अधूरा आदमी / गिरिराजशरण अग्रवाल

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जीवन की परिस्थितियाँ किस तरह आदमी की मूल प्रवृत्ति को बदल देती हैं, जब भी इस सवाल पर सोचता हूँ, मुझे पंकज शर्मा याद आए बिना नहीं रहता। मैंने उसकी खिलखिलाती हुई जवानी देखी थी और पतझड़ में किसी वृक्ष के मुरझा गए पत्तों जैसा बुढ़ापा भी। वह एक ऐसा व्यक्ति था, जिसे बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों का नमूना कहा जा सकता है।

गठीला, औसत से कुछ निकला हुआ क़द। गोल चेहरा, सुख़ीर् लिए गोरा रंग, साफ़-सुथरे कपड़ों में सजा-धजा, बातचीत की कला में निपुण। वह उन व्यक्तियों में से एक था, जो पहली ही भेंट में दूसरों का मन मोह लेने या उन पर अपने व्यक्तित्व का अच्छा प्राभाव डालने की क्षमता रखते हैं। मुझे यह तो अब याद नहीं कि पंकज शर्मा मुझे कब और कहाँ मिला था, लेकिन जब मिला था तो इस तरह जैसे वह मुझे बरसों से जानता हो। वह बातचीत में हर विषय पर सभ्य ढंग से बोला। पहली ही भेंट में मुझे लगा था कि वह एक अच्छा नौजवान है और उससे बार-बार मिलते रहने में कोई हानि नहीं है।

पंकज शर्मा पहली बार जब मुझसे मिला था, तब वह आकाशवाणी के स्थानीय केंद्र में कैजुअल उद्घोषक के रूप में कार्य कर रहा था। उसने मुझे बताया था कि महीने में कभी छह, कभी चार और कभी सात कार्यक्रम उसे मिल जाते हैं, जिनसे वह सिफ़र् इतना पैसा कमा पाता है कि रोटी खा सके. इससे ज़्यादा नहीं। उसने मुझे यह भी बताया था कि वह कोई इससे बेहतर सर्विस तलाश करने के लिए दौड़-धूप कर रहा है, लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही है। सीमित आय ने उसे जीवन के हर क्षेत्र में हिसाब-किताब का आदमी बना दिया था।

पंकज शर्मा सच्चाइयों को छिपाता नहीं था। उसका ख़याल था कि मनुष्य अपनी बहुत सारी आदतें उस जीवन-शैली से चुपचाप ग्रहण कर लेता है, जिससे वह गुजर रहा होता है।

उदाहरण के लिए उसने प्रारंभिक भेंट में ही मुझे बताया था कि 'आकाशवाणी' पर कार्य करने के फलस्वरूप अब उसके रोजमर्रा के जीवन में टाइम का महत्त्व बढ़ गया था। पंद्रह मिनट का कार्यक्रम करने के लिए उसे ठीक समय पर आकाशवाणी पहुँचना होता है। ठीक समय पर रिका²डग करानी होती है, ठीक समय पर उसे प्रारंभ और समाप्त करना होता है। न एक मिनट आगे और न एक मिनट पीछे। बार-बार के इन अभ्यासों ने अब हर काम एक निश्चित समय के अंदर करने की आदत डाल दी है उसमें। वह समय की डोर में ऐसे बँध गया है, जैसे कठपुतली मदारी की डोर से बँधी होती है।

इस रहस्य का उद्घाटन पहली बार उस समय हुआ, जब वह ठीक आधे घंटे से चल रही वार्ता को बीच ही में छोड़कर जाने लगा।

उस दिन हम वर्तमान राजनीति पर बात कर रहे थे। मेरा विचार था कि लोकतंत्र से बेहतर और कोई व्यवस्था नहीं है, कितु पंकज शर्मा मेरी बात मानने को तैयार नहीं था।

उसका विचार था कि प्रत्येक व्यवस्था अपनी उत्पत्ति के प्रारंभिक काल में ही कुछ समय तक उस मूल धारणा से जुड़ी रहती है, जिसे लेकर वह सामने आई थी। समय बीतने के साथ-साथ उससे जो आदर्श जुड़े होते हैं, वे तो पृष्ठभूमि में चले जाते हैं और स्वार्थी तत्त्व उसे अपने व्यक्तिगत हित साधने का माध्यम बना लेते हैं। धर्मों से लेकर सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के साथ ऐसा ही हुआ है।

उस भेंट में अपने चितन का सारांश व्यक्त करते हुए पंकज शर्मा बोला था, 'सच बात तो यह है सुंदरपाल जी, जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की हम बात कर रहे हैं, वह अपने प्रारंभ में' जनता द्वारा जनता का शासन'जैसे आदर्श के साथ जुड़ी रही हो, पर अब तो मुझे ऐसा नहीं लगता कि उसकी यह आत्मा आज भी जीवित है। मुझे तो अब ऐसा लगता है कि जैसे इस सिद्धांत की आत्मा उससे छिन गई है और अब जो कुछ बाक़ी रह गया है, वह मात्र इतना है कि पहले राजा एक होता था, अब संसद और विधान सभाओं के रूप में कई सौ या कई हजार होते हैं। राजतंत्र में सत्ता एक व्यक्ति की रखैल थी, अब कई व्यक्तियों की रखैल है। आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदाता की भूमिका क्या है? वह अपने निर्णय और अपनी इच्छा से नहीं, विभिन्न दबावों, प्रेरणाओं तथा प्रलोभनों के वशीभूत होकर मतदान करता है और मतदान करने के बाद इसी तरह सत्ता की भागीदारी से वंचित हो जाता है, जैसे कि वह पहले था। राजतंत्र की व्यक्तिगत सत्ता और लोकतंत्र की सामूहिक सत्ता के बीच जो अंतर है, उसे हम यथार्थ की कसौटी पर रखकर नहीं देख रहे हैं। एक खिलौने की तरह बजाए जा रहे हैं, इसे। परिवर्तन लाना होगा इसमें, मौलिक और गुणात्मक परिवर्तन।'

कई लोग ऐसे होते हैं जो, उबाऊ से उबाऊ टॉपिक को भी अपने कहने के अंदाज से रोचक बना देते हैं। पंकज शर्मा ऐसा ही एक व्यक्ति था। उसके दिए हुए तर्क पर जब मैंने आपत्ति की और कहा कि इस आदर्शहीनता के बावजूद राजतंत्र और लोकतंत्र में आज भी एक अंतर शेष है, वह यह कि तब जनता राजा को अपनी मर्जी से हटा नहीं सकती थी, अब हर निश्चित अवधि के बाद हटा सकती है, सत्ता का परिवर्तन कर सकती है।

मेरा तर्क सुनकर पंकज शर्मा हँसा। बोला, 'गंगाराम की जगह जमुनादास के बैठ जाने को तुम परिवर्तन कहोगे क्या? चंबल के बीहड़ में मानसिह का राज हुआ या फूलनदेवी का? नाम के परिवर्तन से माहौल तो नहीं बदल जाता है न।'

मैं उत्तर में कुछ और कहता कि पंकज ने अचानक कलाई पर बँधी घड़ी की तरफ़ देखा और उस समय जब मैं अपना वाक्य आधा ही बोल पाया था कि वह मेरी बात बीच ही में छोड़कर अपने स्थान से उठ गया।

मैंने रोकते हुए कहा, 'जाते कहाँ हो पंकज, मेरी बात तो पूरी होने दो।'

कितु उसने जाने के लिए अपनी पीठ मेरी ओर मोड़ते हुए कहा, 'मैं सिफ़र् पंद्रह मिनट का टाइम तय करके तुम्हारे पास आया था। पंद्रह मिनट हो चुके हैं, सो अब मैं जाता हूँ। अपना अधूरा वाक्य डायरी में नोट कर लो, अगली बार मिलेंगे तो आगे बात करेंगे।'

मैंने जाते-जाते उससे कहा, 'तुम आदमी हो या टी॰वी॰ सीरियल, जिसके हर एपिसोड के अंत में लिखा होता है, शेष अगले मंगलवार या बुधवार को।'

पंकज ने मेरे कमैंट पर जोर का ठहाका लगाया और तेज-तेज क़दम बढ़ाता हुआ सड़क के पार ओझल हो गया।

अगली बार वह आया तो मैंने उससे पूछा, 'वार्ता बीच में छोड़कर उठ जाने की यह क्या आदत बन गई है, तुम्हारी? क्या कोई ज़रूरी काम याद आ जाता है तुम्हें?'

बोला, 'नहीं, कोई ज़रूरी काम नहीं होता है मुझे, तुम्हारे यहाँ की तरह किसी और जगह चला जाता हूँ, पर वहाँ भी बैठता हूँ उतनी ही देर, जितनी देर का निश्चय कर लिया होता है मैंने। एक क्षण भी ज़्यादा नहीं और तो और अपनी गर्ल फ्रैंड के साथ भी मेरा व्यवहार यही रहता है।'

'गर्ल फ्रैंड?' मैंने आश्चर्य से कहा।

'हाँ-हाँ।' वह सहज स्वर में बोला, ' इस बात पर अचरज क्यों हो रहा है तुम्हें। मेरी कोई गर्ल फ्रैंड नहीं हो सकती है क्या?

'हो क्यों नहीं हो सकती, बिलकुल हो सकती है।' मैंने उत्तर देते हुए कहा, 'पर उसे तो तुम्हारी यह आदत बुरी तरह अखर जाती होगी?'

'पहले अखर जाती थी, अब नहीं अखरती। मैं दस मिनट उससे मिलने का कार्यक्रम बनाता हूँ तो उसके साथ दस मिनट ही गुजारता हूँ। एक पल भी ज़्यादा नहीं।'

'अजीब बात है।' मैंने उत्तर दिया, 'पर यह तो बताओ पंकज कि वह कौन है और कितने साल हो गए तुम्हें उससे प्रेम करते हुए?'

'वह भी एक रेडियो आर्टिस्ट ही है और हम एक-दूसरे को तीन साल से चाह रहे हैं।' पंकज ने मेरे प्रश्न का संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

'तो अब तुम उससे विवाह क्यों नहीं कर लेते?' अचानक मेरे अधरों से यह प्रश्न फूट निकला।

वह बोला, 'वीरेंद्र भाई, मैं जानता हूँ कि मेरी मासिक आय कितनी है। कोई निश्चित तो है नहीं, कभी कम, कभी ज्यादा। मैं हर महीने यह हिसाब लगा लेता हूँ कि मुझे अपनी सीमित आय में से भोजन और नाश्ते आदि पर कितना ख़र्च करना होगा, कितना कपड़ों की धुलाई और अन्य निजी ख़र्चों पर। मैं पूरी सावधानी के साथ इसी दायरे में रहकर ख़र्च करता हूँ। एक नया पैसा भी इधर-उधर नहीं होने देता। अगर असावधानी बरतूँ तो जीवन-भर आर्थिक संकट से निकल नहीं सकूँगा।'

मैंने पंकज का उत्तर सुना तो चुटकी लेते हुए उससे कहा, 'कितनी चालाकी से तुमने प्रसंग बदल दिया है पंकज, मैं तुमसे तुम्हारी प्रेमिका के बारे में पूछ रहा था और तुम ले बैठे अपनी आय का वि़्ाफ़स्सा।'

'इन दोनों में गहरा सम्बंध है, वीरेंद्र भाई. जितना निकट का सम्बंध प्रेमिका और प्रेमी की पॉकेट में है, इतना तो किसी और में है ही नहीं। हर रोज मैं अपनी आय का हिसाब लगाता हूँ और हर बार का हिसाब मेरे सम्मुख वास्तविकता ला रखता है कि मैं विवाहित जीवन को इतनी सीमित आय होते हुए चला नहीं सकता।'

'लेकिन तुम्हारी प्रेमिका भी तो अर्निंग हैंड है।' मैंने उससे कहा।

बोला, 'शादी तो मुझे अपने बलबूते पर करनी है, उसके बलबूते पर नहीं।'

'पर वह तुम्हारा इंतजार भी कब तक करेगी, पंकज?' मैंने चिता-भरे स्वर में उससे कहा।

'न करे' वह लापरवाही से बोला, 'शादी का मतलब है, जीवन-संगिनी की पूरी जिम्मेदारी लेना, बाप बनने की पूरी जिम्मेदारी लेना। बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की पूरी जिम्मेदारी लेना, ये सारी जिम्मेदारियाँ मेरी सीमित आय के दायरे से बाहर हैं, ऐसे में विवाह का रिस्क क्यों लेना चाहिए, मुझे!'

'लेकिन पंकज, जिस वक़्त तक तुम्हारी स्थिति ठीक होगी, तुम्हारी प्रेमिका कहीं और विवाह रचा चुकी होगी तब तक।'

' इससे क्या अंतर पड़ता है, वीरेंद्र भाई. जब उससे पहले की तीन प्रेमिकाएँ मुझे छोड़कर मुझसे बेहतर वर चुन चुकी हैं, तो वह भी चुन ले, कोई हर्ज नहीं है इसमें।

'तुम्हें इसका दुःख नहीं होगा?' मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उससे पूछा।

'दुःख तो दूर की बात है, मुझे शिकायत भी नहीं होगी, उससे। इससे पहले की तीन प्रेमिकाओं से भी कोई शिकायत नहीं हुई थी मुझे।'

'क्यों?' मैंने पूछा।

'तुम भी काफ़ी नामसझ लगते हो वीरेंद्र भाई!' पंकज ने मेरी बात का उत्तर देते हुए कहा, 'इतना नहीं समझते कि मैं अपने लिए किसी और का जीवन बर्बाद क्यों होने दूँ? जब मैं विवाह करने की स्थिति में नहीं हूँ, तो दूसरे को ऐसा करने से क्यों रोकूँ? ख़ुद कर नहीं पाऊँ, दूसरे को करने न दूँ, यह कहाँ की इंसानियत है भला!'

'लेकिन तुम्हारे प्रेम-सम्बंध?' मैंने एक अधूरे वाक्य से अपने मन की बात व्यक्त करनी चाही।

वह बोला, 'प्रेम-सम्बंध अपनी जगह हैं, कितु सच्चे प्रेम का कोई भी सम्बंध आँखें मूँदकर स्वार्थपूर्ति के लिए तो नहीं उकसाता, वह तो त्याग सिखाता है वीरेंद्र भाई, त्याग। मैं हर बार अपनी प्रेमिका के भावी सुख के लिए अपने-आपको विदड्रा कर लेता हूँ। वह सुख से रहे यही बहुत है। अपने साथ जोड़कर मैं उसे दुःख क्यों दूँ?'

पंकज का निश्चित टाइम पूरा हो गया था। इसलिए उसने घड़ी देखी और आज का वार्तालाप भी अधूरा छोड़कर बीच में ही अपने स्थान से उठ गया।

मैं बहुत देर तक सोचता रहा, कैसा अधूरा आदमी है वह, प्रेम में अधूरा, दोस्ती में अधूरा, वेतन में अधूरा, वार्तालाप में अधूरा। जिदगी ने उसे कुछ नहीं दिया है, अधूरापन दिया है उसे।

बहुत दिनों तक वह नहीं आया तो मुझे चिता हुई. खोजबीन करने पर पता चला कि वह एक स्थानीय समाचार-पत्र में पार्टटाइम काम कर रहा है। मैं उससे मिलने गया तो वह अब भी पूर्ण रूप से वैसा ही था, जैसा पहले मैंने उसे देखा था।

उसने कहा, 'दस मिनट से ज़्यादा का समय नहीं है मेरे पास?'

मैंने उत्तर दिया, 'ठीक है, दस मिनट से ज़्यादा नहीं लूँगा मैं तुमसे। पहले संक्षेप में यह बताओ कि तुम्हारी प्रेमिका का क्या हाल है?'

मेरा सवाल सुनकर पंकज लापरवाही की हँसी हँसा। बोला, 'पिछले महीने उसने भी एक अच्छे कमाऊ लड़के से विवाह कर लिया। मैं उसकी शादी में सम्मिलित हुआ था। वह भी खुश थी, मैं भी।'

'तुम दोनों खुश थे!' मैंने आश्चर्य व्यक्त किया।

'क्यों इसमें आश्चर्य की क्या बात है?' उसने तर्क देते हुए कहा, 'जब लोग एक-दूसरे को सुख नहीं दे पा रहे हों तो दोनों पक्षों को यह अनुमति मिल जानी चाहिए कि हम अपने-अपने रास्ते से अपना-अपना सुख तलाश कर लें। कविता ने भी यही किया और मैंने भी।'

'तुमने, तुमने क्या?' मैंने उसी आश्चर्य से भरे भाव में उससे पूछा।

वह बोला, 'मैंने आकाशवाणी का कैजुअल यानी अधूरा काम छोड़कर अख़बार का अधूरा यानी पार्टटाइम काम पकड़ लिया। यहाँ मुझे ज़्यादा सुख है। अब मैं समाचार सुनाता नहीं, बनाता हूँ। सुनाने में जो विवशता का भाव है, वह बनाने में नहीं है।'

'तो क्या अब कोई और प्रेम करने और प्रेम करके विवाह करने का इरादा नहीं?' मैंने पंकज से पूछा।

'नहीं मैंने ब्रह्मचर्य ले लिया है।' पंकज ने उत्तर दिया, 'कई चीजें हैं, जो हम आज के जीवन में विवश होकर स्वीकार करते हैं। चाहे वह प्रेमिका का किसी अन्य युवक के साथ विवाह हो, कैजुअल या पार्टटाइम नौकरी हो, कम आय के कारण लादा हुआ ब्रह्मचर्य अथवा भ्रष्ट हो चुका लोकतंत्र हो, जिसमें तंत्र और तांत्रिक दोनों हैं, पर जनता नहीं।' वह कुछ रुककर बोला, 'मेरा ब्रह्मचर्य धर्म के रास्ते से नहीं आया, बेरोजगारी के रास्ते से आया है, मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ—।' मैंने देखा कि यह कहते-कहते पंकज की आँखें धुँधला गई हैं।