अध्याय 7 : योग परम्परा में ध्यान / कविता भट्ट

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आसन एवं प्राणायाम के साथ ही आजकल ध्यान को सर्वाधिक प्रचारित किया जा रहा है। आधुनिक युग में शारीरिक एवं मानसिक लाभों के लिए ध्यान का उपयोग बढ़ता जा रहा है; किन्तु इसके श्रेष्ठ आध्यात्मिक फल भी हैं। इसके शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक फलों को प्राप्त करने हेतु ध्यान को जानना आवश्यक है; इसलिए इस अध्याय में ध्यान को स्पष्ट करेंगे। इस अध्याय में ध्यान का परिचय, अर्थ, परिभाषा एवं इसका महत्त्व स्पष्ट करेंगे। इसके अतिरिक्त इसमें उपस्थित होने वाली बाधाएँ, इसकी पूर्वशर्तें, ध्यान हेतु उचित स्थान एवं समय, इसके प्रकार, विधि, लाभ, सावधानियाँ एवं सीमाओं को प्रस्तुत करेंगे।

परिचय-ध्यान अष्टांग योग का सातवाँ अभ्यास है। इससे पूर्व यम से लेकर धारणा तक का अभ्यास आवश्यक है। धारणा के उपरान्त एकत्र हुई चेतना को किसी एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित करने का अभ्यास ध्यान में किया जाता है। इससे अनेक शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं। इन लाभों को प्राप्त करने हेतु ध्यान को पूर्णरूपेण जानना अनिवार्य है; इसलिए सर्वप्रथम ध्यान का अर्थ एवं इसकी परिभाषा का उल्लेख करेंगे।

अर्थ, एवं परिभाषा-ध्यान का अर्थ है-किसी एक निर्धारित बिन्दु या लक्ष्य पर एकाग्रता पूर्वक चेतना को स्थित करना। अर्थात् बिना किसी अवरोध के निरन्तर किसी एक लक्ष्य पर ही अपने मन की शक्ति को एकाग्र करना। ध्येय अर्थात् जिसका ध्यान किया जा रहा हो उसका अनवरत ज्ञान ही ध्यान है। इसको निम्न शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है।

ऐसा कहा जा सकता है कि समस्त पदार्थों तथा ऐन्द्रिक सुखों के चिन्तन से मन को मुक्त रखना ही ध्यान है। मुनि घेरण्ड से ध्यान को प्रत्यक्ष का साधन बताया है। प्रत्यक्ष का अर्थ है-जो सामने दिखाई दे। यहाँ प्रत्यक्ष का अर्थ खुली आँखांे से देखना नहीं है; अपितु आँखें बन्द करके जिस किसी एक लक्ष्य पर अपने मन को केन्द्रित किया जाता है; यदि वह लक्ष्य जीवन्त होकर सम्मुख ही प्रतीत हो; वह ध्यान की अवस्था कहलायेगी। इस अवस्था में आन्तरिक चेतना को इतना एकाग्र कर लेते हैं कि जिस किसी लक्ष्य पर व्यक्ति केन्द्रित हो वह उसे समक्ष ही प्रतीत होने लगे।

ध्यान का महत्त्व-योग के आध्यात्मिक पक्ष पर विचार किया जाय तो ध्यान के महान फल हैं। इसके उपरान्त साधक वैराग्य को विकसित कर पाता है। मानसिक वृत्तियाँ; जो दुःख का कारण हैं; उन्हें ध्यान द्वारा धीरे-धीरे हटाया जाता है। मन शान्त, एकाग्र एवं तनावरहित हो जाता है। साधक समाधि जैसे अग्रिम योगाभ्यास हेतु तैयार हो जाता है; जो दुःखों से निवृत्ति हेतु आवश्यक है। यही दुःखनिवृत्ति कैवल्य में फलीभूत होती है।

योग के व्यावहारिक पक्ष पर विचार किया जाए, तो सामान्य दिनचर्या में नित्यप्रति ध्यान का अभ्यास करने वाला व्यक्ति तनावरहित, शान्त, सुखी, प्रसन्न, अधिक एकाग्र तथा अधिक मानसिक क्षमताओं एवं शक्तियों से युक्त होता है। शरीर पर भी इसके बहुत अच्छे प्रभाव होते हैं। ध्यान के द्वारा रक्तचाप, हृद्यगति तथा श्वसन सामान्य हो जाता है। अत्यधिक शारीरिक और मानसिक श्रम करने वाले लोगों को शरीर में शिथिलीकरण का अवसर मिलता है। ऐसा माना जाता है कि ध्यानात्मक आसनों में बैठने ब्रह्मांडीय ऊर्जा साधक के शरीर के बीचोंबीच अर्थात् मेरुरज्जु से होते हुए संचारित होती है। ऐसा होने से व्यक्ति में अत्यधिक ऊर्जा का प्रवेश होता है; जिससे उसकी शारीरिक क्रियाओं का नियमन होता है। तनावरहित होने के कारण अन्तःस्रावी तन्त्र पर भी अत्यधिक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इन सभी कारणों से व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक लाभों को प्राप्त करते हुए आध्यात्मिकता से युक्त हो जाता है। वह आशावादी, आत्मविश्वासी, सकारात्मक एवं सुदृढ़ बनता है। वह जीवन में आने वाली कठिन परिस्थितियों से भी नहीं घबराता। इस प्रकार आध्यात्मिक दुःखांे को तो ध्यान दूर करता ही है; सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होने से व्यक्ति आधिदैविक एवं आधिभौतिक दुःखों के प्रति भी उदासीन होने लगता है। प्राकृतिक आपदाएँ यदि आ भी जाती हैं और उसको हानि भी पहंुचा दे ंतो भी वह सामान्य व्यक्तियों के समान व्यग्र तथा दुखी नहीं होता। उसके भीतर सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति जो विश्वास होता है; उसके कारण उसमें सुरक्षा का भाव रहता है। वह यह मान लेता है कि प्रत्येक परिस्थिति में कोई सर्वशक्तिमान सत्ता उसकी रक्षा करेगी। इसके अतिरिक्त उसके मन पर भौतिक दुःखों का भी उतना प्रभाव नहीं होगा; जितना कि सामान्य व्यक्ति के मन पर होता है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति के मन में दूसरे प्राणियों द्वारा पहुँचाई जाने वाली हानि का भय कम हो जाता है। सामान्य व्यक्ति को कोई प्राणी हानि पहुँचाये या ना पहुँचाये अधिकांश समय तो वह इस भय में ही निकाल देता है कि उसे हानि हो सकती है। इसलिए हानि पहुँचने से अधिक भयावह है हानि पहुँचने का भय। ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति निर्भय हो जाता है।

आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक दोनों ही उद्देश्यों हेतु ध्यान का अभ्यास महान फलदायी है।

ध्यान की पूर्वशर्तें या पूर्वाभ्यास-

अधिकांशतः आसन, प्राणायाम एवं ध्यान को ही वर्तमान समय में आधे-अधूरे ढंग से अधिक प्रसारित किया गया, जबकि आसन एवं प्राणायाम के पश्चात् प्रत्याहार एवं धारणा के अनिवार्य अभ्यास के अभाव में ध्यान की कल्पना करना भी निरर्थक है। ये दोनों ही अभ्यास योगदर्शन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। आधुनिक काल में आसन, प्राणायाम एवं ध्यान को शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के सन्दर्भ में अधिक अपनाया गया; जिसके आशानुरूप परिणाम भी प्राप्त हुए। परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व भारतवर्ष की योगविद्या का अनुसरण करने लगा एवं योगदर्शन व्यावहारिक समस्याओं के निदान हेतु विश्वविख्यात हो गया; किन्तु प्रत्याहार एवं धारणा को मात्र आध्यात्मिक उन्नति का साधन मानकर उसको व्यावहारिक दृष्टिकोण से अपनाया नहीं गया। इन्द्रियों में बंटी हुई चेतना को लौटाकर अंतर्मुखी बनाते हुए साधक को अंतर्मुखी बनाना एवं उसमें दीर्घकाल तक स्थिर बने रहना ध्यान की पूर्व आवश्यकता है। इसके अभाव में योग के लक्ष्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रत्याहार एवं धारणा व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक उपयोगों से युक्त अभ्यास हैं; किन्तु ये क्रियात्मक होने के स्थान पर भावात्मक अधिक हैं। मन के द्वारा इन्द्रियों का नियन्त्रण तथा चेतना का केन्द्रीकरण भावात्मक ही अधिक है। क्रियात्मकता की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि यम से लेकर प्राणायाम तक के अभ्यासों को करते-करते साधक प्रत्याहार एवं धारणा की स्थिति में पहुँचता है। मन का नियन्त्रण इन अभ्यासों में क्रमिक रूप से होता रहता है। प्रत्याहार एवं धारणा में नियन्त्रण को ही स्थायित्व प्रदान करना होता है और यह बाहर से सिखाने नहीं अपितु स्वयं से विकसित करने का विषय है। ये दोनों ही अभ्यास पूर्व के अभ्यासों का ही क्रियात्मक स्थायित्व लिये हुए हैं; किन्तु भावात्मक होने के कारण इनका ज्ञान होना आवश्यक है। अतः ध्यान में स्थित होने हेतु मानसिक नियन्त्रण के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इन अभ्यासों को संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे।

प्रत्याहार-प्रति एवं आहार दो पदों के मिलने से प्रत्याहार शब्द बना है। प्रति का अर्थ है मोड़ना एवं लौटाना तथा आहार शब्द इन्द्रियों के विषय हेतु प्रयोग होता है। आहार का अर्थ उन विषयों से है जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। जैसे कान का विषय सुनना, आँख का देखना, नाक का सूंघना, त्वचा का स्पर्श करना एवं जीभ का विषय है स्वाद ग्रहण करना। इस प्रकार इन सभी विषयों को इन्द्रियों का आहार कहा गया है। योगशास्त्र में माना गया है कि जब तक ये ज्ञानेन्द्रियाँ अपने विषयों में भटकती रहेंगी तब तक व्यक्ति ध्यान जैसी प्रक्रिया में एकाग्र नहीं हो सकता; क्योंकि व्यक्ति की आन्तरिक चेतना विषयों में ही संलग्न रहती है। इसलिए योगदर्शन में माना गया है कि इन ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग मात्र उतना ही होना चाहिए जितना कि आवश्यक है। जैसे जीभ को स्वाद का अनुभव तो होगा ही; किन्तु उस स्वाद में वह संलग्न ना हो मात्र संवेदनाओं को ग्रहण करे। अन्यथा भोजन जीने के लिए नहीं; अपितु स्वाद के लिए अधिक किया जायेगा। ऐसा होने पर व्यक्तित्व में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो जायेंगी। इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रियों की भी विषयों से अति संलग्नता घातक है। इसलिए योगदर्शन में प्रत्याहार (ज्ञानेन्द्रियों में बँटी हुई चेतना को मोड़कर अपने भीतर ही समाहित करना) की आवश्यकता बताई गई है। प्रत्याहार अपने पूर्व के सभी अभ्यासों अर्थात् यम, नियम, आसन एवं प्राणायाम से धीरे-धीरे सिद्ध होता है। प्रत्याहार के फलस्वरूप व्यक्ति अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण कर लेता है और इन्द्रियों में बंटी हुई चेतना को अंतर्मुखी कर लेता है। यह चेतना जब अंतर्मुखी होकर एकत्र होती है तो एकाग्रता विकसित होती है। यह एकाग्रता धारणा के द्वारा और भी अधिक बढ़ती है। धारणा को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-

धारणा-सामान्य रूप से किसी स्थूल वस्तु से प्रारम्भ कर किसी सूक्ष्म तत्त्व पर मन को निरन्तर टिकाये रहना धारणा है। अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा किसी एक विचार बिन्दु पर टिके रहना धारणा है। धारणा से ही एकाग्रता का विकास होता है। योग साहित्य के अनुसार धारणा को दो प्रकार से समझा जा सकता है। पहला तो प्राणायाम के द्वारा जिस वायु को भीतर ग्रहण किया जाता है; उसे कुम्भक करते हुए शरीर के भीतर निर्धारित प्रदेशों में धारण करना। दूसरा यह कि प्रत्याहार के द्वारा भीतर मोड़ी गई चेतना को स्थिर करते हुए एकाग्र होना। ध्यान हेतु यही एकाग्रता विकसित करनी होती है। इस एकाग्रता हेतु प्रत्यााहार एवं धारणा दोनांे का अभ्यास आवश्यक है। प्रत्याहार एवं धारणा के निम्नांकित फल होते हैं-

1. इच्छाओं पर नियन्त्रण प्राप्त होना एवं उचित तथा अनुचित इच्छाओं में अन्तर करने की क्षमता का विकास होना ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता है। प्रत्याहार एवं धारणा के अभ्यास द्वारा ही यह सम्भव हो पाता है।

2. ध्यान हेतु आवश्यक अंतर्मुखी प्रवृत्ति का विकास होता है।

3. चेतना भीतर की ओर प्रवाहित होती है; जो ध्यान हेतु आवश्यक है।

4. ध्यान में दीर्घकाल तक बने रहने हेतु एकाग्रता का विकास होता है।

5. ध्यान हेतु परमाश्वयक सात्त्विक प्रवृत्ति का विकास होता है।

ध्यान के लिए स्थान-सबसे अच्छा समय रात्रि के 12 बजे से प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त अर्थात् 3 से 5 बजे तक का है; किन्तु यदि दैनिक जीवन में व्यस्तता हो सायंकाल 6 से 8 के बीच भी ध्यान किया जा सकता है। प्रातःकाल वातावरण स्वच्छ एवं शान्त होता है। रातभर की नींद के पश्चात् मस्तिष्क भी शान्त एवं तनावरहित होता है; इसलिए सरलता से मन ध्यान में रम जाता है।

वातावरण-प्राचीन समय से ही हिमालय के शान्त पहाड़ ध्यान के केन्द्र रहे हैं। हिमालय के पहाड़ योगियों की तपस्थली एवं मोक्षस्थली रहे हैं। प्राचीन समय से ही उत्तराखण्ड का हरिद्वार से ऊपर का समस्त क्षेत्र ध्यान के लिए उपयुक्त माना जाता रहा है। वर्तमान समय में व्यक्ति सम्भवतः ऐसा न कर सके; क्योंकि पूर्णतः वहाँ पर रहना सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। वैसे अपने जीवन में पारिवरिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्त्वों से मुक्त होने के पश्चात् ऐसा किया जा सकता है। ध्यान हेतु जल, थल, वायु, ध्वनि इन सभी प्रदूषणों से रहित एकान्त प्रदेश, पहाड़, नदी का किनारा, शान्त स्थान ही उपयुक्त हैं। दैनिक जीवनचर्या, सामान्य एवं वर्तमान परस्थितियों में यह कठिन है; जबकि ध्यान को नित्यचर्या का भाग बनाना आवश्यक है। इसलिए अपने ही घर का एक कक्ष अथवा कोना ध्यान हेतु उपयोग में लाया जा सकता है। जिस कक्ष में ध्यान किया जाना हो; वहाँ का वातावरण स्वच्छ, शांत, मक्खी-मच्छर एवं सीलन रहित होना चाहिए। यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि ध्यान करने वाले स्थान पर किसी भी प्रकार का कोई भी व्यवधान नहीं होना चाहिए।

ध्यान सम्बन्धी सावधानियाँ एवं सीमाएँ

1. ध्यानात्मक आसन में बैठकर ही ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।

2. ध्यान में बैठने हेतु ढ़ीले एवं सुविधाजनक कपड़े ही पहनने चाहिए।

3. ध्यानात्मक आसन में कमर एवं गर्दन सीधे रहने चाहिए एवं आँखें बन्द रहनी चाहिए।

4. चेहरा शान्त, तनावरहित एवं हल्की मुस्कुराहट से युक्त होना चाहिए।

5. मन में सकारात्मक एवं आशावादी विचार होने चाहिए।

6. ध्यान करते हुए कोई भी नकारात्मक भाव; जैसे-क्रोध तथा ईष्र्या आदि मन में नहीं आने चाहिए।

7. मन को एकाग्र करके ध्यान में स्थिर होना चाहिए। एकाग्रता इतनी महत्त्वपूर्ण है कि कोई वैज्ञानिक अपने मन को एकाग्र कर जब अपने शोध पर लगाता है तो वह महत्त्वपूर्ण आविष्कार कर लेता है। समस्त भौतिक उन्नति उसी का फल है; परन्तु जब व्यक्ति इस एकाग्रता का प्रयोग ध्यान की अवस्था में आध्यात्मिक उन्नति हेतु करता है; तो वह समस्त प्रपंच, सुख-दुःख आदि से विरक्त हो जाता है। वह अपने जीवन में समस्त भौतिक कत्र्तव्यों का निर्वहन करते हुए भी उनमें संलग्न नहीं होता और दुःखों से निवृत्त हो जाता है। उसे दुःख-सुख सब एक समान ही लगता है।

8. प्रारम्भिक अभ्यासियों को कम समय तक ही ध्यान करना चाहिए; धीरे-धीरे समय बढ़ाना चाहिए। अभ्यस्त होने पर लम्बे समय तक किया जा सकता है।

9. प्रारम्भ में गुरु के निर्देशानुसार करना चाहिए; पारंगत होने पर स्वयं ही किया जा सकता है।

10. ध्यान हेतु ईश्वर-प्रणिधान अत्यंत आवश्यक है। ईश्वर का वाचक प्रणव अर्थात् ऊँ है। इसी पर ध्यान किया जाना चाहिए; किन्तु ऐसा भी किया जा सकता है कि जो जिस पंथ में विश्वास रखता हो; जिसे भी ईष्ट समझता है; वह उसी पर अपना एकाग्र होकर ध्यान का अभ्यास कर सकता है। व्यक्ति का प्राथमिक धर्म शरीर एवं मन की स्वस्थता है; अतः इन हितों को ध्यान में रखते हुए धर्म, सम्प्रदाय एवं पंथ की परिधियों से ऊपर उठकर अपने कल्याण हेतु ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।

11. साधक अपनी रुचि एवं स्वभाव के अनुसार ध्यान कर सकता है।

12. मौन का पालन करना चाहिए। उपन्यास तथा सिनेमा आदि से दूर ही रहना चाहिए।

13. ध्यान को बीच में छोड़ना नहीं चाहिए; अर्थात् प्रतिदिन नियत समय पर ध्यान करना चाहिए। यदि कोई बहुत ही विकट परस्थिति न हो तो ध्यान को बीच-बीच में छोड़ना बहुत ही घातक है।

ध्यान के प्रकार-

1. सगुण ध्यान-जब किसी बाह्य प्रतीक पर ध्यान किया जाता है तो वह सगुण ध्यान कहलाता है। यह किसी देवप्रतिमा, अपने माता-पिता, अपने गुरु, अपने प्रिय व्यक्ति या मित्र, प्रिय स्थान, प्रिय संस्मरण, किसी अच्छे चित्र, धार्मिक स्थान तथा धार्मिक साहित्य, किसी प्राकृतिक एवं सुरम्य स्थान, वृक्ष, झरना, नदी, पहाड़, फूल तारामण्डल, सूर्य, चन्द्रमा तथा ज्योतिशिखा आदि पर त्राटक के उपरान्त मन को एकाग्र करके प्रारम्भ किया-किया जा सकता है। अभ्यस्त होने के उपरान्त अपने ईष्टदेव का ध्यान करना ही उपयुक्त है। यह धर्म, जाति, सम्प्रदाय से रहित होता है; अतः अपने-अपने मतानुसार किसी भी प्रतीक का प्रयोग किया जा सकता है।

सगुण ध्यान के भी दो प्रकार होते हैं-

स्थूल ध्यान-उपर्युक्त किसी भी लक्ष्य या बाह्य प्रतीक पर ध्यान करना स्थूल ध्यान होता है। हठयोग के ग्रन्थ घेरण्ड संहिता में अपने ईष्टदेव का ध्यान करने का ही निर्देश है; किन्तु प्रारम्भ में उपर्युक्त अन्य प्रतीकों को भी ध्यान हेतु आधार बनाया जा सकता है। सार यह है कि किसी भी बाहरी प्रतीक पर ध्यान करना स्थूल ध्यान कहलाता है।

ज्योति ध्यान-दीपक या मोमबत्ती की लौ पर त्राटक द्वारा मन स्थिर करके फिर आँखें बन्द करके उसी ज्योति को मूलाधार चक्र में स्थित ब्रह्मस्वरूप मानकर उसका मन में ध्यान करना ज्योति ध्यान कहलाता है। अभ्यस्त होने के उपरान्त निर्गुण ध्यान किया जाता है।

2. निर्गुण ध्यान-ध्यान की इस विधि में निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म का ध्यान किया जाता है।

ध्यान में बाधाएँ-ध्यान में निम्नलिखित बाधाएँ आती हैं-

1. निद्रा-अत्यधिक नींद लेना तामसिक वृत्ति को बढ़ाता है; इसके कारण संकल्प एवं दृढ़ता में कमी आती है। नींद अधिक होने से शरीर में स्फूर्ति एवं दृढ़ता की कमी होती है; जबकि ध्यान हेतु ध्यानात्मक आसन में बैठना आवश्यक है; जिसके लिए संकल्प एवं दृढ़ता आवश्यक है। नींद एक अवधि तक ही आवश्यक है; आवश्यकता से अधिक नींद नहीं लेनी चाहिए।

2. विक्षेप या मन की चंचलता-मन का अन्यान्य विषयों की ओर भागना विक्षेप उपस्थित करता है। यह ध्यान में बहुत बड़ी बाधा है; इसे ध्यान में एकाग्र होकर ही दूर करना चाहिए।

3. कषाय या वासना-वासना के कारण इन्द्रियाँ विषयों की ओर भागती हैं; इससे वासना उत्पन्न होती है। यह वासना ध्यान में एक बड़ी बाधा है। इसके कारण मन विचलित रहता है। इसलिए विषय वासना से दूर ही रहना चाहिए।

4. रसस्वाद या सविकल्प समाधि का आनन्द-ध्यान के फलस्वरूप कुछ समय पश्चात् सविकल्प समाधि की अवस्था आती है। इस अवस्था में अत्यंत आनन्द की अनुभूति होती है। साधक इस आनन्द को ही अन्तिम अवस्था मानकर ध्यान के अन्तिम स्तर के लिए प्रयास करना छोड़ देता है। यह ध्यान के उच्चतम अवस्था में बहुत बड़ी बाधा है। इसलिए ध्यान की इस अवस्था में विशेष सावधानी रखनी आवश्यक है।

5. ब्रह्मचर्य का अभाव-ध्यान हेतु ब्रह्मचर्य का पालन अत्यंत आवश्यक है। कामवासना ध्यान में बहुत बड़ी बाधा है। व्यक्ति ध्यान में स्थिर होने के स्थान पर विषयवासना में ही भटकता रहता है। इसलिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है।

6. आध्यात्मिक दर्प-आध्यात्मिक दर्प का अर्थ है-ध्यान में निमग्न साधक अपने को गृहस्थों से श्रेष्ठ समझकर उनके साथ निकृष्ट जैसा व्यवहार करने लगता है। यह ध्यान में एक बाधा है; क्योंकि यह अभिमान की ओर अग्रसर करता है।

7. आलस्य-आलस्य ध्यान में बड़ी बाधा है। ध्यान का नियत समय बनाकर प्रतिदिन अभ्यास करना आवश्यक है और आलस्य को दूर करने हेतु आसन एवं प्राणायाम आदि का अभ्यास करना चाहिए।

8. रोग-शारीरिक व्याधियाँ भी ध्यान में बाधा बनती हैं। व्याधियों को दूर रखने हेतु दिनचर्या और आहार अनुशासित होना चाहिए तथा नित्यप्रति आसन-प्राणायाम आदि का अभ्यास करना चाहिए। यदि व्याधि हो ही गई हो तो औषधियों का सेवन करके व्याधि के ठीक हो जाने पर पुनः ध्यान में मन लगाना चाहिए।

9. सांसारिक संगति-मात्र औपचारिक साथ ही होना चाहिए। आवश्यकता से अधिक सांसारिक संगति भी ध्यान में बाधा डालती है।

10. अत्यधिक कार्य करना-आवश्यकता से अधिक मानसिक एवं शारीरिक श्रम ध्यान में बाधा डालता है; क्योंकि अधिक थकान तथा तनाव के कारण ध्यान में मन नहीं लग पाता। इसलिए कार्य नियमित तथा अनुशासित होना चाहिए।

11. अत्यधिक भोजन-आवश्यकता से अधिक भोजन शरीर को भारी एवं आलसी बना देता है; ऐसा होने पर ध्यान में बैठ पाना कठिन हो जाता है। आधा पेट भोजन, एक चैथाई पानी से भरना चाहिए तथा एक चौथाई भाग हवा के लिए रिक्त छोड़ देना चाहिए।

12. स्वाग्रही होना-अपनी उपलब्धियों के प्रति विशेष आग्रह होना या अभिमान होना ध्यान में बड़ी बाधा है। इसे सात्त्विक भाव से दूर किया जा सकता है; जिसके लिए ईश्वर-प्रणिधान आवश्यक है।

13. राजसिक एवं तामसिक स्वभाव-राजसिक स्वभाव के कारण व्यक्ति में क्रोध, हिंसा, चिड़चिड़ापन तथा ईष्र्या आदि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैंं। तामसिक स्वभाव व्यक्ति को आलसी बनाता है। इसलिए ये दोनों ही ध्यान में बाधा डालती हैं। इस प्रकार इन दोनों स्वभावों में नहीं ढलना चाहिए।

ध्यान में एकाग्रता के विकास हेतु प्राथमिक अभ्यास

1. अपने किसी मित्र से कार्डस दिखाने को कहें और फिर उन्हें सामने से हटाकर उनका वर्णन करने का प्रयास करें। जैसे-रानी, गुलाम तथा बादशाह आदि।

2. किसी पुस्तक के दो-चार पृष्ठ पढकर उन्हें पुस्तक बन्द करके सही दोहराने का प्रयास करें। अपने विचारों का वर्गीकरण करके उन्हें नियत वर्ग में रखने का प्रयास करना चाहिए और उन्हें लिखना चाहिए। फिर अपने लिखे हुए विषय की तुलना पुस्तक से करनी चाहिए।

3. शान्त होकर दीवार घड़ी के समीप उसकी टिक-टिक पर एकाग्र होने का प्रयास करें।

4. आँखें बन्द करके साँसों के भीतर जाने और बाहर आने की प्रक्रिया पर ध्यान एकाग्र करें।

5. सुई में धागा पिरोने का प्रयास बार-बार करना चाहिए।

6. किसी ध्यानात्मक आसन में बैठकर अपने कानों में रुई डाल लेनी चाहिए। ऐसा करने से अपने ही भीतर एक ध्वनि का अनुभव होगा यह अनाहद नाद कहलाता है। पहले स्थूल ध्वनि सुनाई देगी उसके उपरान्त भिन्न-भिन्न वाद्ययन्त्रों जैसी ध्वनि का अनुभव होगा। इस पर ध्यान एकाग्र करना चाहिए।

7. त्राटक का अभ्यास करना चाहिए।

8. रात्रि में छत पर पीठ के बल लेटकर चन्द्रमा अथवा तारों को देखते रहें और फिर आँखें थकने पर उन्हीं का ध्यान करें।

9. नदी के किनारे बैठकर उसकी लहरों की ध्वनि पर मन को केन्द्रित करने का अभ्यास करना चाहिए।

10. ऊँ का उच्चारण करके उस ध्वनि पर अपने को केन्द्रित करने का अभ्यास करना चाहिए।

11. खुले में किसी एकान्त स्थान पर लेटकर आकाश को देखते रहें; फिर आँखंे बन्द करके उस पर अपने को केन्द्रित करना चाहिए।

12. एकाग्रता हेतु दैवीय कृपा भी आवश्यक है; यह ईश्वर-प्रणिधान से प्राप्त होती है। इस प्रकार अपनी श्रद्धानुसार; किसी भी देव को अपना इष्ट मानकर; उसकी प्रतिमा पर स्वयं को केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए।

ध्यान की विधि

यदि यह कहा जाय कि ध्यान कोई अभ्यास नहीं; अपितु एक अवस्था है; तो अनुचित नहीं होगा। यह अवस्था यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार एवं धारणा के उपरान्त धीरे-धीरे स्वतः ही विकसित होती है। यह अवस्था विकसित तो होती है; किन्तु बिना अभ्यास के इसमें दीर्घकाल तक स्थित रहना सम्भव नहीं हो पाता। इस अवस्था में बने रहने हेतु आवश्यक है कि नित्यप्रति की दिनचर्या में ध्यान के अभ्यास को सम्मिलित किया जाय। यदि कोई व्यक्ति अष्टांग योग का अभ्यास नहीं भी करता है; और भक्तियोग या कर्मयोग का सहारा भी लेता है; तब भी ध्यान को नित्यप्रति अपनी पूजा, प्रार्थना, संकीर्तन या आरती आदि के साथ समाहित करना चाहिए; जिससे जीव एवं जीवन के वास्तविक स्वरूप को समझकर दुःखनिवृत्ति का पथ प्रशस्त हो सके। इसलिए ध्यान की विधि को जानना चाहिए।

वास्तव में ध्यान व्यक्तिगत अनुभवों पर निर्भर करता है; और यह अभ्यास से अधिक अनुभूति का विषय है। वैसे भी पातंजलयोगदर्शन में धारणा, ध्यान एवं समाधि को अन्तरंग योग के अन्तर्गत रखा गया है। इसलिए इसमें बाह्य आलंबनों का उतना योगदान नहीं जितना कि व्यक्ति के स्वयं से किये गये संकल्पों का योगदान है। ये आन्तरिक संकल्प ही ध्यान की परिपक्व अवस्था में चिरस्थापित करते हैं; किन्तु इन संकल्पों के लक्ष्य प्राप्त हो जायें; इसके लिए आवश्यक है-ध्यान की विधि को जानकर; ध्यानावस्था में होने वाली अनुभूतियों में साधक का अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होना। अपने विशुद्ध चैतन्य स्वरूप का ज्ञान होना ही ध्यान की अन्तिम अवस्था का उद्देश्य है। ध्यान अनुभूति का विषय है; और इसका पूर्ण वर्णन कर पाना सम्भव नहीं; यह ध्यानावस्था में पहुँचने के उपरान्त ही समझा जा सकता है; किन्तु प्रारम्भिक अवस्थाओं को समझना भी प्राथमिक आवश्यकता है। अतः इस अवस्था हेतु ध्यान की विधियों का उल्लेख कर रहे हैं।

सामान्य रूप से ध्यान को दो वर्गों में बाँटा गया है-सगुण एवं निर्गुण; किन्तु महर्षि घेरण्ड ने ध्यान को बहुत व्यवस्थित रूप से स्पष्ट किया है। उन्होंने ध्यान के तीन प्रकार बताये हैं-स्थूल ध्यान, ज्योति ध्यान एवं सूक्ष्म ध्यान। सामान्यतः सगुण ध्यान वह है जिसमें किसी बाह्य प्रतीक का सहारा लेकर ध्यान किया जाय; किन्तु निर्गुण ध्यान में किसी प्रतीक का सहारा नहीं लेना पड़ता। वैसे तो स्थूल एवं ज्योति ध्यान को सगुण ध्यान के ही अन्तर्गत रखा जा सकता है; किन्तु सामान्य व्यवहार में सगुण ध्यान की कुछ अन्य विधाएँ भी प्रचलित हैं। इसलिए हम सगुण ध्यान की विधि अलग से स्पष्ट करेंगे तथा उसके पश्चात् स्थूल, ज्योति एवं सूक्ष्म ध्यान को स्पष्ट करेंगे।

सगुण ध्यान-प्रारम्भ में ध्यान के लिए किसी प्रतीक की आवश्यकता होती है। यह आकार कुछ भी हो सकता है। अपने माता-पिता, गुरु, इष्टदेव, ऊँ, प्रिय व्यक्ति, पहाड़, नदी, झरना, फूल, वृक्ष, आकाश, आदि के चित्र या प्रतिमा को सम्मुख रखकर ध्यान का प्रारम्भिक अभ्यास किया जाता है। इसके निम्न चरण हैं-

1. ध्यान वाले स्थान अथवा कक्ष में नित्यकर्म-शौच-स्नान आदि के उपरान्त ढीले वस्त्र पहनकर प्रवेश करें।

2. जो भी प्रतीक लेना हो ले लें और उसे अपने सम्मुख किसी ऊँची चैकी या मेज पर रख लें। चैकी या मेज इतना ऊँचा होना चाहिए कि ध्यानात्मक आसन में बैठकर यह ठीक आँखें सीधी रखकर भी सीध में दिखाई दे।

3. अब यथोचित आसन बिछाकर किसी ध्यानात्मक आसन में बैठें; ज्ञान मुद्रा या दोनों हाथों की उँगलियों के नोकों को मिलाने की मुद्रा बनाकर बैठना चाहिए। ध्यान करते समय उँगलियों की नोंकों या अग्रभाग से असीम ऊर्जा प्रवाहित होती है। यदि उँगलियाँ आपस में मिली हुई नहीं होंगी तो यह ऊर्जा व्यर्थ ही चली जायेगी; किन्तु उँगलियों के नोंक आपस में मिले रहने से इस ऊर्जा का संचार साधक के व्यक्तित्व में ही हो जायेगा। आसन ऐसा चुनना चाहिए; जिसमें सुविधा हो तथा जिसमें देर तक बैठे हुए रह सकें।

4. अगरबत्ती आदि जलाकर स्थान या कक्ष को सुगन्धित कर लेना चाहिए।

5. प्रारम्भ में ऊँ का उच्चारण करना चाहिए। यह उच्चारण करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि अ एवं उ का उच्चारण एक तिहाई तथा म का गुंजन दो तिहाई होना चाहिए। फिर अपने प्रतीक के सामने स्थिर होकर आँखों को प्रतीक पर स्थिर करना चाहिए। अपनी रुचि के अनुसार कोई भी प्रतीक निश्चित किया जा सकता है। प्रतीक कुछ भी हो उसके गुणों का ध्यान किया जाता है। उदाहरण के लिए यहाँ हम प्रणव या ऊँ को ही प्रस्तुत करते हैं। प्रणव का विवेचन इस प्रकार है-

प्रणव का उच्चारण करने के पश्चात् खुले नेत्रों से ऊँ के चित्र पर मन एकाग्र करते हुए त्राटक करें। मन को सामान्य रूप से अपना कार्य करने दें; चिंतन पर बहुत बल न डालें। फिर ऊँ का मन ही मन चिंतन करते हुए शाश्वतत्त्व, असीमता तथा अमरता आदि के विचारों को बनाने का प्रयास करना चाहिए। यह भी चिंतन करना चाहिए कि सबकुछ ऊँ से ही उत्पन्न हुआ है; और इसमें ही विलीन हो जायेगा। यह वेदों का सार है। इस प्रकार जब प्रतीक आंखों में समा जाय और आँखों से पानी गिरने लगे तो आँखें बन्द कर लेनी चाहिए; और निरन्तर ऊँ को संसार का प्रारम्भ, मध्य एवं अन्त मानकर उसी के बारे में चिंतन करना चाहिए। ध्यान के बीच में अनेकानेक विचार भी बाधा डालेंगे; उनमें से किसी भी विचार पर स्थिर नहीं होना चाहिए। एक के उपरान्त दूसरा, तीसरा और अन्यान्य विचारों को छोड़ते चले जाना चाहिए। निरन्तर ऊँ पर ही ध्यान को एकाग्र करने का प्रयास करना चाहिए। किसी भी प्रकार का तनाव या नकारात्मक भाव मन में नहीं आना चाहिए।

6. निरन्तर ध्यान करते हुए बीच-बीच में विभिन्न विचार उपस्थित होने के उपरान्त जब कुछ ध्यान में स्थिर होने लगते हैं तो साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि उसका शरीर ऊपर उठ रहा है। यह उसका सूक्ष्म शरीर होता है। ऐसा होने पर स्थिति से विमुख न हों तथा निरन्तर जितनी देर हो सके ध्यान में स्थिर रहना चाहिए। जब उठना हो तो हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए फिर उन्हें बन्द पलकों पर रख देना चाहिए। इसके पश्चात् हाथों को नीचे लाते हुए धीरे-धीरे आँखें खोलनी चाहिए। कुछ देर शान्त होकर बैठना चाहिए।

7. अन्त में धीरे से ध्यानात्मक आसन छोड़ते हुए कुछ देर शवासन करना चाहिए।

विशेष-योग विभिन्न धर्मों की परिधि से ऊपर है; यह समस्त मानव जाति के हित के लिए है। इसलिए इसमें धार्मिक विद्वेष नहीं होना चाहिए। मात्र स्वास्थ्य लाभ हेतु भी ध्यान किया जा सकता है और स्वस्थ रहना मानव का प्रथम धर्म है; क्योंकि स्वस्थ रहकर ही वह समस्त कत्र्तव्यों का निर्वहन कर सकता है। विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों की परिधि से ऊपर उठकर यदि कोई अपनी रुचि के अनुसार प्रतीक लेना चाहे तो ईसा, गुरुग्रन्थ साहिब, गुरु, कुरान अथवा अपनी श्रद्धानुसार कोई भी प्रतीक ले सकता है। यदि ध्यान आध्यात्मिक उद्देश्य हेतु भी किया जा रहा हो तब भी आध्यात्मिक लक्ष्य और आध्यात्मिक विश्वास भी धर्म एवं सम्प्रदाय की परिधि से ऊपर है। आध्यात्मिक लक्ष्य किसी भी ईश्वर विशेष अथवा परमसत्ता विशेष की बात नहीं करता; अपितु सामान्य रूप से सभी व्यक्तियों के कल्याण हेतु मात्र एक ही सत्ता की बात करता है; उसे व्यक्ति किसी भी संज्ञा से विभूषित कर सकता है। अथवा अपनी सुविधा के अनुसार उसके लिए परमेश्वर, भगवान्, अल्लाह, गॉड, वाहेगुरु या किसी भी दैविक सत्ता के नाम से पुकार सकते हैं। सार यह है कि परमतत्त्व या परमसत्ता एक ही है; उसी का ध्यान करना आवश्यक है। यह ध्यान स्थूल जगत् से परे जाकर सूक्ष्म ध्यान में हो पाता है; किन्तु प्रारम्भिक अवस्था स्थूल ध्यान से ही प्रारम्भ करना होता है।

सगुण ध्यान के उपरान्त स्थूल ध्यान को समझना चाहिए। स्थूल ध्यान को घेरण्ड मुनि द्वारा निर्देशित किया गया है। घेरण्ड संहिता के आधार पर इसकी विधि इस प्रकार समझी जा सकती है।

स्थूल ध्यान-ध्यान की इस विधि में हृद्य या अनाहत चक्र पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है।

1. ध्यान कक्ष अथवा ध्यान स्थान में किसी ध्यानात्मक आसन में बैठें; अगरबत्ती आदि से स्थान को सुगन्धित कर लेना चाहिए।

2. अपना चेहरा तनावरहित, मन शान्त, शरीर को बिना किसी खिंचाव आदि के आसन में स्थिर करके; आँखें बन्द कर लेनी चाहिए।

3. ज्ञानमुद्रा या उँगलियों के अग्रभाग मिले रहने वाली स्थिति में हाथों कों रखें।

4. अपने हृदयस्थान में ऐसी कल्पना करनी चाहिए कि वहाँ पर अमृत का एक सागर है। सागर के बीचों बीच एक द्वीप है; जो रत्नों से भरा हुआ है; वहाँ पर उपस्थित बालू भी रत्नों के चूर्ण से निर्मित है। यह द्वीप फलों के वृक्षों एवं सुगन्धित पुष्पों जैसे-कमल, चम्पा, चमेली, गेंदा, मालती एवं गुलाबों से सुवासित है। द्वीप के प्रत्येक कोने में इन फूलों की सुगन्ध फैल रही है। कोयल की आवाज़ गूँज रही है। फूलों पर भौंरे मँडरा रहे हैं।

5. द्वीप पर एक चबूतरा है; जिसमें व्यक्ति को अपने इष्टदेव के बैठे होने की कल्पना करनी चाहिए।

6. प्रथम अध्याय में हम व्यक्तित्व की चक्र सम्बन्धी अवधारणा को प्रस्तुत कर चुके हैं। इन चक्रांे पर ध्यान करने के महान फल होते हैं। योगशास्त्र मानता है कि हृद्य प्रदेश में अनाहत चक्र है; वहाँ पर ध्यान करते हुए सागर की कल्पना की जाती है। सागर और उसमें विराजमान विष्णु भगवान का ध्यान किया जाता है। अर्थात् सभी प्राणियों के उत्पत्ति के आदि कारण एवं असीम तत्त्व का चिंतन किया जाता है। अनाहत चक्र से अनाहत नाद की उत्पत्ति कही गई है। अनाहत नाद ऊँ की ध्वनि के रूप में सुना जाता है। यह स्थान अत्यंत पवित्र है। अनाहत चक्र का ध्यान करना चाहिए। इस चक्र में कल्पवृक्ष का ध्यान करना चाहिए। कल्पवृक्ष की चार शाखाओं के रूप में चार वेदों की कल्पना करते हुए ध्यान करना चाहिए।

7. अनाहत चक्र के उपरान्त सहस्त्रार चक्र पर ध्यान करना चाहिए। यहाँ पर अपने गुरु के स्थूल रूप का ध्यान करना चाहिए। सहस्त्रार चक्र में महापद्म अर्थात् एक हज़ार पंखुड़ियों वाला कमल है। ध्यान करते हुए मानना चाहिए कि यहाँ पर एक त्रिभुज के मध्य में प्रणव या ऊँ अंकित है। वहाँ मध्य में हंस के एक जोड़े की कल्पना भी करनी चाहिए। ये हंस प्रकाश एवं ध्वनि के प्रतीक हैं। इस पद्म में अपने गुरु के विराजमान होने की कल्पना करनी चाहिए; जिनके तीन नेत्र तथा दो हाथ हैं। उन्होंने श्वेत वस्त्र और श्वेत माला धारण की है।

8. जिस ध्यान की यहाँ चर्चा की जा रही है; उसका सम्बन्ध मन और उसकी विभिन्न अवस्थाओं से है। ध्यान का अभ्यास आन्तरिक शान्ति और उच्च अनुभवों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। स्वयं को देखने और अनुभव करने के लिए किया जाता है। ध्यान एक विज्ञान, एक मनोविज्ञान और एक आत्मविज्ञान है।

9. घेरण्ड जी ने मात्र परिणाम को समझाने के लिए इस ध्यान का वर्णन किया है; अनुभव एवं प्रक्रिया व्यक्ति को स्वयं ही समझने और करने हैं; क्योंकि ध्यान अनुभूति का विषय है; वर्णन का नहीं। फिर भी प्रारम्भिक अवस्था में प्रतीकों की आवश्यकता होती है; इसलिए ऐसे प्रतीकों का प्रयोग करना वांछनीय है। स्थूल ध्यान के पश्चात् ज्योति ध्यान है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है।

ज्योति ध्यान-योगशास्त्र के अनुसार मूलाधार में सांप के आकार की कुण्डलिनी है। यहाँ दीपक के लौ के रूप में आत्मा का निवास माना गया है। परब्रह्म परमेश्वर का ध्यान यहाँ ज्योति के रूप में किया जाता है; इसलिए इसे ज्योतिध्यान कहा जाता है। इसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

1. ध्यान कक्ष में प्रवेश करें; ध्यानात्मक आसन में बैठें; ज्ञानमुद्रा आदि सभी स्थितियों कें साथ को शान्त करते हुए; त्राटक करें। त्राटक करते हुए; ऐसी कल्पना करनी चाहिए कि दीपक या मोमबत्ती की लौ हमारे शरीर के भीतर मूलाधार चक्र में है।

2. त्राटक करते हुए जब आँखों से आँसू गिरने लगें तो देखी गई दीपक या मोमबत्ती की लौ की कल्पना मूलाधार क्षेत्र में करनी चाहिए। इस प्रकार यह मानना चाहिए कि यहाँ पर उपस्थित कुंडलिनी इस ज्योति के प्रकाश से प्रकाशित होकर जागृत हो रही है।

3. ऐसा अनुभव करना चाहिए कि यहाँ एक प्रकाशपुंज है जिससे चारों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। यहाँ पर स्पन्दन (तरंगों) को भी अनुभव करना चाहिए।

4. ऐसा अनुभव करना चाहिए कि यहाँ से प्रकाशपुंज तथा तरंगे हमारे सम्पूर्ण शरीर को प्रकाशित एवं तरंगित करते हुए आज्ञाचक्र तक जा रहे हैं। हमारे भीतर ऊँ की ध्वनि गूंज रही है। इस प्रकार इस अनुभव में स्थिर होना चाहिए।

स्थूल एवं ज्योति दोनों ही ध्यान की प्राथमिक अवस्थाएँ हैं; इसके उपरान्त ध्यान की उच्चावस्था है-सूक्ष्म ध्यान। यद्यपि इसका वर्णन करना उचित नहीं क्योंकि यह अवर्णनीय है; तथापि घेरण्ड मुनि ने जो वर्णन किया है; उनके अनुसार कुछ सूत्र इस प्रकार हैं-

1. ज्योति ध्यान में स्थित होने के उपरान्त जब कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार से उठकर आज्ञा चक्र तक पहुँचती है; तो आज्ञा चक्र में स्थित आत्मतत्त्व के साथ संयुक्त होकर नेत्र-रन्ध्र से निकलकर मस्तिष्क के आस-पास राजमार्ग में विचरण करती है।

2. अभ्यासी को इस समय आँखें खोलकर निरन्तर शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए; शांभवी मुद्रा में दोनों पुतलियों को भीतर की ओर घुमाकर भौंहों के बीच में देखने का प्रयास किया जाता है। जिससे राजमार्ग में विचरण करने वाली संयुक्त चेतना अर्थात् आत्मतत्त्व का साक्षात्कार होता है।

3. ध्यान अवर्णनीय है; इसकी अनुभूति द्वारा ही इसे समझा जा सकता है। इसलिए ध्यान को करते हुए इसे अनुभव करना चाहिए।

ध्यान को मात्र कल्पनाओं का जगत् नहीं कहा जा सकता है। ध्यान के अपने सुदृढ़ वैज्ञानिक आधार हैं। शारीरिक क्रियाओं को आधुनिक मशीनों के द्वारा मापकर ध्यान के सकारात्मक प्रभाव सिद्ध किये गए हैं। ध्यान के द्वारा शरीर एवं मन पर व्यापक प्रभाव पड़ते हैं; जिन्हें निरन्तर पाश्चात्य जगत् द्वारा भी स्वीकार किया गया है। निरन्तर योग ध्यान विधाओं को अपनाया भी जा रहा है। प्रतिवर्ष अनेक विदेशी योगध्यान सीखने व इसका अभ्यास करने भारत के उत्तराखण्ड में स्थित ऋषिकेश, केदारनाथ, बदरीनाथ, जोशीमठ, उत्तरकाशी, गंगोत्तरी एवं यमुनोत्तरी आदि स्थानों पर आते रहते हैं। इसलिए ध्यान के लाभ वैज्ञानिक मापदण्डों पर भी खरे उतरते हैं। इसको संक्षेप में निम्नांकित विवेचन से समझा जा सकता है।

ध्यान अभ्यास में निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण

आधुनिक युग प्रतिस्पर्धा का युग है; अत्यधिक मानसिक श्रम एवं व्यर्थ की दौड़भाग द्वारा मानव असीम भौतिक संसाधन एकत्र करना चाहता है। प्रश्न यह उठता है कि जब व्यक्ति स्वस्थ ही नहीं रहेगा तो इन भौतिक संसाधनों का क्या औचित्य होगा। इसलिए सर्वप्रथम ध्येय होना चाहिए; व्यक्ति का स्वयं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रखना। इसके लिए ध्यान अत्यंत उपयोगी अभ्यास है। इसमें कुछ वैज्ञानिक तथ्य उल्लेखनीय हैं; जो निम्नांकित हैं।

ध्यान करने से श्वसन मंद होता है; ऐसा होने पर हृद्य, फेफड़ों एवं रक्त-परिसंचरण की गति धीमी हो जाती है। उपापचय दर न्यून स्तर पर पहुँचती है; ऐसा होने से शरीर का सम्पूर्ण शिथिलीकरण होता है। शरीर और मन एक दूसरे को पूर्णरूप से प्रभावित करते हैं। शरीर के एक-एक क्रिया-कलाप का मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है तथा मन के विचारों से शरीर की प्रत्येक गतिविधि प्रभावित होती है। ध्यान में सम्पूर्ण शारीरिक विश्रान्ति के कारण मन भी पूर्णतः शान्त हो जाता है। ऐसा होने से मानसिक तनाव, चिड़चिड़ापन, क्रोध, चिंता तथा उत्तेजनाएँ आदि समाप्त हो जाती हैं; जिससे शरीर में उपस्थित अन्तःस्रावी ग्रन्थियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इन ग्रन्थियों से स्रावित रसों में एक नियमन एवं संतुलन स्थापित होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। ऐसा होने से व्यक्ति समग्र स्वस्थता को प्राप्त कर पाता है। इसे ध्यान द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों को जानकर ही समझा जा सकता है। ध्यान से प्राप्त होने वाले लाभ निम्न विवेचन से स्पष्ट हो सकेंगे।

ध्यान से प्राप्त होने वाले लाभ

शारीरिक लाभ

1. रक्त परिसंचरण सामान्य होने से उच्चरक्त चाप आदि नियन्त्रित होते हैं। सिरदर्द तथा नसों का खिंचाव आदि दूर होते हैं।

2. श्वसन धीमा होने से श्वसनांगों को एक विशेष शिथिलीकरण प्राप्त होता है।

3. ऑक्सीजन उपयोग, प्लाज्मा, लैक्टेट स्तर तथा कॉडियक आउटपुट आदि में कमी आती है; जिससे शारीरिक विश्राम मिलता है।

4. ध्यानात्मक आसनों से प्राप्त होने वाले समस्त शारीरिक लाभ प्राप्त होते हैं।

5. नाड़ियों, इन्द्रियों एवं समस्त शरीर पर इसका शामक प्रभाव होता है; व्यर्थ की उत्तेजनाएँ शान्त होती हैं।

6. अन्तःस्रावी तन्त्र से होने वाले स्रावों में नियमन एवं संतुलन होता है; जिससे समस्त शरीर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। महिलाओं में होने वाली मासिक धर्म सम्बन्धी समस्याओं में भी लाभ प्राप्त होते हैं।

7. मस्तिष्क के शान्त होने से आस-पास उपस्थित ग्रन्थियों से विशेष स्राव होते हैं; जिससे शरीर स्वस्थ होता है।

8. शरीर में अनेक जैविक एवं मानसिक परिवर्तन होने से व्यक्ति का सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ होता है। वह सक्षम बनता है।

9. रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

मानसिक लाभ

1. मन के शान्त होने से तनाव, अवसाद, दुष्चिंता एवं चित्तोद्वेग समाप्त होते हैं।

2. नकारात्मक विचारधारा, निराशा, ईष्र्या, द्वेष, क्रोध एवं हिंसा आदि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ दूर होती हैं; जिससे असीम मानसिक शान्ति प्राप्त होती है।

3. बौद्धिक क्षमता एवं स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है।

4. सीखने और ज्ञानार्जन की क्षमता में वृद्धि होती है।

5. मानसिक उद्वेग शान्त होते हैं तथा मन स्थिर हो जाता।

आध्यात्मिक लाभ

1. समाधि की अवस्था प्राप्त होती है।

2. ध्यान से पीड़ा, क्लेश और दुःखों का नाश होता है।

3. कुण्डलिनी जागरण होकर कैवल्य प्राप्ति का पथ प्रशस्त होता है।

ध्यान का अग्रिम चरण: समाधि

व्यक्ति हमेशा धन तथा भौतिक संसाधनों की दौड़-भाग में व्यस्त रहता है; कितनी भी संपदा के पश्चात् व्यक्ति को शान्ति नहीं मिलती है। फिर शान्ति का उपाय बाहर कैसे हो सकता है। शान्ति का उपाय अपने भीतर ही है। इसलिए ध्यान आदि के द्वारा इस शान्ति को खोजने के उपाय है।

ध्यान मेंआत्म-विश्लेषण द्वारा व्यक्ति अपने गुण-दोषों आदि का विवेचन करके आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ता है। समाधि को परिभाषित करना या इसकी अवस्थाओं का वर्णन करना अत्यंत कठिन कार्य है। यह मात्र अनुभूति का विषय है। ध्यान की अवस्था को तो फिर भी कुछ सीमा तक बताया जा सकता है; किन्तु समाधि अवर्णनीय है। इसलिए ध्यान का अभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिए। समाधि सिद्ध होना निश्चित है। संक्षेप में यह कहना चाहिए कि समाधि एक ऐसी स्थिति है; जहाँ पहुँचने के पश्चात् राग-द्वेष, सुख-दुःख, लोभ-मोह तथा छल-कपट आदि समाप्त हो जाते हैं। अज्ञान के कारण होने वाले इन सब भावों को दूर करके समाधि व्यक्ति को उसकी वास्तविक चेतना से जोड़ती है। इसी कारण अभ्यासों के इस विज्ञान को योग के नाम से जाना जाता है; क्योंकि व्यक्ति इसके अभ्यास द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप या जगत् में व्याप्त विराट चेतना से जुड़ता है। इस प्रकार ध्यान के अनेक लाभों को ध्यान में रखते हुए इसे नित्य प्रति की जीवनचर्या में अपनाना चाहिए।

इस पुस्तक में समाधि का विवेचन हम नहीं करेंगे; इसके दो कारण हैं-पहला समाधि भावात्मक अधिक है; क्रियात्मक कम है। दूसरा कारण यह कि समाधि एक स्थिति है और अनुभूति का विषय है। साधकों को चाहिए कि यम एवं नियम के नैतिक मापदण्डों को अपनाते हुए षट्कर्म, आसन, प्राणायाम तथा ध्यान का अभ्यास निरंतर करे। यदि वह इन अभ्यासों में पारंगत हो जाय और दीर्घावधि तक अभ्यास के उपरांत वैराग्य को विकसित कर ले तो समाधि की अनुभूति अवश्य हो सकती है। वैराग्य का अर्थ कर्म से पीछे हटना कदापि नहीं है; अपितु अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करते हुए; कर्म को मात्र कर्मभाव से करना और फल की चिन्ता न करना भी वैराग्यभाव ही है। वैराग्यभाव व्यक्ति को दुःखों से निवृत्त करता है और यही योगदर्शन का व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य है। -0-