अध्यात्म और मीडिया / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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अध्यात्म और मीडिया ऐसे शब्द हैं जिसका अर्थ समझना और कहना दोनों मुश्किल मगर नामुमकिन नहीं है। मुमकिन इसलिए कि मैं आज, इस वक़्त आपसे मुख़ातिब हूँ और आप मुझसे। दरअसल, ये दोनों आपस में जुड़े हुए हैं। वर्तमान में इनका सम्बंध और भी गहरा हो गया है। अध्यात्म और मीडिया में एक बात कॉमन है। इंसान की ज़िंदगी पर सीधा असर होता है। क्योंकि दोनों की वजह से इंसान की ज़िंदगी में क्रांति मुमकिन है। एक आध्यात्मिक व्यक्ति हर तरह से आज़ाद होता है। अगर हम हर तरह से आज़ाद हो जायें तो आध्यात्मिक हो सकते हैं। और इस यात्रा में मीडिया बहुत बड़ा मददगार साबित हो सकता है। मुझे मीडिया से बहुत उम्मीदें हैं। हमारा देश बहुत सालों तक ग़ुलाम रहा। आज हम आज़ाद तो हैं मगर यह सिर्फ़ राजनीतिक आज़ादी है। हम आज भी मानसिक रूप से ग़ुलाम हैं। हम आज भी पूरी तरह से आज़ाद नहीं हैं। जो लोग कहते हैं कि मैं आज़ाद हूँ, उन्हें शायद आज़ादी का अर्थ मालूम नहीं है। मैं इस पर थोड़ी-सी रौशनी डालना चाहुँगा।

आज़ादी का अर्थ जानने के लिए सबसे पहले ग़ुलामी का मतलब समझना बहुत ज़रूरी है। हम ग़ुलाम सिर्फ़ तभी नहीं होते जब हमें जेल या जंज़ीर में क़ैद कर दिया जाता है। हम ग़ुलाम तब भी होते हैं जब किसी नाम, धर्म, जाति, पार्टी, समाज, सम्प्रदाय, सीमा, सरहद, शादी या ऐसी किसी भी चीज़ से बंध जाते हैं। अगर कोई कहता है कि मैं आस्तिक हूँ तो वह भगवान से बंध जाता है। कोई कहता है कि मैं नास्तिक हूँ तब भी वह भगवान के न होने से जुड़ जाता है। बेहतर ये होगा कि हम किसी चीज़ के होने और न होने की उलझन से बचें। ये हक़ीक़त है कि जब कोई परेशानी या तकलीफ़ हमें गले से लगाती है तो हम बेचैन हो जाते हैं और घबराकर किसी दामन को थामना चाहते हैं। उस वक़्त एक उंगली अगर हमारी तरफ बढ़ती है तो हम पकड़ना चाहते हैं। यह नहीं सोचते कि हम बंध रहे हैं। हम ग़ुलाम हो रहे हैं।

हम सुख और शांति पाने के लिए अध्यात्म का रास्ता इख़्तियार करते हैं। उम्र भर प्यार की जूस्तज़ू करते हैं। हमेशा अपने से बाहर तलाशते हैं। कभी ख़ुद की जानिब मुड़ कर नहीं देखते। कभी अपनी रूह को नहीं टटोलते। क्या आपने कभी ख़ुद को पहचानने की कोशिश की है। एक बार दिल में झाँक कर, उतर कर देखें। कितना सकून हासिल होगा, इस बात का अंदाज़ा भी आप नहीं लगा सकते। अध्यात्म हमें ख़ुद से मुलाक़ात का एक मौक़ा देता है। अगर बाहर भटकना छोड़ कर हम अपने में डूबने की कोशिश करें। प्यार में डूबने की कोशिश करें तो मुमकिन है कि हम इंसानियत को हासिल कर सकेंगे। इसके लिए हमें कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं है। हम जहाँ हैं वहीं रह कर इसे हासिल किया जा सकता है। हिमालय की गुफ़ाओं या किसी घने जंगल में जा कर शांति की तलाश करना, अपने फ़र्ज़ से मुकर जाना है।

मैं शुक्रगुज़ार हूँ उन तमाम चैनलों का जिस पर आध्यात्मिक प्रोग्राम दिखाये जाते हैं। आज बहुत से अख़बार हैं जिसमें आध्यात्म या ज़िंदगी से जुड़ी हुई बातों को बड़ी गम्भीरता से लिखा जाता है। मगर यहाँ पर थोड़ी-सी कमी रह गई है। आज तथा-कथित आध्यात्मिक गुरू अपनी सस्ती लोकप्रियता के लिए मीडिया का सहारा लेते हैं। यह सब ‘प्री-पेड’ और ‘प्री-प्लान्ड’ होता है। एक तथा-कथित बाबा अपनी पत्नी की जन्मतिथि का उत्सव मनाने के लिए एक आयोजन करता है। एक दुर्घटना होती है। वहाँ पर सैकड़ों लोगों की मौत हो जाती है। बाबा मुस्कुराते हुए कहता है – उन लोगों को उनकी मौत यहाँ तक खींच लाई थी। एक दूसरा तथा-कथित बाबा बग़ैर प्रशासन की इजाज़त के अपना हेलीकॉप्टर कहीं भी उतरवा लेता है। और माला पहनाने के लिए घंटों से इंतज़ार कर रही महिला को धक्का दे कर आगे बढ़ जाता है। फिर मंच पर हाथ में माइक लिए हुए आध्यात्म की बात करता है। यह कहाँ तक लाज़िमी है। यह फैसला आप पर छोड़ता हूँ। मैं मुबारक़वाद देता हूँ उन तमाम मीडिया हाउस को जिन्होंने अपने को भगवान बताने वाले तथा-कथित बाबाओं के काले कारनामों का पर्दाफ़ाश किया है। अध्यात्म की आड़ में सेक्स रैकेट चलाने वालों की कमी नहीं है। वक़्त-वक़्त पर इसका ख़ुलासा भी होता रहा है। अगर मीडिया नहीं होता तो यह सब मुमकिन नहीं था। मीडिया के माध्यम से सच सामने आ रहा है। यह एक अच्छी बात है।

एक बात और। आध्यात्मिक होने का मतलब किसी धर्म विशेष के प्रति लगाव या कट्टरपन का भाव अपने अंदर पैदा कर लेना नहीं है। बल्कि तमाम धर्मों के मूल मंत्र को, उसके आधार को जानकर सबको को बतलाना है। कभी कभी कुछ ख़ास चैनल पर देखने को मिल जाता है कि कोई कवि, लेखक या चित्रकार ज़िंदगी की खुबसूरती को बयान कर रहा है। कभी-कभी किसी ऐसे व्यक्ति की तस्वीर या रचना भी किसी अख़बार की सुर्ख़ी हो जाती है। मीडिया को इसे ही प्राथमिकता देनी चाहिए न कि बलात्कार, हत्या, चोरी, राजनीति बग़ैरह को। मैं इस बात से इंकार नहीं करता कि प्रेस के मालिक इस तरह की चीज़ों को बढ़ावा दे कर अपना नुकसान कर लेंगे। लेकिन क्या अपने फ़ायदे के लिए इंसानियत को मिट्टी में मिलाना ठीक है? महज चंद रूपयों के लिए इंसानियत को धोक़ा देना, ख़ुद से फ़रेब करना लाज़िमी है? क्या इंसान होने के नाते हमारा इंसानियत और समाज के प्रति कोई फर्ज़ नहीं बनता है? पैसे कमाने के और भी तरीक़े हैं। मुझे लगता है पत्रकारिता के दामन पर यह धब्बा लगाना ग़लत है। अगर हम अच्छी ख़बर न दे सकें तो कम से कम ऐसी ख़बर देने से ज़रूर बचना चाहिए जिससे इंसानियत को शर्मिंदा होना पड़े। आज के दौर में हमारे पास मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसकी मदद से ज़िंदगी को खुबसूरत बनाया जा सकता है। शर्त ये है कि इसका सही इस्तेमाल किया जाये।

इस बाबत ग्रेज़ुएशन के दौरान अपने रूम पार्टनर के मनोविज्ञान का मुझे थोड़ा-सा तज़ुर्बा है। उसे रेसलिंग मैच देखना बहुत पसंद था। मैंने नोटिस किया कि जिस दिन वह रेसलिंग मैच देखा करता था। उसके व्यवहार में थोड़ी-सी तब्दीली होती थी। वह और दिन की तरह नॉर्मल नहीं होता था। तब मुझे पता चला कि हम जिस तरह की चीज़ों को देखते हैं, उसका असर हमारे उपर होता है। आज मीडिया जिस तरह की ख़बरें पेश करता है, मुमकिन है कि दर्शक या पाठक की संख्या में इज़ाफ़ा हो मगर यह इंसान के लिए बेहतर नहीं है। दिल्ली में रहने की वजह से मेरा अकसर मेट्रो से सफ़र करना होता है। आज तक किसी भी चेहरे पर मुस्कुराहट मुझे नज़र नहीं आई। सब परेशान-से लगे। मीडिया भी उस मुस्कान की मौत का ज़िम्मेदार है। एक लड़का और एक लड़की भी अगर साथ हैं तो एक ख़ौफ़ उनकी पलकों पर तड़प रहा होता है कि पता नहीं अगले लम्हे में क्या होगा? शायद कोई फ़तवा ज़ारी हो जाये। शायद कोई खाप पंचायत उनके मुस्तक़बिल का फ़ैसला कर दे। शायद कोई भाई उनकी मौत का सबब बन जाये। या फिर वो ख़ुद ही ख़ुदकशी कर लें। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। एक कहानी याद आती है। एक सड़े हुए सेब की वजह से टोकरी में रखे सारे सेब ख़राब हो गये। मीडिया को अपना फ़र्ज़ समझना चाहिए।

एक दफ़ा एक बरिष्ठ मीडियाकर्मी से बातचीत करते हुए, उन्होंने कहा कि लोग जो चाहते हैं हम वही परोसते हैं। यह बाज़ार की माँग है। यह लोगों की ज़रूरत है। आख़िर लोगों की ज़रूरत इतनी बुरी क्यों है। उदाहरण के तौर पर हम सेक्स को ले सकते हैं। सेक्स हर इंसान की ज़रूरत है। हम इससे मुँह नहीं मोड़ सकते। मुझे याद है जब मैं हॉस्टल में था। आठवीं या नौवीं कक्षा की बात है। मेरे सहपाठी अपनी किताबों में अश्लील तस्वीर रख कर देखा करते थे, सहेज कर रखते थे। क्लास की लड़कियों पर कमेंट्स पास किया करते थे। इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं थी। वह सब सेक्स को छुपाने का नतीज़ा था। आज मीडिया के हर माध्यम का इस्तेमाल सेक्स परोसने के लिए किया जा रहा है। चाहे वह प्रिंट हो, टेलीविज़न हो, इंटरनेट हो, मोबाइल हो। हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते की आज के दौर में ज़रूरतें पैदा की जाती हैं। आज विज्ञापन का ज़माना है। बाज़ार में उत्पाद उतरने से पहले ही विज्ञापन नज़र आने लगता है। हम इंतज़ार करने लगते हैं। और किसी वजह से लेट हो गया तो हमारा सब्र खोने लगता है। उदाहरण के लिए नैनो कार। कहीं कोई विज्ञापन नहीं। मगर राजनीति का सहारा लेकर इसे से लोकप्रिय बनाया गया। अभी कार बाज़ार में आई भी न थी और लाखों की संख्या में अग्रिम बुकिंग हो गई।

हमारे पास दोनों चीज़ें हैं। अच्छी ख़बर भी और बुरी ख़बर भी। फूल भी, ख़ार भी। यह हमारे उपर निर्भर करता है कि हम क्या सोचते हैं? क्या देना चाहते हैं? समाज को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं? ख़ासकर एक पत्रकार को इस बात की पूरी ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए कि वह जो कुछ कर रहा है इंसानियत के लिए कितना फ़ायदेमंद है? मगर ऐसा नहीं हो रहा है। हाल ही में मैंने एक न्यूज़ चैनल ज्वाइन किया। मैंने पाया कि हत्या, मौत या बालात्कार की ख़बर को ज़्यादा प्राथमिकता दी जाती है। कोई किसी लड़की के साथ एक बार शारीरिक बालात्कार करता है मगर पैकेज बनाते समय और ब्रेकिंग न्यूज़ बना कर चैनल पर प्रसारित करते समय उस लड़की के साथ कई दफ़ा मानसिक बालात्कार किया जाता है। अगर यही ख़बर अख़बार में छपती है तो जितने लोग इस ख़बर को पढ़ते हैं उतनी दफ़ा बालात्कार होता है। यह ग़लत है। क्यों न ऐसी व्यवस्था बनाई जाये कि बालात्कार करने जैसी भावना ही पैदा न हो। किसी के मन में हत्या करने का विचार भी पैदा न हो। ऐसा हो सकता है।

अगर मीडिया ज़िंदगी की सच्चाई को सबके सामने लाने की कोशिश करे। एक रहनुमा बन कर। एक आध्यात्मिक गुरू बन कर। तो ज़िंदगी जन्नत हो सकती है। मीडिया के कुछ माध्यमों के द्वारा ऐसा किया भी जा रहा है। मुझे उस वक़्त बहुत अजीब लगा जब एक ऑटो ड्राईवर ने एक सफर में मुझसे कहा कि मैं किसी का ख़ून कर के अपना नाम और तस्वीर अख़बार में और अपने आप को टेलीविज़न पर देखना चाहता हूँ। एक लम्हे के लिए तो मुझे लगा कहीं वह मैं तो नहीं जिसे वो ख़ून कर देना चाहेगा। मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा कि उसने ऐसा क्यों कहा? शायद अब भी सोच रहा हूँ। सच तो यह है कि मीडिया समाज में ज़हर फैला रहा है। यह बात हर एक चैनल या अख़बार पर लागू नहीं होता। लेकिन मीडिया जिस रूप में आज हमारे सामने है वह बहुत ही ख़तरनाक है, इंसानियत के ख़िलाफ़ है। इसकी भी एक वजह है। मीडिया हमारी ज़मीन की पैदाईश नहीं है। हम जिस मीडिया की बात करते हैं, हमारी संस्कृति की उपज नहीं है। यह महज पश्चिम की नकल है। ठीक वैसे ही है जैसे काग़ज़ का फूल।

आज मीडिया की वजह से अध्यात्म के क्षेत्र में विस्तार हुआ है। बहुत से लोग पश्चिम से हमारे देश में आध्यात्मिकता के नाम पर खीचे चले आते हैं। क्या हम उन्हें सच्चे अध्यात्म का सबक़ पढ़ा रहे हैं। हमें अपने घरों में, अपनी ज़मीन में मीडिया के पौधे लगाने की ज़रूरत है। पूरी तरह से एक हिन्दुस्तानी मीडिया। एक आध्यात्मिक मीडिया। जिसकी जड़ें भी हमारी हों, तना भी हमारा हो, फूल भी और फल भी सब हमारे इख़्तियार में हों। मीडिया में आध्यात्म का प्रवेश होते ही बहुत सी ख़राब चीज़ें अपने आप ख़त्म हो जायेंगी। पत्रकारिता के कोर्स में आध्यात्म के पाठ पढ़ायें जाने चाहिए। ताकि सेहतमंद पत्रकार पैदा हो और सेहतमंद पत्रकारिता की बुनियाद रखी जा सके। जिस रोज़ यह मुमकिन हो सकेगा। उस रोज़ इंसान की ज़िंदगी के इतिहास में एक बहुत बड़ी तब्दीली होगी। हर एक चेहरा मुस्कुरायेगा। हर एक आँखों में नूर नाच उठेगा। हर एक फूल महकेगा। हर तरफ प्यार ही प्यार होगा।