अधूरीपतिया / भाग 6 / कमलेश पुण्यार्क

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‘बार-बार पूछने पर भी जब तुमने नाम बतलाया ही नहीं, तो आंखिर हम क्या करते? पुकारने के लिए कुछ तो नाम चाहिए न? किन्तु हां, सिर्फ नाम ऱख देने से ही काम थोड़े ही चल जाना है। घर, परिवार, बीबी, बच्चे सबके बारे में पूछना-जानना क्या कम जरुरी है बाबू?’- मतिया ने कहा।

‘जरुरी तो है ही।’- जरा ठहर कर, फिर बाबू ने कहा- ‘या कह सकते हैं कि कोई खास हर्ज भी नहीं है, इन सबके जाने बिना।’

‘हरज क्यों नहीं है बाबू!’- भोली मतिया, कुछ रुआँसी होकर बोली, ‘क्या हमलोग इतना भी जानने का हक नहीं रखते तुम्हारे बारे में?’

‘हक क्यों नहीं है। सच पूछो तो तुमने मेरी जान बचाकर, नया जन्म दिया है। अब तो माँ-बाप, भाई-बहन सब छ तुम ही लोग हो मेरे लिए। पुरानी बातें बतलाकर, अनावश्यक तुमलोगों को पीड़ा पहुँचाना उचित और अच्छा नहीं समझता।’- बाबू ने गम्भीर होकर कहा।

‘पीड़ा क्या पहुँचाना बाबू ? मान लो कोई दुःख की बात है, तो तुम्हारा दुःख अपना दुःख है। किसी का दुःख-दर्द सुन-सुनाकर, थोड़ा चैन तो जरुर मिलता है- दिल को।’-गोरखु ने कहा, ‘वैसे कोई खास बात हो तो, हर्ज हो तो न कहो। हमलोग ज्यादा जिद न करेंगे। पर, कम से कम नाम तो बतलाना ही चाहिए बाबू।’

‘ये कौन सी बड़ी बात है।’-पूर्ववत गम्भीर रहते हुए कहा बाबू ने- ‘किसी समय में मैं अमरेश था, पर अब तो...।’

युवती के मुंह से बाबू का कथन सुन कर युवक अजय, जो बडी देर से मौन साधे, शान्त बैठा युवती की बातें सुन रहा था- मतिया और पलटनवांबाबू की कहानी, अचानक चौंक पड़ा, मानों गहरी नींद में किसी ने झकझोर कर जगा दिया हो। दरख्त का ढासना छोड़, पलथी मारकर शिलाखण्ड पर बैठते हुए बोला- “ क्या कहा तुमने, युवक ने नाम अमरेश बतलाया?”

“हां बाबू! अमरेश ही कहा था उसने अपना नाम।”- युवती ने आश्चर्य से पूछा- “किन्तु तुम इस नाम पर इतना चौंक क्यों पड़े?”

“चौंकने की ही बात है। तुम्हारी हर बात मैं बड़े ध्यान से सुन रहा हूँ। सुनते-सुनते कभी ऐसा लग रहा है, मानो मस्तिष्क में बिखरे चित्रों की कतार सजी है। हर चित्र बिलकुल पहचाना हुआ सा मालूम पड़ा, वैसी ही तुम्हारी बातें भी ऐसी लग रही हैं, जैसे कभी सुनी-जानी हुयी बातें हैं; किन्तु कैसे, क्यों कब- कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। ”- मटकती आँखें बन्द कर युवक अजय मौन हो गया। उसके चेहरे पर गम, परेशानी और दर्द की रेखायें उभर और मिट रही थी। युवती बिना कुछ बोले, बड़े गौर से उसके चेहरे को देखती रही।

कुछ देर के मौन के बाद युवक अजय फिर अपने-आप में बड़बड़ाने लगा- “ ओफ! मुझे क्या हो रहा है...कहाँ हूँ ...मैं...क्या..अजय...नहीं..नहीं...अजय...नहीं...मुन्ना...मुन्ना... नहीं...अजय ही...मेरा मित अजय...मैंने जाना...है...कहाँ...किसके पास...मेरी...मंजिल...।”

बड़हड़ाते हुए युवक ने अपना सिर झुकाकर सामने की शिला पर पटकना चाहा। तभी सामने बैठी युवती कड़क कर बोली, “खबरदार! ये क्या पागलपन है ?क्या जान देने पर ही उतारु हो गये हो?”

युवती की चेतावनी का जोरदार असर हुआ अजय पर। सिर उठाकर एकबार ध्यान से देखा युवती की मदकारी आँखों को, जिनमें स्नेह और क्रोध की परछाई और कालिमा दोनों एकसाथ नजर आयी उसे। कुछ देर तक देखता रहा, फिर कुछ बोले बिना चुप होकर बैठ गया। युवती भी उसे निहारती हुई चुप बैठी रही।

“ठिकाने आया दिमाग कुछ ? ”- मुस्कुरा कर युवती ने पूछा।

अजय ने फिर गौर किया उसके चेहरे पर, “ क्यों क्या बात है, कुछ कह रही हो क्या

मुझसे?”

“कहूंगी क्या कोई नयी बात। मैं तो कितनी देर से कहती आ रही हूँ। बीच में तुम खुद ही ऊँघने लग जा रहे हो।”- युवती होठों ही होठों में मुस्कुराई, मानों उसे अपने प्रयास में सफलता मिली हो।

“नहीं-नहीं, अब नहीं ऊँघूंगा।”- अजय ने ना में सिर हिलाते हुए कहा- “ बिलकुल नहीं ऊँघूंगा। कहो न क्या कह रही थी तुम?”

“यह भी भूल गये कि मैं क्या कह रही थी ?”- युवती ने व्यंग्यात्मक मुस्कान बिखेर कर पूछा।

“भूल कैसे जाऊँगा, बिलकुल याद है। तुम यही कह रही थी न कि शहरी बाबू ने अपना नाम अमरेश बतलाया।”- जरा सोच कर युवक ने कहा।

“हां, यही कह रही थी।”- युवती फिर कहने लगी- “ मतिया द्वारा काफी जोर देने पर उस बाबू ने कहा कि वह आदमी मर चुका है, जिसका नाम कभी अमरेश हुआ करता था। अब तो हाड़-मांस का पुतला भर एक रह गया है, चाहे जो भी नाम दिया जाय उसे।”

“अमरेश का नानोनिशान मिटाने के पीछे कोई बहुत बड़ी बजह रही होगी बाबू ?”- उसकी बात सुनकर गोरखुआ ने कहा।

“कुछ ऐसा ही समझो भाई।”- किन्हीं यादों में खोये हुए बाबू ने कहा, जिसका नाम अब पलटनवांबाबू रख दिया गया था मतिया द्वारा।

“ समझ तो रही ही हूँ। मैं भी समझ रही हूँ , और गोरखुभाई भी समझ रहा है, किन्तु इच्छा है- विस्तार से जानने की, वो भी तुम्हारे मुंह से। खैर, नहीं चाहते तो छोड़ों, जाने दो बाबू , इसके लिए ज्यादा तंग भी न करुँगी तुम्हें। तुम्हारे दिल को चोट पहुँचे- ऐसा कोई काम हमलोग नहीं करेंगे।”- कहती हुई मतिया गोरखुआ द्वारा लाये गये सामानों की गठरी उठाकर झोंपड़ी के भीतर चली गयी। उसे जाते देख गोरखुआ ने कहा- ‘ दादू ने कहा था – बाबू को सांठी का भात बनाकर खिलाने को। तुम तब तक बना क्यों नहीं दे रही हो? अब तो शाम भी होने को आयी।’

‘ जाती हूँ, बनाये देती हूँ। बहुत भूख लगी होगी बाबू को। सुबह में थोड़ा शहद और छनका लिया था केवल। पेट में तो यूं ही छनका मचा होगा अंतड़ियों का।’- भीतर जाती, मतिया ने कहा।

गोरखुआ वहीं सारंगा की बुनी हुयी चटाई पर बैठा, तमाखू बनाते हुए बोला- ‘ अब तो बिलकुल ठीक हो न बाबू ! सुनाओ न कुछ बढ़िया बात। ओह, किसी भी बाबूको देखता हूँ तो मन ललच जाता है। आज भी कस्बे गया था जब सांठी लेने, तो एक दुकान पर खड़े दो बाबुओं की बातें सुना- वे सब गोरा पलटन की बात कर रहे थे। फिर एक ने कहा कि चिन्ता न करो, गान्ही बाबा फूंक मारकर सबको उड़ाय मारेंगे।’

गोरखुआ की बात पर बाबू को हँसी आगयी- ‘गोरा पलटन को उड़ाये मारेगा गान्ही बाबा...क्यों गोरखुभाई?’

‘हां, बाबू ! सुनते तो यही हैं कि गान्ही बाबा बिना तीर-कमान के, केवल बातों के बल पर इन गोरों को कायिल करके वापस अपने देश जाने को मजबूर कर देगा।’

‘ सो बात नहीं है गोरखुभाई। सच पूछो तो स्वराज्य केवल तीर-कमान से मिलने वाली चीज नहीं है, तोप-बारुद से भी नहीं, और न केवल बातों का पिटारा खोलने से ही मिल सकता है। और यह भी न सोचो कि हाथ जोड़कर अपने अधिकार के लिए प्रार्थना करने से ही मिल जायेगा। और मान लो यदि मिल जाये तो भीख की तरह मिली कोई चीज अच्छी नहीं होती। भीख और भिखमंगे की औकाद ही क्या? पायी गयी चीज को हिफाजत से रखना कोई मामूली बात नहीं है। सबसे पहले जरुरी है, गोरखुभाई कि हम देशवासी एक मत हों। आप देख रहे हैं कि इतना बड़ा देश छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंटा हुआ है, जो आए दिन अपने निहित स्वार्थ के लिए एक दूसरे का खून बहा रहे हैं, और इसे ही स्वाभिमान कहते हैं।तुमने शायद सुना हो, भारत में जब-जब आपसी फूट का बोलबाला हुआ तो विदेशियों को अपने करतब दिखाने का अवसर मिल गया। कोई वीर बना, कोई व्यापारी। एक कहावत है न- घर फूटे गंवार लूटे...।’- पलटनवांबाबू खाट पर इत्मिनान से बैठ कर समझाने लगा गोरखुआ को।

‘इसका क्या अर्थ हुआ बाबू?’- गोरखुआ ने गर्दन टेढ़ी करके बाबू की ओर देखते हुए पूछा।

‘कहने का मतलब है कि आपसी बैर- बड़े-छोटे, जात-पात, अमीर-गरीब का भेद ही विनाश की जड़ है। और इस जड़-मूल से ही परतन्त्रता का विषवृक्ष पनपता-फुनगता है। इस तरह की स्थिति जब-जब भी जहां कहीं भी होगी, बाहरी लोगों को मौका मिलेगा ही, और बड़ा से बड़ा साम्राज्य भी छिन्न-भिन्न हो जायेगा, पराधीन हो जायेगा।’- जरा ठहरकर बाबू ने फिर कहा- ‘ यही बात हमारे यहां भी हुई गोरखुभाई। राजा प्रजा की सुख-सुविधा भूल कर ऐयाशी और धन-मद में चूर होकर, प्रजा का शोषण-दोहन करने लगा, और फिर अपने अहंकार का प्रदर्शन ही एकमात्र कर्म रह गया। सिर्फ आपस में टकरा कर ही रह जाते तो भी कम नुकसान होता, हुआ ये कि एक को नीचा दिखाने के लिए दूसरे ने तीसरे का सहारा लिया, और तीसरे ने मदद कम, अपना उल्लू अधिक सीधा किया। लूटपाट कर ले गया हमारे सोने की चिड़िया को। उसी का परिणाम है, जो आज हमारी ये दशा बन गयी है। कुछ ने लूटा, कुछ ने नष्ट-भ्रष्ट किया- हमारी संस्कृति को। गोरों ने हमारे ही लोगों से हमारे ही लोगों पर अत्याचार कराया। सदियों से जो हमारी मातृभूमि के पैरों में परतन्त्रता की बेड़ी पड़ी हुई है, इसके लिए हमारे ही लोग मुख्य रुप से जिम्मेवार हैं। ये रायसाहब और रायबहादुर और तरह-तरह के खिताब वाले दीख रहे हैं, सच पूछो तो गोरों के चाटुकार हैं। कुछ खास चाटुकारों को कुछ खास अधिकार देकर देश को लूटा है इन गोरों ने। और ये न भूलो गोरखुभाई कि ये आज जो रहनुमाई कर रहे हैं- हमारे सच्चे सेवक हैं, इस भ्रम में न रहो। ये भी अपना उल्लू ही सीधा करने में लगे हैं। गान्ही-गान्ही तो कर रहो हो, एक और नाम भी तुमने सुना होगा- नेताजी सुभाष का। इनके विचार गान्धी के विचार से बिलकुल ही भिन्न हैं। ये गरम और नरम दो विचार धारायें हैं। ये नरम कहा जाने वाले का सतत प्रयास है- गरम को दबाने का। जबकि कि इन दोनों को मिलकर काम करने की जरुरत है, किन्तु काश ! ऐसा हो पता। मुझे तो डर है कि देश का कुछ बहुत बड़ा नुकसान न हो जाये।’- चिन्ता प्रकट करते हुए बाबू ने कहा- ‘हमें जरुरत है गोरखुभाई सच्चे देशप्रेमी की, न कि सत्ताप्रेमी की। जरुरत है कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ने की। सबको साथ लेकर चलने की। गांधी का अपना व्यक्तित्व है, अपना स्थान है, तो सुभाष का अपना। और सबसे अधिक जरुरत है- भविष्य में होने वाले टकराओं को रोकने की, मतभेदों को दूर करने की। स्वराज्य मिलना बहुत बड़ी बात है, पर उससे भी बड़ी बात है- उसे सहेज कर रखने की। नींव की ईंट कंगूरे को देखने नहीं आयेगी, किन्तु इतना तो अवश्य है कि सम्भलकर चलना होगा, रहना होगा, ताकि किसी तरह के झोंके का सामना किया जा सके।’

‘हां बाबू! ’-सिर हिलाकर गोरखुआ ने कहा- ‘हाथी पाल लेना आसान है, पर उसका चारा जुटाना थोड़ा कठिन है।’

‘तुमने सुना होगा गोरखुभाई! ’-बाबू ने आगे कहा- ‘ आये दिन कितने ही लाल स्वराज की जलती आग में अपने प्राणों की आहुति देते आ हे हैं। नींव की इन अनगिनत ईँटों के त्याग से ही स्वराज्य का भव्य-भवन खड़ा होना है, किन्तु फिर भेद-भाव, और आपसी टकराव के चूहे इस नींव को खोद डालें, तब की बात भी सोचने वाली है। तिस पर भी मैं एक बात और सोचता हूँ गोरखुभाई, हो सकता है मेरी बात पसन्द न आये, पर बात है सही। जैसी हवा चल रही है, स्वराज्य तो शीघ्र ही मिल जायेगा, किन्तु सोचो जरा- तुम्हारी बन्दिनी माँ की जान बक्श दी जाय, दायें-बायें दोनों हाथ काट कर, तो क्या तुम चाहोगे ऐसा? किन्तु तथाकथित शुभचिन्तकों का एक बहुत बड़ा वर्ग इस बात पर भी राजी हो सकता है, क्यों कि उस मूर्ख को तो हर कीमत पर स्वतन्त्रता चाहिए, ताकि उसकी कुर्सी आबाद हो सके। पर जरा सोचो- लहुलुहान उस माँ को तुम क्या कहकर सान्त्वना दोगे? ’

बाबू सुराज की बात बतला रहे थे, गोरखुआ से तभी सोहनु काका और भेरखु दादू भी आगये। गोरखुआ ने चटाई खींचकर, उन्हें भी बैठने का इशारा किया। बाबू ने अपनी खाट की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘ अच्छा नहीं लगता गोरखुभाई ! ये बुजुर्ग लोग नीचे बैठें। तुम बैठे हो वही बुरा लग रहा है मुझे।’

गोरखुआ ने बाबू की बात ठीक से समझायी, तो वे दोनों हँसने लगे।

‘ओय गोरखुआ , पाहन संग मोंय बईठबों?’- कहते हुए दोनों ही, नीचे चटाई पर बैठ गये। बाबू उनके सरल व्यवहार और अतिथि सेवा-भाव पर मुग्ध, एकटक निहारने लगा।

धीरे-धीरे शाम हो गयी। रात भी अपना खेमा गाड़ गयी। काम से वापस आ, एक-एक करके गांव के लोग मतिया के ढाबे में जमा होने लगे। कजुरी नानी भी कुछ कन्द-मूल-फल लेकर आ पहुँची अपनी राम मडैया में। आते ही पहले बाबू का हाल पूछी, सिर पर हाथ रख कर, ‘बोखार तो नी आहे नीं बाबू? ’ और ‘ना’ का जवाब पाकर, खुशी से भीतर चली गयी कमर झुकाये। झुकी कमर पर रखी गठरी को देखता रहा, खाट पर बैठा बाबू, जब तक कि वह झोपड़ी के अन्दर घुस न गयी।

थोड़ी देर में मतिया खाना परोस कर लायी- गहरे, थालीनुमा पत्तल में। अपने हाथों बाबू का हाथ-पैर धुलाया उसने, फिर सामने बैठ गयी पत्तल और दोने परोस कर। बाकी लोग उधर ढाबे में ही बैठे, आपस में बातें करते रहे। गोरखुआ वहाँ बैठे लोगों को बाबू द्वारा बतायी गयी सुराज की बातों को कह-समझा रहा था।

बाबू के विचार जान कर सबको बड़ा अच्छा लगा। सोहनु काका ने गोरखुआ से कहा, ‘ये रे गोरखुआ ! बाबू को कह-सुनकर यहीं रखले अपने गांव में ही। बड़ा अच्छा है बाबू। गांव में रहने से हमलोग बहुत बात सीख लेंगे।’

सोहनु की बात पर भेरखुदादू ने भी हामी भरी, और लोगों ने भी सिर हिलाये। गोरखु ने कहा- ‘ इच्छा तो मेरी भी यही है, किन्तु बाबू को अपना कोई काम-धाम न होगा, जो यहां पड़े रहेंगे? ये तो कहो कि अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए हैं, इस कारण हमलोग से सेवा ले रहे हैं, थोड़ा बहुत।’

‘बाबू करते क्या हैं रे गोरखुआ, कुछ बतलाया उन्होंने?’- पूछा डोरमा ने।

‘अभी तक तो नहीं बतलाया, और ना ही ज्यादा पूछपाछ ही किया हमने।’- डोरमा की बात का जवाब दिया गोरखुआ ने। थोड़ा ठहर कर बोला, ‘ अरे हां, याद आयी एक बात- कल करमा है न। अच्छे मौके पर बाबू आ गये हैं। कल हम लोगन का परब खूब जमेगा।’

बाहर बैठे ये लोग बातें कर ही रहे थे, तभी बाबू आगये खाना खाकर। हाथ धोते हुए बाबू को मतिया ने बतलाया, ‘ करमा हमलोगों का बहुत बड़ा परब है। भादो इन्जोरा के एकादशी को बड़े धूम-धाम से हमलोग इसे मनाते हैं। कल ही तो है यह परब। हर साल कल के दिन भेरखुदादू के चौपाल में इकट्ठे होकर नाच-गान करते हैं हमसब। अब तो तुम ठीक ही हो गये हो बाबू। कलतक और ठीक हो जाओगे। फिर तुम भी नाचना हमलोगन के साथ।’

मतिया की बात पर बाबू मुस्कुराने लगे। खाट पर बैठते हुए बोले, ‘ मैं क्या नाचूँगा? तुमलोग नाचना, हम बैठे-बैठे तुमलोगों का नाच देखेंगे।’

फिर देर रात तक इसी तरह की बातें होती रहीं। पहले यह तय किया गया कि करमा के लिए क्या-क्या तैयारी की जायेगी। किसके यहाँ क्या बनेगा- खाने-पीने के लिए।

खाना खाने के बाद बाबू को सुस्ती सी लगने लगी। इस कारण वहीं खाट पर पड़े रहे। मतिया चादर लाकर ओढ़ाती हुयी पूछी, ‘पैर दाब दूँ बाबू दरद है क्या?’

‘अरे नहीं, दर्द-वर्द नहीं है, यूँ ही खाने के बाद आलस लगने लगा।’- बाबू ने कहा।

‘तो फिर आज भी जरा सा...।’- बाबू ने मतिया का इशारा समझ लिया, ‘ अरे नहीं, उसकी आज जरुरत नहीं। मैं तो उस दिन भी नहीं लेता, तुमने ही जबरन उढेल दिया मेरे मुंह में। आज कुछ नहीं, बस चुप सोना चाहता हूँ।’

‘तो सो जाओ बाबू आराम से सो जाओ। कोई काम आजाये तो बुला लेना। मैं यहीं हूँ बाहर ढाबे में।’-कहती हुयी मतिया बाहर निकल कर जा बैठी।

कहने को तो बाबू ने कह दिया कि नींद आरही है, पर सही में नींद आती तब न। आँखें बन्द कर, मुंह चादर से ढक लिया, पर मन चारों ओर दौड़ता रहा। बाबू को अभी नींद नहीं आरही है, यह बात मतिया भी अच्छी तरह समझ रही थी, कारण कि बाबू करवटें बदल कर ओफ...आह...की आवाज निकाल रहा था। गौर करने पर मालूम किया जा सकता था कि यह ओफ और आह वदन के दर्द का नहीं, बल्कि मन की किसी पीड़ा का है। आज दोपहर में मतिया ने बहुत कोशिश की, किन्तु सफल न हो सकी जान पाने में। बाबू की चुप्पी और मौन, बात बदलने की लत ने मतिया को और उत्सुक कर दिया था। वह लागातार बाबू के ही विषय में सोचे जा रही थी। परन्तु अपनी बुद्धि और सोच के सहारे वह कहाँ तक पहुँच पाती- बाबू को किस तरह की तकलीफ है?

‘मतिया बाहर बैठी रही। भीतर ढाबे में बाबू खाट पर लेटा, करवटें बदलता रहा। मतिया ने भी जान-बूझकर टोक-टाक करना अच्छा न समझा।

न जाने बाबू को कब नींद आगयी। मतिया भी भीतर जाकर पड़ रही, झोपड़ी में। एक और खाट पर बूढ़ी नानी कजुरी खर्राटे भर रही थी।

गुजरिया में एक और रात गुजर गयी। दूसरे दिन का सूरज खुशी का सन्देशा देने आया वनवासियों के लिए। सुबह से ही गांव में तरह तरह की तैयारियां होने लगी। झाड़ू- बुहारु किया गया- गली-कूचों का।

नींद खुलने पर बाबू ने देखा- मतिया अपनी झोपड़ी की सफाई में जुटी है। पतेले की दीवार पर मिट्टी का लेप चढ़ाकर बनाई गयी झोपड़ी को चूने की तरह की ही सफेद मिट्टी से लीपी जा चुकी है। लीपने-पोतने का ढंग भी कुछ अजीब ही लगा बाबू को- पूरी दीवार पर लगता था कोई चित्रकारी की गयी हो- गोल-गोल सी, पर वह चित्रकारी न थी, लीपने का खास तरीका था। मिट्टी, पत्ते और घास की झोपड़ी भी इतना मोहक लग सकता है- शहरी बाबू ऐसा सोच भी न सकता था। खाट पर बैठे-बैठे ही कुछ देर तक अलसायी नजरों से देखता रहा- कभी मतिया को, कभी झोपड़ी की दीवार और छप्पर को...। मतिया अपने काम में मस्त, जान भी न पायी कि बाबू जग चुका है, और उसे देखे जा रहा है।

‘क्यों सारी रात काम में ही लगी रही क्या?’- पीछे से बाबू की आवाज सुन, मतिया चौंकी।

चेहरे पर झुक आयी उलटी लटों को सुलझाकर ऊपर करती हुयी मतिया ने पीछे मुड़ कर देखा- बाबू उसे ही देखे जा रहा था। मुस्कुराती हुयी बोली, ‘ कौन कहें कि बड़ी सी हवेली है, जिसकी साफ-सफाई में दो-चार दिन लगने हैं। अभी कोई घड़ी भर पहले नींद खुली। सोची जल्दी से निबटा लूँ घर का काम, जब तक कि बाबू सोये हैं।’

‘काम पूरा हो गया या अभी बाकी ही है?’-खाट से उठकर खड़े होते हुए बाबू ने पूछा।

‘कुछ हो गया, कुछ बाकी भी है।आधी घड़ी भर तो और लगेगा ही कम से कम।’-बाबू की बात का जवाब दिया मतिया ने।

‘ठीक है, तुम अपना काम निपटाओ, तबतक मैं जरा टहल आता हूँ जंगल की तरफ।’-चादर समेटते हुए कहा बाबू ने।

‘हां-हां, हो आओ, परन्तु ज्यादा दूर इधर-उधर मत निकल जाना। अनजान है सब तुम्हारे लिए।’-बांयी हाथ का इशारा करती हुयी बोली- ‘उधर पास में ही एक झरना है, उधर जाना ही अच्छा रहेगा। तबतक मैं भी अपना काम निपटा कर उधर ही नहाने आऊँगी। आज सारा दिन हमलोग खाना-वाना नहीं खाते। दोपहर तक तो गांव की सफाई में ही निकल जाता है, फिर सब मिलकर अपने-अपने भेड़-बकरियों, गाय-बछरुओं को साथ लेकर झरने पर नहाने जाते हैं।’

‘तो क्या और दिन नहाना नहीं होता है क्या?’- मुस्कुराकर बाबू ने पूछा।

‘अजीब बात करते हो बाबू।’- पोतन चलाते मतिया के हाथ, अचानक थम गये-‘नहाना क्यों नहीं होता? होता है, रोज, वहीं झरने पर ही; किन्तु आज का नहाना कुछ और ही मजेदार

होता है – सबलोग साथ मिलकर नहाते हैं जो।’

‘अच्छा! मैं भी देखूँगा तुमलोगों का मजा।’-कहते हुए बाबू चल दिया वहां से। उसे जाते देख मतिया ने टोक कर पूछा- ‘तुम्हारे लिए क्या बना दूँ बाबू सुबह के जलखई में?’

‘कोई खास जरुरत नहीं। जब सारा गांव बिना खाये रह सकता है, फिर मैं क्या....?’- मुस्कुराते हुए बाबू ने कहा, ‘वैसे हमारे यहां भी लोग एकादशी-त्रयोदशी बहुत तरह का व्रत- उपवास करते हैं। हालाकि मैंने कभी किया नहीं ये सब। आज जी चाहता है कि तुमलोगों के साथ मैं भी इसका आनन्द लूँ।’- कहते हुए बाबू बाहर निकल गया झरने की ओर।

बाबू काफी देर तक उधर ही टहलता रहा। नये-नये अनजान पेड़-पौधों को गौर से देखता रहा, और देखता रहा झरने का गिरना-बहना। फिर ध्यान आया, बहुत देर हो गयी, अब वापस चलना चाहिए।

सोच ही रहा था, तभी देखा, ढेर सारे मर्द-औरत, बच्चे-बूढे चले आ रहे हैं उसी ओर। किसी के हाथ में मिट्टी की कलशी है, किसी के हाथ में भेड़ का पगहा, कोई अपनी गायों को लिये आ रहा है, तो कोई बकरियों के झुंड को।

मतिया भी एक हाथ से सिर पर रखी कलशी पकड़, दूसरी में कपड़ों का गट्ठर दबाये, चली आरही है।

भेड़-बकरियों, गाय-बछरुओं, औरत-मरद-बच्चों की भीड़ आजुटी झरने के पास।

‘तुम्हारे कपड़े भी लेती आयी हूँ बाबू, तुम भी नहा लो, तबतक मैं मैले कपड़े कचार लेती हूँ- ‘रेहड़ा’ से।’-सिर के कलशी, उतार नीचे रखती हुयी मतिया ने कहा।

‘नहाना तो है ही।’-कहता हुआ बाबू बैठ गया वहीं पास के ढोंके पर। मतिया कपडों का गट्ठर लेकर वहीं बैठ गयी एक चौड़ी चट्टान पर, जो आधा डूबा हुआ था पानी में। इस तरह की और भी कई चट्टानें आसपास बिखरी पड़ी थी, जो नहाने, और कपडे धोने के लिए उपयोगी लग रही थी।

थोड़ी ही देर में सभी चट्टानें किसी न किसी के कब्जे में आगयी। कुछ लोग पानी में उतर गये अपने गाय-बछरुँओं की पूंछ पकड़ कर- उन्हें नहलाने-सहलाने। नंग-धडंग काले-काले बच्चे भी झरने के उछलते जल में उछल-कूद मचाने लगे। पिघली चांदी सी, झरने का झागदार पानी, छपक-छपक करते बच्चे, तैरती गायें...बड़ा ही मनोरम लग रहा था- बाबू को। शहरी बाबू के लिए ये सब कुछ बिलकुल ही अजूबा था।

कपड़े धोने के बाद, मतिया काली मिट्टी लगाकर भेड़ को मलमल कर नहलायी, फिर नानी को भी नहलाने के लिए पानी में उतार लायी। काली मिट्टी से ही उसका सिर मली, नहलायी, कपड़े कचारे। सबके बाद, हाथ में मिट्टी का एक बड़ा सा टुकड़ा लेकर, चट्टान पर बैठे बाबू के करीब आयी।

‘आओ न बाबू, तुम्हें भी नहला दूँ, मिट्टी लगा कर।’

‘ मिट्टी लगाकर? ’- बाबू हँसा- ‘मैं भी क्या भेड़ हूँ जो मिट्टी लगाकर नहाऊँ ? ’

थोड़ी ही दूर पर एक चट्टान पर बैठा गोरखुआ अपने कपड़े कचार रहा था। वहीं से हांक लगायी- ‘यहाँ तो हम सब इसी से नहाते हैं बाबू।’

मतिया ने कहा- ‘देखे नहीं बाबू नानी किस तरह मूंड मल-मलकर नहायी। इससे धोने से बाल बिलकुल मुलायम हो जाते हैं रेशम जैसे।’

पास आकर गोरखुआ ने एक पोटली में से भूरी-सी चमकीली, मिट्टी की रोड़ियों जैसी कोई चीज निकाल कर दिखाते हुए बोला- ‘ये देखो बाबू ! ये रेहड़ा है। यह भी एक तरह की मिट्टी ही है, जिससे कपड़े धोये जाते हैं।’

बाबू ने गोरखुआ के कपड़ों को देखा, जो वहीं झाड़ियों पर पसरे, सूख रहे थे- बिलकुल साफ- लकदक, धुले कपड़े, मानों उमदा किस्म के किसी साबुन से ही धुले हों।

‘नहाने के लिए काली मिट्टी, कपडे धोने के लिए ये रेहड़ा मिट्टी, जमीन लीपने के लिए लाल और गोरी मिट्टी, दीवारों के लिए सफेद चुनवां मिट्टी...। ये तरह-तरह की मिट्टी है बाबू। सुनते हैं कि गान्हीबाबा भी काली मिट्टी से ही नहाते हैं और रेहड़ा से कपड़े धोते हैं।’-कहा गोरखुआ ने, जिस पर बाबू हँसने लगा।

‘नहाते होंगे तुम्हारे गान्हीबाबा। मैंने तो कभी देखा नहीं।’- कहा बाबू ने, और मतिया के हाथ से कालीमिट्टी का एक ढेला लेकर, पानी में उतर गये- ‘अरे वाह, वाकई मिट्टी तो बिलकुल चिकनी है मक्खन जैसी। देखता हूँ लगाकर। मैं तो समझा था कि रुखड़ी-कंकड़ली होगी।’

‘...और मुलायम वदन छिल जायेगा...क्यों बाबू यही बात है न?’- गोरखुआ और मतिया दोनों एक साथ एक ही बात बोल पड़े।

बाबू ने मिट्टी लगाकर, झरने में खूब गोता लगाया। आज कई दिनों बाद आसमान बिलकुल साफ हुआ था। दोपहर का सूरज, ऊँचे आकाश में चमक रहा था। जाड़े की धूप की तरह बरसाती सूरज भी बड़ा ही प्यारा लग रहा था। वन-प्रान्तरों में, झरनों, पहाड़ों के घेरे के ऊपर कुलांचे भरता सूरज वाकई बड़ा ही सुहावना लगता है। अभागे शहरियों को ये सब कहाँ नसीब है, जिन्हें खुला आसमान भी कभी-कभार ही दीख पड़ता है- बाबू ने मन ही मन सोचा।

गांव के बहुत से लोग औरत-मर्द-बच्चे-बूढ़े सभी एक साथ मस्ती से नहा रहे थे। कोई लाग-लपेट न नजर आयी। नहाते-नहाते मस्ती में झूम कर कोई गाने और नाचने भी लग जाता। चारों ओर अजीब आनन्द की लहर सी फैली हुयी थी।

कोई दो घड़ी बाद सभी वापस आये गांव में। फिर तैयारी होने लगी भेरखु दादू के चौपाल को सजाने की- रात के जलसे के लिए। बाहर मैदान में चारों कोनों पर साखू के चार मोटे-मोटे खम्भे गाड़े गये। उन पर बांस की चंचरी बांध कर, हरे-हरे ताजे पत्तों और रंग-बिरंगे जंगली फूलों से सजाया गया। गुरचरना के लम्बे लत्तरों में, और केले के रेशों में फूलों को गूंथ कर, गुच्छे बांध-बांधकर वन्दनवार बनाया गया। ‘झाम’ और फावड़े से जमीन को साफ-सुथरा कर, गोबर में लालमिट्टी मिलाकर लीपा गया। फिर सफेद चुनवां मिट्टी, और गेरुमिट्टी की बुकनी बहुत से छेदों वाली, बांस की फोंफी जैसी एक चीज में भरकर, कारीगरी पूर्वक उस मंडप को सजाया गया। मतिया ने बाबू को बतलाया कि इस तरह की बहुत सी फोंफियां नानी ने बनायी है। देखने में हर फोंफी एक जैसी लगेगी, किन्तु उनमें सफेद और गेरुमिट्टी भर-भर कर, जमीन पर गोल-गोल घुमाने से अलग-अलग किस्मों के गुल-बूटे बन जायेंगे। एक फोंफी को मतिया के हाथ से लेकर बाबू ने देखा- हाथ भर लम्बी, सामान्य बांसुरी से थोड़ी मोटी, किन्तु अनगिनत-बेतरतीब छेदों वाली, देखने में कोई खास नहीं, सब एक जैसे ही। किन्तु उनसे बनी अलग-अलग चित्रकारी बड़ी ही मनमोहक थी। किसी एक चित्र को सीधे हाथ से बनाने पर घंटों लग सकते थे, जो कि इस फोंफी से बस मिनटों का काम था।

‘अपने घर जाते वक्त, तम्हें भी नानी की बनायी इन फोंफियों में से कुछ दे दूंगी। वहां जाकर लोगों को दिखाना- गुल-बूटे बनाने की कला।’- कहा मतिया ने, तो उसकी बात काटते हुए गोरखुआ बोल उठा- ‘क्या कहती हो- बाबू जायेंगे यहाँ से? हमलोग तो चाहते हैं कि बाबू कभी ना जायें यहां से हमलोग को छोड़कर।’

‘...ऐसा भी कहीं होता है?’- मतिया धीरे से भुनभुनायी, जिसे कोई सुन न पाया।

यह सब करते-कराते दिन ढल गया।अब तैयारी होने लगी ‘करमडाढ़’ लाने की। मतिया ने बाबू को बतलाया- ‘आज के दिन हमलोग करमडाढ़ की पूजा करते हैं।चलो बाबू! तुम भी तैयार हो जाओ, चलने के लिए।’

‘कहां चलना है?’- बाबू ने पूछा।

‘यहां से थोड़ी ही दूर पर एक पहाड़ी है, वहीं चलना है। सभीलोग चलेंगे वहां।’-मतिया ने कहा।

ये लोग बातें कर ही रहे थे कि होरिया कन्धे से मान्दर लटकाये आ पहुँचा। आगे आगे होरिया चला- मान्दर बजाते हुए, और उसके पीछे मिट्टी की नयी कलशी में पानी भर कर सिर पर रख, डोरमा की बहन मंगरिया चलने लगी। उसके पीछे सफेद कपड़े पहने, सिर पर मुड़ासा बांधे, गांव के पाहन भी चलने लगे। उनके पीछे बाकी लोग।

गोरखुआ ने बाबू को बतलाया-‘ ये पाहन ही किसी उत्सव-परब में हमलोगों के यहां पूजा करते हैं।’

‘यानी कि पुरोहित।’- बाबू ने कहा- ‘हमलोगों के यहां पूजा-पाठ कराने का काम पंडितों का है। पर्व-त्योहार हो, या शादी-विवाह, या कि जन्म-मरण- इन पंडितों को चूँगी दिये वगैर गुजारा नहीं। तुम दुःखी रहो या सुखी , इन्हें खुश पहले करो। और हाँ, कितना हूं दे दो, ये खुश होते नहीं जल्दी।’