अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा / अरुण होता

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साहित्यकार कालजयी होता है। उसे युग-प्रवर्तक भी कहा जाता है, क्योंकि उसकी रचना किसी भी सीमित दायरे में बंध कर नहीं रहती, वह शाश्वत व चिरंतन हो जाती है। जब साहित्यकार अपने युग-जीवन के साथ निष्ठापूर्वक जुड़ता है, तो वह सच्चे अर्थ में मानव-जीवन का रचयिता होता है, तभी वह युग-युग तक मानव-जाति के लिए अनजाने में संदेश देता रहता है। इसी प्रकार महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ भी हमें इसी रूप में संदेश प्रदान करती हैं। 'युद्धंदेहि' के वातावरण में प्रेम का मूलस्वर सुनाती हैं।

सांप्रदायिकता की भयावहता हृदय में अनुभव करता हुआ आज का मानव स्वयं अपनी अक्षमता, असामर्थ्य और अपारगता महसूस करता है। भौतिकवादी समाज में वह अत्यधिक जर्जरित एवं कुण्ठित हो जाता है। मानव-जीवन में निस्संगता और विच्छिन्नता दिखाई पड़ती है। कंप्यूटर-युग का आत्मकेंद्रित मानव भौतिक जीवन के पीछे दिन-रात भागता फिरता है, जिससे वह अपने जीवन के अत्यंत भयावह संकट का कारण बन गया है। वह अहरह अपने स्वार्थ-साधन को ही प्राथमिकता देता है। अपनी संपत्ति, प्रतिपत्ति, सुख, वैभव इत्यादि की उन्नति में सतत प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार मनुष्य दुख पारावार की ओर दौड़ लगा रहा है। वह यंत्रणा से दग्धीभूत है। लेकिन उसकी ओर करुणाभरी दृष्टि से देखने वाला कोई नहीं है। वह अकेला, संगहीन और हतभाग्य महसूस करता है। ऐसे पराजयोन्मुखी मनुष्य से देश-सेवा की क्या अपेक्षा की जा सकती है? भयानक विच्छिन्नताबोध और संदेह की स्थिति में व्यक्ति अपने आप से भी प्रेम नहीं करता है, तो देश से प्रेम कैसे करे? ऐसी स्थिति में प्रसाद-साहित्य में व्यक्त देश-प्रेम और उसकी प्रासंगिकता विचारणीय हो जाती है।

प्रसाद जी का रचनाकाल सन 1905 ई. से सन 1937 ई. तक व्याप्त है। वास्तव में ये वर्ष भारतीय जनता के राष्ट्रीय, सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ से संबंधित हैं। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पवित्र गंगा, देश की प्रत्येक दिशा में प्रवाहित हो रही थी, जिसका पवित्र जल प्रसाद के अंतःस्थल तक पहुँचा। अंग्रेजों ने न केवल भारतीयों पर अपना शासन लागू किया, अपितु भारतीयों के इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा का अवमूल्यन करने का भी प्रयत्न किया। ऐसी स्थिति में नवउत्साह, नवीन प्रेरणा और नई ऊर्जा प्रदान करने के लिए प्रसाद जी ने अपने साहित्य-सृजन के द्वारा प्राचीन भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम काल को जीवित करने का प्रयत्न किया। इतिहास की गौरवमंडित कथाओं को चुनकर प्रसाद जी ने इतिहास और संस्कृति का सुभग समन्वय किया। इससे तत्कालीन जन-जीवन में जहाँ एक ओर नव-प्राण का संचार हुआ, वहाँ दूसरी ओर राष्ट्रीय भावना का स्रोत भी प्रवाहित हुआ। देश के स्वतंत्रता-आंदोलन में सहभागी बनकर लड़ना सम्मान और गौरव का विषय माना गया।

1912 ई. में लिखित प्रसाद के नाटक 'कल्याणी परिणय' में भारत की जयध्वनि सुनाई पड़ती है। सिंधु-तट पर समवेत चंद्रगुप्त की सेना गाती है -

जय-जय-जय आदि-भूमि, जय-जय-जय भारत-भूमि।

जय-जय-जय जन्म-भूमि, अपने सम प्यारी।।

हिम गिरि सम धीर रहे, सिंधु सम गंभीर रहे

जननी व्रतधारी।।

'प्रायश्चित' (ई. 1914) में राजपूत इतिहास के विरुद्ध मुहम्मद गोरी की सहायता करने वाले देशद्रोही जयचंद के प्रायश्चित की कथा है। आज भारत की एकता एवं अखंडता को खतरे में डालने वाले देश-द्रोहियों को भी जयचंद की नाईं वक्त रहते प्रायश्चित करने की आवश्यकता है।

'अजातशत्रु' (ई. 1922) प्रसाद जी का एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटक है। इसमें नाटककार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि नाटक के छोटे से पात्र के चरित्र में भी देश-प्रेम की भावना पाई जाती है। गौतम बुद्ध के प्रतिद्वंद्वी देवदत्त और उनके शिष्य समुद्रदत्त की छल-कपट पूर्ण बातें मगध का राजवैद्य जीवक सुन लेता है और उनका विरोध करते हुए कहता है - 'संघ भेद करके आपने नियम तोड़ा है, उसी तरह राष्ट्र-भेद करके क्या देश का नाश कराना चाहते हैं।'1 आज के संदर्भ में देश के विघटनकारी तत्वों को सामान्य राज-सेवक जीवक कितना बड़ा संदेश देता है। आगे चलकर देवदत्त की धमकी के बावजूद उसकी साहसिकता तथा देशभक्ति अविचलित रहती है। वह कहता है - 'मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ कि जो बात मुझसे कहनी है, उसे मैं दूसरों से कहूँ। मैं भी राजकुल का प्राचीन सेवक हूँ। तुम लोगों की यह कूट-मंत्रणा अच्छी तरह समझ रहा हूँ।'2 मगध की प्रजा के लिए राष्ट्र ही सर्वोपरि है। यदि ऐसी भावना हम सबमें आ जाए, तो देश की एकता शायद ही संकट में पड़े। राष्ट्र के कल्याण हेतु समस्त मगधवासी प्राण तक विसर्जन करने के लिए वचनबद्ध हैं - 'राष्ट्र के कल्याण के लिए प्राण तक विसर्जन किया जा सकता है, और हम सब ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं।'3

'जनमेजय का नागयज्ञ' (1926ई. ) में प्रसाद जी ने मनसा एवं उसकी दो सखियों से राष्ट्रगीत प्रस्तुत करवाया है। देश-प्रेम के प्रवाह में वे इस प्रकार बहती हैं कि सुप्त जनता को जागरण का संदेश पहुँचाती हैं। जनमेजय तथा अन्य पात्रों के माध्यम से लेखक ने आर्य-भूमि तथा आर्य-जाति के लिए अभिमान की भावना जगाई है, जिससे आज के हताश, उदास, दुखी, क्लांत भारतीय नवउत्साह एवं नई प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।

प्रसाद की बहुचर्चित नाट्यकृति 'स्कंदगुप्त' (1928 ई.) में मातृगुप्त भारत के दिव्य भव्य अतीत का गीत गाता है। वह भारतीय सेना में अपूर्व साहस एवं उत्साह भर देता है, जिसमें देश के लिए समर्पित हो जाने की भावना पाई जाती है -

'जिएँ तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष

निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।।'4

उपर्युक्त नाटक में हूण आक्रमणकारी खिंगिल को युद्ध-क्षेत्र में पराजित करने के उद्देश्य से नाट्य-नायक स्कंदगुप्त भटार्क से कहता है - 'आज इस रणभूमि में पुरगुप्त को युवराज बनाता हूँ। देखना, मेरे बाद जन्म-भूमि की दुर्दशा न हो।'5 प्रस्तुत कृति में निष्प्रभ, निस्तेज, निस्सहाय स्कंदगुप्त से कमला जो उद्बोधन देती है, आज के लिए वह कितना प्रासंगिक प्रतीत होता है - 'उठो स्कंद। आसुरी वृत्तियों का नाश करो। सोने वालों को जगाओ और रोने वालों को हँसाओ। आर्यावर्त तुम्हारे साथ होगा और उस आर्य-पताका के नीचे समग्र विश्व होगा।'6 नाटककार ने स्कंदगुप्त के माध्यम से यह कहा है कि जननी और जन्म-भूमि की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले सपूतों का ऋण देशवासी कभी भी नहीं चुका सकते। हूणों के पराजयोपरांत स्कंदगुप्त का देवसेना से कथन उल्लेखनीय है - 'जननी-जन्मभूमि का उद्धार करने की जिस वीर की दृढ़ प्रतिज्ञा थी, जिसका ऋण कभी प्रतिशोध नहीं किया जा सकता, उसी वीर बंधुवर्मा की भगिनी मालवेश कुमारी देवसेना की क्या आज्ञा हैं?'7

'चंद्रगुप्त' (1931 ई.) प्रसाद जी की अद्वितीय नाट्यकृति है। प्रसाद जी के पूर्व इस ऐतिहासिक वीर पुरुष पर अनेक कृतियों की रचना हो चुकी थीं। परंतु नाटककार ने एक नवीन दृष्टिकोण अपनाते हुए चंद्रगुप्त को आधुनिकता प्रदान की।8 प्रस्तुत नाटक में सिंधु नदी के तट ग्रीक शिविर में कार्नेलिया के गीत द्वारा प्रसाद ने देश-प्रेम से परिपूर्ण भावना प्रदर्शित की है, जो आज के साहित्यकारों एवं देशवासियों हेतु अनुकरणीय प्रतीत होती है -

'अरुण यह मधुमय देश हमारा

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर

छिटका जीवन हरियाली पर मंगल-कुंकुम सारा।।'9

'चंद्रगुप्त' की अलका-तक्षशिला की राजकुमारी राष्ट्र-सेविका है। वह भारतीय नारी की प्रतीक है, जो देश के लिए आत्मोत्सर्ग करने हेतु तत्पर रहती है। जब यवन आक्रामक सिल्यूकस की विशाल सेना भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य से पश्चिमोत्तर सीमा पर पड़ाव डालती है, तो राजकुमारी अलका अपने देश के सैनिकों में उत्साहवर्द्धन तथा कर्तव्यबोध का भाव भरने के लिए और उत्साह भरे गीतों से न केवल अपने सैनिकों में प्राण फूँकती है, अपितु वह राष्ट्र में भी प्राण फूँकती है -

'हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयं प्रभा समुज्ज्वला

स्वतंत्रता पुकारती -

अराति सैन्य सिंधु में -

सुवाडवाग्नि से जलो

प्रवीर हो जयी बनो -

बढ़े चलो, बढ़े चलो।।'10

आज संपूर्ण देश में जातिवाद, प्रांतीयतावाद आदि से अनेकानेक समस्याएँ पनप रही हैं। इस संदर्भ में 'चंद्रगुप्त' का अधोलिखित उद्धरण हमें अब भी नव-संदेश प्रदान करने में समर्थ है - 'मेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है। यही क्या, समग्र आर्यावर्त है।'11 इससे प्रसाद जी राष्ट्र की अनिवार्यता को ही व्यंजित करते हैं।'

प्रसाद जी ने नारी पात्रों के माध्यम से राष्ट्रीय-भावना को आर्य-संस्कृति की ठोस जमीन पर प्रस्तुत किया है। इस राष्ट्रीय-भावना के अंतर्गत एकता, त्याग और आत्मोत्सर्ग की भावना पाई जाती है। प्रसाद जी की कमला, रामा, जयमाला और अलका स्वेदशानुरागिनी नारियाँ हैं। अलका, मल्लिका जैसी नारियाँ आज के परिप्रेक्ष्य में पथ-भ्रष्ट युवकों तथा व्यक्तियों को अपनी कोमल एवं मधुर वाणी से सन्मार्ग पर अवतरित कर सकती है। आज नारी विभिन्न सामाजिक समस्याओं का शिकार बनती है। वह अपनी अस्मिता के लिए संघर्षशील है, फिर भी स्वार्थलोलुप समाज में कहीं उसे भोग्या मात्र माना गया है, तो कहीं उसका जीवन दग्ध होता है। अपनी शोचनीय दशा से उद्धार पाने हेतु रामगुप्त के प्रति ध्रुवस्वामिनी के कथन से नारी प्रेरणा प्राप्त कर सकती है - 'नहीं। मैं अपनी रक्षा स्वयं करूँगी। मैं उपहार में देने की वस्तु शीतलमणि नहीं हूँ। मुझमें रक्त की लालिमा है। मेरा हृदय उष्ण है और उसमें आत्मसम्मान की ज्योति है। उसकी रक्षा मैं ही करूँगी।'12 संकटपूर्ण परिस्थितियों में भी नारी त्याग, एकता और आत्म-बलिदान की भावना से उत्प्रेरित होकर जन्मभूमि की रक्षा के लिए कटिबद्ध है।

आज धर्म के नाम पर गोलियाँ चलायी जा रही हैं, रक्त की गंगा बह रही है। वैमनस्य, अत्याचार और दंगा अटल एवं अचल रूप से विद्यमान हैं। प्रसाद-काव्य के वातावरण में भी इन आसुरी प्रवृत्तियों का प्राधान्य था। प्रसाद जी गहरे अनुभवी थे। अपने चारों ओर के वातावरण को उन्होंने अच्छे ढंग से पहचाना था। उन्होंने धर्म को नए संदर्भ में ग्रहण किया। इनके महान उदात्त पात्रों के लिए समग्र संसार में एक मात्र धर्म है - मानवधर्म। संपूर्ण विश्व को उन्होंने एकता के सूत्र मे बाँधने के लिए उपर्युक्त धर्म को ही अपनाया है। उपनिषदीय विचार से अनुप्राणित हो 'वसुधैव कुटुंबकम' को मूलमंत्र बनाया। 'अजातशत्रु' की मल्लिका प्रस्तुत कथन की सजीव मूर्ति है। आज के युग-संदर्भ में मल्लिका के कर्तव्य की प्रासंगिकता बनी हुई है। वह अपने वीर एवं साहसी पति सेनापति बंधुल के हत्यारे की सेवा करती है। प्रस्तुत नाटक में गौतम बुद्ध मानव मात्र की समानता पर बल देते हुए कहते हैं - 'राजन। क्यों दास-दासी मनुष्य नहीं हैं? क्या जीवन की वर्तमान स्थिति को देखकर प्राचीन अंधविश्वासों को, जो न जाने किस कारण होते आए हैं, तुम बदलने के लिए प्रस्तुत नहीं हो?'13

वर्तमान युग में परोपकार, सेवा, दया, करुणा मानो स्वप्नवत हो गए हैं। आज भी संसार में असंख्य दुखी जीव हैं, जिन्हें हमारी सेवा की जरूरत है। यदि हम महात्मा बुद्ध के निम्न उपदेश को व्यावहारिक जीवन में ला सकें तो देश की अनेक समस्याएँ सुलझ सकती हैं - 'इस दुख समुद्र में कूद पड़ो। यदि एक भी रोते हुए हृदय को तुमने हँसा दिया, तो सहस्रों स्वर्ग तुम्हारे अंदर विकसित होंगे, फिर तुमको परदुखकातरता में ही आनंद मिलेगा।'14

अगर आज भी स्वार्थांध, धार्मिक पाखंडी लोग प्रसाद के इन पात्रों के आदर्श को भली-भाँति पहचान लें, तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि समग्र भारत में धार्मिक लड़ाई, सांप्रदायिक समस्या, प्रांतीयता आदि निर्मूल हो जाएँगी।

प्रसाद जी के कथा-साहित्य में भी देश-प्रेम का स्वर सुनाई पड़ता है। इस दृष्टि से प्रसाद जी की पुरस्कार कहानी उल्लेखनीय है। प्रस्तुत कहानी की नायिका मधूलिका अपने जनपद कोशल की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु वैयक्तिक प्रेम की दिव्याहुति कर देती है। राजरानी बनने के प्रलोभन से भी उसका देश-प्रेम अडिग रहता है। 'गुंडा' एवं 'छोटा जादूगर' जैसी कहानियों में भी देश-प्रेम का स्वर ध्वनित होता है।

प्रसाद जी के काव्य 'लहर' (1933 ई.) की कुछ कविताओं में राष्ट्र-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। इस संदर्भ में 'शेरसिंह का शस्त्र समर्पण' एवं 'पेशोला की प्रतिध्वनि' आदि कविताओं के नाम उल्लेख है। 'शेरसिंह का शस्त्र समर्पण' कविता में राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र-बलिदान, युद्ध-क्षेत्र में मृत्यु को ही विजय मानना आदि विचारों से साहित्य स्रष्टा ने देशवासियों को राष्ट्रीयता के मूलमंत्र से अभिसिंचित किया है। पराजित दशा में कवि ने अपने प्राचीन, दिव्य-भव्य, उदात्त गौरव की ओर ध्यानाकर्षित किया है। उन्होंने युद्ध में उस रण-रंगिनी तलवार को जीवन संगिनी के रूप में प्रस्तुत किया है-

'अरी रण-रंगिनी।

सिक्खों के शौर्य भरे जीवन की संगिनी।

कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर।

दुर्मद दुरंत धर्म दस्युओं की त्रासिनी-

निकल, चली जा तू प्रतारणा के कर से।'15

'पेशोला की प्रतिध्वनि' में महाराणा प्रताप के अंतिम समय का दृश्य उपस्थित किया है। कविवर प्रसाद जी ने महाराणा प्रताप के माध्यम से भारतीय गौरव का ऐतिहासिक दस्तावेज प्रस्तुत किया है। शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान देशवासियों के सम्मुख रखकर उन्हें जगाने का प्रयास किया है। प्रताप के देश पर आज संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आज इस वीर-भूमि के चारों ओर स्तब्धता तथा शून्यता है। सर्वत्र संध्या के कलंक की कालिमा उतरी हुई है। पेशोला की उर्मियाँ शांत हैं। झोंपड़े विषाद के शिल्प से बने दग्ध अवसाद के सदृश खड़े हैं। प्रकृति भी शांत और उदास है। कवि प्रश्न करता है - अस्थि-माँस की दुर्बलता लेकर इस मेवाड़ में कौन ऐसा है, जो गर्वपूर्वक कह सके कि लोहे से ठोंक कर और वज्र से परख कर, पिशाचों की लीला को बिखेर कर, चूर-चूर कर देगा और उन्हें धूल सा उड़ा देगा। कवि पुनः प्रश्न करता है -

'आह, इस खेवा की।

कौन थामता है पतवार ऐसे अंधड़ में

अंधकार पारावार गहन नियति सा

उमड़ रहा है ज्योति रेखा हीन क्षुब्ध हो।'16

आज के समस्या-जर्जरित भारत में महाकवि प्रसाद जी की उपर्युक्त पंक्तियाँ अत्यंत प्रासांगिक हैं, युगोपयोगी हैं।

प्रसाद जी ने जीवन के शाश्वत उपादानों को लेकर साहित्य का सृजन किया है। इसलिए उनकी कालजयी रचनाएँ युगों तक भारतीय जनता को मुक्ति मार्ग प्रदर्शित करती रहेंगी। वास्तव में, प्रसाद-साहित्य के अध्ययनोपरांत मन की निराशाजनक, समस्त भावनाएँ स्वतः दूर हो जाती हैं और जीवन उन्नति एवं उल्लास की नई दिशा में अग्रसर होने के लिए सततः प्रयत्नशील रहता है। प्रसाद जी का युगीन-संघर्ष तत्कालीन सीमा में मर्यादित नहीं था। अपितु आज के युगीन संघर्ष से भी जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय एकता, देश प्रेम आदि पर अधिकाधिक भाषण दिए गए हैं, पर इस संदर्भ में प्रसाद जी का साहित्य निराला है। उनकी रचनाएँ अप्रतिम हैं। प्रसाद-साहित्य की प्रासांगिकता थी, उसकी प्रासांगिकता है और भविष्य में भी रहेगी। प्रसाद-साहित्य के साथ मानसिक लगाव और साग्रह प्रस्तुत किए गए शताधिक शोध-प्रबंध एवं विचार-विमर्श उपर्युक्त कथन का द्योतक है।

संदर्भ

1. प्रसाद जयशंकर अजातशत्रु, प्रथम अंक, तृतीय दृश्य, पृ. 24

2. यथोपरि

3. यथोपरि, द्वितीय अंक, प्रथम दृश्य, पृ. 45

4. प्रसाद जयशंकर, स्कंदगुप्त, पंचम अंक, पंचम दृश्य, प. 133.

5. यथोपरि, पृ. 134

6. यथोपरि, चतुर्थ अंक, सप्तम दृश्य, पृ. 119

7. यथोपरि, पंचम अंक, षष्ठ दृश्य, पृ. 135

8. वाजपेयी नंददुलारे, आधुनिक हिंदी साहित्य, पृ. 119

9. प्रसाद जयशंकर, चंद्रगुप्त, द्वितीय अंक, प्रथम दृश्य, पृ. 81

10. प्रसाद जयशंकर, चतुर्थ अंक, छठा दृश्य, पृ. 157

11. प्रसाद जयशंकर, चंद्रगुप्त, तृतीय अंक, अष्टम दृश्य, पृ. 73

12. प्रसाद जयशंकर ध्रुवस्वामिनी, प्रथम अंक, पृ. 19

13. प्रसाद जयशंकर, अजातशत्रु, तृतीय अंक, पंचम दृश्य, पृ. 87

14. यथोपरि, सप्तम दृश्य, पृ. 91

15. प्रसाद जयशंकर, लहर, प्रसाद का संपूर्ण काव्य, पृ. 375

16. प्रसाद जयशंकर, लहर, प्रसाद का संपूर्ण काव्य, पृ. 380