अतीत और वर्तमान के समांतर चलते हुए / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गली-कूचों में अफवाहों की तितलियाँ उड़ रही थी। बेखौफ। कभी वे अखबारों के पन्नों में लिपटकर तो कभी खिड़की-दरवाजों की सुराखों में से फलांगकर घरों में प्रवेश पा जाती थी।

निशा इन सब बातों से अनजान थी। वह नहीं जानती थी कि उसके खिलाफ कौन शडयंत्र रच रहा है। वह तो यह भी नहीं जानती थी कि उसका मकसद क्या है? वह तो अपने आप में व्यस्त थी। अपने में खोई हुई, दीन-दुनिया से बेखबर, मीरा की तरह, अनिरूद्ध के नाम का इकतारा बजाती हुई।

अभी पन्द्रह दिन पहले ही तो वह गोवा की ट्रिप से वापिस लौटी थी और आते ही बिस्तर से जा लगी थी।

कॉलेज के प्राचार्य ने उसका नाम प्रपोज करते हुए, आदेश पारित कर दिए थे कि वह लड़कियों के ग्रुप की इंचार्ज होगी। लड़कों के ग्रुप का प्रतिनिधित्व अनिरूद्ध कर रहा था। उसे जब इस बात की जानकारी मिली तो उसने सानुनय इस प्रस्ताव के विरूद्ध अपनी असहमति दर्ज करा दी थी।

उसकी सोच के केंद्र में अनिरूद्ध था। उसके प्रति बढ़ती आसक्ति और बाद में मिलने वाली बदनामी के डर से, उसने वहाँ जाने से मना कर दिया था। पूरे पन्द्रह दिन की एक्सजर्सन ट्रिप थी वह कॉलेज की तरफ से।

अनिरूद्ध से उसकी पहली मुलाकात बड़ी ही अजीबो-गरीब परिस्थितियों में हुई थी। वह किसी अन्य कॉलेज से स्थानांतरित होकर आया था, जहाँ वह स्वयं सहायक प्राध्यापक थी।

कॉमनरूम में प्रवेश करते ही उसकी नजर अनिरूद्ध पर जा पड़ी, वह वहीं ठिठककर खड़ी हो गई। वह उस समय स्टॉफ के अन्य सदस्यों के बीच घिरा बैठा बतिया रहा था। उसे देखते ही वह भय-मिश्रित आश्चर्य से घिने लगी थी ष्कौन है यह नवयुवक? उसकी शक्ल तो हू-ब-हू अजय से मिलती-जुलती है, वही नाक-नक्श, वही तराश हुआ चेहरा, शरीर-शौष्ठव, कद-काठी और बातें करने का अंदाज भी तो मिलता-जुलता है। उसकी नीली-भूरी आँखें और हॅंसने का अंदाज भी तो अजय से मिलता है। हूँ

वर्तमान में रहते हुए वह अतीत की सीढ़ियाँ उतरने लगी थी।

एम.ए. प्रीवियस की छात्रा थी वह उन दिनां। शाम के यही कोई चार-साढ़े चार बजे रहे होंगे। यह वह समय होता है जब परिवार के सारे सदस्य एक साथ बैठकर चाय पीते हैं। वह किचन में चाय बनाने में व्यस्त थी। तभी माँ ने कमरे में प्रवेश करते हुए उससे तीन प्याली चाय और बढ़ा देने को कहा। उसने सुना-अनसुना करते हुए लापरवाही से अपनी गर्दन को झटकते हुए अंदाजा लगाया कि पापा के दोस्त-वोस्त आ धमके होंगे। किचन से लौटते समय माँ यह भी कह गई थीं कि चाय के साथ कुछ खारा-मीठा और बिस्कुटें भी लेती आए।

एक बड़ा-सा ट्रे हाथ में उठाए वह बैठक-कक्ष में पहुची। वहाँ पापा के दोस्त नहीं थे... कोई अन्य भद्र-पुरूश बैठे दिखलाई दिये। वह समझ गई। आने वाले निश्चित ही उसे देखने आए होंगे। उसने सहज ही अंदाज लगाया था। तभी पापा के कहे शब्द याद हो आए जब तक तेरी पढ़ाई पूरी नहीं हो जाती, हम शादी की बात नहीं करेंगे। हूँ पापा का वचन याद आते ही वह आश्वस्त हो चली थी।

नजदीक पहुची ही थी कि पापा ने लगभग चहकते हुए कहा ष्ये रही हमारी बिटिया निशा...और निशा.... ये हैं मिस्टर अजय... कॉलेज में सहायक प्राध्यापक हैं और ये इनके माता-पिता। उंगलियाँ नचाते हुए उन्होंने सभी का परिचय करवा दिया था। हूँ

ट्रे अब भी हाथ में ही था। उसने शिष्टाचारवश अपनी गर्दन को झुकाकर सभी का अभिवादन किया। ट्रे को सेन्टर टेबिल पर रखते हुए वह माँ के करीब सटकर बैठ गई थी।

चाय की प्याली बढ़ाते हुए उसने अजय को देखा, तो बस देखते ही रह गई थी वह। अब एक अजीब किस्म की बेचैनी में घिरनेलगी थी। दिल जोरों से धड़कने लगा था। सॉंसें बेकाबू हो गई थी। अजय की नीली-भूरी आँखों के समन्दर में, जो एक बार डूबी तो फिर उबर न सकी थी।

बात पक्की हो, इससे पूर्व ही उसने अपना मंतव्य कह सुनाया कि वह आगे भी पढ़ना चाहेगी। अजय की स्वीकृति की मुहर लग जाने के बाद, वह उसे और भी सुन्दर दिखाई देने लगा था।

और इस तरह वह अजय के साथ शादी के बंधन में बंधकर ससुराल चली आई थी।

माँ-बाबूजी का आशीर्वाद और अजय का प्यार पाकर वह निहाल हो गई थी। दिन सुनहरे और रात मतवाली हो उठी थी। चारों तरफ खुशियों के बादल बरस रहे थे और वह उसमें सराबोर भी हो रही थी।

पर ये खुशियाँ ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाई। नियति के क्रूर हाथों ने, उसके माथे पर लगे सिंदूर को बड़ी ही बेरहमी के साथ पोंछ डाला था। वह सधवा से विधवा बना दी गई थी। फूलों की सेज, कॉंटों में बदल गई थी। उसके सपनों का रंग-महल धूसर-कॅंटीला हो गया था और वह एक मर्मान्तक पीड़ा के दौर से गुजरने लगी थी।

माँ और बाबूजी का बुरा हाल था। वे विक्षिप्त से रहने लगे थे। अपने इकलौते बेटे के गम ने उन्हें पगला सा दिया था। उनका हॅंसता-खेलता आशियाना जैसे जलकर खाक हो गया था।

अहिल्या की सी बुत बनी निशा ने अपनी पीठ पर हल्का सा स्पर्श पाकर पीछे पलटकर देखा। वहाँ कोई और नहीं, बाबूजी खड़े थे। उनकी शून्य में झॉंकती निस्तेज निगाहों को देखकर वह भय के मारे कॉंपने लगी थी और अब फबक कर रो ही पड़ी थी।

देर तक चुप्पी ओढ़े रहने के बाद उन्होंने अपना मौन तोड़ा था। बड़ी ही संजीदगी के साथ। शब्द जैसे दुःख के कीचड़ में सने थे और बोलते समय उनकी जुबान लड़खड़ा रही थी।

ष्बेटा... अजय जहाँ तुम्हारा पति था, वहीं वह हमारा बेटा भी था। जितना दुःख तुम्हें है, उतना हमें भी है। दुःख आखिर दुःख ही होता है। वह न तो बड़ा होता है और न छोटा। वह तो आदमी के कमतर अथवा तीव्रतर अनुभव अथवा आघात के आधार पर छोटा-बड़ा हो सकता है। फिर जाने वाले के पीछे जाया भी तो नहीं जा सकता। न तो कभी कोई गया है और न ही यह संभव है। सभी को अपनी-अपनी उमर की फसल यहीं काटनी होती है। हूँ

मेरा इशारा उस आने वाले कल की तरफ है, जहाँ हमें या तो मर-मर के जीना है अथवा जीते-जी मर जाना है। आने वाला कल सुखभरा हो... बस मेरी यही कामना है। मेरा क्या है... बुझता हुआ चिराग हूँ। नहीं जानता... मेरे दीये में कितना तेल बाकी बचा है। आज नहीं तो कल बुझ ही जाउंगा। तुम्हें अभी जीना है, फिर तुम्हारी अभी उमर ही कितनी है।

मैं नहीं जानता, तुम अपनी बात कहकर भूल चुकी हो अथवा नहीं। लेकिन मुझे अब भी याद है। तुमने कहा था कि तुम शादी के बाद भी पढ़ना चाहती थी। याद आया? तुम मेरी मानो तो कल से ही कॉलेज ज्वाईन करो। एम.ए. करो और परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ। तुम्हें उस खाली जगह को भरना है, जिसे अजय छोड़ गया है।

बाबूजी की बातें सुनकर वह हतप्रभ भी। इसव उम्र में भी इतना जोश और जोश वाली बातें और भविय में झॉंक सकने वाली दूर-दृष्टि देखकर उसने भी अपनी हिम्मत की ढहती दीवारों की मरम्मत करनी शुरू कर दी थी और इस तरह वह एक सहायक प्राध्यापक बनकर उसी कॉलेज में चली आई थी, जहाँ अजय था। अजय के द्वारा खाली किए गए जगह में अपने-आपको पाकर वह गदगद हो उठी थी।

दो मिनिट से भी कम समय में उसने अपने अतीत के गहरे समन्दर को खंगाल डाला था। वह और न जाने कितनी ही देर यू ही खड़ी रहती, अगर उसे अपनी सहकर्मी मेडम पॉल ने झकझोर कर बाहर न निकाला हो ष्निशाजी... आज बाहर ही खड़े रहने का इरादा है क्या?हूँ अंदर नहीं चलेंगी?

अपने अतीत की दुनिया को पीछे छोड़ते हुए वह बाहर तो आ गई थी लेकिन अब भी सामान्य नहीं हो पाई थी। दिल पूर्ववत ही जोरों से धड़क रहा था और सॉंसें फूली हुई थी। वह जैसे-तैसे अपने-आपको उस कमरे में ठेल पाई थी।

औपचारिक परिचय के बावजूद वह उससे मिलने अथवा बात करने से अपने- आपको बचाती रही थी। वह जितना भी बचने का प्रयास करती, वह उतना ही पास आता चला गया था। वर्तमान और अतीत के समान्तर चलते हुए वह अपने-आपको असहजता की स्थिति में ही पाती थी।

प्राचार्य के आदेश पाने के बाद के दो दिनों तक वह सो न सकी थी। उठते-बैठते-टहलते उसे एक ही ख्याल आ घेरता, वह कैसे जा सकेगी? उसे जाना ही नहीं चाहिए। पूरे पन्द्रह दिन तक अजय का और उसका साथ रहेगा। स्वाभाविक है... बातें भी करनी पड़ेगी। समय-समय पर सलाह-मशविरे भी करने पड़ेंगे अथवा देने पड़ेंगे। वह अपने-आपको कब तक बचाती फिरेगी। क्या वह अनिरूद्ध से यह कह पाएगी कि उसकी सूरत, उसके अजय से हू-ब-हू मिलती है और वह उसमें अपने पति अजय की छबि को ही पाती है। कैसे कह सकेगी वह? फिर एक विधवा को आज का क्रूर और दकियानूसी समाज, यह सब कैसे करने देगा? तरह-तरह की बातें बनाई जाने लगेगी। संभव है कि सहज होते हुए भी कोई ऐसी-वैसी हरकतें कर बैठी तो भला वह लड़कियों की नजरों से अपने को कैसे बचा पाएगी? वे कंधे उचका-उचका कर यहाँ-वहाँ कहतीं फिरेगी कि एक विधवा को यह सब कहाँ करना कहाँ तक उचित है। उसकी बदनामी तो होगी ही, साथ में बाबूजी का सिर भी शर्म से झुक जाएगा। वह किस-किस के मुँह पर ढक्कन लगाती फिरेगी।

ढेरों सारे प्रश्नों का जवाब देते-देते वह थक सी गई थी। अंत में उसने निर्णय ले लिया था कि वह ट्रिप में जाने से मना ही कर देगी। बाबूजी को जब इस बात का पता प्राचार्य महोदय से मिला तो वे ख़ुश नहीं हुए थे। उनकी मान्यता थी कि प्रकृति का संग अच्छे से अच्छे जख्मों को भी भर देता है। समझाईश देते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि वे अपने विचार उस पर लाद नहीं रहे हैं बल्कि सलाह दे रहे हैं कि चारदीवारी के भीतर घुट-घुटकर जीने के बजाय, प्रकृति की गोद में जाना चाहिए, जहाँ हर चीज खुली होती है। जहाँ खिड़की-दरवाजे नहीं होते, वहाँ ही ईष्वर का वरदान बरसता है।

बाबूजी के विचार किसी तपोनिष्ट साधु पुरूश के जैसे थे, उनके एक-एक शब्द में जादू भरा सम्मोहन तो था ही, साथ ही एक दिव्य-दृष्टि भी थी, जो अंधेरे को भेदकर दूर तक जाती थी।

प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वह बाबूजी के आदेश को टाल नहीं सकी थी। उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए वह वहाँ जाने की तैयारी करने लगी थी।

औरंगाबाद, पुणे, नासिक और मुंबई होते हुए ट्रिप गोवा पहुची थी। कॉलेज की ओर से प्रायोजित यह एक्सकर्सन ट्रिप पूरे पन्द्रह दिनों की थी।

गोवा की हसीन वादियों में कदम रखते ही वह पुनः अजय की यादों में खोने लगी थी। वह जहाँ भी जाती, अजय की यादें उसका बराबर पीछा करती रही थी।

अपनी शादी के बाद हनीमून मनाने वह गोवा ही तो आई थी। उन यादगार पलों को वह भूल भी कैसे सकती थी। उसने मन ही मन निर्णय ले लिया था कि अब वह अपनी ओर से ऐसा कुछ नहीं होने देगी जो बदनामी का कारण बने। इस निर्णय के साथ ही वह ट्रिप का इन्जॉय करने लगी थी।

अजय के व्यक्तित्व की वह शुरू से ही कायल रही है, लेकिन वर्तमान में साथ-साथ रहते हुए उसने उसके अंदर छिपे अन्य विशिष्ट गुणों को भी जॉंच-परख लिया था। अजय के व्यवहार में कहीं भी बनावटीपन नहीं था। उसके नैसर्गिक गुणों के कारण ही तो वह एक जगमगाते हीरे की तरह था। दूरियाँ अब नजदीकियों में बदलने लगी थी और मौन, मुखर होने लगा था।

शाम का समय हो चला था। सभी छात्र-छात्राएं पहाड़ी की चोटी पर बैठे सुर्यास्त का दिलचस्प और अद्भुत नजारा देख रहे थे।

एक बड़ा सा सिंदूरी गोला, आसमान और समुद्र के मध्य लटक रहा था। हवाएं तेज चलने लगी थी और समुद्र की उद्याम लहरें किनारों से आकर टकराने लगी थी। समुद्री पक्षियों का झुण्ड आसमान में अपने करतब दिखला रहे थे। उनकी चहचहाटों से समूचा वातावरण संगीतमय हो उठा था।

सिंदूरी गोला आहिस्ता-आहिस्ता नीचे की ओर उतरने लगा था। समूचे आसमान और समुद्र का पानी सिंदूरी रंग में बदल गया था।

इस अनुपम और अद्भुत नजारे को देखते हुए निशा, पुनः अजय की यादों में घिरने लगी थी। उसे ऐसा महसूस हुआ कि अजय उससे सटकर बैठा है और उसकी विशाल बाहें उसकी कमर के इर्द-गिर्द लताओं की सी लिपटीं हुई हैं।

अजय तो खैर अब इस दुनिया में नहीं था, लेकिन यादों के झरोखों से वह अब भी झॉंक रहा था। उसकी निकटता से उत्पन्न ताप और स्पर्श की उष्मा, वह अब भी महसूस कर रही थी।

देखते ही देखते वह सुनहरा गोला समुद्र में पूरी तरह उतर चुका था। चारों तरफ सुरमई अॅंधियारा घिरने लगा था और अब वह गहराने भी लगा था।

अपने वर्तमान में लौटते हुए वह वापिस लौट जाने के लिए उठ खड़ी हुई थी। पूरे इत्मीनान के साथ अपने कदमों को आगे बढ़ाते वह पहाड़ी उतरने लगी थी। सारी सावधानियों के बावजूद उसका पैर बुरी तरह से फिसला और वह एक चीख के साथ नीचे जा गिरी थी। उसके घुटने, हथेलियाँ जख्मी हो गए थे और बाँए पैर की हड्डी संभवतः चटक गई थी।

अनिरूद्ध उससे कुछ फासला बनाकर चल रहा था। उसे गिरा हुआ देख और आवाज सुनकर वह पास आ गया और मदद के लिए छात्र-छात्राओं को आवाज देने लगा था। लेकिन पास में कोई भी नहीं था। शायद उसकी आवाज उन तक नहीं पहुची थी। उसे मदद देने के लिए अब स्वयं आगे बढ़ने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। उसने उसे अपनी बाहों में भरकर उठा लिया और अब वह धीरे-धीरे पहाड़ी उतरने लगा था।

किसी पर-पुरूश के सामीप्य का वह पहली बार अनुभव कर रही थी। दर्द का सैलाब अपने चरम पर था। बावजूद इसके वह एक निर्वचनीय सुख का भी अनुभव कर रही थी।

तत्काल ही उसे हॉस्पिटल ले जाया गया था।

सारी जॉंच के बाद डॉक्टर ने पैर में फैक्चर होना बताया था और अब एक बड़ा-सा प्लास्टर उसकी टॉंग पर चढ़ा दिया गया था।

ट्रिप का सारा मजा ही इस दुर्घटना के बाद किरकिरा हो गया था। एक दिन पूर्व ही समापन की घोशणा के साथ ही छात्र-छात्राएं वापिस लौटने की तैयारी करने लगे थे।

उदासी की चादर ओढ़े अनिरूद्ध, अपने कमरे में बैठा निशा के बारे में ही सोच रहा था। दरअसल आज वह अपने मन की गॉंठ उस पर उजागर कर देना चाहता था लेकिन वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाया था।

अपने विचारों की खोल से वह बाहर भी नहीं आ पाया था कि दरवाजे पर हल्की-सी दस्तक सुनकर उसने लापरवाही से उसे अंदर आने को कहा। उसकी अपनी सोच थी कि कोई छात्र अपनी समस्या को लेकर उसके पास आया होगा।

उसकी आँखें फटी की फटी ही रह गई थीं। आने वाला कोई छात्र नहीं बल्कि एक छात्रा थी, उर्वशी। उसने झीने कपड़े पहन रखे थे। पारदर्शी कपड़ों के भीतर से उसका गदराया यौवन झॉंक रहा था।

उर्वशी को भला कौन नहीं जानता। अपनी धींगा-मस्ती और खुलेपन के लिए वह सदा ही सुर्खियों में बनी रहती थी। अपने कॉलेज ज्वाइन करने के दिनां से वह भी उसे जानने लगा था।

अंदर आते ही वह बुलबुल की सी चहकने लगी थी।

ष्हाय हैण्डसम... किस गम में डूबे हुए हो?हूँ

हूँओह तुम... क्यों आई हो इस समय... और वह भी इतनी रात गए ?हूँ

ष्क्या करती सरे ... दिल मान ही नहीं रहा था... सो चली आईहूँ

उसकी बेशर्मी-भरी बातों को सुनकर उसे क्रोध हो आया था। मन में आया कि उसे खूब जलील करे और तत्काल बाहर निकल जाने की कह दे, लेकिन वह कह नहीं पाया था। मुँह से कोई भी बात निकालने के पहिले वह उस बात को तौल लिया करता था, तब अपना मुँह खोल पाता था। यह उसकी अपनी आदत थी, वह सोचने लगा था कि ऐसा करने से कहीं दॉंव उल्टा भी पड़ सकता है। ऐसी लड़कियाँ अक्सर अपने बचाव को लेकर तरह-तरह के दॉंव-पेंचों को निर्धारित करने में माहिर होती हैं। वे जानती हैं, कब-कहाँ-कौन सा दॉंव लगाना चाहिए। यदि वह उल्टे उसी पर इल्जाम मढ़ देगी तो वह कहाँ-कहाँ अपनी सफाई देता फिरेगा। बातों को गम्भीरता से सोचते हुए उसने निर्णय लिया कि इस खूबसूरत बला को, यहाँ से किसी तरह टाल देने में ही भलाई है।

उसने बड़ी ही अजीजी के साथ कहा-ष्देखिए मैडम... इस समय में काफी डिस्टर्ब हूँ... जो भी बातें आप कहना चाहती हैं... उसे कल के दिन में भी कही जा सकती है। कृपया मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए और आप यहाँ से तशरीफ ले जाने की कृपा करें।

हूँअपनी मादक अदाओं को बिखेरती और गोल-गोल आँखें नचाते हुए उसने कहा- ष्सर जी... मैं आई तो थी ही इस इरादे से कि आज की रात इसी कमरे में बिताउंगी... वह भी आपके साथ, लेकिन... जानेमन... जाने की कह रहे हैं। मैं चली जाउंगी... बेशक चली जाउंगी... लेकिन मेरी भी तो कुछ सुन लीजिए। क्यों लट्टू हो रहे हैं आप निशा मेडम पर ? क्या रखा है, खास उसमें, जो हममें नहीं है। सिर से पाँव तक एकदम फिट... खूबसूरती से भरा जिस्म। नाप भी 34-24-34 का है। नाप कर देख लीजिए। हूँ इतना कहते ही उसने अपने उपर का टॉप उतारकर फेंक दिया था। कमर से उपर का धड़, एकदम नंगा था, विवस्त्र।

उसकी इस निर्लज्ज हरकतों को देखकर वह दंग रह गया था। सच ही सोचा था उसने कि वह किसी भी पायदान पर उतर सकती है। उसकी पेशानी पर पसीना छूने लगा था। दिल एक अजीब सी जकड़न में कसने लगा था। वह कब यहाँ से बाहर जाती है, वह इसकी बड़ी ही बेसब्री से इंतजार करने लगा था।

उर्वशी शायद अपना होश खो बैठी थीं उसका पूरा शरीर उत्तेजना में कांप-सा रहा था। आँखें नचाते हुए उसने कहा- ष्देखा आपने, मैंने कहा था न! निशाजी से बीसा ही पड़ूगी। हूँ

मैं एक खिला हुआ फूल हूँ, जिसमें चटक रंग है... खुशबू है... मकरंद है... अपनी शोखियाँ भी है, वह आपको एक कदम आगे बढ़कर खुला निमंत्रण दे रहा है और आप हैं कि बासी फूल पर मंडरा रहे हैं। कैसे भॅंवरे हैं आपहूँ

शायद आप नहीं जानते। आपको यह बताना भी जरूरी है कि वह एक जूठन है... उतरा हुआ कपड़ा है। समझ रहे हैं न आप... मेरे कहने का मतलब है कि वह किसी की विधवा है। मुझे आपकी सोच पर अफसोस ही नहीं हो रहा है, बल्कि तरस भी आ रहा है।

मैं जा रही हूँ। हाँ मैं जा रही हूँ, लेकिन मेरी बात कान खोलकर सुन लीजिए, मेरा नाम उर्वशी है। उर्वशी के रूप-सौंदर्य के सामने जब विश्वामित्र भी नहीं टिक पाए थे तो आप कहाँ लगते हैं? उर्वशी जब कोई चीज ठान लेती है तेा करके भी बताती है। उसका मन जिस चीज पर भी आ जाता है, वह उसे प्राप्त करके ही दम लेती है। जब मेरा दिल आप पर आ ही गया है तेा आपको पाकर ही रहूँगी... बाई हुक या क्रुक... समझे आप? किसी ने कहा है कि प्यार में जोर-जबरदस्ती नहीं की जाती। मैं आपको अपने राह पर ले ही आउंगी एक दिन। हूँ कहते हुए उसने जमीन पर पड़े टॉप को उठाया, पहना और जूतियाँ खटखटाती बाहर निकल गई।

दरवाजा धड़ाम से बंद हो गया था।

उस खूबसूरत बला को वह गुस्से में जाता देखता रहा। दरवाजे की धड़ाम सी आवाज सुनते ही उसका दिल भी जोरों से धड़कने लगा था। वह सोचने लगा था- हूँउर्वशी जाते-जाते उसे खुली धमकी दे गई है। गुर्राहट से साफ झलकता है कि वह चैन से नहीं बैठेगी। वह कोई भी हरकत कर सकती है। आने वाले दिन उलझनों से भरे मिलेंगे... यह तय है। एक घायल नागिन और एक अतृप्त-आत्मा अपना बदला लेने के लिए उस समय तक घात लगाए बैठे रहते हैं, जब तक वे अपना बदला नहीं भंजा लेते। उसे अब हर कदम पर सावधानी बरतनी होगी। हूँ

वह यह भी सोचने लगा था- कैसी नादान व बेवकूफ लड़की है उर्वशी। शरीर से वह भले ही एक सम्पूर्ण औरत के जिस्म में ढल गई है, लेकिन उसका बचपना अभी भी नहीं गया है। अकल से भी कच्ची लगती है... वह यह नहीं जानती कि दिल कोई ऐसी-वैसी फालतू चीज तो नहीं कि जब मन में आया, किसी को भी उठाकर दे दिया। वह क्या जाने दिल और दिल की भाषा। हूँ लापरवाही से सिर झटकते हुए उसने अपने आप से कहा था।

जाने को वह चली तो गई थी लेकिन एक शांत झील में वह एक बड़ा-सा पत्थर जरूर उछाल गई थी। उसका मन भी किसी झील की तरह अशांत हो उठा था। विचारों की असंख्य लहरें, तट पर आकर टकराने लगी थी।

पूरी रात वह चैन की नींद नहीं सो पाया था।

सुबह होने के साथ ही सामान गाड़ियों पर लादा जाने लगा था।

वापिस लौटने के साथ ही निशा बिस्तर पर जा टंगी थी।

वह न तो चल-फिर ही सकती थी और न ही कोई काम ही कर सकती थी। कभी वह तकिया का सहारा लेकर बैठी रहती अथवा मैग्जीन के पन्ने पलटती रहती या फिर अपनी आँखें बंदकर अपनी पलकों में मीठे हसीन सपना को सजाती रहती। समय था कि काटे नहीं कट रहा था।

वह इन बातों से सर्वथा अनभिज्ञ थी कि बाहर कहाँ, क्या हो रहा है। वह तो यह भी नहीं जानती थी कि कौन उसके खिलाफ विश-वमन कर रहा है। सोते-जागते-उठते-बैठते वह अनिरूद्ध के बारे में ही सोचती रहती थी।

उसकी आँखों के सामने गोवा की हसीन वादियाँ, उॅंची-नीची पहाड़ियाँ, लहलहाता समुद्र तैरते रहते और उन सबके बीच होता अनिरूद्ध।

अनिरूद्ध को पाकर उसके दिल की मुरझाई कलियाँ फिर से मुस्कुराने लगी थीं। चारों तरफ वसंत का सा माहौल छाने लगा था। शरीर का रोम-रोम सितार की तरह झंकृत हो रहा था। उसे तो ऐसा भी लगने लगा था जैसे वह किसी परीलोक में चली आई है।

मीठे-हसीन सपनों को देखती हुई वह सो रही थी कि अचानक दर्द का एक सैलाब आया और उसके सारे सपनों को बहाकर ले गया। एक तीखे दर्द के अहसास ने उसे रोने पर मजबूर कर दिया था।

दर्द से निजात पाने के लिए उसने सिरहाने पड़े दवा का रैपर उठाया, एक गोली निकाली, जीभ पर रखी और पानी के घूट के साथ ही उसे हलक के नीचे उतार लिया।

दर्द अब भी पूरी रफ्तार के साथ चिलक रहा था।

थोड़ी देर बाद उसे राहत मिलने लगी थी। वह पुनः अपने खयालों में खोने लगी थी।

उसे इस ख्याल ने लगभग चौंका ही दिया था कि वह क्यों अनिरूद्ध को चाहने लगी है? क्या उसे ऐसा करने का अधिकार है? क्या आज का दकियानूसी समाज उसे ऐसा करने की इजाजत देगा? वह कभी किसी की अमानत रही है, उसे वह अपना दिल की क्या शरीर भी सौंप चुकी थी। क्या वह उसके प्रति विश्वासघात नहीं होगा? जिस दिल में उसने अजय को जगह दी थी, अब क्या वह उसे निकाल बाहर फेंकेगी और अनिरूद्ध को बसने की जगह देगी। क्या वह इतनी आसानी से उसे भूल पाएगी? अजय को एकदम से भुला पाना उतना आसान नहीं है।

यह ठीक है कि उसके मन में अनिरूद्ध को लेकर एक प्यार का पौधा अंकुरित हुआ है। वह उसे चाहने लगी है। वह सिर्फ एक-तरफा प्यार है। क्या अनिरूद्ध के मन में भी इसी तरह का प्यार पनप रहा है? क्या वह भी उसे चाहने लगा है? मेरे अपने बारे में सब कुछ जानते-बूझते हुए वह क्या ऐसा कर पायेगा? उसने अपनी ओर से कभी भी इस बात को उजागर नहीं किया है। यह टीक है कि वह रोज़ उसे देखने आता है। इसका आशय तो यह कदापि नहीं लगाया जा सकता कि वह केवल प्यार जताने ही आ रहा है। एक सहकर्मी होने के नाते भी तो वह आ सकता है।

प्रश्नों के चक्रव्यूह में वह बुरी तरह फॅंस गई थी और बाहर निकल जाने के रास्तों के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी।

समय का बहाव अपने साथ सब कुछ बहाकर ले जाता है। उसने अपने जीवन की नौका को समय के बहाव के साथ खुला छोड़ देने का मानस बना लिया था। वह यह नहीं जानती कि उसकी नाव किस घाट पर जाकर लगेगी अथवा उद्याम लहरों के थपेड़ां में चूर-चूर होकर, सदा-सदा के लिए समुद्र के गर्भ में समा जाएगी।

प्रेम-प्यार-समर्पण जैसे शब्दों को बलाए-ताक पर रखते हुए, वह उस घड़ी का इंतजार करने लगी थी, जो भविय की मुट्ठियों में कैद थीं।

उर्वशी चुप बैठने वालों में से नहीं थी। वह चुप बैठी ही कहाँ थी। आने के साथ ही वह इस उधेड़बुन में लगी रही थी कि वह किस तरह से अनिरूद्ध को पा सकती थी। सारे हथकण्डे अपनाने के साथ ही वह उन्हें समाज में बदनाम करने की भी योजना बना चुकी थी।

खबरों को सनसनीखेज बनाते हुए वह उसे कागजों पर उतारती और अखबारों के पन्नों के बीच रखवाकर उन्हें घरों-घर पहुचवाने लगी अथवा खिड़की-दरवाजों की सुराखों से अंदर डलवा देती। शुरू-शुरू में लोगों ने उसे महज एक एड का पुर्जा समझकर रद्दी की टोकरियों के हवाले कर दिया तो कभी उसे यू ही फाड़कर फेंक दिया। फिर अचानक ही ये खबरें लोगों की जुबान पर चढ़कर बोलने लगी। बद्रीविशाल के विशाल व्यक्तित्व के चलते लोगों की हिम्मत उनके सामने मुँह खोलने की तो नहीं हुई, लेकिन दोनों के प्रेम-प्रसंगों की चर्चाएं आम हो गई थी।

अपने मिशन को असफल होता देख वह क्रोध में भरने लगी थी। असफल होने के बावजूद उसने हिम्मत नहीं हारी थी। अब वह कॉलेज परिसर मं ही नए-नए हथकण्डे अपनाती और अनिरूद्ध को रिझाने की कोशिश करती। अनिरूद्ध भी कम होशियार नहीं था। वह उसकी हर चाल को शिकस्त देता चलता था।

अनिरूद्ध निशा से मिलने और हाल-चाल जानने के लिए सुबह समय नहीं निकाल पाता था। हाँ, शाम को वह कॉलेज से छूटते ही वहाँ जा पहुचता था।

आने के साथ ही वह सीधा बाबूजी के कमरे में जा पहुचता था। निशा के हाल-चाल पूछता, फिर यहाँ-वहाँ की बातें करता हुआ, वह वापिस हो लेता था। उसने कभी-भी भूलकर सीधे निशा के कमरे में जाने की जहमत नहीं उठाई थी। उसकी अपनी शालीनता, आत्म-सजगता और कुशल-व्यवहार से सभी का दिल जीत लिया था। बाबूजी भी उसमें अपने बेठे का स्वरूप देखकर उसे पुत्रवत् स्नेह भी करने लगे थे। निशा भी उसके कर्तव्यबोध की सराहना करते नहीं थकती थी।

दो माह बाद वह पूर्णतः स्वस्थ हो गई थी। हड्डियाँ जुडृ गई थी और अब वह चल-फिर भी सकती थी।

कॉलेज जाने के लिए अपनी गाड़ी न निकालते हुए उसने पैदल ही जाने का निश्चय किया। दरअसल वह यह देखना चाहती थी कि कहीं कोई कोर-कसर बाकी तो नहीं रह गई है।

हाथ में किताबों को उठाए वह कॉलेज की ओर बढ़ रही थी। बाहर आते ही उसे लगा कि इस बीच पूरी दुनिया ही बदल गई है।

उसे देखते ही औरतों और पुरूषों की भीड़ इकट्ठी होने लगी थी। वे आपस में खुसुर-फुसुर भी करते जा रहे थे। उन्हें ऐसा करता हुआ देख, वह असहज होने लगी थी। उसे आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि पूर्व मं ऐसा कभी नहीं हुआ था।

जब वह अपने क्लास-रूम में पहुची तो ब्लैक-बोर्ड पर अपनी और अनिरूद्ध की तस्वीरें बनी देखकर वह सन्न रह गई थी। कमरे में सन्नाटा पूरी तरह से पसरा हुआ था। छात्र-छात्राएं टकटकी लगाए उसके चेहरे पर पड़ने वाले प्रभावों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे।

वह समझ गई। उसे समझने में ज्यादा देर भी नहीं लगी थी। उसके सोच के केंद्र में उर्वशी थी। वह जानती थी कि वह कुछ भी कर सकती है। गोवा की ट्रिप में भी वह यह ऐसी-वैसी हरकतें कर चुकी थी लेकिन तब वह माहौल को गड़बड़ होता नहीं देखना चाहती थी, लेकिन पानी अब सर पर से उॅंचा बहने लगा था।

वह यह भी जानती थी कि इस समय थोड़ा-सा भी आक्रोश दिखाने से मामला खटाई में पड़ सकता है। संभव है कि वह बाजी भी हार जाए और लोगों के बीच तमाशा बनकर रह जाए।

अपने धैर्य और संयम को बचाए रखते हुए उसने अपने ओंठों पर एक विस्मित भरे हास्य को बिखेरा, जैसे कुछ हुआ ही न हो। उसने डस्टर उठाया और बोर्ड साफ करते हुए उसी तन्मयता से पढ़ाने लगी, जैसे वह पहले भी पढ़ाती आई थी।

अपना पिरीयड पूरा करने के बाद उसने उर्वशी से मुखातिब होकर कहा कि वह उससे अलग से बात करना चाहती है, एकांत में।

उसे अब उर्वशी का इंतजार था। एक पेड़ के नीचे खड़े रहकर वह उसके आने का इंतजार कर रही थी।

उर्वशी को आता देख उसने संतोश से गहरी सॉंसें ली और अब वह उसके साथ आगे बढ़ने लगी थी।

रास्ता चलते उसने मौन ओढ़ रखा था। उर्वशी हतप्रभ थी कि कि मेडम उसे कहाँ और क्यों ले जाना चाहती है।

रास्ता कट गया और कब घर आ गया, पता ही नहीं चल पाया। उर्वशी भी बिना कुछ बोले उसके पीछे-पीछे यंत्रवत् चलती रही थी।

अपने कमरे में प्रवेश करने के साथ ही निशा ने अपनी तर्जनी उठाकर उस ओर इशारा किया जहाँ अजय की तस्वीर लटक रही थी और उस पर एक माला भी लटक रही थी। उसने कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा- ष्ये मेरे स्वर्गवासी पति अजय की फोटो है। हूँ

उर्वशी की नजरें चकराने लगी थी। वह सोचने लगी थी...अरे... इसकी सूरत तो हू-ब-हू अनिरूद्ध से मिलती है। ऐसे कैसे हो सकता है? उसने अपने आप से कहा था।