं। लेकिन मेरी दृष्टि से यह कविता एक कलाकार की सृजन प्रक्रिया के अलौकिक रहस्य को उद्घाटित करती है। जहाँ तक कथ्य संरचना की बात है,इसे मोटे तौर से तीन खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। पहले खण्ड में वीणा बजाने का उपक्रम प्रियंवद के लिए चुनौती बनकर आता है। इस खण्ड में प्रियंवद कलावंत की तरह नहीं,एक विनयशील साधक की तरह वीणा के आद्यरूप अर्थात प्राचीन किरीटी वृक्ष को अपनी कल्पना में अनुभव करता है। इस चरण में यह संकेत मिलता है कि एक कलाकार को अपने अहं को तजकर पूरी विनम्रता के साथ अपनी रचना वस्तु के साथ संवाद करना अपेक्षित है। दूसरा खण्ड वहाँ से शुरू होता है जहाँ प्रियंवद वृक्ष किरीट के परिवेश और अनुभव से जोड़कर अपनी कल्पना को रूप देने के लिए रचना सामग्री जुटाता है। सही मायनों में इस लम्बी कविता का सर्वाधिक काव्यात्मक अंश यही है। तीसरे खण्ड में,राजा-रानी और सभा में उपस्थित भावक श्रोतागण प्रियंवद की सुर-लहरियों को सुनकर अपने अनुभव जगत के विभिन्न कल्पना आकाशों में विचरण करते हैं। यहाँ भावक के साधारणीकरण के पक्ष को निरूपित किया गया है। इस तीसरे खण्ड में भी अज्ञेय की काव्यात्मकता से साक्षात्कार होता है।

हम मोटे तौर से जानते हैं कि सृजन प्रक्रिया की यही तीन अवस्थाएँ होती हैं। कहना न होगा कि इन तीनों अवस्थाओं को असाध्य वीणा कविता में सिर्फ़ दर्शाया ही नहीं गया है बल्कि इसके निर्वहन की पूरी चेष्टा कविता में दिखती है। इस तरह असाध्य वीणा में एक सुनियोजित संरचना के दर्शन होते हैं। इस कविता को एक तान में साधने में इसमें मौजूद समप्रवाह की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कविता की सम्पूर्ण संरचना में एक विकास क्रम बना रहता है। दूसरे शब्दों में,संरचना के तौर पर यह एक आख्यानपरक सरल,सहज और सीधी कविता है। इस कविता में रचनात्मक सफ़ाई और सिद्ध कौशल है।

अब आइए ! इस कविता के कथ्य की विषय वस्तु पर विचार कर लिया जाए। कहते हैं कि यह कविता चीन के ताओवाद के एक कथानक या जापान की लोक कथा पर आधारित है। विडंबना यह है कि लोककथा पर आधारित होने के बावजूद इसकी रचना लोकभाषा में नहीं,संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में की गई है। यही नहीं,यह कथा भी अभिजन केंद्रित है। कविता में श्रेष्ठता ग्रन्थि की धारा अंतर्भूत दिखती है। मसलन जिस वृक्ष से वीणा बनी है,वह किरीट तरु है। किरीट का सामान्य अर्थ होता है-सिरमौर। कविता में संकेत है कि यह वृक्ष मामूली नहीं है। इसकी छाल से केहरि अर्थात बाघ भी अपने कँधे खुजलाते हैं। इसकी शाखाएँ हाथी की सूँड सरीखी हैं। कोई छोटा सा साँप नहीं,नागवासुकि इस वृक्ष की गन्ध में सोता है। कवि यहाँ तक कहता है कि इस तरु के कोटर में भालू बसते हैं। भालू वृक्ष पर चढ़ लेते हैं लेकिन कोटर में भालू का बसना कुछ असामान्य सा लगता है। यह तथ्य है कि वीणा का निर्माण अमूमन कटहल के पेड़ के तने से होता है और इसके लिए उसके तने का बड़ा अखंड हिस्सा प्रयोग में लाया जाता है। यह भी तथ्य है कि कटहल के पेड़ सर्रा लम्बे होते हैं। लेकिन उसके कोटर में भालू सरीखा बड़ा पशु बसेरा बना सकता है,कुछ अतिरेक लगता है।

यहाँ यह बताना संगत होगा कि यह कविता अज्ञेय ने शायद 1961 के आसपास लिखी थी। उस समय भारत एक बड़े लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा था। राजशाही का खात्मा हो चुका था। ऐसे समय में एक कवि का राजशाही के परिवेश की कथा चुनना कवि की वैचारिक दृष्टि को प्रकट करता है। यह समय की चलती घड़ी की सुइयों को पीछे ले जाना है। एक तरह से अपने समय की तरफ़ पीठ करना है। दूसरे,यह भी उल्लेखनीय है कि अज्ञेय सृजन प्रक्रिया को काव्य में रूपायित करने के लिए साहित्य नहीं,संगीत चुनते हैं। संगीत की रचना प्रक्रिया और उसके आस्वादन को चुनने की पीछे भी अज्ञेय की दृष्टि का पता चलता है। वह अपनी एक कविता में कहते हैं कि" शब्द में मेरी समायी ना होगी,मैं सन्नाटे का छंद हूं"।दरअसल शब्द-रचना की तुलना में संगीत की रचना प्रक्रिया कुछ अधिक अमूर्त और अलौकिक होती है। जितना अधिक विषय अमूर्त,अलौकिक और समय की धूल-गर्द से परे हो,अज्ञेय के काव्य स्वभाव के अनुकूल होता है। इस तरह असाध्य वीणा कविता का विषय अपने समय से आँख फेरे रहता है। बहरहाल केश कम्बली प्रियंवद असाध्य वीणा बजाने के बाद गुफा वापस लौट जाता है। दरअसल इस कविता में सम्पूर्ण कार्य-व्यापार राज दरबार में घटित होता है। अतः पूरी कथा गुफा गेहवासी एकान्त प्रिय साधक प्रियंवद और राजसत्ता के बीच घूमते हुए स्मृतियों के उस वन प्रांतर प्रदेश में प्रवेश करती है जिसके किरीट वृक्ष से वीणा निर्मित की गयी है लेकिन जिसे कोई बजा नहीं सका है। इस तरह इस कविता का अधिकांश हिस्सा स्मृतियों के आँचल में लिपटा रहता है। प्रियंवद किरीटी तरु के बारे में सोचते ही स्मृति के हिंडोले में झूलने लगता है। वह कहता है कि इस वृक्ष के कँधों पर बादल सोते थे। उसके कानों में पर्वत अपने रहस्य फुसफुसाते थे। बरसात और जुगुनू इसकी आरती उतारते थे। भौंरों का गुँजन,झिल्ली का मंगल गान,पक्षियों का कलरव और उनकी क्रीड़ा से काँपती डालियों सरीखे दृश्यों को याद करने के पश्चात प्रियंवद कहता है,”मेरे अँधेरे में आलोक जगा-स्मृति का,श्रुति का”। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस स्मृति में भी जीवन की रगड़ नहीं,सुकोमल प्राकृतिक दृश्यों की लड़ी मौजूद है। यह लड़ी आगे भी चलती रहती है। पत्तियों पर बारिश की बूंदों की पटापट,घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना,चौंके खग शावक की चिहुँक आदि। यहाँ अज्ञेय की ऐंद्रिक शक्ति दिखती है। इसके अनुरूप उनकी भाषा का भी। उत्सव ढोलक की थाप की तरह उत्सवी भाषा। एक उदाहरण देखिए -फूल सूंघनी की आतुर फुरकन,शरद ताल लहरियों की सरसर,कूंजों की क्रेंकार। अज्ञेय का यह नाद सौन्दर्य सहसा छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद की याद दिलाता है जहाँ वह एक कविता में लिखते हैं -खग कुल कुल सा बोल रहा,किसलय का आँचल डोल रहा।

इस कविता के तीन दीर्घ अंशों में प्रियंवद स्मृति संसार में विचरण करता रहता है। पहले अंश की चर्चा पहले हो चुकी है। इसी प्रकार कविता के दूसरे अंश में भी प्रकृति से जुड़े दृश्य हैं। काले मेघों की बाढ़,रेतीले कगार का गिरना छप छपाड़,झंझा की फुफकार,पेड़ों का अरराकर गिरना।

फिर कविता में अचानक पट परिवर्तन होता है। पहली बार कविता में अज्ञेय उदास दृश्यों को निरूपित करते हैं मसलन ओलों की कर्री चपत,जमे पाले,तनी कटारी सी सूखी घासें की टूटन,धरती के घावों को चुपचाप सहलाते हुए हिम तुषार के फाहे। इन उदास दृश्यों के बाद स्मृति के तीसरे अंश में तलहटी में बसे गाँव को काव्य नायक याद करता है। कुछ उदाहरण हैं-वन पशुओं की नानविधि आतुर तृप्त पुकारें,गर्जन,घुरघर,चीख,भूख,हुक्का,चिंचियाहट। पंथी घोड़ों की धीर टाप।

अज्ञेय असाध्य वीणा में ध्वनियों का यह समुच्चय एक सधे हुए शिल्पी की तरह तैयार करते हैं। प्रियंवद को वीणा वादन के लिए कच्ची सामग्री के रूप में ऐसी ध्वनि स्रोतों की तलाश है।किसी कलाकार की रचना प्रक्रिया का यह पहला चरण होता है। लेकिन स्रोत सामग्री का प्रतिफलन किसी कला रचना में किस प्रकार होता है,इसे कविता के अगले हिस्से में रूपायित किया गया है। एक तरह से रचना के साधारणीकरण के फलस्वरूप प्रियंवद के वीणा वादन का प्रभाव राजा-रानी और दरबारियों पर अलग-अलग होता है। राजा का मुकुट शिरीष फल की तरह हल्का लगने लगता है। ईर्ष्या,द्वेष,चाटुकारिता जैसे अनेक विकार झर जाते हैं। रानी को अपने जगमगाते रत्न और आभूषण अँधेरे की तरह लगने लगते हैं और अनन्य प्रेम उस अँधेरे में आलोक सा लगने लगता है। राज दरबार में उपस्थित किसी भावक को उस वीणा की झंकृत सुनकर बटुली में सोंधी खुशबू की गन्ध महसूस होती है तो किसी राजदरबारी को नई वधू की पायल की सहमी ध्वनि सुनायी देती है। किसी श्रोता को वीणा की झंकार में जाल में फँसी मछली की तड़पन सुनायी देती है तो किसी को शिशु की किलकारी,किसी को नभ में उड़ती चिड़िया की चहक,किसी को मंडी की ठेलपेल,किसी को लोहे पर सधे हथौडें की सम चोटें,किसी को लंगर से बंधी नौका पर लहरों की सतत थपेड़ें,किसी की बटिया पर रखे चमरौधे पर सधी छाप,किसी को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की कलकल,किसी को नटी की एड़ी की घुंघरू,किसी को गोधूलि की लघु टुनटुन सुनायी देती है।एक ही रचना भावक के मन में अलग-अलग दुनिया सृजित करती है जो उनके जीवननुभव से निसृत होता है। अज्ञेय इस काव्यांश में एक दुनिया को समेटते हैं। यह इस बात को भी दर्शाता है कि उस राज दरबार में विभिन्न वर्ग और पेशे से जुड़े लोग मौजूद रहे होंगे। लोहे पर सधे हथौडें की सम चोटें,बटिया पर रखे चमरौधे पर सधी थाप,कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की कलकल,बटुली में सोंधी खुशबू, लंगर से बंधी नौका पर लहरों की सतत थपेड़ें,गोधूलि की टुनटुन जैसी मानवीय ऊष्मायुक्त बिंब अज्ञेय की काव्य प्रतिभा और उनकी अनुभव संपदा का पता देते हैं। लेकिन यदि आप गौर करेंगे तो इन सभी नाद स्वरों में एक किस्म की प्रसन्न ध्वनि है। लोहार की हथोड़े की चाहे सम चोटें हों या मोची की बटिया पर रखे चमरौधे पर सधी थाप। यह सही है कि ये हाशिये के लोग हैं जो अज्ञेय की कविता में जगह पाते हैं लेकिन उन्हें अपने जीवन संघर्ष के नहीं,आनन्द के स्वर सुनायी देते हैं। किसान को मेड़ से बहते जल की कल -कल सुनायी देती है तो चरवाहे को गोधूलि में घर लौटते अपने पशुओं की गलों में बजती घंटियों की टुनटुन सुनायी देती है। एक तरह से अज्ञेय इन प्रसन्न नाद स्वरों के जरिए राजशाही में इन मेहनतकशों पेशों से जुड़े लोगों का अपने कामकाज से संतुष्ट और सुखी जताते हैं। साफ़ है कि इन मेहनतकशों के बिंब का उपयोग अज्ञेय यथास्थितिवाद के लिए करते हैं। कुछ -कुछ उसी तरह जिस तरह अभिजन अपने बैठकों में सूप और ड़लिया आदि सजाकर रखते हैं और अपने ग्राम्य प्रेम का मुज़ाहिरा करते हैं। विषयवस्तु के चयन से रचनाकार की जीवनदृष्टि का पता चलता है।

अज्ञेय अपनी कविता के काव्य नायक ऐसा चुनते हैं जो केश कंबली और गुफा गेही है। राज निमंत्रण पर वह राजदबार आता है और असाध्य वीणा बजाकर वापस गुफा चला जाता है। यहाँ यह बताना असंगत न होगा कि इस काव्य नायक और स्वरसाधक प्रियंवद की स्मृति संपदा में केवल प्रकृति से सम्बद्ध अनुभव हैं जो उसे अपने वन परिवेश से सहज ही मिल गए हैं। तलहटी से जुड़े गाँव के अनुभव उसके स्वार्जित नहीं हैं। इस तरह हम पाते हैं कि प्रियंवद एक सुरक्षित दुनिया में प्रगाढ़ कल्पना की उड़ान भरता है। उसके लिए वीणा बजाना एक आदर्श को चरितार्थ करने का एक उपक्रम है। यह तभी संभव हो पाता है जब वह अतीत से साक्षात्कार करता है। वीणा वादन के बाद वह फिर अपने एकान्त को वरण कर लेता है। इस तरह हम देखते हैं कि प्रियंवद की यह दुनिया एक स्वनिर्भर दुनिया है। इसमें वर्तमान की न तो आग है और न ही जीवन संघर्ष की रगड़-धगड़। एकाध जगह उसे दैन्य की आहटें सुनायी देती हैं जो एक सुदूर बैठे व्यक्ति की सुनी हुई गूँजें लगती हैं। यथार्थ के हाहाकार नहीं। दूसरे शब्दों में इस कविता के काव्य नायक का जटिल संसार से कोई नाता नहीं।

यह सही है कि अज्ञेय ऐसे काव्य नायक ही चुन सकते थे। उनके व्यक्तित्व के लिए यही सहज और स्वभाविक था। इस काव्य नायक के स्थान पर इस कविता के कवि अज्ञेय को भी रखा जा सकता है। गुफागेही प्रियंवद की तरह अज्ञेय भी एकान्तप्रिय रहे हैं।यह आकस्मिक नहीं है कि इस कविता की रचना अज्ञेय ने अल्मोड़ा के एक काटेज में रहकर लिखी थी। गुफा को तो नहीं लेकिन दिल्ली में केवेनटर स्थित अपने अरण्य में कुछ अरसे के लिए उन्होंने पेड़ पर अपना आवास भी बनाया था। प्रियंवद की तरह उनकी पहुँच सत्ता तंत्र में थी। कहते हैं कि उनकी स्वकेंद्रित दुनिया में उनकी शर्तों पर ही प्रवेश मिल सकता था।

शुरू में ही संकेत किया जा चुका है कि अज्ञेय की यह सबसे महत्त्वाकांक्षी कविता है। इस कविता की संरचना से लेकर काव्यबिम्बों भाषा पर अज्ञेय का प्रभाव दिखायी देता है। संरचना अज्ञेय के व्यक्तित्व की तरह चाक-चौबंद है। वाचन की दृष्टि से कविता विकसित की गयी है। कविता पाठ करते हुए कहाँ विराम देना है और कहाँ से फिर शुरू करना है,इसकी पूरी व्यवस्था कविता की संरचना में सायास की गयी है। कहीं -कहीं टूक मिलाये गए हैं और कहीं-कहीं पर लय का सहारा लिया गया है। उदाहरण के लिए देखें ; डूबे,तिरे,झिंपें,जागे अथवा किल्क और पुलक,अथवा गूनूं-सुनूं ,बहते जल की घुलघुल को पाठ करने से नाद साम्य पैदा किया गया है।इस कविता में भाषा और काव्य बिम्ब पर विशेष बल दिया गया है। बिम्बों में ताजगी है। लेकिन इन बिम्बों के अनुभूति क्षण में भी चौकन्नापन भी है। यहाँ तक कि तन्मयता में भी एक प्रकार की सायसता महसूस होती है। कवि इतना चौकस है कि कहीं भी उसकी पकड़ ढीली नहीं होती। एक कुशल शिल्पी की तरह बिम्बों को रत्नों की तरह कविता में एक एक करके जड़ा गया है। बिम्ब चित्रलिखित लगते हैं। आभूषण में जड़े एक एक नग की तरह। असाध्य वीणा कविता पूरी तरह से गहने की तरह एक गढ़ी हुई कविता लगती है। एक सुन्दर काव्याभूषण। अज्ञेय की यह अतिरिक्त काव्य सायसता अक्सर हमारा ध्यान कविता की संप्रेष्य अनुभूति से हटकर उनकी शिल्प की तराश और भाषिक सौन्दर्य में भटक जाता है।

भाषा कवि के अपने परिवेश के साथ सम्पूर्ण लगाव की उपज होती है। लेकिन असाध्य वीणा में कवि जिस तरह से भाषा का प्रयोग करता है,इसे देखना दिलचस्प होगा। अज्ञेय असंख्य के लिए निसंख्य शब्द प्रयोग करते हैं। लघु टुनटुन का प्रयोग अज़ीब सा लगता है। इसमें टुनटुन देशज नाद द्योतक शब्द है,उसके साथ लघु जैसा संस्कृतनिष्ठ शब्द का प्रयोग मेल नहीं खाता और कानों में अटकता है। यही नहीं,लीयमान सरीखे शब्द का प्रयोग अखरता है। कविता में संस्कृतनिष्ठ शब्दों की बाढ़ देखने को मिलती है।

उदग्र,पर्यत्सुक,प्रतीक्षमाण,अनिमेष,संयुत,अविभाज्य,अनाप्त,अद्रवित,अप्रमेय,अक्षत,आत्मभारित,विश्रान्ति,मंत्रपूत जैसे शब्दों से कविता के रसास्वादन में बाधा आती है। संसृति की सायं-सायं,कादललंभी,टिटिमभ,चोर पैर द्रुत धावित जैसे प्रयोगों को देखकर लगता है कि कविता की भाषा अपने समय से कटी हुई है। कई बार शब्द और भाव छिटक जाते हैं और काव्य संवेदना कच्चे बीजों की तरह बिखर जाती है। कई दफे मर्मस्पर्शी बिम्ब तत्समी हिन्दी के कारण अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ते। यही कारण है कि कविता में केहरि किरीट तरु के वल्कल से कँधे खुजलाते थे जैसा भावप्रवण बिम्ब अपनी शक्ति खो देता है। लोक कथा की दृष्टि से यदि आम बोलचाल की भाषा में सिंह उस पेड़ की तने की छाल से अपनी देह खुजलाते थे,लिखा जाता तो बिम्ब अधिक संवेद्य होता। इस तरह हम पाते हैं कि अपने जड़ीभूत सौन्दर्य के कारण असाध्य वीणा कविता न तो मन को मथती है,न ही कोई द्वंद्व पैदा करती है। बस एक निःशब्द मौन में सिमट जाती है। अज्ञेय के प्रिय शब्दों में मौन भी रहा है। इस कविता के अन्त में भी कवि कहता है कि प्रिय पाठक यों मेरे वीणा भी मौन हुई। मौन एक ऐसा कोना होता है जो ज़िन्दगी से दूर किसी एकान्त में ले जाता है। एकान्त जहाँ सन्नाटा बजता है। एकदम उसी प्रकार जिस तरह कविता का नायक केश कंबली प्रियंवद अपनी गुफा गेह के एकान्त में चला जाता है।

इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि असाध्य वीणा में सुनियोजित रूप से ऐसा विषय चुना गया है जो ज़िन्दगी के धूल-गर्द से दूर शाश्वतता का भान कराती है और पाठकों से यह अपेक्षा करती है कि फिलहाल वह अपने परिवेश के तत्कालीन दबावों और संघर्षों को बिसरा दें। उनसे कट जाएँ और सृजन प्रक्रिया की जटिलता के उनके रचना सागर में डूब जाएँ। वैसे असाध्य वीणा कविता में कला की उदात्त तक पहुंचनेवाली सृजनात्मक कल्पना के प्रतिमान मौजूद हैं लेकिन शाश्वत कथ्य को लेकर अपने आग्रहों के फलस्वरूप तत्कालीन सामाजिक जीवन की निपट नंगी और चीखती सच्चाई को कवि खो देता है जिसका न तो कोई उसे कोई बोध है और न ही कोई गहरी टीस। इसके परिणामस्वरूप यह कविता कवि की बड़ी कविता नहीं बल्कि एक सजी-सँवरी कला के दायरे में घूमती कविता भर रह जाती है।