अथ सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यान / भाग 1 / गरिमा श्रीवास्तव

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उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दो अलग भारतीय भाषाओं में लिखी गई आत्मकथाएँ 'आमार जीबन' (बाँग्ला) और 'आत्मचरितमु' (तेलुगु) का पाठ विश्लेषण क्यों अनिवार्य बन पड़ा है, इसका उत्तर स्त्री आत्मकथाओं की सैद्धांतिकी के व्यावहारिक पक्ष से संबद्ध है। आज पश्चिम और पूर्व दोनों जगहों पर लैंगिक अध्ययन केन्द्रों, क्षेत्रीय एवं तुलनात्मक अध्ययन केन्द्रों में ऐसे टेक्स्ट की माँग जोर पकड़ चुकी है जो बदलते शैक्षिक आग्रहों की पूर्ति कर सके। ऐसा 'टेक्स्ट' जो व्यक्ति और समाज के विविधमुखी अनुभवों को प्रामाणिकता में प्रस्तुत करे। स्त्री आत्मकथा-आलोचना के लिए जरूरी है कि आत्मकथाओं के 'टेक्स्ट' खोजे जाएँ। पुराने 'टेक्स्ट' का पुनर्पाठ किया जाए और परस्पर असम्बद्ध दिखने वाली कड़ियों को एक जगह रख कर देखा जाए। 'आत्मकथा' में संबंधों का परिविस्तार प्रायः रचनाकार, उसके आत्मीयों-संबंधियों तक ही सीमित होता है। फिर भी, जिन अनुभवों से समाज की छोटी-बड़ी अस्मिताओं के सामूहिक अनुभवों का निर्माण होता है, उनको देखने के लिए 'आत्मकथाएँ' महत्वपूर्ण होती हैं। विशेषकर स्त्री के आत्मकथ्य का विश्लेषण उसका समाज, पीड़ाएँ, चोटें, लिंगभेद, मनोसामाजिकी, भाषा भंगिमाओं की विशिष्टता को सामने लाने में मदद करता है। बाँग्ला की पहली स्त्री आत्मकथा 'आमार जीबन' और तेलुगु की पहली स्त्री आत्मकथा 'आत्मचरितमु' के टेक्स्ट का विश्लेषण भिन्न प्रदेशों में, भारतीय नवजागरण के दो अलग पड़ावों पर समाज सुधार आंदोलनों की भूमिका, स्त्री की स्थिति, विशेषकर ब्राह्मण सवर्ण स्त्री, जो सतही तौर पर समृद्ध-तृप्त है और स्त्री रचनाकार की जीवन-यात्रा की अभिव्यक्ति, संस्कृति-दर्शन-आत्म के सामाजिक संदर्भ की प्रकृति और वर्गीय अध्ययन की दृष्टि से दिलचस्प हो सकता है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शती के प्रथमांश में प्रकाशित भारतीय आत्मकथाओं के बरअक्स इन्हें रखने से एक पूरी विस्मृत साहित्यिक परम्परा हमारे सामने जीवन्त हो उठती है। ये आत्मकथाएँ व्यक्ति और समाज के बीच की दरारों को दिखाती हैं। ये दरारें काल और समय के साथ परंपरा और प्रचलन की, सत्य और तथ्य की, व्यवहार और विमर्श के बीच के अन्तराल को चिह्नित करती हैं। स्त्री आत्मकथाओं ने इधर हाल के वर्षों में एक बड़ा पाठक-वर्ग तैयार किया है। भारतीय संदर्भ में, साहित्येतिहास के आधुनिक युग की पहली कही जाने वाली अलग-अलग भाषा में लिखी गई ये दो आत्मकथाएँ पढ़ते समय हमें लगता है कि कैसे सामाजिक अभ्यास अपनी पूरी तात्कालिकता और संपूर्णता के साथ एक उत्तेजक अनुभव में रूपांतरित हो जाते हैं और तब स्त्री का अनुभव सिर्फ एक व्यक्ति का अनुभव नहीं रह जाता। वह सामाजिक संस्था के अनुभव में रूपांतरित होकर सार्वभौमिक हो जाता है। बगैर कहे भी स्त्री का वक्तव्य राजनीतिक हो जाता है। ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत की नव्य पितृसत्तात्मक व्यवस्था से 'आमार जीबन' और 'आत्मचरितमु' अपनी-अपनी शक्ति सीमा में टकराती हैं। जार्ज गस्टोर्फ ने लिखा था - 'किसी ऐसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जहाँ चेतन और आत्म अपने बारे में ठीक तरह से बात नहीं करते वहाँ आत्मकथा लेखन संभव नहीं।' (कंडीशनंस एंड लिमिट्स ऑफ ऑटोबायोग्राफी, जार्ज गस्टॉर्फ, 'ऑटोग्राफी : एस्सेज थियोरेटिकल एंड क्रिटिकल', जेम्स ओल्नी (सं.) में, पृ. 28) आश्चर्यजनक रूप से भारतीय पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के औपनिवेशिक दौर में भिन्न-भिन्न भाषाओं को किसी तरह लिख-पढ़ सीख पाने वाली दो स्त्रियाँ, अलग-अलग कालखंडों में(बाँग्ला में राससुंदरी देवी सन 1868 और तेलुगु में सत्यवती की आत्मकथा सन 1934 में लिखी गई) अपनी कथा लिख रही हैं, दोनों स्त्रियाँ भारतीय सामाजिक वर्ण व्यवस्था की उच्चतम श्रेणी से संबद्ध हैं, सवर्ण हैं, लेकिन स्त्री होने के कारण दलित भी। एमिली डिकिंसन ने कहा था - 'सच बोलो लेकिन थोड़ा-तिरछा करके। सीधे-सीधे सच बोलना भारी पड़ सकता है।' इसी को कृष्णा हठी सिंह ने अपनी आत्मकथा 'विद नो रिग्रेट्स' में अपनी भतीजियों को, प्रकारान्तर से स्त्रियों को, सलाह दी थी, 'तुम निःसहाय दिखाई पड़ो, लेकिन सक्षम रहो। तब प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारी सहायता के लिए आगे बढ़ेगा और यदि कभी कोई तुम्हारी सहायता के लिए आगे नहीं भी आता, तो भी तुम अपनी देखभाल स्वयं कर सकती हो।'

सच को थोड़ा टेढ़ा करके बोलने की कला राससुंदरी देवी और सत्यवती को सीखने की आवश्यकता नहीं थी। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को अपने अस्तित्व की रक्षा के तमाम उपाय बचपन से ही घुट्टी में पिलाए जाते हैं। सुधा मजुमदार ने आत्मकथ्य में अपनी माँ द्वारा सिखाए मंत्र के हवाले से बताया है कि पिता स्वर्ग है, पिता ही धर्म है, पिता को प्रसन्न करने से परमपिता प्रसन्न रहते हैं... विवाह के बाद मंत्र वही रहता है, बस 'पिता' का स्थान 'पति' ले लेता है।