अधूरीपतिया / भाग 13 / कमलेश पुण्यार्क

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‘क्या सिर्फ पत्नी को छोड़कर आने वाला ही उदास रहने का हकदार है ? पत्नी से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण माँ होती है, और फिर मातृभूमि, और यहां न मेरी माँ है, और न मातृभूमि । यह ठीक है कि हम हिन्दुस्तानी ‘ वसुधैवकुटुम्बकम् ’के सोच वाले हैं। यानी पूरी पृथ्वी को ही अपनापन देने को राजी रहते हैं, फिर भी मातृभूमि तो मातृभूमि ही होती है।’

मेरिना मुस्कुरायी “तुम हिन्दुस्तानियों की इसी सोच ने हिन्दुस्तान को हमेशा गुलामी के शिकंजे में जकड़ रखा है। अपनी मां ही सिर्फ मां नहीं होती मिस्टर अमरेश, और न सिर्फ जन्म स्थान को ही मातृभूमि कहकर आदर करते हैं। जिसके मन में दूसरे के मां के प्रति आदर नहीं, वह अपनी माँ की भी क्या कदर करेगा? ”

‘...मेरिना की बात मुझे कटु लगी। मैंने कहा- माफ करना मेरिना, मैं वैसे उदार दिल वाला नहीं हूँ, जो दूसरे की मां को जिलाने के लिए अपनी मां का लहु निकाल कर देता रहूँ। तम्हारी बात बिलकुल उल्टी है- जो अपना दर्द ही नहीं समझ सकता, सुन्न है जिसका चेतन, वह दूसरे के दर्द को क्या समझ सकता है?

‘….रूखी बात का रुखा जवाब, मेरिना को भी रुखा ही लगा। बिना कुछ कहे, उठकर चली गयी वहां से। मैं समझा चलो, एक बला टली; किन्तु वास्तव में वह बला टलने वाली नहीं थी मतिया ! नहीं थी टलने वाली। इतनी आसानी से यदि वह वला टल गयी होती तो, फिर परेशानी की बात ही क्या थी?

मतिया अभी भी चुप बैठी बाबू की बात सुनती जा रही थी। दम भर ठहर कर बाबू ने फिर कहना शुरु किया- ‘ दूसरे दिन खाली पीरियड में जब मैं उसी पार्क में बैठा था, वह फिर आयी। पहले दिन की तरह ही ‘हैलो’ कहती हुयी, साथ बैठ गयी, सट कर बगल में।

“ कल मेरी बात का बुरा मान गये थे मिस्टर अमरेश ? ”- मेरिना ने मुस्कुराकर कहा।

‘नहीं बुरा क्यों मानूँगा।’- मैंने भी सिर झुकाये हुए जवाब दिया।

“लगता है अपनी माँ के प्रति काफी श्रद्धा है तुम्हें, क्यों ? ”- मेरे कंधे पर हाथ रखती हुयी बोली। इच्छा हुयी कि झटक दूँ परे उन हाथों को, किन्तु कुछ सोच कर ऐसा कर न पाया। आहिस्ते से बोला- होनी ही चाहिए मां के प्रति स्नेह-ममता-श्रद्धा और भक्ति भी। क्यों तुम्हें नहीं है क्या?

“ है क्यों नहीं, पर तुम्हारे जैसी नहीं कि मां से दूर रहने पर बच्चों जैसी रोती रहूँ।”- मेरिना की बात ने फिर मुझे चोटिल किया। झल्ला कर बोला- ‘ मां की याद आजाने पर उदास होना...इसे रोना नहीं कहते मिस मेरिना।’

“ रोना नहीं तो और क्या है ? यह कोई बात हुई कि हर वक्त माँ के ध्यान में ही डूबे रहो, और भूल जाओ बाकी कुछ कि आसपास और भी कोई है ?”- मेरिना ने कहा।

‘ हालाकि भगवान न करे, किन्तु काश ! तुम्हारी माँ भी इसी परिस्थिति में होती मिस मेरिना, तब पूछता।’- क्रोध को दबाते हुए भी कड़वी बात मुंह से निकल ही गयी।

“किस परिस्थिति की बात कर रहे हो, क्या मैं जान सकती हूँ ?”- मेरिना का धृष्ट प्रश्न था।

‘ जानने में कोई हर्ज नहीं है, किन्तु मैं बताना नहीं चाहता।’- रुखेपन से मैंने कहा। मगर मेरे रुखेपन का कुछ भी असर मेरिना पर न हुआ, उल्टे उसकी जिद्द बढ़ती गयी। बढ़ती ही गयी। मैं जितना ही ना करता, वह उतनी ही उतावली होकर, कुरेदती रही। मेरे विषय में जानने के लिए उसका उतावलापन इतना बढ़ा कि मेरी झिड़कियों को भी प्रेम भरे बोल से उड़ा देती, और अन्त में लाचार होकर, मुझे कहना ही पड़ा सबकुछ - आर्थिकता के रौब से लेकर, माँ की दयनीयता तक, सबकुछ सुना डाला शोख, जिद्दी मेरिना को।

‘...मैंने तो सोचा था कि अब मेरी जान बची इस अल्हड़ लड़की से, किन्तु उसका अल्हड़पन और भी बढ़ता ही गया। मेरी कमजोरियों से लाभ उठाती रही। दिन ब दिन मुझसे करीब आती गयी- कुछ नये नये अंदाज लेकर। उस दिन से, मेरी वास्तविकता जान कर, मेरे प्रति उसका आकर्षण और स्नेह, और भी बढ़ने लगा। अब स्नेह और सहानुभूति जताने के लिए वह मेरे पास आने लगी। यहां तक कि कॉलेज के बाद, खाली समय का अधिकांश उसका ही हो गया। साथ घूमना-फिरना...और फिर पार्क से निकल कर सड़क... बाजार...होटल...रेस्तोराँ होते हुए उसके घर तक पहुँच गया।

‘...अब मेरी छोटी बड़ी छुट्टियां सीधे मेरिना के गांव में गुजरने लगी। उसका गांव लंदन से कोई तीस-बत्तीस मील दूर रहा होगा। संयोगवश पहली बार ही उसके गांव जाने में बुरी तरह भींग गया, क्योंकि मौसम भी अजीब है वहां का— वर्ष में आठ-नौ महीने जहां फुहार ही पड़ती हो, वहां कैसा लगेगा ? भीषण सर्दी, ऊपर से वर्षा, सूर्य नदारथ। कुल मिलाकर विचित्र वातावरण। चाहकर भी मैं उस परिवेश में स्वयं को ढाल न सका, किन्तु मेरिना के घर पहुँचकर लगा थोड़ी देर के लिए कि अपने ही घर में आगया हूँ। घर तो साधारण ही था— दोमंजिला, छावनी खपरैल की, जिसे खूबसूरत रंगों से रंगा गया था। बाहर दीवार से सटी रंग-बिरंगी फूलों की क्यारियों में खिलखिलाती डेजी और यूलिप ने सिर हिलाकर स्वागत किया। मुझे ऐसा लगा कि अभी हमें इनसे आतिथ्य सीखने की जरुरत है। साधारण खाता-पीता परिवार, सीमित सदस्य- मां, बाप, मेरिना और छोटा भाई। हम हिन्दुस्तानियों की तरह बच्चों की फौज नहीं। पहुँचते ही सबने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। प्यार ममता और तीमारदारी का जवाब नहीं। भींगने की वजह से रास्ते में ही बुखार हो गया था। नतीजन, सप्ताह भर वहीं ठहरना पड़ गया। इस बीच काफी कुछ देखा, सीखा, अनुभव किया। उनके साथ रहकर, एकदम सा अपनापन मिला, उस छोटे से परिवार में। मेरे प्रति उसकी मां की ममता और प्यार देखकर लगा, मेरिना सच कहती थी- दूसरे की मां को मां समझो, तो मां जैसी ही ममता का आभास मिलेगा...।

‘...और इस तरह धीरे-धीरे मेरिना मेरी होती गयी, और मैं मेरिना का। घर से मां की चिट्ठियां हमेशा की तरह आती रही। हर पत्र में उसकी एक पंक्ति अवश्य रहती- “तुम्हारे इन्जार में आँखें बिछाये हूँ। ” मां का पत्र पाकर फिर पुरानी दुनियां में लौट पड़ता, किन्तु अब मेरिना मुझे पहले की तरह गुमसुम न रहने देती। हर तरह प्यार-दुलार कर जी बहला देती।

‘...मेरिना और उसके परिवार ने मेरे अन्दर काफी बदलाव ला दिया। मेरी जिन्दगी में नयी बहार सी आती नजर आयी। धीरे-धीरे भविष्य की रंगीन बादियों में खोता चला गया। हालांकि इसका अहसास बहुत बाद में हुआ कि मेरिना मुझे एक प्रेमी की निगाह से देखती है, और मुझपर भी उसके प्रेम का पक्का रंग चढ़ता जा रहा है। सच कहा गया है- प्रेम कोई तैयारी से नहीं करता, वह तो चुपके से, अनजाने में घसीट कर गिरा लेता है अपने आगोश में। तो क्या मैं भी मेरिना के प्यार में गिर गया हूँ- अपने आप से एक दिन सवाल किया...।

‘...काल अपना पंख फड़फड़ाता रहा। कहां पहले, दिन भी वर्ष की तरह लगते थे, जब कि अब, देखता हूँ कि वर्ष भी चुटकी बजाकर निकल गया। पढ़ाई पूरी होने में मात्र कुछ महीने शेष रह गये। इस लम्बे अन्तराल में काफी कुछ बदलाव आया मेरे अन्दर- बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक भी। छोटे से हृदय में, जहां सिर्फ और सिर्फ माँ की ममता और प्यार के लिए स्थान सुरक्षित था, मैंने अनुभव किया कि उसका एक कोना किसी दूसरे उद्देश्य की पूर्ति हेतु खाली होता जा रहा है। धीरे-धीरे उस खालीपन का दायरा बढ़ता गया, और एक दिन मैंने पाया कि उस रिक्त भाग में एक स्थायी प्रवासिनी का खेमा गड़ गया है- मेरिना का रंगीन तम्बू। मेरिना का प्रभुत्व मेरे मन के साम्राज्य पर बढ़ता गया. बढ़ता ही गया, और एक दिन ऐसा आया कि मैंने स्पष्ट शब्दों में उसके सामने प्रस्ताव भी रख दिया- पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद, मेरे साथ हिन्दुस्तान चलोगी न मेरिना, शादी करके?

“शादी करके तुम्हारे साथ हिन्दुस्तान जाऊँ मैं- यह कैसे सोंच लिया तुमने ? ”- चौंकती हुयी मेरिना ने आंखे तरेर कर कहा।

‘ क्यों कैसे सोचा जाता है? ’- मैं भी चौंक कर पूछा, उसके गोरे चेहरे पर गौर करते हुए- ‘अरसे से तुम मुझसे प्यार करती आ रही हो। मैं भी तुम पर जान न्योछावर कर चुका हूँ। आखिर इस प्यार की परिणति तो शादी ही होगी न? और जब शादी हो जायेगी, तो क्या मेरी माँ के पास न चलोगी ? बहुत खुश होगी मेरिना तुझे देखकर मेरी माँ। ’

‘...मैं भावनाओं में बह गया, जिसे सुन मेरिना हँस पड़ी। बहुत देर तक हँसती रही- बनावटी विचित्र सी हंसी, फिर अजीब मुंह बिचकाकर बोली- “ सच में हिन्दुस्तानी लोग बहुत ही भोले होते हैं, इतने भोले कि उन्हें मूर्ख कहना चाहिए। किस डिक्सनरी में पढ़ लिया

है तूने कि प्यार का मतलब शादी होता है?”

‘…मेरिना के बोल मेरे दिल में तीर की तरह चुभ गये, जिसे निकालूं भी तो और जख्मी हो जाऊँ। नम्र, किन्तु तेज आवाज में मैंने कहा— हिन्दुस्तानी शब्दकोश में तो युवक-युवती के प्रेम का एकमात्र अर्थ और परिणाम शादी ही हुआ करता है।’

मेरिना व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेर कर बोली- “ होता होगा, जरुर होता होगा मूर्खों की डिक्सनरी में, मगर यह न तो तुम्हारा हिन्दुस्तान है और न मैं हिन्दुस्तानी।”

‘...मेरिना की बात सुन, क्रोध में मेरे नथुने फड़कने लगे। फिर भी खुद को सम्हालते हुए कहा- अगर ऐसी बात थी, तो तुमने प्यार का यह नाटक क्यों रचा ? क्या जरुरत थी ये सब आडम्बर फैलाने की? हर वक्त मेरे लिए वेचैन रहना, मेरी सुख-सुविधा का इतना ध्यान रखना, मेरी ही नींद सोना-जागना, उठना-बैठना, आखिर ये सब क्या था...?’

“ये सब और कुछ नहीं था मिस्टर अमरेश हिन्दुस्तानी ! ये केवल आदमियत थी, इन्सानियत कहो। तुम यहां अकेले थे, अपने परिवार से इतनी दूर। हमेशा उदास और दुखी रहा करते थे। मैंने सिर्फ इतना ही किया कि तुम्हें सच्चा प्यार देकर आदमी बना दिया। मेरे प्यार का ही फल है कि अब तुम डिग्री लेने जा रहे हो, अन्यथा यहां से ऊबकर कबके भाग चुके होते...। ” — मेरिना कह रही थी, मेरा क्रोध भड़क रहा था। खुद पर से अधिकार जाता रहा। वदन कांपने लगा- जूड़ीताप बुखार के मरीज की तरह। आँखें लाल हो गयी, जलते अंगारे की तरह. क्रोध में आकर लगभग चीख उठा- यह सब झूठ है...बिलकुल झूठ...धोखा...फरेब...सच्चे प्यार के नाम पर...।

“ चिल्लाओ मत मिस्टर अमरेश ! ”- रुखेपन से मेरिना ने कहा- “ ये तुम्हारा हिन्दुस्तान नहीं है, जहां सिर्फ मुर्दावाद कहने से तख्ता पलट जाता है। शान्त होकर जरा अपनी बुद्धि से काम लो। तुम्हारी तरह ही मैं कईयों से प्यार करती हूँ- सभी क्लासमेट हैं मेरे- डेविड, जॉन्सन, चियंग, थाइमन...सबसे तो मैं इतना ही प्यार करती हूँ। फिर तुम ही सोचो क्या सबके साथ मैं शादी रचाती फिरुंगी? सबकी दुल्हन बन सकूंगी ? पांच पतियों की पत्नी सिर्फ तुम्हारे हिन्दुस्तान में ही होती है, मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि.....।”

‘.....मेरिना मुस्कुरा रही थी। उसके हर मुस्कान सैकड़ों बिच्छुओं के डंक की तरह चुभ रही थी, मेरे रग-रग में । मैं पुनः चीख उठा- चुप करो मेरिना ! चुप करो...मेरे साथ-साथ मेरी पूरी मातृभूमि को मत घसीटो...मुझे मूर्ख कहलो, सह लूंगा, क्यों कि तुम्हारी फरेबी चाल को मैं बूझ न पाया, और तुमसे सच्चा प्यार कर बैठा, पर जान लो पूरा हिन्दुस्तान मेरे जैसा ही नहीं है। हिन्दुस्तानी बुद्धि-विद्या और शौर्य के सामने सारा संसार नत मस्तक है...।’- कहता हुआ बाबू सही में उफन पड़ा था क्रोध में। मानों उसके बगल में मतिया नही, मेरिना ही बैठी हो। नानी के खुर्राटे अभी भी सुनाई पड़ रहे थे। उधर बाहर झनझनाती हुयी रात की शान्ति कुत्तों के भों-भों से बीच-बीच में भंग हो रही थी।

जरा ठहर कर लम्बी सांस छोड़ते हुए, बाबू फिर कहने लगे- ‘उस दिन की ठोकर के बाद मेरिना कभी मेरे पास नहीं आयी, और न मैं ही गया उसके पास। हमदोनों के प्रेम सम्बन्ध का यहीं पटाक्षेप हो गया, और जल्दी ही उसके मनहूस देश से ही सम्बन्ध विच्छेद की तैयारी करने लगा।

‘...पिता का प्रभाव यहां भी काम आया, कोरम पूरे होगये सब, मेरे स्वदेश वापसी के, और बिना किसी पूर्व सूचना के ही उड़ चला पंख कटाकर, अपने पुराने घोसले की ओर। हवाई अड्डे तक नेलसन साथ आया था। उसने ही बतलाया कि मेरिना परसों ही गुडफ्राइडे के दिन, डेविड से शादी कर ली। सुनकर एक बार सिर चकरा सा गया, मगर सच पूछें तो उसपर मेरा अधिकार ही क्या था ? आखिर यही होना था, हुआ। रास्ते भर मेरिना के बारे में ही सोचता रहा। नेलसन की सूचना ने जले पर नमक का काम किया था। पीड़ा को बारम्बार भुलाने की कोशिश करता रहा, और यह संघर्ष तब तक जारी रहा, जब तक घर पहुँच न गया।

‘...घर पहुँचा। देखते ही माँ की छाती खुशी और गर्व से ऊँची हो गयी। दौड़कर

लिपट पड़ी। देर तक लिपटी रही। सुबकती रही। प्रेमाश्रुओं से भिंगोती रही मेरे वक्ष को; किन्तु पिता की तनती निगाहों में आक्रोश था, साथ ही आशंका भी- कहीं माँ-बेटे का कोई गुप्त संवाद तो नहीं हो गया !

‘…चरणस्पर्श के जवाब में पिता ने पूछा- “हेंऽ..ऽ इतनी जल्दी कैसे चले आये? अभी तो...।” पिता भीतर ही भीतर उबल रहे थे, “आना ही था तो कम से कम खबर कर देते।”-फिर बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा के ही, बरसने लगे- “मैं जानता था, मेरे कुल में धूमकेतु पैदा हुये हो तुम। पढ़ाई-लिखाई से कोई वास्ता नहीं...सोचा तो था कि बेटे को विदेश भेजकर अच्छी शिक्षा दिला दूँ, किन्तु नालायक के भाग्य में तो गधा चराना लिखा है...खूब हुआ तो कहीं किरानी गिरी करोगे...पढना-लिखना साढ़े बाईस...अप्सराओं के साथ रासलीला होने लगी...क्यों मेरिना नहीं आयी साथ में...वगैर राधा के कृष्ण रहेंगे कैसे? ”-क्रोध भरी व्यंग्यात्मक हँसी बिजली सी कौंध गयी पिता के चेहरे पर, जिसका एक ही झटका मुझे धराशायी करने को काफी था। पिता बकते रहे- “ ...मैं जानता था, यही कुछ होगा वहाँ, इसीलिए जोसेफ को कह रखा था, हर गतिविधियों से अवगत कराते रहने को...कल ही उसका ‘कैवेल’ आया....”

‘...पिता बड़बड़ाते रहे काफी देर तक। दांत पीसता मैं वहाँ से अलग हट, मां के कमरे मे चला गया। ओफ ! तो ये सारा कुचक्र जोसेफ का है, अब समझा। उसने ही पिता के कहने पर मेरिना को भी भड़काया होगा, धमकाया होगा...किन्तु मेरिना को तो सोच लेना चाहिए था...क्या ऐसा भी हो सकता है...उस पर भी विशेष जोर देकर शादी करायी गयी हो जल्दवाजी में डेविड से ? जी में आया, एक बार फिर उड़ चलूँ वापस, सच्चाई की छानबीन के लिए, किन्तु कुछ सोच कर ऐसा कर न पाया। छोड़ो जिसे त्याग दिया, जिसने त्याग दिया- चाहे कारण जो भी रहा हो, अब थूक क्या चाटना! ’

‘…कमरे से निकल कर पिता आँगन में आगये बड़बड़ाते हुए - “छोकरा हाथ से बाहर निकला जा रहा है। इस पर जवानी का जोश चढ़ गया है...मेम की खूबसूरती बस गयी है आँखों में...जितनी जल्दी हो सके, इसे ‘नाथ-गरौटी’ डाल देना चाहिए...।”

‘...बादल जिस तरह गरज-तड़क दिखा कर शान्त हो जाते हैं, पिता भी शान्त हो गये। पर भीतर ही भीतर किसी भारी षड़यन्त्र की भूमिका बनने लगी थी। इसकी थोड़ी बहुत आशंका मुझे इस कारण होने लगी, क्यों कि घर के वातावरण में तूफान से पूर्व की खामोशी महसूस की मैंने। महीने भर बाद पता चला जब एक दिन पिता ने कहा- “ मेरा विचार है कि तुम्हारी शादी कर दी जाय। तुम्हारी मां भी बराबर कहा करती है। बीमार रहती है, कहीं कुछ हो जाय तो बहु का मुंह देखे बिना ही....।”

‘...माँ की इच्छा-पूर्ति पर इतना ध्यान कब से पिता को होने लगा ! मुझे कुछ आश्चचर्य सा लगा, और इसमें भी पिता की कोई गहरी साजिश की बू मिली। फलतः पिता की बात का सीधा विरोध किया। घर में फिर एकबार हो-हल्ला मचा, किन्तु फिर मां भी कहने लगी- ‘क्या हर्ज है रे मुन्ना ! कर ले शादी। मेरी जिन्दगी का क्या भरोसा, कब आँखें मुंद जायें...इस नरक का दरवाजा खुल जाय...आत्मा को भाग निकलने का अवसर मिल जाय...बहु का मुंह देख लूंगी, तो चैन से मर सकूंगी। तुझे भी एक सहारा चाहिए ही। मैं समझती हूँ, मेरे लाल, एक ने ठुकराया है तुझे, दिल का ताजा जख्म बहुत पीर देता है रे मुन्ना। सन्तोष कर। कर ले शादी। भूल जायेगा दुख-दर्द..। ’

‘...मां की बातों पर मैंने गम्भीरता से विचार किया। पिता का कहा मानना कोई जरुरी नहीं, किन्तु माँ कहे तो सिर काटकर उसके पैरों में अर्पित कर दूं...बहु लाना तो साधारण सी बात है।

दूसरे दिन ही शादी की स्वीकृति दे दी पिता को। सुनकर जितना प्रसन्न हुए, आज तक मैंने कभी इतना प्रसन्न उन्हें कभी देखा नहीं था। शादी का दिन भी निश्चित कर दिया गया। लड़की तो पहले से ही निश्चित थी ही, उनके षड़यन्त्रकारी जेहन में।

‘....अगले दिन तिलक का रस्म होने वाला था। मेहमानों की आवाजाही, और घर में चहल-पहल जोरों पर था। उसी दिन शाम को आया वुआ का लड़का मधुप। बातचीत होने लगी कुछ विशेष तौर पर उससे, कारण की वह वहीं रहता था, जहाँ मेरी शादी तय हुयी थी। मैंने अपने होने वाले स्वसुर की चर्चा की। सुनते ही चमक उठा- “क्या कहा आपने भैया, शादी वहीं होने जा रही है, उस होजियारी वाले की बड़ी बेटी से?”

‘....क्यों तुझे अभी तक पता नहीं था क्या? पिताजी तो कई बार वहाँ हो आए हैं। तुमसे नहीं मिले क्या कभी ?’ - मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ।

“मामाजी मेरे यहाँ तो एकबार भी नहीं गये भैया। वाह रे मामाजी, दरवाजे तक जाकर लौट आये, हमलोगों से मिले वगैर। अच्छा सम्बन्ध है भांजे से।”

‘....हो सकता है, जल्दी में हों। समय न मिला हो।’-पिता के बदले मैंने ही सफाई दी।

“सो बात नहीं है भैया। मेरे यहाँ नहीं जाने का कारण अब समझ आरहा है।”-आँखें सिकोड़, होंठ काटते हुए मधुप ने कहा- “अच्छा भैया दहेज कितना तय हुआ है?”

‘....ठीक तो कह नहीं सकता, पर सुनता हूँ, सब दो-तीन लाख का चक्कर जरुर है।’

“अब समझा ”- अपनी वायीं हथेली पर दायें हाथ से मुक्का मारते हुए उसने कहा- “जैसे भी हो, आप भैया शादी से इन्कार कर दे। लड़की नहीं हैं आप कि कुंआरे रह जाने का भय है, यहां तो काने-कुवड़े लड़के की भी शादी हो जाती है, आप तो...।”

‘....आखिर बात क्या है, साफ साफ कहो।’- मेरे जोर देने पर अगल-बगल झांक कर वोला- “ तीन चक्के वाला हाथ रिक्सा देखे हो न भैया ! बस समझ जाओ, यही बात है।”

‘....सुन कर मुझे लगा कि पांव तले की धरती घिसक रही है। आसपास की दीवारें और खम्भे भी कांपते हुए से लगे। माथे में झनझनाहट होने लगी। दीवार पकड़कर बैठ न जाता तो गश खाकर, गिर पड़ता। मुझे लड़खड़ाता देख मधुप दौड़कर माँ के पास गया- “मामी...मामी, देखिये न भैया को क्या हो गया! ”

‘....मधुप के शोर मचाने से पल भर में ही घर के सभी लोग मुझे आ घेरे। मैं चुप,

दीवार के सहारे टेका लगाये बैठा रहा।किसी से कुछ बातचीत न की। माँ आकर झकझोरने

लगी। उनकी बातों का भी कुछ जवाब न देकर, हाथ से इशारा भर किया चुप रहने का।

‘....कोई आध घंटे बाद, तबियत कुछ ठिकाने आयी। बाहर गये पिता भी घर आचुके थे। पास आ मेरी तवियत के बारे में पूछने लगे। पर उनके चेहरे ताकने की इच्छा न हो रही थी। मेरी चुप्पी देख आदतन चीख पड़े- “बोलता क्यों नहीं, क्या दिक्कत है?” फिर माँ की ओर मुड़कर चिल्लाये, “जब घंटे भर से तबियत गड़बड़ है, फिर अभी तक किसी ने डॉक्टर को क्यों नहीं बुलाया? ”

‘....डरते-डरते मां ने कहा कि इसने ही मना किया था। कहता था- कुछ हुआ नहीं, ठीक हो जायेगा यूं ही।“- मां का जवाब सुन पिता फिर चीखे- “कुछ हुआ ही नहीं है, फिर ये मजमा क्यों लगा है घर में?”

‘....देर से दबा मेरा क्रोध भड़क उठा। आँखे कुछ और सुर्ख हो आयी। जुबान खुल

गयी- मैं क्या नाटक कर रहा हूं, नाटक तो आप कर रहे है आप...।

“मैं नाटक कर रहा हूँ ? क्या बकते हो ? यही सीख कर आये हो विलायत से क्या ?”

‘....ऐसी घटिया बातें सीखने के लिए विलायत जाने की जरुरत नहीं पड़ती, ये सब तो दौलत के अंधों की दैनिक-पाठशाला में मुफ्त में सिखायी जाती हैं।

“क्या मतलब, साफ क्यों नहीं कहते बात क्या है? ”- पिता साफ सुनना चाहते थे, अतः मुझे भी साफ सुना देना उचित लगा- तीन लाख के लोभ में जिंदा लाश मेरे गले लटकाया जा रहा है, यह मेरी शादी का नाटक नहीं तो क्या है?

‘....मेरे मुंह से इतना सुनना था कि वहां उपस्थित सभी कुटुम्बी एक बार सन्नाटे में आ गये। पिता को भी कोई जवाब न सूझा। कुछ देर चुप्पी साधे, कभी मेरे तो कभी औरों के चेहरे देखते-पढ़ते रहे। फिर एकाएक चीख पड़े- “किसने कह दिया कि वह लंगड़ी है, लोथ है? ” उनके होंठ फड़क रहे थे। माथे पर पसीने की बूंदे छलक आयी थी, जिसे अंगुलियों से पोंछते हुए दांत पीसकर चीख उठे –“ समझ गया, समझ गया। यह सब मधुपवा की वदमाशी है। उसी नालायक ने आते आते भड़काया है मेरे बेटे को...।”

‘… दांत पीसते, पांव पटकते पिता कमरे में चहलकदमी करने लगे- “अब समय भी नहीं है, कल ही उनलोगों को आना है। इस सम्बन्ध में तुम्हें अन्तिम रुप से क्या कहना है ?”

‘…दौलत की इतनी ही भूख है, तो उस लोथड़ी को खुद ही व्याह कर क्यों नहीं ले आते ? मुझे नहीं जरुरत है ऐसे नापाक दौलत की।

‘…मेरा इतना कहना था कि क्रोधी पिता का क्रोध पेट्रोल बम की तरह फट पड़ा। आगे बढ़कर, जोर का एक तमाचा जड़ दिया मेरी गाल पर- “नालायक, हरामी, कमीना...! मैं व्याह लाऊँ उस लड़की को ? तो तू क्या करेगा- मेम लायेगा ? यहां बैठे-बैठे हराम की मेरी कमाई खाता रहेगा, कुल में कालिख पोतता रहेगा ? चल निकल मेरे घर से। ”- हाथ पकड़, घसीटते हुए पिता ने कमरे से बाहर कर दिया। वहा खड़े कुटुम्बी जन हैं..ऽ..हैं...ऽ करते ही रहे, पर एक न सुनी किसी की, और न मैंने ही परवाह की किसी के न सुनने की। माँ दरवाजे पर बिलखती खड़ी थी। आगे बढ़कर, उसके पैर छुये, और झपटकर बाहर निकल गया ताकि माँ की ममता की लंबी मजबूत डोर कहीं बांध न ले।

‘…गली से आगे बढ़, मुख्य सड़क पर आया तो देखा- मेरा और अपना बैग लिये पीछे-पीछे मधुप भी चला आरहा है। स्टेशन तक दोनों साथ आये। मधुप ने रुंधे गले से पूछा- “कहां जाओगे भैया ? मेरी जरा सी बात ने तो अनर्थ ही कर दिया।”

‘…कहाँ जाना है, मुझे खुद ही पता नहीं है। तुम जाओ वापस अपने घर। मेरी चिन्ता छोड़ो।’- मेरे कहने पर मधुप रोने लगा। बहुत आग्रह किया साथ चलने को। लेकिन मेरे न मानने पर, बेचारा उदास मुंह लिए चला गया।

‘…मैं यूं ही चक्कर मारता फिरा, और धीरे-धीरे उस चक्कर का दायरा बढ़ता गया। दिन महीने और साल बन गये। शहर बदला, जिला बदला, और अब तो राज्य भी बदल गया है। आबादी से ऊब कर जंगल मे आगया एक दिन...।’ कुछ देर ठहर कर, मुस्कुराता हुआ बाबू, मतिया की पीठ पर हाथ फेरते हुए बोला- किन्तु अब तो उस बीरानगी से भी ऊबार लायी तुम मुझे...।’ आपबीती सुनाते हुए बाबू ने पाया कि सिर झुकाये मतिया सुबक रही है। उसका मुखड़ा ऊपर उठा, बाबू ने आश्चर्य से पूछ- अरे पगली ! तू क्यों रो रही है ?’

‘ तुमने ऐसी दर्दनाक कहानी ही सुनाई कि मैं चाह कर भी अपने आंखों को समझा न सकी, बरस ही पड़े। ओफ ! कितना दुःख हुआ होगा बाबू ! एक तो मेरिना को शादी करने से बहका-डरा दिया, दूजे, ऐसी लड़की को गले डाल रहे थे तुम्हारी जिन्दगी को गर्क करने के लिए...ऊपर से मां का दुःख...तुम ही हो बाबू कि इतना सह लिए, मैं तो जान देती।’- जरा रुक कर मतिया ने कहा- ‘ बाबू ! असल में तुमको तो शंकरदेव ने मेरे लिए इस दुनियां में भेजा था, फिर कैसे हो पाते किसी और के ?’- मतिया की बात सुन बाबू, ने खींचकर उसे बांहों में भर लिया।

‘ अरे तोंयमन रातभर गप्पे मारत रह गेलों की ?’- भीतर से बुढ़िया की आवाज आयी, तब इन दोनों का ध्यान गया- समय की ओर- अरे सबेरा हो गया ? सही में हमलोग रात भर बैठे ही रह गये।

नानी की आवाज सुन मतिया भीतर चली गयी- झोपड़ी में, और रोजमर्रा के काम में लग गयी। बाबू उठ कर झरने की ओर निकल पड़े।

उस दिन मतिया भेड़ लेकर जंगल भी न गयी, न कहीं और ही। सारा दिन घर में ही रह गयी। खाना बनायी, बाबू को खिलायी, खुद खायी, और बैठकर गप्प लड़ाती रही। आने वाले समय की कल्पनाओं में ऊब-चुब होती रही। न जाने क्यों आज गोरखुआ भी आया नहीं। पता लगाने पर मालूम चला कि किसी जरुरी काम से कस्बा गया हुआ है, यानी कि अब देर शाम में ही भेंट हो सकेगी।

कुछ रात गये गोरखुआ आया। कस्बे से लौटा तो सीधा मतिया के ढाबे पर ही चला आया। एक हाथ में गठरी थी- कुछ सौदावारी, और दूसरे में था अखवार का एक टुकड़ा

मात्र।

‘क्यों गोरखुभाई ! आज कहां उड़ गये थे सुबह से ही ? दिन भर अकेले बैठे मन भी नहीं लग रहा था।’

‘और मतिया कहां थी ? क्या आज भी भेड़ चराने चली गयी थी ? ’- हाथ की गठरी एक ओर रखकर, चटाई पर बैठते हुए गोरखुआ ने पूछा।

‘मतिया तो थी ही। उससे ही बातचित करता रहा। सुबह का समय झरने की ओर टहल कर गुजारा। सोचा था तुम रहते तो साथ में कस्बा चलता। जरा घूम आता मैं भी तुमलोगों का कस्बा।’

बाबू ने कहा तो, अफसोस करते हुए गोरखुआ बोला- ‘ मैं जान ही नहीं पाया कि कस्बा चलने का मन हैं, नहीं तो सुबह में जाते समय ही साथ ले लेता।’- जरा ठहर कर अचानक बोला- ‘ अरे हाँ बाबू ! याद आयी, आज कस्बे में सौदा खरीद रहा था तो पुराने अखबार में एक फोटू देखा। ’- हाथ में लिये अखबार को बाबू के हाथ में देते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘ फोटू तो आपसे एकदम मिलता है बाबू देखो न जरा किसका है।’

‘ढिबरी जरा नजदीक तो लाना मतिया।’- बाबू ने अखबार लेते हुए, मतिया को आवाज दी। मतिया भीतर से दीया उठा ले आयी। बाबू ने अखबार देखा। काफी पुराना था। तारीख भी फटी हुयी। तस्वीर देखते ही चौंक पड़ा- ‘अरे यह तो मेरी ही तस्वीर है।’ कहते हुए पढ़ने लगे आंख गड़ाकर, उस फटे टुकड़े के बचे-खुचे अक्षरों को।

‘ क्या लिखा है बाबू, जरा जोर से पढ़ो न, ताकि हम भी सुने। कहीं गान्ही बाबा ने तो तुम्हारा फोटू नहीं छपवा दिया?’- थोड़ा आगे खिसक, अखवार पर आँखें गड़ा, गोरखुआ ने कहा, मानों महीन अक्षर पढ़ने की कोशिश में हो।

‘तुम्हें तो हर वक्त गान्ही बाबा की ही रट लगी रहती है गोरखुभाई।’- झल्लाकर बाबू ने कहा, और अखवार पढ़ने लगे।

बड़ी सी तसवीर के नीचे लिखा था- ‘प्रिय मेरा मुन्ना! तुम जहाँ कहीं भी हो, जल्दी घर वापस आ जाओ। पिताजी ने काफी खोज करवायी। पर पता न चला। मेरी हालत बिलकुल खराब है। लगता है- दोचार दिन की मेहमान हूँ। तुम जहां भी रहो, सुख से रहो। बस अन्तिम बार तुम्हारा मुंह देख लेती, तो चैन से मरती। तुम्हारी माँ।’- तस्वीर के नीचे लिखा था- अमरेश कुमार, और उसके नीचे थी ये सूचना, जिसकी चंद पंक्तियां पढ़ते-पढ़ते ही बाबू की आँखें भर आयी। टप की आवाज हुयी और अखवार का कुछ अंश गीला हो गया।

‘ओफ! सूचना भी मिली तो इतनी देर से। पता नहीं माँ की क्या हालत होगी अब?’- कहते हुए बाबू ने अखवार एक ओर रख, गले में पड़ी जंजीर को कमीज से बाहर निकाला। उसमें लटकती तसवीर को गौरसे देखा, और चटाक से चूमकर, माथे से लगा लिया।

गले मे झूलती जंजीर का लोलक पकड़, तस्वीर को देखती हुई मतिया आश्चर्य से बोली- ‘ यह तुम्हारी माँ की तसवीर थी, तुमने आज तक बतलाया नहीं कभी।’

‘सबकुछ बतलाने का अवसर ही कहाँ मिला था कभी मतिया। अब मिला भी तो...।’- कहते हुए बाबू की आँखें भर आयी। गला रुँध गया। ‘ वक्त काफी गुजर चुका है मतिया! काफी वक्त। हाय मेरी माँ! ’ माँ की तसवीर को निहारते हुए बार-बार चूमने लगा। आंसू की लड़ियां जारी थी लागातार।

बाबू को रोता देख, मतिया भी रो पड़ी। कंधा थपथपाते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘रोओ मत बाबू। अब क्या होना है इससे। जाओ, जल्दी जाकर माँ का पता लगाओ। ’

‘जाना तो पड़ेगा ही गोरखुभाई! बिना गये कैसे पता चलेगा। हाय मेरी माँ!...। ’- बाबू विलख उठा बच्चों की तरह। बड़ी देर तक मतिया और गोरखुआ उसे समझाते रहे।

थोड़ी देर बाद, गोरखुआ अपने घर चला गया- ‘सामान रखकर, फिर आऊँगा बाबू। ’-कहता हुआ। बाबू उदास, बैठे रहे ढावे में ही। मतिया भी गुमसुम वहीं बैठी रही।

गोरखुआ गया, तो पूरे गांव में खबर फैला दिया- आँधी की तरह- ‘बाबू कल जात

हे...। ’ इसका नतीजा हुआ कि एक-एक कर लोग जुटने लगे मतिया के दरवाजे पर, और फिर जुटे तो जुटे ही रह गये- सोहनकाका, भिरखुकाका, भेरखुदादू, होरिया, डोरमा, मंगरिया, सोमरुआ, गुजरुआ....सभी घेरे रहे रात भर।

कुछ गपशप, समझाना-बुझाना, कुछ रो-कलप में, किसी तरह रात गुजरी। सारी रात किसी की आँखों में नींद न थी। भोर होते ही बाबू तैयार हो गये चलने को।

‘इसे रखलो बाबू ! रास्ते का कलेवा है। ’- साड़ी के टुकड़े में बंधी एक पोटली बाबू के हाथ में थमाती हुयी मतिया, आंचल के छोर से गाल पर ढलक आये आंसू पोंछती, कलपती हुयी बोली- ‘मुझे भी लेते चलो न बाबू ! माँ से भेट हो जायेगी..। ’

‘ऐसे ही कैसे लिये चलूँ मतिया ! बिन डोली, बिन साज-बाज ? धीरज रखो, मैं बहुत जल्दी ही मां से मिलकर, वापस आऊँगा, और साथ में अपना पुरोहित ले आऊँगा। बाबा शंकरदेव के मन्दिर में चल कर बिधि-विधान से विवाह करूँगा, तब तुझे दुल्हन बना, डोली में बिठाकर ले चलूँगा, गाजे-बाजे के साथ। वैसे समझो वचन से तो तुझे अपना ही लिया हूँ। तुम मेरी हो चुकी हो मतिया ! अब जीते-जी कोई तुझे मुझसे अलग नहीं कर सकता...।’- सुबकते हुए बाबू ने कहा, और गले मे पड़ी जंजीर निकाल कर मतिया के गले में पहना दी, ‘ इसे सम्हालकर रखना। मेरी माँ की निशानी है, जो अब तुम्हारी सासुमाँ भी हैँ...।’