अतीत-एक स्मृति / संजय अविनाश

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लँगोटिया यार आशीष और अमन बातों में मशगूल हैं। साँझ गाढ़ी होती जा रही है। हमेशा की तरह अमन के हाथ में एक किताब है। कई बार अच्छी बातें भी आदत से आगे बढ़, लत बन जाती हैं। अमन को भी लत पड़ चुकी है।

पढ़ना बुरा नहीं है। पढ़ने के साथ सेहत का ध्यान भी ज़रूरी है। समय पर खाना-पीना, नहाना-धोना वगैरा। अक़्सर परिवार वाले अमन को समझाते रहते हैं। अमन कभी प्रतिरोध नहीं करता है। बावजूद आदत बदलती नहीं। आशीष का अपना अलग़ अंदाज़ है। अपने ही अंदाज़ में अमन से कहा,

"मेरे 'निराला' चल बहुत हुआ। क्या कर लेगा? कभी तो हँस-बोल लिया कर भाई मेरे। ज़रूरत से अधिक गंभीरता एक किस्म का रोग है। पागलख़ाने भर्ती होना है क्या?"

यह तो कुछ भी नहीं। आशीष इससे भी अधिक बोल जाता है कई बार। अमन है कि शिला बना बैठा है। आएंगे राम और उद्धार करेंगे।

" मेरे तुलसी, यह इकीसवीं सदी है। यहाँ हज़ारों पुष्पक विमान हैं। चाहे तो तू भी उन पर सवारी कर सकता है। इसके लिए तुझे यह हिन्दी भाषा का मोह त्यागना होगा।

पहले कुछ बन ले, फिर जो जी में आए करते रहना; 'घर में खाने को दाने नहीं, अम्मा चली भुनाने'। "

दरअसल दोनों मित्र आपस में बातें कर रहे थे। अमन का कहानी-उपन्यास के प्रति अटूट लगाव बन गया। जब देखो किताबों के साथ बने रहना, कुछ से कुछ लिखते रहना। घरवालों को लगा कि पढ़-लिखकर ज़रूर कुछ बनेगा। उसकी पढ़ाई देख, माँ भी उकता जाती थी और बोल भी दिया करती कि "शरीर पर भी ध्यान दो, सिर्फ़ पढ़ने से क्या होगा? ऐसे में लोग पगला जाते हैं।"

ऐसा सुनकर अमन कुछ देर के लिए किताब-कॉपी बंद कर देता पर माँ के जाते ही पुनः शुरू।

अमन की व्यस्तता, घरवालों की तरह, मित्रो को भी समझ में नहीं आती। आशीष बराबर अमन के घर आया करता था। एक दिन आशीष उसे समझाने का प्रयत्न करने लगा, "अमन! ख़ामखाह राष्ट्रीय धरोहर, कभी राष्ट्रीय गीत तो कभी राष्ट्रभाषा, जब देखो राष्ट्रीय-राष्ट्रीय, क्या रट लगा रखा है?"

अमन ने आशीष की ओर मुड़कर देखा और कहा, "रहने दे आशीष, तुम्हारी समझ में नहीं आएगी।"

आशीष ने मुस्कुराकर कहा,

" अनर्गल प्रलाप और मुझे समझ में नहीं आए?

आज़ादी के पहले किसने क्या किया? कितने कष्ट उठाने पड़े? आखिर इस तरह की गणना किस मंज़िल की ओर ले जायेगी? ...।"

अमन सबकुछ चुपचाप सुनता रहा। पहले से जानता था कि आशीष वाचाल प्रवृत्ति का है। उसे पढ़ाई का मतलब इतना ही पता था, सरकारी नौकरी करना। अमन उसकी बातों को हमेशा से टालते आ रहा था।

आशीष बोले जा रहा था। मानो सोचकर आया हो, आज 'नौ नै तो छौ' कर ही लूँ। आशीष अमन की चुप्पी देख फिर शुरू हो गया, "आजादी के पहले को संभाले हुए रहते तो क्या होता? सड़कें भी गड्ढों में तब्दील हो गई होतीं, बड़े-बड़े महल जो देख रहे हो, वे भूतबंगलों से दिखते। यहाँ तक कि अंग्रेज भी अपने गोरेपन को बनाये रखता और हम सब आज तक उसके पंजों में जकड़े रहते।"

आशीष को बीच में ही रोकते हुए अमन ने कहा, "आशीष, बंद करो अपना लेक्चर। मुझे भी इतिहास-भूगोल पता है। दूसरों से पहले खुद को आंकना चाहिए. इतना रहता तो मैं भी पटना-बनारस पढ़ता। मेरी औकात पता है मुझे। दसवीं तो घर में रहकर ही उत्तीर्ण हो गया। अब आगे के लिए..."

अमन अतीत में चला गया। चार-पांच वर्ष पहले की बात याद आ गई, जब दसवीं बोर्ड में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण किया था। विद्यालय के शिक्षक शुभकामनायें देने घर तक आये थे और पिताजी से बोले थे, "अमन में काबिलियत है, इसे कहीं बाहर भेज दें। आपके साथ समाज का नाम रौशन करेगा।"

उस समय पिताजी ने हाथ खड़े कर दिए थे, यह कहकर कि महीने में पंद्रह-बीस दिन काम मिलता है, उतने में घर-परिवार ही चलाना मुश्किल है, इसे पढ़ाना मेरी कूवत में नहीं। पढ़ने की इच्छा है तो यहीं पढ़े, काम-धाम भी मिल जाएगा।

अब तो पिताजी भी असमर्थ हो गये। घर बैठे कुछ से कुछ कर लेते हैं। आशीष भी अमन के बारें में हर तरह की जानकारी रखता था। उसकी परेशानी भी सालता था। चुप रहना तो आदत थी, लेकिन आज वह अमन से मुँह में अंगुली डालकर बोलवाने पर उतारू था। आशीष ने अमन से कहा, " छोड़ो ये सब कहानी, कविता। हॉलीवुड देखो, देखा तब तो बॉलीवुड बन गया

फिर पॉलीवुड बना। अब वैसा कुछ कर जिससे तकदीरवुड, मनीवुड की बात सामने आ सके. "

आशीष की बातें सुन अमन ऊब-सा महसूस करने लगा। अब उसे सुनने की ताकत नहीं थी। अमन आवेश में न आकर गंभीरतापूर्वक बोला "कैसी बातें करते हो? अपने अतीत को संभाल कर रखो, अपने पूर्वजों को याद करो! उनके नक्शे-कदम पर आगे बढ़ो, समकालीन कुचक्र के पीछे क्यों भागे जा रहे हो? यह चकाचौंध शांति नहीं पहुँचा सकती। बीच मझधार में ही जीवन, आखिरी पन्ने की सफेदी छोड़ जायेगा।"

अब आशीष को लगा कि गाड़ी पटरी पर चढ़ रही है। अब मजा आएगा और आज के बाद राफ-साफ। आशीष ने अमन की आँखों में आँखें डालकर बोलना शुरू कर दिया, "तुमने क्या कर लिया है? कितनी कहानी-कविता आई और चली भी गई. क्या मिला मोटी-मोटी किताबें लिखने वालों को? कई काव्यग्रंथ लिखकर चले गये। अतीत को संभाले रहो, पूर्वज एक धोती पहनते थे, उसी से बदन भी ढकते थे। खाली पैर चलते थे, कांटो की चुभन महसूस करते थे। तुम भी करो, कर ही रहे हो... परिणाम शून्य।"

आशीष की बातें सुन, अमन क्षण भर के लिए शून्य हो गया और उसकी ओर निहारते हुए कहा, "आशीष, कोई बीमारी तो नहीं? दिशा बदलने की कैसी ज़रूरत? कहना क्या चाहते हो? किसी के अधिकार को हथिया रहा हूँ?"

आशीष सब कुछ समझते हुए भी आग में घी डालने का काम करते जा रहा था, ताकि अमन जड़ से उखड़ जाए. यही सोचकर आशीष ने अमन से कहा, "निहारते रहो अपने अतीत को और मिलान करो मोटी-मोटी तह बनाने वालों से। वही आदत, वही सोच, वही विरासत से मिली पूँजी... खटहरे चप्पल, जो आधे रास्ते में साथ छोड़ जाएँ।"

क्षण भर रुक कर फिर उसने कहा, " अमन, कपड़े से पहचाने जाओगे, कोई किस्सा

कहानी लिखने वाला होगा? "

अमन अंदर ही अंदर उत्तेजित होने पर उतारू हो चला। आशीष की बातों में हमेशा प्रश्न चिह्न। फिर भी उसने खुद को संभाले रखा। साहित्यिक रुचि से कुछ अधिक विनम्र व शालीनता की सीख मिली थी। अमन अब समझ चुका था कि इशारा साहित्य की ओर है। उसने विनय पूर्वक कहा, "आशीष, साहित्य ऐसे लोगों से ही उत्पन्न हुआ है, बाकी तो भौतिक सुख।"

अमन की बातें सुन, मानो आशीष को अपार शक्ति मिल गई. मन ही मन फैसला किया कि लोहा गर्म हो चुका है, हथौड़ा मार देना चाहिए. और समय देख शुरू हो गया, "दो रंग का फीता रहेगा, दो-चार रंग के कमीज के बटन और झूलते रहो सारा जीवन। फिर जीवन भर कहानीकार, उपन्यासकार, कवि जैसे सम्मानित शब्दों को ढोते रहो। दो-चार बार वाह-वाह सुन लो, बस भूखे तन सैर करते रहो। इससे अधिक आगे और कुछ नहीं मिलने वाला।" इतना बोलकर आशीष ने सिर नीचे कर लिया और पल भर में ही घर से बाहर जाने की तैयारी कर ली।

अमन ने आशीष को रोकते हुए कहा, "तुम समझने का प्रयास करो। भाषा, संस्कृति भूल जाओगे तो राष्ट्रीयता की कल्पना भी बेईमानी होगी। कोई भी धर्म हो, परंपरा हो, संस्कृति हो, आस्था पर ही टिकी हैं। इसे समझ, इसका सम्मान करो। वरना भौतिकता की चकाचौंध में उमड़ते रहोगे, बादलों की तरह घुमड़ते रहोगे। कहीं एक टीले से टकराया कि गया काम से।"

आशीष तो चाह ही रहा था कि अमन से बात हो, उसने रुकने को कहा तो मन ही मन प्रफुल्लित हो गया।

तत्क्षण अमन से कहा, "मैं बार-बार कहता हूँ, सिर्फ़ किताबों की बात मत किया कर। उसे करीब से देख, हृदय से परख। अपनी सोच को थोड़ा बदल। समझ में आ जाएगी, साहित्य की दुहाई देने वालों की ज़िन्दगी किस तरह गुजर रही है? कोई बेगम आई, रातों-रात लिखने में महारत हासिल कर, रौशन हो गई. महादेवी, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी कवयित्रियों को पीछे धकेल दिया। साहित्य के पालनहारों ने अगली कतार में शामिल कर दिया, यह लिखकर कि अमूक लेखिका में मौलिकता है, कतार के पीछे खड़े लोगों की कराह है, साहित्य रचने की भूख है आदि। तुम्हारा क्या? गांव से बाहर भी नहीं निकल पाओगे। किसी पत्र-पत्रिकाओं में छप भी गये, तो क्या हो जाएगा? मौलिकता भंग होगी। शब्दों से खेलने की चुनौतियाँ मिलेंगी। इससे पहले छपोगे कैसे? छपने के लिए सदस्यता शुल्क या सैकडों में डाक टिकिट चाहिए."

अमन अब तक आशीष के द्वारा कही गई बातों को दरकिनार करता रहा। आशीष की समझदारी पर तरस खा रहा था, लेकिन अबकी बातों से गंभीर हो गया। फिर भी अपने पर विश्वास था और 'ओस की बूँदों' वाली बात, बने रहने की सीख देती थी। इस पर चर्चा करना चाहा कि आशीष ही बोलने लगा, "उनकी भी बातें करूं, जो भाषा-भाषा, चिल्ला-चिल्लाकर मंच सजाते आ रहे हैं? अमन, ये लोग चालाकों की गिनती में आते हैं। जिसने भी गैर भाषा को अपना बनाया, उनके यहाँ कई फ़िल्म वालों ने दस्तक देना शुरु कर दिया और वे भी रातों-रात करोड़पति बन गए. अमन, अंतर इतना ही है कि उनलोगों की अपनी सोच थी। मंज़िल तक पहुँचने के लिए खुद का बनाया रास्ता था। कई ऐसी जगहें दिखाऊँगा जहाँ अतीत, भूली-बिसरी कहानी बन बैठा है। अपने घर-परिवार को देखो, बूढ़े पिता को पढ़ो, समाज की गिरती व्यवस्था को परखो। इतना ही काफी है मेरे दोस्त। अब बहुत हो गया, अधिक तकलीफ़ पहुँचाना मेरा उद्देश्य नहीं, मेरे यार। मैं नहीं चाहता कि तुम यूँ ही समय बरबाद करते रहो।"

अमन की परेशानी बढ़ती ही जा रही थी। बूढ़े पिता की बात याद कर, क्षण भर के लिए कहीं खो गया। दरअसल, पिता मज़दूरी करके अमन की पढ़ाई-लिखाई सुचारू रूप से चला रहे थे। वे चाहते थे कि पढ़-लिख कर कोई मुकाम हासिल करे। खुद पढ़े-लिखे नहीं थे। अमन का हमेशा किताबों में खोए रहना, उन्हें खुशी पहुँचाता था। जब भी देखते, अमन लिखने या पढ़ने में मशगूल रहता था। उन्हें नहीं पता कि किस समय क्या पढ़ा जाना चाहिए. आशीष समझ चुका था, कब कितना वजन देना चाहिए. जाते-जाते उसने अमन से कहा, " दोस्त, एक उदाहरण देता हूँ। हालाँकि तुमपर भूत सवार है, मेरी बात आसानी से नहीं मानोगे, तब भी बताना उचित समझ रहा हूँ, बहाई मंदिर जिसे लोटस टेंपल के नाम से भी जाना जाता है। सन्1985ई. में बना और आज दिल्ली के सर्वाधिक भीड़ वाले पर्यटन स्थलों में शुमार हो गया। हिन्दी भवन भी जाकर देख, सप्ताह में कभी राष्ट्रीय सम्मेलन, कभी राजभाषा सम्मेलन तो कभी अन्तर्राष्ट्रीय। परिणाम क्या? वही 'ढाक के तीन पात।' हाँ,

वैसे लोगों का आना होता है, जिन्हें एक कागज पर कुछ लिखा मिलना तय हो। उस समारोह में लम्बी-लम्बी बातें करने वाले हिन्दी मनीषी, हिन्दी को उच्च-शिखर पर

ले जाने की बात कहते हुए मिल जाएंगे। जो प्रत्येक सम्मेलन में संकल्प को दुहराने-तिहराने में लगे होते हैं। एक ही कपड़े को कई तहों में पहने हुए बंडिल साहब, गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते हैं, यह विश्व भाषा बनने की कगार पर है। दुनिया के सर्वाधिक देशों में बोली जाती है। विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ी-पढ़ाई जाती है। "

आशीष की बातें सुन, अमन सच के करीब से गुज़र रहा था। उसकी बातें कील-सी नुकीली होते हुए भी श्रोतव्य थीं। पहली बार अमन ने कहा, "बोलो, रुक क्यों गये?"

आशीष को लगा, अमन ऊब गया है। अपनी बात को विराम दे, जाने की इजाज़त मांगी। तब तक में अमन की माँ ने आवाज़ दी, "बेटा, रुको, कुछ काम करने लगी थी, आ रही हूँ, तब जाना।" अब आशीष का रुकना बहाना बन गया। फिर अमन से कहा, "अमन! एक बार उन महानुभाव से पूछ तो लिया कर कि उनका लाडला कहाँ है? कैसे अमेरिका, जापान और फ्रांस पहुँच गया? वहाँ हिन्दी का प्रचारक-प्रसारक बन गया। शायद बता देंगे, बतायेंगे ही, क्योंकि औरों की अपेक्षा साहित्यकार ईमानदार माने जाते हैं।"

फिर मुस्कुराते हुए कहा, " जवाब सुन दंग रह जाओगे दोस्त। इसलिए कि उनकी रोटी जल जाएगी। सच यह है कि उनका हर एक कार्य परतंत्रता के सहारे नाच रहा है। उन लोगों ने एक समूह बनाया हुआ है और उसे अपनी गिरफ्त में लिया हुआ है। इससे भी अधिक पाखंडी सोच तो यह है कि 'मेरी बराबरी न कर पावे कोई.' इसलिए हिन्दी का ढोंग रचता जा रहा है। सच बताएंगे तो उन्हें स्वयं लज्जित होना पड़ेगा। आज यदि विश्व के किसी भी कोने में हिन्दी जड़ बनती जा रही है, तो उसको सींचने वाले गरीब मज़दूर ही हैं। जिन्होंने अपनी पेट की ज्वाला शांत करने

के लिए परदेश का सहारा लिया, अन्य भाषाओं से अनजान रहते हुए हिन्दी को पकड़े रखा, हर जगह काले जैसे घृणित शब्दों के प्रहार को सहते हुए भी हिन्दी को

बचाये रखा। आज वही लोग दरकिनार कर दिए गए हैं और ये पाखंडी, उस नींव की मजबूती का श्रेय अपने माथे घूम-घूम कर बताते नहीं थकते?

तुम भी वही करने जा रहे हो? अपना अमूल्य समय फ़िजूल के चक्कर में लुटा रहे हो! जब जानते हो कि हिन्दी विश्व के कोने-कोने में बोली और समझी जाती है। दुनिया भर में दूसरी नहीं तो तिसरी बोली जाने वाली भाषा है, तब परेशानी कैसी? यही न कि तुम्हारा भी नाम हो जाए.

अमन, भूल जाओ इस आडंबर को। ऐसी कोई तरकीब निकालो जिससे दो-चार पैसे जेब में आएँ। आज जो एक कपड़ा भी बदन पर कम पड़ रहा है, उसे तह बनाकर बंडिल बनाने का प्रयास कर। कोई काम धंधा कर। वरना, कल बच्चे होंगे, उनकी पढ़ाई-लिखाई, शादी-विवाह,

ढेर सारे लफड़े आएँगे, उन्हें संभालना मुश्किल हो जायेगा। "

इतना बोल आशीष इधर-उधर झाँकने लगा। अब उसने इस चिंगारी को शांत कर देना उचित समझा। सोचने लगा, कहीं अमन भी आग बबूला न हो जाए. किसी के आने की आहट सुनाई पड़ी, दोनों के मुँह पर एकाएक चुप्पी छा गई. एक थाली में मकई का भूजा लिए माँ आ पहुँची। सामने आते ही बोली, "अभी तो तुम दोनों चिल्ला रहे थे, मेरे आते ही क्या हो गया?"

अमन तो कुछ नहीं बोल पाया। आशीष ने कहा, "कुछ नहीं, हमदोनों की बात है।"

माँ मुस्कुराती हुई बोली, "ठीक कहा तुमने, अब हमारी बात कौन सुने? तुम्हीं समझाओ इसे। आशीष एगो कहावत है, 'पेट में खौर नै, सिंग में तेल'।" इतना बोल माँ अमन और आशीष के बीच से घर की ओर चली गई, जो ठीक पीछे था।

अमन, आशीष की बातों से तंग आ गया था। घंटों तक सुनता रहा, प्रतिक्रिया देने का मतलब समझ चुका था। माँ वाली कहावत सुन अमन अंदर से पीला पड़ गया। पिताजी भी घर में ही थे। कहीं वे समझ न जाएँ कि 'पढ़ने को क्या और पढ़ता है क्या।' अमन अपने किए और देखे पर विश्वास करता था। आशीष से मुँह लगाना उचित नहीं समझा। बातों को बदलते हुए आशीष का ध्यान कहीं और खींचना चाहा और उससे कहा, "छोड़ो इन बातों को। कल प्रवीण की शादी है। चलोगे या नहीं?"

आशीष को मालूम था कि बारात कहाँ जाएगी। प्रवीण एयरफोर्स में नौकरी करता था। आशीष भी संपन्न परिवार से था। प्रवीण की नौकरी होने के बाद संपन्न परिवार वालों से प्रगाढ़ता बढ़ गई थी। हालाँकि वह अमन का घनिष्ठ मित्र था, लेकिन नौकरी का न होना और मज़दूर पिता की हैसियत, मित्रो के बीच भी सौतेले व्यवहार को फलीभूत करने के लिए काफ़ी था। अमन के प्रस्ताव को सुनते ही आशीष ने जवाब दिया, "वहाँ भी तो वही बातें होंगी, राष्ट्रकवि दिनकर जी का जन्म स्थान, दिनकर नगरी। तुम तो वही करोगे। देखना, सोचना, पढ़ना, फिर दो-चार रुपये के कागज़-कलम की बरबादी। तुम जाओगे, मैं नहीं जा पाऊँगा। मुझे घिन आती है, इस तरह के निकम्मों पर।"

अब अमन का गुस्सा आसमान पर। खिन्नता तो घंटों पहले से ही थी। अब निकम्मा सुन, खून गर्म हो गया। लेकिन करे तो क्या करे? परिस्थिति उसके अनुकूल नहीं थी। एक अपराधी की भाँति बुत बना रहा, ठीक उसकी तरह, जिसका अपराध की दुनिया में बड़ा नाम हो, लेकिन घर में पत्नी के सामने नतमस्तक होकर सुनता रहे।

तब भी उसने मित्र की हैसियत से बोला, "तुम्हें चलना होगा। देख लोगे, अपने अतीत को। वहाँ के लोगों में कितना सम्मान है? बार-बार परंपरा, संस्कृति की बात करते हो, सामने दिखेगा।"

आशीष मुस्कुराने के साथ होंठ को दबाते हुए कहा, "तब तो चलूँगा, देख भी लूँगा, हमारे समाज ने कितनी दूरी तय की है? ऐसे कहीं पढ़ा होगा-दिनकर नगरी में ईंट-ईंट पर उनका नाम लिखा है। दीवारों पर कहीं 'हुँकार' तो कहीं 'उर्वशी' अंकित है। 'सिंहासन खाली करो' की भी बात दुहराई जाती है। चलोगे! मैं तैयार हूँ।" इतना बोल आशीष घर के लिए निकल चला।

दूसरे दिन ठीक आठ-नौ बजे रात्रि सिमरिया गाँव, जो बेगूसराय जिला अन्तर्गत बिहार प्रांत में बसा है। किताबों की दुनिया से लेकर, कलम के सिपाही कहे जाने वाले हों या बिंदी लगाकर हिन्दी की दुहाई देने वाले, सब की जुबान पर 'रामधारी सिंह दिनकर की सिमरिया' पैठ बनाए हुए है। सिमरिया की हरियाली, असीम ऊर्जा प्रदान करने में अव्वल।

उस पावन धरती को अमन ने मन-ही-मन प्रणाम किया। उस मिट्टी के महक ने दिलों-दिमाग में स्फूर्ति पैदा कर दिया।

रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठा।

बारात गाँव घूमने लगी। शहरों की भांति बम जैसे पटाखों की आवाज़ नहीं। बारात के आगे-पीछे गाँव वालों की भीड़ साथ थी, ताकि आए हुए अभ्यागतों को परेशानी न हो। अमन की निगाहें दीवारों पर ही रहती थीं। बैंड-बाजे के पीछे-पीछे अमन, आशीष के साथ दीवारों पर लिखी कविताओं को निहारे जा रहा था। मन तो मानो सातवें आसमान पर था, रोम-रोम खिल उठे थे उसके. जहाँ कहीं रंग-पेंट किया हुआ घर नज़र आता, मन कुछ देर के लिए प्रफुल्लित हो जाता। अमन की आँखें दीवारों पर, तो पलभर में ही आशीष पर। बस, यही सोच रहा कि जो मैं देख रहा हूँ, वह आशीष देख रहा या नहीं। आज अमन खुद को बलवान समझ रहा है। आशीष की चुप्पी देख और खुशी महसूस होती थी। सामने वाले घर की दीवारों पर दिनकर जी की कविता पढ़ने को मिली, जहाँ एक नहीं बल्कि पूरे दीवारों पर दर्जनों कविताओं की एक-एक पंक्ति लिखी हुई थी। अमन उत्साहित हो आशीष से बोल पड़ा, " पढ़ो आशीष, कल तुमने बहुत कुछ समझाया। देखो क्या लिखा है, 'जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।' और उधर देखो, ' ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले के काले,

शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले। '

बीच-बीच में आशीष को दिखाता और समझाता, "देखो आशीष, अपने अतीत को कैसे संजोये हुए है?"

आशीष चुप हो अपनी हार देख, लज्जित महसूस करने लगा। बोले तो क्या? प्रमाण सामने। गाँव भ्रमण के उपरांत बारात कन्या द्वार तक पहुँच गई. नाश्ते-पानी के साथ हर तरह की व्यवस्था सुदृढ़ मालूम पड़ी। पंडाल सजा हुआ। बड़े-बड़े साउंड बॉक्स लगे हुए थे। एक आवाज निकालो तो वही आवाज मिनटों तक गूँजती रहती। चमचमाती कुर्सियों पर आसन ग्रहण करने के बाद जयमाल का दौर चला। कन्या पक्ष से अभिनंदन पत्र पढ़ना प्रारम्भ हुआ। पढ़ने वाले भी शायद हिन्दी के मनीषी ही थे। अभिनंदन पत्र की हरेक पंक्तियों के बाद एक पंक्ति कविता होती थी, जो ओज से पूर्ण। अमन कविता सुन, प्रफुल्लित हो रहा है। हृदय से दिनकर की धरती को नमन करते नहीं थक रहा। हर पंक्ति सुनने के बाद आशीष को निहारता ज़रूर।

काव्य पाठ की धारा बहाते हुए, शुभ वेला जयमाल की ओर पहुँच चुकी, दो दिलों का बंधन, हृदय का मिलन,

परिणय बंधन से पल भर दूर। इस घड़ी से पहले, कविवर ने अपना परिचय दिया, "मैं राष्ट्रकवि का काफ़ी करीबी हूँ। मेरे दादाजी के बंगले पर बैठ कर लिखा करते थे। आज भी उनकी पांडुलिपियाँ को जीर्ण-शीर्ण अवस्था में संभाले हुए हूँ। यह हमारा संस्कार है, इसे संभालकर रखना, नक्शे-कदम पर चलना कर्तव्य बनता है। उन्हीं का आशीर्वाद है कि जो भी पंक्तियाँ पढ़ा हूँ, वह मेरी है।"

उनकी आत्म प्रशंसा सुन, अमन हतोत्साहित हो गया। राष्ट्रकवि पीछे छूटते गये। राष्ट्रकवि दिनकर ने उत्तराधिकारी सिमरिया वासी को बनाकर चले गए थे। उन्हें खुद में लग रहा था, दिनकर जी का नाम लेकर कहीं स्वयं को बौना न साबित कर ले। जगह-जगह कविता, उनकी लेखनी से उपजे हुंकार। समय देख, आशीष टपक पड़ा, " देख लिया न अमन! क्या मिला? उनका ही काव्यपाठ होता रहता

तो शायद विवाह का लग्न खत्म हो जाता। "

पुन: लाउडस्पीकर से आवाज आई, " अगर बारातगण में से कोई सज्जन अपनी बातें रखना चाहते हैं,

तो आएँ और अपनी बात रखें, उनका अभिनंदन है। "

अमन आनन-फानन में उठ खड़ा हुआ और झट से माइक को हाथ में ले, करुणभाव से बोलने लगा-_"बड़े ही हर्ष के साथ कहना चाहता हूँ कि जिस महान व्यक्तित्व की पहचान को भारत ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व सम्मान देने को व्याकुल है, जिस पावन धरती की मिट्टी की सौंधी खुश्बू, देश-विदेश के विद्वानों को ललायित करती आ रही है। आज जिस धरा का स्पर्श एक अलौकिक सुख की अनुभूति प्रदान कर रहा है। उन व्यक्तित्व को एवं उनकी इस पावन धरा को मेरा नमन! किन्तु, असहनीय पीड़ा भी कम नहीं। _ काव्यपाठ होते हुए, अभिनंदन पत्र से लेकर परिणय बंधन तक में आये-गये आगन्तुकों के द्वारा उन महान आत्मा की चर्चा तक नहीं होना, दुषित मन: स्थिति का परिचायक है या दूसरे रूप में कहें तो अपने में मग्न समुदाय, समाज के कई रूपों में वर्चस्व कायम रखने वाले अल्पज्ञानी, अपने अतीत को भूलते हुए, नैतिक एवं वैचारिक मूल्यों को गिराने पर विवश दिखे। उन्हें लग रहा है कि दिशा बदलने से समाज में बदलाव आएगा। दिनकर जी जैसे ओजस्वी व्यक्तित्व को पीछे छोड़ आएँगे। आदरणीय, मैं भी चाहता हूँ कि ऐसा हो...अमन कुछ देर के लिए चुप हो गया, कोई प्रतिक्रिया न देख, फिर बोला," लेकिन अतीत को दरकिनार करके संभव नहीं, बल्कि अतीत के आत्मसात से ही संभव हो सकेगा। अगर ऐसी मनसा है तो अनर्गल प्रलाप के सिवाय और क्या? आज समझ पा रहा हूँ कि समाज द्वेष भावनाओं से पीड़ित है, जो गिरती मानवीयता, बंटती सोच और अपने होने का दंभ दर्शाती है। "

आदरणीय, इसे बचाए रखें, बनाए रखें। संस्कृति कहीं बिकती नहीं है, सुसंस्कृत समाज। ...

इसी बीच पीछे से कन्यापक्ष के एक सज्जन आए और विनम्रता के साथ अमन से माइक लेते हुए कहा, "शुभ मुहूर्त की वेला समाप्त होने वाली है।"

अनल की आँखें आशीष को ढूंढने लगीं। अनायास कानों तक आवाज सुनाई पड़ी, " बदल गई मेरी स्याही

वो तेजाबों वाली

ठंडी पर गई शब्द की आँच

बस, राख बचे हैं खाली!

...

सुना रही व्यथा अपनी

कलम आज रो-रो कर। "

आशीष युवा कवि रवि की कविता गुनगुना रहा था। अमन आती आवाज के करीब पहुंच गया, अब उसकी मायूसी उड़नतश्तरी की भांति उड़ चली।

अमन की हल्की मुस्कान आशीष को छूने चला।