अतीत नृत्य / गी द मोपास्साँ

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फ्रेंच कथाकार गी द मोपास्साँ (1850-93) को आलोचकों ने कथाकारों के ‘रास्ते का शेर’ बताया है। कुछ हद तक यह सही भी है। ‘अतीत नृत्य’ मोपासाँ की उन कहानियों में से है, जो उसकी कहानी-कला का उत्कृष्ट नमूना तो पेश करती ही हैं, साथ ही बताती हैं कि मोपासाँ चाहने पर बेहद मार्मिक और अनाटकीय कहानियाँ भी लिख सकता था। जो उसके तीखे अनुभवों की कहानियाँ हो सकती थीं।

महान विपत्तियाँ मुझ पर कोई असर नहीं डालतीं। (ज्या ब्रिदेल ने कहा था। वह कुँआरा था और समझा जाता है कि शक्की मिजाज का भी था) मैंने लड़ाई का मैदान निकट से देखा है। बिना किसी दुख या पश्चात्ताप के मैं शवों पर से गुजर गया हूँ। प्रकृति अथवा मनुष्य द्वारा किये गये भीषण अत्याचार हममें डर और घृणा पैदा कर सकते हैं। मगर वे हमारे दिल में हमेशा बने नहीं रह सकते। कुछ तुच्छ, लेकिन पीड़ा पहुँचानेवाली घटनाओं की तरह वे कँपकँपा नहीं देते।

किसी माँ के लिए सबसे बड़ा दुख है उसके बच्चे की मौत और किसी आदमी के लिए उसकी माँ की मौत। यह दुख बहुत ही भयानक और दिल दहलानेवाला होता है। यह उस दुखी आदमी को तोड़ देता है और तबाह कर देता है। मगर फिर भी आदमी अन्ततः इससे उबर आता है। ठीक वैसे ही, जैसे रिसता घाव अन्ततः ठीक हो जाता है। मगर फिर भी कई बार कुछ लोगों के साथ ऐसी मुलाकातें हो जाती हैं -कुछ अर्ध प्रकट दुख अथवा भाग्य के कुछ ऐसे छल - जो हमारे अन्दर विचारों की एक दुखभरी दुनिया जगा देती हैं। ऐसे क्षण अनायास ही मानसिक कष्टों का एक रहस्यमय जगत हमारे सामने रख देते हैं -उलझन भरा, जो अत्यन्त हलका होने के कारण बेहद गहरे तक उतर जाता है, और चूँकि उसे वर्णित नहीं किया जा सकता, इसलिए उसका एहसास उतना ही तीखा भी होता है। इस तरह की बातें दिल में उदासी छोड़ जाती हैं और मोहभंग का एहसास भी दे जाती हैं, जिससे हम जल्दी नहीं उबर पाते।

मेरे दिमाग में अब भी दो-तीन घटनाएँ बेहद स्पष्ट हैं, जिन पर कदाचित दूसरे लोग ध्यान भी न देते, मगर जिन्होंने मुझे बुरी तरह बींध दिया है।

शायद आप न समझ सकें कि इन छोटे-छोटे अनुभवों से ऐसी भावनाएँ क्यों पैदा होती हैं। मैं आपको केवल एक उदाहरण दूँगा - एक बहुत पुराना उदाहरण, मगर इतना ताजा, जैसे कल ही घटित हुआ हो। मेरे अन्दर यह जो भावनाएँ पैदा करता है, सम्भव है, वह मेरी कल्पना के कारण ही हो।

मेरी उम्र इस समय पचास की है। यह घटना तब घटित हुई थी, जब मैं जवान था। मैं कानून का विद्यार्थी था... स्वप्निल और उदास। मुझे शोर-शराबेवाले काफे या हल्ला-गुल्ला मचानेवाले साथी छात्र अथवा बेवकूफ लड़कियाँ कतई पसन्द नहीं थीं। मैं सुबह जल्दी उठता था। सुबह आठ बजे जार्दिन ट्यू लक्समबोर्ग के नर्सरी बगीचे में अकेले घूमना मुझे पसन्द था।

यह नर्सरी बगीचा बहुत पुराना था। यह अठारहवीं सदी के किसी भूले-बिसरे बगीचे की तरह था... किसी बूढ़े, कोमल चेहरे की सुन्दर मुस्कान जैसा। घनी झाड़ियों और तरतीब से कटी पत्तियों को माली सदा काट-तराश कर रखता था। बीच-बीच में फूलों की कतारें थीं, जो स्कूल जाने वाली लड़कियों की दोहरी कतारों या गुलाब की झाड़ियों अथवा फूलों के पेड़ों की करीने से लगी कतारों की तरह लगती थीं।

इस खुशनुमा कुंज के एक कोने में मधुमक्खियों का बसेरा था। उनके छत्ते लकड़ी के तख्तों पर जमे हुए थे और उनके प्रवेश-द्वार सूरज की ओर थे। पूरे बगीचे की सँकरी पगडण्डियों पर सुनहरी मधुमक्खियाँ गुनगुनाती रहती थीं। वे उस शान्त कोरीडोर जैसे रास्तों की असली मालिक थीं।

मैं वहाँ लगभग हर सुबह जाता था। एक बेंच पर मैं पढ़ने बैठ जाता। कभी-कभी मैं किताब को घुटनों पर गिर जाने देता और दिवास्वप्नों में खो जाता। मेरे चारों ओर पेरिस का कोलाहल होता और मैं उस पुरानी दुनिया के लता-कुंजों का आनन्द लेता रहता।

मगर शीघ्र ही मुझे पता चला कि मैं ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो बगीचे के दरवाजे खुलते ही वहाँ पहुँच जाता था। झाड़ियों के पास से मुड़ते हुए कभी-कभी मेरा सामना एक अजीबोगरीब बूढ़े से हो जाता था। वह तस्में बँधे जूते, लम्बी ब्रीचिज, नसवारी रंग का कोट और मफलर पहने रहता था। और उसके सिर पर एक चौड़ा-सा बीवर हैट होता था।

वह बहुत दुबला-पतला व्यक्ति था और हमेशा मुस्कराता रहता था। उसकी चमकीली आँखें फड़फड़ाती रहती थीं और पलकों के नीचे चारों ओर घूमती नजर आती थीं, उसके हाथ में हमेशा सोने की मूठवाली छड़ी रहती थी, जो जरूर कोई पुरानी यादगार रही होगी।

शुरू-शुरू में तो मुझे उस बूढ़े को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, पर बाद में मैं उसमें बहुत रुचि लेने लगा। पत्तियों की दीवार के बीच से मैं उसे देखा करता, कुछ दूर रहकर उसका पीछा करता, और मोड़ों पर मैं रुक जाता, ताकि वह मुझे देख न सके।

एक सुबह की बात है कि यह सोचकर कि वह वहाँ एकदम अकेला है, उसने कुछ अजीबोगरीब हरकतें करनी शुरू कर दीं। पहले तो वह काफी देर तक उछलता-सा रहा, उसके बाद उसने काफी झुककर अभिवादन-सा किया। तब उसकी सींकिया टाँगों ने एक और खूबसूरत प्रदर्शन किया, जिसके बाद उसने बड़े आकर्षक ढंग से घूमना शुरू कर दिया। बड़े अजीब ढंग से वह उछल और काँप रहा था-किसी काल्पनिक दर्शक-समूह की ओर देखकर वह मुसकराता रहा, अपनी बाँहों से कलात्मक हरकतें करता रहा और अपने कठपुतली-से शरीर को मोड़ता-घुमाता रहा। बीच-बीच में वह हवा में ही कुछ शुभेच्छा के शब्द उछालता जाता था। वह नाच रहा था!

मैं अवाक् खड़ा था-सोच रहा था, हममें से कौन पागल है।

मगर तभी अचानक वह रुक गया। स्टेज पर आगे बढ़ते हुए अभिनेता की तरह वह आगे बढ़ा। उसने सर झुकाया और फिर काँपते हाथों को होठों से छुलाकर चुम्बन देता हुआ किसी प्रमुख अभिनेत्री की शालीनता से वह पीछे हट गया।

फिर वह अपने रास्ते आगे बढ़ गया।

और तब से मैंने कभी उसे अपनी नजरों से ओझल नहीं होने दिया। और हर सुबह वह अपना अजीबोगरीब प्रदर्शन करता रहा।

मुझे उससे बातचीत करने की तीव्र इच्छा हो आयी। और तब, एक सुबह अभिवादन करते हुए मैंने कहा, “कितना सुहाना दिन है, महाशय!”

उसने सर झुकाते हुए मेरे अभिवादन का उत्तर दिया और कहा, “हाँ, महाशय। लगभग वैसा ही सुहाना, जैसा पहले कभी होता था।”

एक सप्ताह में ही हम मित्र बन गये। उसने मुझे अपनी कहानी सुनायी। वह लुई 15वें के समय में ऑपेरा नृत्य-शिक्षक था। उसकी सुनहरी छड़ी उसे कोन्ते दि क्लेरमोन्त ने उपहार में दी थी - नृत्य के विषय को लेकर वह धाराप्रवाह बोलता चला गया।

और तब एक दिन उसने मुझे बताया, “मेरी पत्नी का नाम ला केस्त्रिस है। यदि आप चाहेंगे, तो मैं उससे आपकी मुलाकात करा दूँगा। लेकिन वह यहाँ केवल दोपहर को आती है। यह बाग ही हमारा एकमात्र मनोरंजन है। हमारा जीवन है। पुराने दिनों की यही एक यादगार है। हम महसूस करते हैं कि यदि यह न होता, तो हम जिंदा न रह पाते। यह पुराना है और शालीन है। मुझे लगता है कि यहाँ मैं उसी हवा में साँस लेता हूँ, जो मेरे जवानी के दिनों से आज तक बदली नहीं है। मैं और मेरी पत्नी पूरी दोपहर यहाँ बिताते हैं। मगर मैं सुबह भी यहाँ आता हूँ। क्योंकि मैं जल्दी उठ जाता हूँ।”

दोपहर का भोजन समाप्त करने के तुरन्त बाद ही मैं लक्समबोर्ग पहुँच गया। शीघ्र ही मैंने देखा कि मेरा मित्र एक बूढ़ी औरत के साथ हाथ में हाथ डाले चला आ रहा है। औरत ने काली पोशाक पहनी हुई थी। हमारा परिचय कराया गया। वह महान नृत्यांगना ला केस्त्रिस थी - राजकुमारों और राजाओं की चहेती। उस रँगीली शताब्दी की नायिका, जिसने विश्व को प्रेम से सराबोर कर दिया था।

हम बेंच पर बैठ गये। मई का महीना था। फूलों की सुगन्ध से वातावरण महक रहा था। गर्म-आरामदेह धूप पत्तियों पर बिखरी हुई थी और हम पर तेज प्रकाश फेंक रही थी। ला केस्त्रिस की काली पोशाक उस प्रकाश में और भी गहरी हो उठी थी।

बाग खाली था, लेकिन दूर से बग्घियों की आवाज सुनाई दे रही थी।

मैंने उस बूढ़े नृत्य-शिक्षक से पूछा, “आज मुझे बताइए, मिनुएट क्या होता है?”

वह कुछ चौंका, फिर बोला, “महाशय, मिनुएट् नृत्य भंगिमाओं की रानी है और रानियों की नृत्य भंगिमा है, और अब, जबकि राजा नहीं रहे, तो यह राजनृत्य भी नहीं रहा।”

और तब उसने विस्तार से मिनुएट के बारे में बताना शुरू किया। मैंने उससे इस नृत्य की भंगिमाओं के बारे में पूछा। उसने मुझे सब कुछ समझाने की चेष्टा की, लेकिन वैसा कर न पाया और उसे दुख होने लगा। वह उदास था और निराश भी। और तब अचानक वह अब तक चुप और गम्भीर बैठी पत्नी की ओर घूमा और उससे कहने लगा, “एलिजे, क्या तुम इन महोदय को वह राजनृत्य दिखाने को राजी हो? तुम्हारी बहुत कृपा होगी।”

चारों ओर सतर्क दृष्टि से देखती हुई वह उठ खड़ी हुई और बिना एक शब्द भी बोले उसके सामने अपने स्थान पर खड़ी हो गयी।

और तब मैंने एक ऐसा दृश्य देखा, जिसे मैं कभी नहीं भुला सकूँगा।

वे कदम मिलाकर आगे-पीछे नाच रहे थे, जो बड़ा बचकाना लग रहा था। वे एक-दूसरे को देखकर मुसकरा रहे थे, सिर झुका रहे थे, उछल रहे थे। ठीक वैसे ही, जैसे चाबी से चलनेवाली पुरानी गुड़ियों का जोड़ा, जो लगता था, अब कुछ गड़बड़ा गया है। पर जिसका निर्माण किसी ऐसे कलाकार ने किया होगा, जो अपने समय में काफी सक्षम रहा होगा।

जब मैं उन्हें देख रहा था, तो मेरा हृदय असाधारण संवेदना से भर गया था। मेरी आत्मा में अकथनीय उदासी घिर आयी थी। मेरे मन में बीती हुई सदी की एक दुख भरी याद ताजा हो आयी थी। साथ ही यह सब मुझे एक मजाक-सा लग रहा था। मैं एक साथ ही हँसना और रोना चाहता था।

अचानक ही वे रुक गये। कुछ क्षण तक वे एक-दूसरे के सामने खड़े रहे-अजीब-सी नजरें लिये। तब वे एक-दूसरे की बाँहों में डूब गये और सुबकने लगे।

तीन दिन बाद मैं प्राविंसिज रवाना होने वाला था। मैंने फिर उन्हें कभी नहीं देखा। दो साल बाद, जब मैं पेरिस लौटा, तो वह नर्सरी बाग लापता हो चुका था। मैं नहीं समझ पाया कि उस पुराने बाग के बिना, जिससे उन्हें इतना लगाव था, जिसमें वही पुरानी सुगन्ध थी और शानदार पगडण्डियाँ बनी हुई थीं, उनका क्या हुआ होगा?

हो सकता है, वे मर गये हों। या वे अब भी हमारी आधुनिक गलियों में निष्कासितों की तरह भटक रहे हों, और या वे प्रेत बन गये हों, जो किसी कब्रगाह में चाँदनी रात में वही पुराना राज नृत्य कर रहे हों।

उनकी स्मृति अब भी मुझे परेशान कर देती है, यह किसी न भरनेवाले घाव की तरह पीड़ा देनेवाली स्मृति है। मैं नहीं बता सकता कि ऐसा क्यों है - कदाचित आप मुझे मूर्ख कहेंगे!