अधूरी मूर्तियों का क्रंदन : एक संवेदनात्मक पड़ताल / पूनम चौधरी

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सुदर्शन रत्नाकरजी का कहानी -संग्रह ‘अधूरी मूर्तियों का क्रंदन’ साहित्य में अपनी संवेदनात्मक गहनता, प्रतीकात्मक शिल्प और दार्शनिक अंतर्दृष्टि के कारण विशेष महत्त्व रखता है। यह केवल कहानियों का संग्रह नहीं; बल्कि जीवन की विद्रूपता और विसंगतियों के साथ, जिजीविषा और मानवीय आकांक्षाओं की करुण परिणति का गहन साहित्यिक प्रतिरूप है। संग्रह का शीर्षक अपने आप में इतना सशक्त और प्रतीकात्मक है कि सम्पूर्ण रचना-समुच्चय की आत्मा को उद्घाटित करता है। अधूरी मूर्तियाँ मात्र पाषाण की टूटी काया नहीं, अपितु जीवन की अधूरी इच्छाओं, अपूर्ण आकांक्षाओं और म्लान स्वप्नों का दर्पण हैं। उनका क्रंदन मनुष्य की आत्मा का वह मौन स्वर है, जो कभी मुखर नहीं हो पाता, परंतु निरंतर अंतर्मन में गुंजायमान रहता है।

‘अधूरी मूर्तियों का क्रंदन’ शीर्षक केवल शाब्दिक अर्थ में टूटे हुए शिल्पों का विलाप नहीं है; बल्कि यह उन समस्त मनुष्यों के अनुभवों और मानसिक द्वंद्वों का रूपक है, जहाँ व्यक्ति चाह कर भी अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता। समुद्र की अनंत लहरों के बीच अधूरी पड़ी मूर्तियों का क्रन्दन न केवल समय की विडंबना है; बल्कि मनुष्य के असंतोष, असफलताओं और अपूर्णता का भी मार्मिक प्रतीक है। इस प्रकार शीर्षक में संग्रह की आत्मा निहित है, जो न केवल भावनात्मक मार्मिकता; बल्कि गहन दार्शनिक दृष्टि को भी प्रकट करता है।

संग्रह में कुल 15 कहानियाँ हैं, जो अपने-अपने स्तर पर मानवीय जीवन के विविध पक्षों का उद्घाटन करती हैं। कहानियाँ केवल घटनाओं का विवरण नहीं देतीं; बल्कि पाठक को पात्रों के मानसिक संसार में प्रवेश कराती हैं। प्रत्येक कहानी में पात्रों की पीड़ा, संघर्ष और जिजीविषा इस प्रकार चित्रित है कि पाठक स्वयं उनके जीवन का सहभागी प्रतीत होता है।

संग्रह की भूमिका स्वयं लेखिका की आंतरिक दृष्टि को उद्घाटित करती है। इसमें स्पष्ट है कि रचना केवल कला का साधन नहीं; बल्कि जीवन के अनुभवों और संवेदनाओं का सूक्ष्म चित्रण है। लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि वह जीवन की कठिनाइयों, पीड़ा और असफलताओं को मात्र उद्घाटित नहीं करती, बल्कि उनके भीतर से उत्पन्न आशा, साहस और जीवन के प्रति जिजीविषा को भी उन्होंने पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है। भाषा की सहजता, प्रवाह और भावनाओं की शुद्धता भूमिका को पठनीयता और अनुभवात्मकता का गहन स्तर प्रदान करती है।सुदर्शन रत्नाकर की लेखनी का यह प्रारंभिक वक्तव्य मात्र भूमिका न होकर, उनके रचना-संसार का आत्मस्वर है। यहाँ लेखिका ने अपने सृजन की प्रक्रिया को अत्यंत आत्मीयता और संवेदनशीलता के साथ उजागर किया है। वे स्पष्ट करती हैं कि लेखन केवल दृष्टिगोचर जगत की पुनर्रचना नहीं; बल्कि अंतःकरण से अनुभव किए गए दुःख–सुख, वेदना–संघर्ष और जीवन के विविध रंगों का साक्षात्कार है।

लेखिका की दृष्टि में सृजन वह यात्रा है, जिसमें आँखें, हृदय और बुद्धि एकाकार होकर नया संसार रचती हैं। वे मानती हैं कि लेखक अपने पात्रों के साथ जीता है, उनसे वार्तालाप करता है और उन्हें आत्मसात करके शब्दों में उतारता है। इसी कारण उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से गहराई से जुड़ जाती हैं और पाठक के हृदय तक पहुँचकर उसकी संवेदना को स्पंदित करती हैं।

इस भूमिका में एक अत्यंत मार्मिक उद्घोष है—“लेखन का अंत नहीं होगा; क्योंकि उसके बिना मेरा जीवन निःसार है।” यह कथन लेखिका की लेखनी और जीवन के बीच के गहरे संबंध को प्रकट करता है। उनके लिए लेखन केवल एक अभिव्यक्ति का साधन नहीं, बल्कि अस्तित्व का आधार है। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए भी सकारात्मकता और जिजीविषा का संचार करती हैं।

‘अधूरी मूर्तियों का क्रंदन’ शीर्षक से ही यह संकेत मिलता है कि ये कहानियाँ अधूरेपन, वेदना और संघर्ष से उपजी संवेदनाओं को मुखर करती हैं। किंतु यह अपूर्णता नकारात्मकता की नहीं बल्कि उस सतत अन्वेषण का प्रतीक है, जो जीवन को गतिमान और रचनाशील बनाए रखता है।

भूमिका की भाषा सरल होते हुए भी मार्मिक है और उसकी संवेदनाएँ इतनी प्रामाणिक हैं कि पाठक अनायास ही लेखिका के आत्मसंवाद का सहभागी बन जाता है। यह भूमिका वस्तुतः उस धड़कन के समान है, जो संपूर्ण संग्रह को जीवंत कर देती है और पाठक को आगामी कहानियों के प्रति गहन उत्सुकता से भर देती है।

इस संग्रह की पंद्रहों कहानियाँ जीवन की विविध स्थितियों, मानवीय संबंधों की जटिलताओं और स्त्री–मन की गहन संवेदनाओं को मार्मिक रूप में अभिव्यक्त करती हैं। प्रत्येक कहानी अपनी विशिष्टता रखती है, किंतु कुछ रचनाएँ विशेष रूप से हृदय में गहरी छाप छोड़ती हैं।

अधूरी मूर्तियों का क्रंदन’ कहानी-संग्रह की शीर्षक कहानी है। लेखिका ने स्त्री जीवन के अधूरेपन और उसकी मौन वेदना को जिस करुण स्वर में प्रस्तुत किया गया है, वह पाठक को भीतर तक विचलित कर देता है।

यह कहानी मानवीय संबंधों के अधूरेपन और स्त्री-जीवन की पीड़ा को उजागर करती है। अंशुला के जीवन के माध्यम से लेखिका ने दिखाया है कि एक स्त्री अपने कर्तव्यों, रिश्तों और सामाजिक बंधनों में उलझकर अपने सपनों और आकांक्षाओं को अधूरा छोड़ देती है। उसका व्यक्तित्व एक ऐसी मूर्ति की तरह है, जो आकार तो लेती है पर कभी पूर्णता तक नहीं पहुँच पाती। कथ्य का उद्देश्य नारी जीवन की विडंबना को सामने लाना और पाठक को यह सोचने पर विवश करना है कि क्यों स्त्री की इच्छाएँ बार-बार दबा दी जाती हैं। शिल्प की दृष्टि से कहानी प्रवाहमयी और आत्मीय है, जिसमें वर्णन और संवाद दोनों का संतुलित प्रयोग हुआ है। बिंब और प्रतीकों—विशेषकर ‘अधूरी मूर्ति’ और ‘क्रंदन’—ने कथा को गहन भावुकता और गहराई दी है। यह रचना अपने उद्देश्य, संवेदना और सहज शैली के कारण पाठक को भीतर तक छू जाती है।

‘अकेलेपन का दंश’ कहानी मानव-जीवन की उस शाश्वत समस्या को उद्घाटित करती है, जहाँ बाहरी स्वतंत्रता के होते हुए भी आंतरिक स्तर पर मनुष्य बंधनों में जकड़ा रहता है। समुद्र की मुक्त लहरों में तैरती मछलियाँ स्वतंत्रता और पूर्णता का प्रतीक हैं, किंतु जब वही मछलियाँ एक्वेरियम की सीमाओं में कैद हो जाती हैं, तो उनका अस्तित्व मात्र शारीरिक होता है, आत्मिक नहीं। यह रूपक मनुष्य की स्थिति का सटीक चित्रण करता है—सामाजिक नियम, पारिवारिक बंधन और मानसिक सीमाएँ हमें बाहरी स्वतंत्रता के बावजूद भीतर से कैद कर देती हैं। कहानी का संदेश स्पष्ट है कि वास्तविक स्वतंत्रता मानसिक और आत्मिक मुक्ति में निहित है।

‘बस एक बार’ कथा व्यक्तिगत संबंधों और सामाजिक कठोरताओं की गहरी पड़ताल करती है। विवाह से पूर्व हुए एसिड-अटैक और मंगेतर के पलायन का प्रसंग मानवीय संवेदनाओं की भीषण परीक्षा है। मुख्य पात्र की मन की चीखें केवल व्यक्तिगत शोक का द्योतक नहीं, बल्कि समाज की असंवेदनशीलता और स्त्री की असुरक्षा का भी उद्घाटन हैं। यहाँ लेखिका यह प्रतिपादित करती हैं कि जीवन केवल बाहरी सौंदर्य या सामाजिक मान्यताओं पर आधारित नहीं, बल्कि विश्वास, संवेदना और आत्मिक जुड़ाव ही संबंधों का वास्तविक आधार है। यह कथा पाठक को भीतर तक झकझोर देती है और समाज की क्रूर विडंबनाओं पर गहन प्रश्नचिह्न लगाती है।

‘वह हारा नहीं’ कहानी संघर्ष और साहस की अनूठी अभिव्यक्ति है। विपरीत परिस्थितियों, सामाजिक दबाव और अप्रत्याशित घटनाओं के बीच नायक का आत्मबल और धैर्य ही उसे जीवन में विजय की ओर अग्रसर करता है। यहाँ लेखिका यह स्पष्ट करती हैं कि बाहरी हार ही वास्तविक पराजय नहीं होती; पराजय तब होती है जब मनुष्य का आत्मबल टूट जाता है। यह कथा पाठक के भीतर छिपी जिजीविषा को जगाती है और संदेश देती है कि परिस्थितियाँ चाहे जितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों, साहस और आत्मविश्वास ही मनुष्य को जीवन-पथ पर अग्रसर करते हैं।

संग्रह की अन्य कहानियाँ दिद्दा, केंचुली,बेजी, मैं लड़ूंगी दारजी, नेगी अंकल, वह लौट आया आदि भी अपनी संवेदनात्मक शक्ति और कथ्य की विविधता के कारण महत्त्वपूर्ण हैं, समग्रतः यह कहानी–संग्रह जीवन की अनकही पीड़ाओं और आशाओं का संवेदनशील दस्तावेज़ है।

लेखिका की भाषा सहज, प्रवाही और मार्मिक है। इसमें न तो कृत्रिम अलंकरण का बोझ है और न ही दुरूहता का आग्रह। भावों की शुद्धता और शब्दों की सादगी मिलकर एक ऐसा वातावरण रचती है, जहाँ पाठक सहज ही पात्रों की संवेदनाओं से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। संग्रह की कहानियों में संवाद, वर्णन और वातावरण—तीनों का संतुलित उपयोग हुआ है, जो कथानक को जीवंत और प्रभावशाली बनाता है।

कहानियाँ केवल व्यक्तिगत पीड़ा और मानसिक संघर्ष तक सीमित नहीं है; इसमें समाज की असमानताओं, विडंबनाओं और मानवीय संवेदनाओं का चित्रण है। संबंधों की जटिलता, सामाजिक अपेक्षाएँ, आर्थिक विषमताएँ—ये सब संग्रह की कहानियों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित हैं।

कहानियाँ वास्तविकता के उद्घाटन के साथ साथ उनके भीतर छिपी आशा, सहानुभूति और जिजीविषा की अभिव्यक्ति भी करती हैं। यही कारण है कि इन कहानियों को पढ़ते हुए पाठक निराशा नहीं होता बल्कि जीवन की कठिनताओं से जूझने का साहस पाता है। यह द्वंद्वात्मक दृष्टि ही संग्रह को संवेदनशीलता के साथ-साथ दर्शनिकता भी प्रदान करती है।

भाषा की सहजता, शिल्पगत संतुलन, प्रतीकात्मकता और मार्मिकता के कारण यह संग्रह हिंदी कथा-साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण और अविस्मरणीय योगदान सिद्ध होगा। यह न केवल पठनीय है; बल्कि अनुभवजन्य और चिंतन-प्रेरक भी है।

अधूरी मूर्तियों का क्रंदन पाठक को जीवन की कठिनताओं और विसंगतियां से अवगत कराते हुए उसे संवेदनशील और जागरूक बनाता है। यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है कि यह पाठक के मन, मस्तिष्क और हृदय पर गहरा व स्थायी प्रभाव छोड़ता है।

अधूरी मूर्तियों का क्रंदन (कहानी -संग्रह ): सुदर्शन रत्नाकर , प्रथम संस्करण: 2025 , मूल्य: ₹380 , पृष्ठ:-136, अयन प्रकाशन, जे19/39, राजापुरी,उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059